अनुक्रम
चन्द्रगुप्त का पुत्र बिन्दुसार 297 ई0पू0 में राजगद्दी पर बैठा जिसने अमित्रघात तथा अमित्रखात इत्यादि उपाधियां धारण की। उसने किन-किन प्रदेशों को जीता इसका विवरण तो हमारे पास नही है परन्तु प्रारंभिक तमिल कवियों ने मौर्यो के रथों के गरजते हुए चलने का वर्णन किया है। जो शायद इसी के काल का ही वर्णन हो, क्योंकि अशोक ने तो केवल कलिंग को ही विजित किय था तथा चन्द्रगुप्त के दक्षिण विजय की हो इसके प्रमाण नही है।
मौर्यकाल मे अर्थव्यवस्था काफी समृद्ध थी शहरीकरण की प्रक्रिया जो छटी शताब्दी ई0पू0 प्रारंभ हुई थी उसका आगे विकास किया गया इस काल में कई राजमार्गो जैसे उत्तरामथ, दक्षिणापथ राजमार्ग इत्यादि का निर्माण कर ने केवल केिन्द्रीय प्रशासन को बल दिया अपितु व्यापार में भी इसके कारण प्रगति हुई। गंगा घाटी से पश्चिमी मध्य भारत, दक्षिणी भारत तक व्यापार का प्रसार हुआ व्यापार पर राज्य का नियंत्रण था इसके साथ-2 व्यापार तथा वाणिज्य को अवरूद्ध करने वाले को कड़ी सदा को प्रावधान कर व्यापार को बढ़ावा दिय गया। इस काल में सामाजिक, आर्थिक परिवर्तनों का प्रारंभ हुआ तथा बौद्ध धर्म का काफी प्रसार हुआ।
मौर्यकाल की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी पूरे भारत को एक सूत्र में बांधना एवं एक सशक्त केन्द्रीय शासन व्यवस्था का प्रचलन जिसमें कृषि, व्यापार एवं उद्योग पर राज्य का पूरा नियंत्रण था यद्यपि व्यापार एवं वाणिज्य में इस काल मे बहुत विकास हुआ परन्तु राज्य की आर्थिकता का मुख्य आधार कृषि ही था।
मौर्य काल की सामाजिक व्यवस्था
मौर्य कालीन समाज एवं सामाजिक व्यवस्था को जानने के लिए हम कौटिल्य का अर्थशास्त्र, अशोक के अभिलेख तथा यूनानी राजदूत मैगस्थनीज कृत इंडिका पर आश्रित है। इसके अतिरिक्त बौद्ध साहित्य में भी यदा कदा इस काल के संदर्भ में लिखी बातें मिल जाती है। परन्तु इस साहित्य में लिखी हुई बातों को हम पूर्णतया सही नही मान सकते क्योंकि उस समय लिखने की कला का विकास नहीं हुआ था तथा इन ग्रन्थों का सग्लन बाद में हुआ। इसलिए इनमें लिकृतिया होना स्वाभाविक ही था।
मौर्य काल में वर्ण व्यवस्था
मौर्यकाल में समाज चार वर्गो में बंटा हुआ था। अशोक के अभिलेखों में अनेक वर्णों का जिक्र है। ब्राह्मणों का स्थान श्रमणों के साथ आदरपूर्ण था। तृतीय शिलालेख में कहा गया है कि ब्राह्मणों और श्रमणों की सेवा करने उतम हैं वैश्य या गृहपति अधिकांशतः व्यापार गतिविधियों में सलिप्त थे। क्षत्रिय वर्ण का अभिलेखों में कही भी उल्लेख नही है। धर्मशास्त्रों के अनुसार कौटिल्य ने भी चारों वर्णों के व्यवसाय निर्धारित किए। किन्तु शुद्ध को शिल्पकार और सेवावृति के अतिरिक्त कृषि, पशुपालन और वाणिज्य से आजीविका चलाने की अनुमति थी। इन्हें सम्मिलित रूप में ‘वार्ता’ कहा गया है। निश्चित है इस व्यवस्था शुद्र के आर्थिक सुधार पर प्रभाव उसकी सामाजिक स्थिति पर ही प्रभाव पड़ा होगा।
