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महिला सशक्तिकरण का विस्तृत तात्पर्य है – महिलाओं को पुरुष के बराबर वैधानिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में उनके परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में निर्णय लेने की स्वत्व अधिकार से है। महिला-सशक्तिकरण का मतलब यह नहीं है कि उन्हैं दूसरों पर प्रभुत्व जमाने की शक्ति प्रदान करना तथा अपनी श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए शक्ति सम्पन्न बनाना। महिलाओं के लिए सशक्तिकरण का मतलब यह है कि उसे ऐसी शक्ति प्राप्त हो, जिससे उसके महत्व को स्वीकार किया जा सके तथा उसे समान नागरिक एवं समान अधिकार की स्थिति तक ला सके। उनके लिए शक्ति का मतलब यह है कि न केवल घर के अंदर; बल्कि समाज के प्रत्येक स्तर एवं पक्ष में उनकी भागीदारी सुनिश्चित हो सके। उनकी शक्ति के मूल्य एवं भागीदारी को समाज द्वारा उचित मान्यता भी प्राप्त हो सके।
महिलाओं के संदर्भ में सशक्तिकरण का अर्थ है संसाधनों पर उनका नियंत्रण तथा निर्णय का अधिकार।
भारत में महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य
महिला सशक्तिकरण को हम एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं, जिनमें महिलाएँ भौतिक, मानवीय एवं बोद्धिक-जैसे ज्ञान, सूचना, विचार ओर वित्तीय स्रोतों जैसे धन अथवा धन तक पहुँच एवं घर, परिवार, समुदाय, समाज एवं राष्ट्र आदि के संदर्भ में निर्णय लेने के सम्बन्ध में अधिक सहभागिता कर सकती हैं।
‘महिला-सशक्तिकरण’ शब्द सामाजिक न्याय एवं समानता प्राप्ति हेतु महिलाओं के संघर्ष से जुड़ी हुई हैं।
महिला सशक्तिकरण के आयाम
1. आर्थिक सशक्तिकरण
2. सामाजिक सशक्तिकरण
प्रत्येक समाज का अपना रीति-रिवाज, संस्कृति एवं जीवन शेली होती है, परन्तु एक बात प्राय: समानता लिए हुए है कि हर समाज में स्त्रियों की दशा निम्न स्थिति में है। उन्हैं धर्म, संस्कार, रीतियों के नाम पर अनेकानेक बंधनों में जकड़ दिया गया है जिसे स्त्री भी अपनी नियति मान चुकी है। इसके पीछे मूल कारण पुरुष प्रधान या पितृप्रधान समाज है जो सदियों से ओरतों को हांकने का काम करते आ रहा है। वह ओरतों को अपनी सम्पत्ति समझता है और उस पर अपना अधिकार जताते रहा है। परिवार समाज का सबसे छोटा रूप है। यहीं से भेदभाव शुरु होता है ओर सामाजिक पृष्टभूमि में यह विकराल रूप लेता चला गया। जेसे बेटा-बेटी मेुंर्क या कहैं लिंग भेद। पुत्री का जन्म-मरण का निणर्य, रहन-सहन मे भेद, शिक्षा-स्वतंत्रता में भेद, कार्य का विभाजन, रीतियों और धर्म के नाम पर अनेक बंधनों को थोपना ओर इससे स्त्री की स्वतंत्र अस्तित्व कहीं दब गया है।
3. राजनीतिक सशक्तिकरण
भारत में राजनीति परिवर्त्तन का महत्वपूर्ण माध्यम है। इसलिए राजनीतिक प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी एक ऐसे वातावरण सृजित करने में सफल हो सकती है जहाँ महिलाओं के बुनियादी सवालों पर विमर्श किया जा सकता है। राजनीतिक भागीदारी एक उत्प्रेरक भूमिका निभा सकती है। इनकी राजनीतिक भागीदारी से महिलाओं से जुड़े सवाल को राष्ट्रीय नीति में केन्द्रीय स्थान मिलना आसान हो जाएगा।
