‘मा नो दु:शंस ईशत’’। (ऋग्वेद 9.23.9)
‘‘ ईशे ह्यग्नि:अमृतस्य’’। (ऋग्वेद 7.4.6)
‘‘ ईशे यो विश्वस्यादेववीते:’’। (ऋग्वेद 10.6.3)
ऋग्वेद के पुरुष सूक्त में ईश्वर विश्वरूप है-
सहस्रशीर्षा पुरुष: सहस्राक्ष: सहस्रापात्।
स भूमि: विश्वतो वृत्वाSत्पतिष्ठत् दशाड़गुलम। (ऋग्वेद 10.90)
ईश्वर एक-नाम अनेक
ईश्वर एक है किन्तु उसके नाम अनेक हैं। ऋग्वेद में वर्णित अनेक देव शक्तियाँ एक ही ईश्वर के पर्याय है।
इन्द्रं मित्रं वरूणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुंपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद्विप्रा वहुधा वदन्त्याग्निं यमं मातरिश्वानमाहु:।।
कठोपनिषद के ऋषि ने परमेश्वर को ब्रहम के रूप में अणु से भी अणु (यानी सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म) और महान से भी महान बताया, जिसे प्राप्त करके मनुष्य को अमृतत्व की प्राप्ति हो जाती है।
अणोरणीयन्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्म-हिमानमात्मान:।। (कठो0 1.2.20)
इसलिए महर्षि पतंजलि ने मोक्ष प्राप्ति के साधनों में ईश्वर प्रणिधान का वर्णन किया है।
ईश्वर प्रणिधानाद्वा। (पातंजल योग सूत्र, समाधिपाद 1.23)
ईश्वर क्या है? इस सम्बन्ध में भाष्यकार व्यास का कथन है कि जो भोगों से रहित है वही ईश्वर है-
‘‘यो ह्यनेन भोगेना परामृष्ट: स पुरुष विशेष ईश्वर:’’।।
इसी प्रकार का उल्लेख भोजवृत्ति में भी प्राप्त होता है।
‘‘वासनाख्या: संस्कारास्तैरपरामृष्टस्त्रि“वपि।
कालेषु न संस्पृष्ट: पुरुष विशेष:।।’’
‘तस्माद्यत्र काष्ठाप्राप्तिरैश्वर्यस्य स ईश्वर इति।
वृत्रिकार भोज ने भी इच्छामात्र से सम्पूर्ण जगत की उत्पत्ति और प्रलय करने में समर्थ शक्ति को ईश्वर कहा है-
‘ईश्वर ईशनशील इच्छामात्रेण सकलजगदुद्धरणक्षम:’’
श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार ईश्वर इस सम्पूर्ण विश्व का स्वामी है। वह ही सृष्टि कर्ता, पालन कर्ता, और संहार कर्ता है। ईश्वर इस जगत का पिता, माता, धाता, पितामह, गति, भर्ता, प्रभु, साक्षी, निवास, शरण तथा सुहत् है। वही इसका उत्पत्ति स्थान, प्रलय स्थान, निधान तथा अविनाशी बीज है-
पिताSहमस्य जगतो माता धाता पितामह:।
गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शंरण सुहृत्।
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।। (गीता 9/17,18)
द्वाविमे पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च।
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोSक्षर उच्यते।।
यस्मात् क्षरमतीतोSहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोSस्मि लोकेवेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:।। (गीता 15/16,18)