इस काल में विभिन्न जातियों के अपने-अपने कार्य अधिकार अलग-अलग थे। अर्थशास्त्र के अतिरिक्त धर्मसूत्रों में भी इसका उल्लेख है। अर्थशास्त्र के अनुसार ब्राह्मण का काम अध्यापन, अध्ययन, यज्ञ, भजन, दान तथा प्रतिग्रह इत्यादि था। श्रित्रायों के कार्यो के अध्ययन, भजन, दान, शस्त्राजीव (शास्त्रों के आधार पर जीविका), मूल रक्षण अथवा लोगों की रक्षा करना था। वैश्यों के कार्यो में अध्ययन, भजन, दान, कृषि, पशुपालन, वाणिज्य इत्यादि थे। जबकि शूद्रों के कार्यो में द्धिजातिशुश्रुशा अथवा द्धिज जातियों के कार्य करना, वार्ता (लोगों के धन की रक्षा करना), कारूकर्म (कलाएं) तथा कुशीलवकर्म इत्यादि थे।
शूद्रों का सरकारों का अधिकार नहीं था तािा न ही वे पवित्र ग्रन्थों को पढ़ व सुन सकते थे। शेष सामाजिक अधिकार उन्हें प्राप्त थे। कई ग्रन्थों में तो शूद्र शिक्षक एवं विद्याथ्र्ाी होने का भी वर्णन मिलता है। जिससे हमें शूद्रों के पढ़ने लिखने का पता चलता है। जातक कथाओं में शूद्रों के साथ चाण्डालों का भी वर्णन है जो कि शहर से बाहर निवास करते थे, जिनके दर्शन मात्रा को ही अपशकुन माना जाता था।
बौद्ध तथा जैन साक्ष्यों में जाति प्रथा का चित्रण काफी भिन्न मिलता है। इनमें क्षत्रियों का स्थान प्रथम है। यद्यपि उन्हें ब्राह्मणों से कम श्रेष्ठ माना जाता था। बौद्ध साक्ष्यों के अनुसार इन जातियों के अतिरिक्त बहुत सी मिक्षित जातियां, अलग-अलग काम करने वाले लोगों की बन ुकी थी। परन्तु सामान्य धारणा के अनुसार ये जातियां अन्तरजातिय विवाहो के कारण पैदा हुई। बौद्ध साहित्य के अनुसार इस काल में जाति का किसी काम से पूर्णतया सम्बन्ध नही था। इनमें एक क्षत्रिय के कुम्हार, टोकरी बनाने वाला, फूलों के हार बनाने तथा खाना बनाने वाले के रूप में वर्णन मिलता है। इसी तरह सेठ्ठी (वैश्य) का ऐक दर्जी तथा कुम्हार का काम करते बताया गया है। परन्तु फिर भी उनकी जाति की गरिमा को कोई नुकसान नहीं हुआ।
इन चार जातियों के अतिरिक्त जाति साहित्य में बहुत सी हीन जातियों का वर्णन किया गया है। जो हीन कार्य करते थे। जिनमें छकड़े बनाने वाले, चटाई बनाने वाले, नाई, कुम्हार, बुनकर, चर्मकार इत्यादि थे। इनमें से कुछ को तो मतीभेद बताया गया हैं जोकि आर्यो के सामाजिक व्यवस्था से बाहर थे। विन्यसुत्रा विमंग में इनमें चाण्डाल, वेग निषाद, रथकर तथा पुक्कुस इत्यादि थे।
मौर्य काल में आश्रम व्यवस्था
इस काल में मनुष्य के जीवन को चार आश्रमों या अवस्थाओं में बांटा हुआ था। अर्थशास्त्र में भी इस प्रकार का वर्णन मिलता हैं जिस प्रकार वैदिक साहित्य का धर्मसूत्र भी इस तथ्य की पुष्टि करते है। प्रथम आश्रम ब्रह्यचार्य का है। जिसमें पठन-पाठन का कार्य किया जाता था। ब्रह्यचारी गुरू के घर या आश्रम में रह कर पठता था। ब्रह्यचारी दो प्रकार के थे (1) उपकुर्वाण, जो कि शिक्षापूर्ण होने के उपरान्त विवाह कर गृहस्थ हो सकता था। (2) नैष्यिक, जोकि पूरे जीवन विद्याथ्र्ाी रह कर ब्रह्मचर्य का पालन करता था।
