अनुक्रम
निजीकरण की आवश्यकता मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के अकुशल होने के कारण अनुभव की गई। भारत सार्वजनिक क्षेत्र के अधिकतर उद्यम हानिवहन उठा रहे थे। इसका मुख्य कारण यह था कि सार्वजनिक क्षेत्र के प्रबन्धकों को निर्णय लेने की स्वतंत्राता बहुत कम होती है। इस क्षेत्र के उद्यमों से संबंधित अधिकतर निर्णय मिन्त्रायों द्वारा लिये जाते हैं जो निर्णय लेते समय अपने राजनीतिक हितों का अधिक ध्यान रखते हैं। इसके फलस्वरूप निर्णय लेने में अनावश्यक विलम्ब होता है। उत्पादन क्षमता का पूरा प्रयोग सम्भव नहीं होता है। प्रबन्धक पूरी जिम्मेदारी से कार्य नहीं करते इसलिए उत्पादकता कम हो जाती है। ये तत्व सार्वजनिक क्षेत्र को अकुशल बना रहे थे। निजीकरण के फलस्वरूप अर्थव्यवस्था की कुशलता में वृद्धि होगी, प्रतियोगिता बढेगी उत्पादन की गुणवता तथा विविधता में वृद्धि होगी। इसका उपभोगताओं को विशेष रूप से लाभ होगा।
निजीकरण के तर्क
जो लोग निजीकरण के पक्ष में तर्क देते हैं, उनका कहना है कि भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के ज्यादातर उद्यम घाटे में है; अकार्यकुशलता, जवाबदेही और स्वायतता की कमी में ग्रस्त है और वे काफी लम्बे समय में बीमार है सार्वजनिक उद्यम, उनमें जो आशा की गई थी उन समस्याओं का समाधान प्रस्तुत नहीं कर सके है। इसकी बजाय, वे स्वयं ही समस्या बन गए है। इस सब के परिणामस्वरूप की निजीकरण ही मांग उठी है, यह मांग इस विश्वास पर आधारित है कि शायद निजीकरण सार्वजनिक क्षेत्र को उसकी सब समस्याओं से छुटकारा दिला सकेगा।
निजीकरण के उपाय
विश्व के विभिन्न राष्ट्रों द्वारा अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था अथवा राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुकूल निजीकरण के विभिन्न उपाय अपनाये जाते हैं। इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है।
1. निजीकरण के स्वामित्व सम्बन्धी उपाय –
इन उपायों के अन्तर्गत सार्वजनिक उपक्रमों के स्वामित्व का हस्तान्तरण, पूर्णतया या आंशिक रूप में किया जाता हे। जितने अधिक सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का स्वामित्व हस्तान्तरण किसी व्यक्ति उद्यम या निगम क्षेत्र को किया जाता है। उतनी ही अधिक मात्रा में निजीकरण होगा। स्वामित्व हस्तांतरण संबंधी उपाय के निम्नलिखित रूप हो सकते हैं।
- पूर्ण अराष्ट्रीयकरण : इसके अन्तर्गत किसी सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम का स्वामित्व निजी क्षेत्र का शत प्रतिशत हस्तांतरण हो जाता है।
- साझा उद्यम : साझा उपक्रम का आशय सार्वजनिक उपक्रम के स्वामित्व का निजी क्षेत्र को आंशिक रूप से हस्तांतरण हैं यह हस्तांतरण अभिसीमा 25 से 50 प्रतिशत या इससे भी अधिक हो सकती हैं। वस्तुत: इस सीमा का निर्धारण उद्यम के स्वरूप तथा राजकीय नीति पर निर्भर करता है।
- परिसमायन : इसका आशय सार्वजनिक उपक्रमों की परिसम्पत्तियों का किसी अन्य को विक्रय करने से है। सम्पत्ति प्राप्त करने वाला जो इन सम्पत्तियों को उसी उद्देश्य के लिए था अन्य किसी उद्देश्य के लिए प्रयोग करने हेतु स्वतंत्रा होते हैं। सामान्यत: सम्पत्तियों के प्रयोग निर्यात क्रेता की प्राथमिकता पर निर्भर करता है।