महिलाओं की शक्तिहीनता का एक मुख्य कारण यह भी है कि राजनीतिक परिदृश्य पर उनकी अत्यन्त सीमित प्रतिनिधित्व होना।(56) उनमें राजनीतिक चेतना की कमी होती है। उनका अपना कोई अलग संगठन या दल नहीं होता। तथा मुख्य धारा के राजनैतिक दलों में उनका खास महत्व नहीं होता। राष्ट्रीय और प्रान्तीय विद्यायिका द्वारा बनायी गयी विधियों ज्यादातर एकांगी और स्त्री विरोधी होती है तथा सामाजिक परम्परा और रीति रिवाज के आधार पर ही राजनैतिक नियमावली बनती है।
महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण से तात्पर्य उन्हैं देश की राजनीति में सशक्त भूमि मिले। उन्हैं वे सभी अधिकार और शक्ति मिले जिससे कि वे देश की राजनीति को चलाने में अहम भूमिका निभा सके। महिलाओं के मुद्दे, निर्णय विचार, दृष्टिकोण को देश की राजनीति में, कानून व्यवस्था में उचित जगह मिले। महिलाओं में राजनीतिक जागृति उत्पन्न हो उन्हैं शासन व्यवस्था में भागीदारी मिले इस हैतु अनेक आरक्षण एवं कानूनी निर्णय कड़ाई से लागू करने होंगे।
पंचायती राज व्यवस्था के त्रिस्तरीय व्यवस्था ने महिलाओं में राजनीतिक जागृति लाने का काम किया है। बिहार में 50 प्रतिशत महिलाऐं पंचायत मुखिया हैं यह एक सराहनीय कदम है। परन्तु लोक सभा ओर विधान सभाओं में अभी भी बहुत कम प्रतिशत महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित हो पायी है। 33 प्रतिशत आरक्षण का मुद्दा अभी भी लटका पड़ा है।
4. धार्मिक सशक्तिकरण
धर्म ने महिलाओं की गोण सामाजिक भूमिका में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। धार्मिक कर्मकांडों एवं धार्मिक नैतिकताओं ने उन्हैं हाशिये पर पहुँचा दिया। इसलिए इस बात की भी महत्ती आवश्यकता है कि महिला धर्म के बाहरी स्वरूप एवं कर्मकांड के आडम्बर की वास्तविकता को समझे। उसे चुनोती दे एवं धर्म के आंतरिक मर्म को अंगीकार करे। यह सर्वविदित है कि प्रत्येक धर्म में धार्मिक रीतियों एवं क्रियाओं का संचालन प्राय: पुरूष ही करते है। चाहै वह हिन्दु धर्म हो, सिख धर्म हो, मुस्लिम धर्म, ईसाई धर्म, बौद्ध धर्म या जैन धर्म प्राय: धर्म के ठेकेदार पुरूष ही है। ऐसा क्यों? यह एक विवादित प्रश्न है। खेर कुछ स्त्रियाँ नन ओर भिक्षुवियाँ रहती है परन्तु इनका अधिकार क्षेत्र बहुत विस्तृत न होकर सीमित ही है। धर्म के मुख्य कर्मकाण्डों में पुरूषों को ही अधिकार मिले हैं।
ऐसे में धर्म के प्रति स्त्रियों के क्या कर्त्तव्य हैं क्या होने चाहिए इन सब का निर्णय कोन करें? जरूरत यह है कि यह स्त्रियों के हक में हो इस हेतु धर्म की किताबों के गूढ़ रहस्यों को जानने समझने एवं साकारात्मक निर्णय की जरूरत हैं क्योंकि प्रत्येक धर्म समानता एवं नैतिकता पर ही टिका है।
इस प्रकार महिला सशक्तिकरण एक वृहत् अवधारणा है ओर इसे सम्पूर्णता में एक प्रक्रिया के तहत ही ग्रहण किया जा सकता हैं सरकार की जागरूकता इस दिशा में बढ़ी है ओर मूर्त्त रूप देने की पुरजोर कोशिश भी की जा रही है। सरकार विशेषकर शिक्षा के प्रसार एवं आर्थिक अवसरों के सृजन के साथ महिला सशक्तिकरण की अवधारणा को सफल करने का प्रयास कर रही है।