दूसरा आश्रम गृहस्थ आश्रम था। जिसमें वैवाहिक जीवन व्यतीत किया जाता था। इस आश्रम में देवताओं के ऋण को यज्ञ द्वारा तथा पितृ ऋण को सन्तानोत्पति कर चुकाया जाता था। ऋषि ऋण ज्ञान तथा धार्मिक उत्सवों (पर्वन के दिनों में), धर्म कर्म के कार्यो एवं दान द्वारा चुकाया जाता था।
तीसरा आश्रम बाणप्रस्थ आश्रम जिसे बौद्ध साहित्य में भिक्षु कहा गया है। इसमें अनिश्चय (कुछ इक्कठा न करना) (2) ऊद्र्दद्यव्रेत (3) बरसात के दिनों में एक ही जगह निवास करना (4) गावों में जाकर भिक्षा मांगना (5) अपने लिए स्वंय वस्त्र बुनना (6) फूल-पते न तोड़ना तथा भोजन के लिए बीजों को खराब न करने के नियम थे। इस आश्रम में भिक्षु अपना भरण पोषण केवल भिक्षा में मिले भोजन पर ही करते थें चौथा आश्रम सन्यास या परिव्रजक आश्रम था। जिसमें एक भिक्षु सभी ससंकारिक वस्तुओं को त्याग कर जंगल में प्रस्थान कर जाता था जहां वह जंगल में ही निवास कर वही के कंदमूल व फल खा कर अपना गुजारा करता था। परिव्रजक सत्य, असत्य, दुख-सुख वेदों को छोड़ कर आत्मन का ध्यान करता था। कौटिल्य के अनुसार सभी आश्रमों में अहिंसा, सत्य बोलना, शुद्धता, ईष्या न करना, दूसरों का सम्मान करना इत्यादि कार्य सम्मिलित थे।
मौर्य काल में पारिवारिक जीवन
इस काल के समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली प्रचलित थी। पिता घर का मुखिया होता था तथा उसकी आज्ञा का पालन करना पुत्र का धर्म था। इस काल में हमें बहुत से ऐसे उदाहरण मिलते है जिससे परिवार के भिन्न-2 सदस्यों के बीच सौहदर्य पूर्ण सम्बन्ध थे। बड़ो के प्रति छोटों का आदर भाव था। पति-पत्नी, पत्नी तथा उसके सास-ससुर, भाई व बहनों के बीच स्नेहपूर्ण सम्बन्ध थे। इसके विपरीत ऐसे उदाहरण भी मिलते है कि सास या बहु एक दूसरे से तंग आ कर सन्यासिन बन जाती थी। एक स्थान पर तो बहु ने अपने आपकों मारने के लिए जाल बुना तथा एक अन्य स्थान पर चार बहुओं ने अपने ससुर को घर से निकाल दिया। एक अन्य स्थान पर एक पुत्र इसलिए शादी करने से मना कर रहा है कि पत्नियां सामान्यत् पति-पत्नी के संबध इस काल में सौहदर्य पूर्ण थे। यद्यपि मैगस्थनीज व जातक साहित्य ने पति-पत्नी के संबधों में सतांन प्राप्ति न होने का भी वर्णन किया है। सामान्यत: समाज में पुरूष एक ही विवाह करते थे। परन्तु बहुपत्नी विवाह का वर्णन भी इस काल में मिलता है।
मौर्य काल में विवाह तथा स्त्री की स्थिति
इस काल में सामान्यतः विवाह अपनी ही जात में किया जाता था। यद्यपि अन्तरजातिय विवाहों के प्रचलन को उल्लेख भी है। एक ही जाति में भी विवाह पर कुछ प्रतिबंध थे जैसे कि एक ही गोत्रा या प्रवर (सगोत्रा) था सपिण्ड़ विवाह इत्यादि। धर्मसूत्रों के अनुसार इ काल में आठ प्रकार के विवाहों का प्रचलन था :-