- प्रबन्ध कार्य : यह सार्वजनिक उपक्रमों के परिसम्पत्तियों का विशेष रूप है। इसके अन्तर्गत कर्मचारियों की सम्पत्तियों का विक्रय कर दिया जाता है। सम्पत्तियों का क्रय करने के लिए बैंको इत्यादि से उचित ऋण प्रदान किये जाने की व्यवस्था रहती है। कर्मचारी उपक्रम की सम्पत्तियों का क्रय करके उपक्रम का संचालन करते हैं। उपक्रम को चलाने के लिए कर्मचारी सहकारी समिति के लाभांश में हिस्सेदार के हकदार बन जाते हैं।
2. निजीकरण के संगठनात्मक उपाय –
इन उपायों के अन्तर्गत सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से उन पर स्थापित राजकीय नियन्त्रण को शिथिल अथवा सीमित करने के लिये प्रयास किये जाते हैं। इन प्रयासों की क्रियान्वित निम्न रूपों से संभव है।
- नियंत्रक कंपनी : इसके अन्तर्गत एक ऐसे प्रबन्धकीय ढांचे का विकास किया जाता है। जिसके अन्तर्गत सरकार सार्वजनिक उपक्रमों के प्रबन्ध में अपना नियंत्राण हस्तक्षेप उच्च स्तर के निर्णयों तक सीमित कर देती है। इसके अतिरिक्त नियंत्राण कम्पनी ढांचे में कर रही कंपनियों को बाजार शक्तियों की परिसीमा निर्णय करने में स्वायत्ता रहती है।
- पटटे पर देना : इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम द्वारा उपक्रम प्रबन्ध स्वयं के हाथों में ही सुरक्षित रखते हुए उसका कार्य संचालन किसी निजी बोली लगाने वाले को निश्चित समय के लिए हस्तान्तरित कर दिया जाता है। इसके अंतर्गत कोई बोली लगाने वाला निश्चित अवधि के लिए उपक्रम का कार्यसंचालक बन जाता है। परन्तु उसे समझौते को अंतिम रूप देने से पूर्व राज्य सरकार को हलफनामा देना पड़ता है कि वह उपक्रम द्वारा जनित लाभ कि तभी मात्रा को हस्तांतरित करेंगे। इसके अतिरिक्त बोलीकर्त्ता को उन उपायों के संबंध से भी राज्य को आश्वस्त करना होगा। सरकार बोली लगाने वाले द्वारा यदि सरकारी प्रत्यक्ष को पूरा नहीं किया जाता अथवा समझौते का उल्लंघन किया जाता है। तो बोली को समाप्त करके उसे दूसरे बोलीकर्त्ता को देने का अधिकार होगा।
- पुनर्गठन : सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को बाजार अनुशासन के अन्तर्गत लाने के लिए यह आवश्यक है। कि इन उपक्रमों को पुनर्गठन किया जाये। सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को पुनर्गठन दो प्रकार से किया जाता है।
- वित्तीय पुनर्गठन : वित्तीय पुनर्गठन के अंतर्गत उपक्रम की हानि को समाप्त कर दिया जाता है और पूंजी संरचना को ऋण इक्विटी अनुपात के साथ युक्ति संगत बना दिया जाता है।
- बुनियादी पुनर्गठन : सार्वजनिक उपक्रमों के बुनियादी पुनर्गठन हेतु उनकी वाणिज्यिक क्रियाओं को पुन: परिभाषित किया जा सकता है। जो भविष्य में इस उद्यम द्वारा सम्पादित की जायेगी। इसके अंतर्गत कुछ इकाइयों का पुनर्गठन किया जाने से छोडा भी जा सकता है।
3. निजीकरण के कार्य संचालन संबंधी उपाय –