- ब्रह्या विवाह, जिसमें एक सुसंस्कृत पुरूष से पिता अपनी कन्या (गहनों, रत्न, मणियां पहने) का विवाह करता था।
- द्धैव विवाह जिसमें यज्ञ को करने वाले पुजारी से पिता अपनी कन्या का विवाह करता था।
- आर्श विवाह, जिसमें वर स एक गाय या बैल प्राप्त कर पिता अपनी कन्या का विवाह वर से करता था।
- प्राजापत्य विवाह, जिसमें पिता अपनी कन्या का विवाह मन्त्रोउच्चरण के बाद वर से करता था।
- असुर विवाह, जिसमें वर पक्ष वाले वधु को तथा उसके परिजनो को धन देते थे।
- गान्धर्व विवाह : इसमें पुरूष व स्त्री एक दूसरे की सहमती से प्रेम विवाह करते थे।
- राक्षस विवाह : इसमें वर द्वारा कन्या का उसके पिता के घर से अपहरण करके उससे विवाह किया जाता था।
- पैशाच विवाह : इसमें पुरूष कन्या से मद् अवस्था में होते हुए कन्या से विवाह करता था।
इनमें से ब्रहम, दैव, आर्श, प्राजापत्य तथा गान्धर्व इत्यादि विवाहों को विभिन्न साक्ष्यों में ठीक माना गया है। जबकि पैशाच विवाह कसे सभी साक्ष्यों ने बुरा माना है तथा राक्षस विवाह केवल क्षित्रायों में होना स्वीकारा गया है। मैगस्थानीय ने भी अपने वितरण में भारतीय विवाह में एक बैलों की जोड़ी कन्या पक्ष को देने की बात कही है। जोकि इस काल में आर्श प्रकार के विवाह के प्रचलन का द्योतक है। ऊपरलिखित विवाह प्रकारों में प्रथम चार को अधिकतर साक्ष्यों में ठीक माना है क्योंकि इनमें कन्या के माता-पिता वर की योग्यता के आधार पर अपनी पुत्री की शादी करते थे।
विवाह में दहेज प्रथा नही थी। यवन विधवान नियर्कस ने भी लिखा है कि भारतीय बिना दहेज के विवाह करते थे तथा युवती को विवाह योग्य होने पर उसका पिता विभिन्न समारोहों में जाता था जहां पर मल्ल युद्ध, मुक्केबाजी, दौड़ या अन्य कार्यो में विजयी पुरूष से कन्या का विवाह किया जाता था। यह स्वयवंर का ही एक सुधरा हुआ रूप प्रतीत होता है।
विवाह के लिए कन्या की आयु के बारे में भी इस काल में अलग-अलग मत है। सामान्यत: व्यस्क होने पर ही कन्या का विवाह किया जाता था। बौद्ध साहित्य इस साक्ष्य को प्रमाणित करते हैें परन्तु सूत्रा साहित्य में लड़कियों को कम उम्र में शादी के प्रमाण मिलते हैं इस प्रकार हम देखते है कि इस काल में यद्यपि व्यस्क होने पर ही कन्या की शादी हआ करती थी परन्तु बाल-विवाह के भी प्रमाण मिलते है। यदि कोई पिता अपनी व्यस्क लड़की की शादी नही करता था तो यह उसके लिए एक पाप माना जाता था। साक्ष्यों के अनुसार इस अवस्था में कन्या स्वंय अपने लिए वर ढूढ़ सकती थी। यह इन्तजार तीन महीने से तीन साल हो सकता था।
यद्यपि बाल-विवाह एक सामान्य प्रथा नही थी। परन्तु फिर भी विवाह की आयु कम होने से स्त्रियों की सामान्य शिक्षा तथा संस्कृति पर बुरा प्रभााव पड़ा । दूसरी और उनकी कौमार्य पर अधिक जोर दिया जाने लगा तथा साथ ही अपने पति का बिना प्रश्न के आज्ञा पालन करना भी स्त्रियों की स्थिति में गिरावट के मुख्य कारणों में से एक थे।
मौर्य काल में स्त्री शिक्षा
इस काल में हमें स्त्री शिक्षा के प्रमाण मिलते है। तथा वे अच्छी पढ़ी लिखी हुआ करती थी। स्त्रियां घर तथा समाज में प्रतिष्ठित स्थान रखती थी। इस काल में दो प्रकार की स्त्री विधार्थियों का वर्णन है। एक ब्रह्यवादिनी जो कि जीवनपर्यन्त ग्रन्थों का अध्ययन करती थी। दूसरी सध्धोद्धाहा (Sadyodvaha) जो कि विवाह होने तक शिक्षा ग्रहण करती थी। पणिवी इस काल में शिक्षक उपाध्याय तथा उपाध्यायजी का वर्ण करता हैं बौद्ध तथा जैन साक्ष्य की ब्रह्यवादिनी, से सम्बन्धित शिक्षित बौद्ध भिक्षुणियां जिनकी कृतियां थेरी गाथा में संकलित है। इसी प्रकार जैन साहित्य में जयंन्ती नामक स्त्री का वर्णन है। जिसने स्वंय दर्शनशास्त्र में भगवान महावीर से वाद-विवाद किया था।
इस काल में स्त्रियों को पढ़ाई के अतिरिक्त, संगीत, नृत्य तथा चित्रकला में भी निपुणता प्रदान की जाती थी। कुछ िस्त्रायां सैन्य कला की शिक्षा की प्राप्त करती थी। साहित्य में शाक्तीवी का वर्णन इसे सिद्ध करता है। मैस्थनीण के अनुसार चन्द्रगुप्त् मौर्य के अंगरक्षक िस्त्रायां ही थी। जब वह शिकार पर जाता था तो कुछ िस्त्रांया रथ पर कुछ छोड़ों व हाथियों पर भी साथ जाती थी तथा वे अस्त्राशस्त्रों से इस प्रकार लैसं होती थी कि मानों वे युद्ध करने जा रही हो। कौटिल्य भी स्त्री अंगरक्षकों के होने का प्रमाण देता है।
इस काल में लड़कों की तरह लड़कियों का भी उपनयन संस्कार हुआ करता था। विवाह योग्य कन्या की कौमार्य पर अधिक बन देने से धीरे-धीरे विधवा विवाह पर असर पड़ने लगा। यद्यपि अर्थशास्त्र तथा धर्मसूत्रों में विधवा या स्त्री का पुन: विवाह के प्रमाण है। पुन: विवाह के लिए कुछ नियम स्थापित किए गए थे। जैसे पुन: विवाह वही स्त्रियां ही कर सकती थी जिसका पति या तो मर चुका हो, साधु बन गया हो, पति विदेश में बस गया हो, या काफी वर्षो से वापिस न आया हो। इसके अतिरिक्त स्त्री अपने पति के जीवित रहते भी पुन: विवाह कर सकती थी। जैसे कि पति का नंपुसक हो जाना या जाति से बाहर निकाल दिया गया हो।
परिवार में स्त्रियों की स्थिति स्मृति काल की अपेक्षा अब अधिक सुरक्षित थी। किन्तु फिर भी मौर्यकाल में स्त्रियों की स्थिति को अधिक उन्नत नही कहा जा सकता। उन्हें बाहर जाने की स्वतंत्रता नही थी। संभ्रांत घर की िस्त्रायां प्रायः घर के ही अंदर रहती थी। कौटिल्य ने ऐसी स्त्रियों को ‘अनिष्कासिनी’ कहा है।
विवाह विच्छेद
इस काल में विवाह विच्छेद होने के भी प्रमाण है। अर्थशास्त्र के अनुसार यदि पति दुराचारी हो, विदेश चला गया हो, राजा से विद्रोह कर दिया हो, पति से पत्नी को जान का खतरा हो तो पत्नी पति से तलाक ले सकती थी। पति-पत्नी अपनी अपसी सहमति से भी तलाक ले सकते थे। इस प्रकार हम देखते है कि इस आधार पर स्त्री और पुरूष दोनों को समान अधिकार प्राप्त थे।