इन उपायों की क्रियान्वित का उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की कुशलता में वृद्धि करना यह उसी स्थिति में किया जाना संभव होता है। जब सार्वजनिक उपक्रमों का पूर्व में अराष्ट्रीयकरण कर दिया तो इसके अंतर्गत निर्णय संबंधी स्वायता कर्मचारियों के लिए प्रोत्साहन जिसके अंतर्गत कुशलता उत्पादकता की वृद्धि हो। कुछ इनपूट का उपक्रम में निर्माण करने की बजाय उन्हें बाजार में क्रय करना या ठेका प्रणाली द्वारा प्राप्त करना लाभ कर हो उचित निवेट कसौटियों को विकसित करना यह सभी उपाय सार्वजनिक उपक्रम सरकारी नियन्त्राण कम करने के उद्देश्य से अपनाये जाते हैं।
निजीकरण के उपयुक्त वर्णित उपाय का प्रमुख उद्देश्य यह है। कि निजीकरण का अर्थ केवल मात्रा स्वामित्व हस्तांतरण है। तो इस बात पर बल देना आवश्यक है कि सार्वजनिक का प्रबन्धकीय नियंत्रण निजी स्वामित्व सौंप दिया जाये चाहे ऐसा व्यक्ति के रूप में हो अथवा सहकारी समिति के रूप में दो निजीकरण सांकेतिक रूप में भी हो सकता है। जिसके अंतर्गत विनिवेश की प्रक्रिया को अपनाया जाता है।
विनिवेश निजीकरण की आवश्यकता
- निजीकरण के औचित्य के पक्ष में अत्यन्त बुनियादी तर्क में यह प्रस्तुत किया जाता है। निजी स्वामित्व संसाधनों के बेहतर उपयोग तथा उनके अधिक पक्ष आबंटन की दिशा में सदैव अग्रणी रहा। जब यह विस्तृत रूप से अनुभव किया जाने लगा कि राज्य आर्थिक व्यवस्था की मांग को पूरा करने में सक्षम नहीं है तथा राज्य की अंशभिगता कम होनी असंभव थी। जब विश्व भर में बाजार अर्थव्यवस्था अधिक मजबूत हुई है। अत: यह अवधारणा की राज्य स्वयं व्यापार करेगा तथा राज्य सरकार द्वारा नागरिकों के आर्थिक जीवन पर सीधा व पूर्ण नियंत्राण बाजार व्यवस्था की तुलना में बेहतर होगा। धीरे-धीरे प्राय लुप्त हो गयी।
- सार्वभौमिक स्तर पर निजीकरण की नीतियों को अपनाने का दूसरा महत्वपूर्ण कारण उच्च करों का बोझ उठाने, घाटे। मुद्रास्फीति के वित्त पोषण की अनुपालना करने और मुद्रा बाजार तथा निजी उद्यमशीलता के विकास में विश्व के अनेक राष्ट्रों की सरकारों की असमर्थता रही है।
- प्रौद्योगिकी तथा विश्व व्यापार संगठन की प्रतिबद्धताओं ने विश्व को एक सार्वभौमिक ग्राम में परिवर्तित कर दिया है। इस परिस्थिति में जब तक सार्वजनिक उद्योगों की तीव्र गति से पुनर्सरचना नहीं कर दी जाती तो उनका जीवित रहना संदिग्ध है। इन उपकरणों के स्वामित्व की प्रकृति के कारण सार्वजनिक उद्यमों की पुनर्सरचना तेज गति से नहीं की जा सकती। इस कारण भी निजीकरण के तर्क को बल मिला है। इसके अतिरिक्त विद्युत तथा दूरसंचार जैसे सार्वजनिक एकाधिकार पर नियन्त्राण रखने के लिए अब ऐसी प्रौद्योगिकियां उपलब्ध है। जहां उपभोक्ताओं के हित विनियमन/प्रतिस्पर्धा द्वारा ही बेहतर संरक्षित हो सकते हैं। अत: यह तर्क अब अधिक युक्तिसंगत नहीं रह गया है कि उपभोक्ता के हितों का संरक्षण सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक धन का निवेश आवश्यक है।
- विनिवेश कार्यक्रम का उद्देश्य सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की दक्षता में सुधार लाने से लेकर सार्वभौमिक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा हेतु भारतीय अर्थव्यवस्था को ओर अधिक गुंजायमान स्वस्थ तथा पर्याप्त रूप से सुसज्जित करने के लिए समाज में आमूलचुल परिवर्तन लाना आवश्यक है।
निजीकरण के उद्देश्य
भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निजीकरण के प्राथमिक उद्देश्य इस प्रकार हैं :
- सरकार के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि वह “गैर सामरिक उद्यमों” के नियन्त्राण, प्रबंधन और उनके संचालन से स्वयं को हटा लें।
- गैर महत्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में लगी सार्वजनिक संसाधनों की बड़ी धनराशि को उन क्षेत्रों में लगाने के लिये Release करना जो समाज की प्राथमिकता में सर्वोपरि है। जैसे सार्वजनिक स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, प्राथमिक शिक्षा तथा सामाजिक और आवश्यक आधारभूत संरचना।
- अव्यहार्य और गैर महत्वपूर्ण सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को मात्रा बनाये रखने हेतु दुर्लभ सार्वजनिक संसाधनों के उत्तरोत्तर बाह्य प्रवाह (Further out flow) को रोकना सार्वजनिक ऋण के बोझ को कम करना जिसके एक बड़े भाग का प्रबन्ध सरकार द्वारा अब नहीं हो पा रहा है।
- वाणिज्यक जोखिम जिस सार्वजनिक क्षेत्र में करदाताओं का धन लगा हुआ है, को ऐसे निजी क्षेत्र में हस्तांतरित करना जिसके सम्बन्ध में निजीक्षेत्र आगे आने के लिए उत्सुक और योग्य हैं। वस्तुत: सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में लगा धन जनसाधारण का पैसा है और सम्पूर्ण रूप से परिहार्य तथा अनावश्यक जोखिम में लगा हुआ है।
निजीकरण के लाभ
निजीकरण से प्राप्त होने वाले सम्भावित लाभों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता सकता है।
- विनिवेश, निजीकृत कम्पनियों को बाजार अनुशासन से अवगत कराएगा। जिसके परिणामस्वरूप वे और अधिक दक्ष बनने के लिए बाध्य होंगे और वे अपने ही वित्तीय और आर्थिक बल पर जी सकेंगे। वे बाजार ताकतों का और तेजी से मुकाबला कर सकेंगे और अपनी वाणिज्यिक आवश्यकताओं की पूर्ति और अधिक व्यावसायिक तरीके से कर सकेंगे। विनिवेश से सरकारी क्षेत्र के उद्यमों की सरकारी नियंत्राण से भी छुटकारा मिलेगा और इससे निजीकृत कंपनियों के निगमित शासन की शुरूआत होगी।
- विनिवेश के परिणामस्वरूप, निजीकृत कम्पनियों के शेयरों की पेशकश छोटे निवेशकों और कर्मचारियों को करने के माध्यम से सम्पत्ति का व्यापक संभव हो पाएगा।
- विनिवेश का पूंजी बाजार पर लाभकारी प्रभाव होगा; चलायमान स्टॉक में वृद्धि से बाजार में और पकड़ अधिक और मजबूत होगी। निवेशकों को बाहर निकलने के सरल विकल्प मिलेंगे, मूल्यांकन और कीमत निर्धारण के लिए अधिक विशुद्ध नियम स्थापित करने में सहायता मिलेगी और निजीकृत कम्पनियों द्वारा अपनी परियोजनाओं अथवा उनके विस्तार के लिए निधियां जुटाने में सहायता मिलेगी।
- पूर्व के सार्वजनिक क्षेत्रों का उपर्युक्त निजी निवेशकों के लिए खोल देने से आर्थिक गतिविधि में वृद्धि होगी और मध्यम से दीर्घावधि तक अर्थव्यवस्था, रोजगार और कर-राजस्व पर कुल मिलाकर लाभकारी प्रभाव पडे़गा।
- दूर संचार और पेट्रोलियम जैसे अनेक क्षेत्रों में, सार्वजनिक क्षेत्र का एकाधिकार समाप्त हो जाने से, अधिक विकल्पों और सस्ते तथा बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों और सेवाओं के द्वारा उपभोक्ताओं को राहत मिलेगी जिससे जैसा कि पहले से ही होना आरम्भ हो गया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में निजीकरण की दिशा में कदम