सती प्रथा
कौटिल्य के अर्थशास्त्र से सती प्रथा के प्रचलित होने का कोई प्रमाण नही मिलता। इस समय के धर्मशास्त्रा इस प्रथा के विरूद्ध थे। बौद्ध तथा जैन अनुश्रुतियों में भी इसका उल्लेख नही है किन्तु यूनानी लेखकों ने उतर-पश्चिम में सैनिकों की स्त्रियों के सती होने का उल्लेख किया है। यौद्धा वर्ग की स्त्रियों में सती की वह प्रथा प्रचलित रही होगी। जोकि कभी-कभी सवैन्धिक हुआ करती था कभी-कभी विधवा को उसके पति की चिता के साथ जबरदस्ती जला दिया जाता था।
गणिकाएं
किसी भी काल में स्त्री दशा का विवरण जब तक पूरा नही होता जब तक वेश्यावृति का वर्णन न करें। इस काल में भी इस प्रकार की स्त्रियों थी। स्वतंत्र रूप से वेश्यावृति करने वाली स्त्रियां ‘रूपा जीवा’ कहलाती थी। इनके कार्यो का निरिक्षण गणिकाध्यक्ष तथा एक राजपुरूष करता था। बौद्ध साक्ष्यों से हमें वैशाली की नगरवधुवों का वर्णन मिलता है। जिनके पास राजा, राजकुमार तथा अन्य अमीर लोग जाया करते थे। गणिकाओं को प्रमाण में प्रतिष्ठित स्थान की प्राप्ति थी। आम्रपाली को तो स्त्री रत्न तक की उपाधि मिली हुई थी। गणिकाएं अपनी आय का एक भाग राज्य को कर के रूप में देती थी। राज्य की और से उनके अधिकर भी सुरक्षित थे तथा उनेस दूव्र्यवाहर करने वालों को जुर्माना किया जाता था। कई वेश्याओं को तो जासूस के रूप में रखा जाता था। सुन्दरता, आयु, गुणों के आधार पर उनकी आय 1000 पण प्रति वर्ष हो सकती थी। वेश्याएं राजदरबार में भी जाती थी।
इसके अतिरिक्त स्त्रियों को गणिकाओं के रूप में, चमरधारी, दाता धारण करने के लिए , स्वर्ण कुम्भ उठाने के लिए, पंखा करने के अतिरिक्त रसोई, स्नानग्रह तथा राजा के हरम में भी नियुक्ति की जाती थी।
दास प्रथा
यह प्रथा तो भारत में वैदिक काल से ही प्रचलित थी तथा इस काल में भी यह प्रचलन में थी। इसके बारे में यूनानी लेखक अलग-अलग विवरण देते है। अशोक के अभिलेखों में भी दास सेवकों, भृत्यों और अन्य प्रकार के श्रम जीविकों का उल्लेख है अर्थशास्त्र में तो दास प्रकार का विवरण काफी मात्रा में दिया है। ये दास प्राय: अनार्य हुआ करते थे। तथा खरीदे-बचे जा सकते थे। कभी-कभी तो आर्थिक संकट में कुछ लोग स्वंय को भी दास के रूप में बेच सकते थे। परन्तु उनकी संतान आर्य ही कहलाती थी। दासों के साथ इस समय अच्छा व्यवहार किया जाता था। यदि कारण है कि मैस्थनपीण इस प्रथा के प्रचलन के होने की पहचान नही सका।
खान पान
इस काल में मांस खाने की काफी प्रवृति थी। स्वंय अशोक के अभिलेखों से पता चलता है कि उनक रंघनागार के लिए प्रतिदिन सैकड़ों पशुओं का वध किया जाता था। इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र में मांस बेचने वालों तथा पका मांस बेचने वालों का उल्लेख हें इसके अतिरिक्त पका चावल बेचने वालों का भी उल्लेख है। जो हमें बताता है कि लोग भोजन में अन्य चीजों के अतिरिक्त चावल भी खाते थे।
मैगस्थनीज ने उस समय के खान पान पर लिखा है कि जब भारतीय खाने के लिए बैठते थे तो प्रत्येक के सामने एक तिपाई रखी जाती थी। जिस पर बर्तन में सबसे पहले उसमें चावल डाले जाते थे उसके उपरान्त अनेक पकवान परोसे जाते थे। पेय पदार्थो का इस काल में काफी विवरण मिलता है। अंगूर का रस, शहद विभिन्न फलो जैसें आम, जामून, केले तथा जड़ी बूटियों के पेय पदार्थ बनाए जाते थे। फूलों वाले पेय पदार्थ भी बहुत पसन्द किए जाते थे।
मदिरा पान
इस काल में मदिरा पान का काफी प्रचलन था। मैगस्थनीज के अनुसार विशेष पदाधिकारियों के अतिरिक्त साधारण लोग मदिरा पान नही करते थे। उनका प्रयोग यज्ञ के अवसरों पर अधिक होता था। राजा तो इसका सेवन करते थे जिसका प्रमाण हमें बिन्दुसार के यूनानी दूत से यूनानी दार्शनिक एवम् यूनानी मदिरा की मांग करने से लगता है। अर्थशास्त्र में हमें मदिरा बनाने तथा उसके नियमों राज्य के इस उद्योग पर नियंत्रण को दर्शाते है। परन्तु प्रत्येक व्यक्ति का मदिरा एक निश्चित मात्रा में ही मिल सकती थी। तथा राज्य इसे एक दुण्र्यसन मानता था। अर्थशास्त्र के अनुसार श्रत्रियों में मदिरा पान सामान्य था। ब्राह्यमणों को इसका सेवन निर्षिद था।
आमोद प्रमोद
इस काल में लोगों के आमोद प्रमोद का विवरण साहित्य तथा अभिलेखों से तथा विदेशी विवरणों से मिलता है। मैगस्थनीज ने विवाहों का वर्णन करते हुए लिखा है कि पिता कन्या का विवाह उससे करता था जो मतल युद्ध, मुक्केबाजी, दौड़ तथा अन्य क्रिडाओं में विजय प्राप्त करता था। यूनानी लेखकों ने मनुष्यों, हाथियों तथा अन्य पशुओं की लडाइयों से लोगों के मनोरंजन का वर्णन किया है।
मौर्य काल में वेशभूषा एवं गहने
इस काल के साहित्य, मूर्तिकला तथा विदेशियों के विवरण से हमें भारतीयों की वेशभूषा एवं गहनों का पता चलता है। नियरकस के अनुसार भारतीय दो सूती वस्त्र पहनते थे। एक नीचे पहनने का जो घूटनों से नीचे तक जाता था दूसरा कन्धों पर यह धोती तथा चद्दर ओठने का द्योतक है। आम लोग तथा िस्त्रायां भी पगड़ी पहना करती थी जबकि राजा मुकुट धारण करते थे। साधु व सन्यासी घास-फूस को वस्त्रों के रूप में प्रयोग करते थे। यद्यपि सूती वस्त्रों का प्रचलन था। परन्तु रेशमी, ऊनी वस्त्रों का भी प्रयोग अमीर लोग करते थे। भारहुत एवं सांची की मूर्तिकला से हमें गहनों के प्रयोग का पता चलता है। दोनों पुरूष और स्त्रियां गहने पहनते थे। जोकि हार कुण्डल, अंगूठियां कमरबन्ध इत्यादि थे।
यद्यपि मूर्तियों इत्यादि से हमें स्त्रियों के पर्दा करने के कोई प्रभाव नही है। परन्तु अभिजात वर्ग की स्त्रियां सभाओं में एक विशेष प्रकार का पर्दा का प्रयोग करती थी। बौद्ध साहित्य में पर्दा प्रथा का वर्णन नही मिलता है। मैगस्थनीज का कथन है कि भारतीय लोगों का सोने से लगाव था। उनके कपड़ों पर सोने से कढाई की होती थी।