भारत में अब इस विषय पर आम राय बनती जा रही है कि सरकार द्वारा वाणिज्यिक उपकरणों का संचालन किया जाना किसी भी दृष्टि से न्यायसंगत नहीं है। दुर्लभ वित्तीय कोषों का अभाव, अकुशल तथा हानि वहन करने वाले लोक उद्योगों का संचालन, लोक उद्योगों के कर्मचारियों में उत्तरदायित्व तथा जवाबदेयता के सम्बन्ध में शिथिल प्रवृति आदि कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं जो भारतीय अर्थव्यवस्था में निजीकरण के पक्षधर हैं। विगत वर्षों में भारत सरकार द्वारा मिश्रित अर्थव्यवस्था से निजी अर्थव्यवस्था की तरह बढ़ने हेतु अनेक महत्वपूर्ण प्रयास किये गये हैं। इस दिशा में किये गये प्रयास निम्न है :-
- आधारभूत वस्तुओं तथा सेवाएं प्रदान करने वाले उद्योग,
- खनन संसाधनों के विदोहन के सार्थक प्रयास,
- तकनीकी विकास
- निजी क्षेत्र द्वारा उपेक्षित क्षेत्रों तथा सुरक्षा एवं युद्ध नीतिक उद्योगों के संचालन तक सीमित रखा जाएगा।
3. सार्वजनिक क्षेत्र में इक्विटी का विनिवेश: – यह निर्णय किया गया है कि लोक उपक्रमों में सार्वजनिक स्वामित्व पूंजी की मात्रा को घटाकर 26 प्रतिशत कर दिया जाएगा। विनिवेश सम्भवत: भारत तथा विश्व के अन्य राष्ट्रों द्वारा अपनाया गया विनिवेश का सर्वथा प्रचलित स्वरूप है। किन्तु भारत में विगत 10 वर्षों में विनिवेश का जो प्रतिवर्ष लक्ष्य निर्धारित किया गया है, उसमें सफलता प्राप्त नहीं हुई है।
निजीकरण की कठिनाइयां
सार्वजनिक उपक्रमों के अनेक लाभ हैं इस तथ्य से आज भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सार्वजनिक क्षेत्र के निजी क्षेत्र की अपेक्षा अधिक आर्थिक, सामाजिक लाभ हैं भारत जैसे प्रजातािन्त्राक समाज में निजीकरण के कई खतरे अथवा कठिनाइयां हैं। इनमें से कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं।
- श्रमिक विरोध :- निजीकरण की प्रक्रिया की सबसे बड़ी कठिनाई यूनियन के माध्यम से श्रमिकों की ओर से होने वाले विरोध हैं वे बडे़ पैमाने पर छटंनी तथा पोजीशन खो जाना और काम के वातावरण में परिवर्तन जैसी बातों से आतंकित हैं।
- परिसम्पत्तियों का मूल्यांकन :- सरकार द्वारा विशुद्ध परिसम्पत्तियों के किताबी मूल्य के आधार पर निर्णय लेकर कपटपूर्ण व्यवहार करने का भी खतरा है।
- निगमीकरण को प्रोत्साहन :- यह सम्भव है कि निजीकरण द्वारा बड़े उद्योगों को लाभ पहुंचाने के लिए निगमीकरण को प्रोत्साहित किया जाए।
- प्रतियोगिता का अभाव :- निजीकरण प्रतियोगिता के बिना सार्वजनिक क्षेत्र के स्थान पर निजी क्षेत्र में अकार्यकुशल एकाधिकारी कंपनियों के रूप में ही परिवर्तित होकर रह जाएगा।
निजीकरण कार्यकुशलता औद्योगिक क्षेत्र की समस्याओं का एक मात्रा उपाय नहीं है। उसके लिए तो समुचित आर्थिक वातावरण और कार्य संस्कृति में आमूल चूक परिवर्तन होना भी आवश्यक है। भारत में निजीकरण को अर्थव्यवस्था की आज की समस्त समस्याओं को रामबाण औषधि नहीं माना जा सकता। इसे तो पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के एक सर्वोत्तम संभव माध्यम के रूप में ही देखना होगा।