केश श्रंगार, कंघी करने, तेल, सुंगधित चीजों का प्रयोग लोग करते थे। तथा अन्य सौदंर्य प्रसाधनों का प्रयोग भी होता था। ब्राह्यण सिर मुण्डवाकर चोटी रखते थे तथा साधु लम्बी दाड़ी रखते थे नाखुन रंगने का रिवाज इस काल में था।
मौर्य काल की अर्थव्यवस्था
कौटिल्य के अर्थशास्त्र तथा मैगस्थनीज की इण्डिका से ज्ञात होता है कि कृषि, पशुपालन तथा व्यापार एवम् वाणिज्य मौयकालीन अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार थे। इस काल में तीव्रगति से आर्थिक विकास हुआ, और एक प्रभावशाली व्यापारी वर्ग का उदय हुआ जिसने अपनी श्रेणियाँ (संगठन) बनाकर समाजिक व्यवस्था को प्रभावित किया। यह नया समाजिक वर्ग मुख्य रूप से नए विकसित हो रहे शहरों में रहने लगा। कृषि अर्थव्यवस्था, हस्तशिल्प उत्पादन और वाणिज्यिक गतिविधियों के विकास के कारण इस काल में निम्नलिखित परिवर्तन हुए ‘ तकनीक का विकास, मुद्रा का चलन और नगरीय केन्द्रो का तेजी से विकास हुआ।
मौर्य काल की कृषि
मौर्यकालिन अर्थव्यवस्था की बुनियाद कृषि पर टिकी थी अर्थशास्त्र में स्थायी बस्तियाँ बसाने पर जोर दिया गया है ताकि कृषि अर्थव्यवस्था का विस्तार हो सके। इन बस्तियों से भूमि कर की प्राप्ति होती थी और ये राजकीय आय का स्थायी स्त्रोत था। राम शरण शर्मा के अनुसार इस काल में गंगा के मैदान के अधिकांश इलाकों में खेती की जाने लगी और इसके साथ-साथ दूरस्थ इलकों में भी कृषीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया जाने लगा। कृषि के विकास से किसान का महत्व धीरे-2 बढ़ने लगा।
अर्थशास्त्र में ऐसी भूमि की चर्चा है जिन पर राज्य अथवा राजा का सीधा नियंत्रण था। इसके अतिरिक्त जमीन की बिक्री का भी जिक्र है जिससे पता चलता है कि व्यक्ति का जमीन पर पुश्तैनी अधिकार था लेकिन किसी भी स्त्रोत में इन्हें भूमि का मालिक नही माना गया है। उर्वरता की दृष्टि से भूमि का वर्गीकरण किया जाता था। इसी आधार पर राजस्व की दर उपज के ( भाग से ) भाग तक रखी जाती थी। भू-राजस्व निर्धारण और करों का सारा रिकार्ड रखने के लिए अलग विभाग था, जिसका अध्यक्ष समहर्ता कहलाता था। कोषाध्यक्ष सित्राधाता के नमा से जाना जाता था। चूंकि राजस्व वस्तु के रूप में भी प्राप्त किया जाता था।
कृषि अर्थव्यवस्था ने मौर्य साम्राज्य को एक शक्तिशाली आर्थिक आधार प्रदान किया, जिसे व्यापारिक अर्थव्यवस्था ने और दृढ़ बना दिया। इस काल का विकसित व्यापार लम्बे आर्थिक परिवर्तनों का एक हिस्सा था जिसकी शुरूआत इस काल से पूर्व हो चुकी थी। इस शुरूआत का आधार था-नई धातुओं की खोज, उन्हें गलाने और शुद्ध करने की तकनीक तथा लोहे के औजार। मौर्य काल में उतरी भारत में अनेक नगरों का विकास हुआ, नई बस्तियों के विस्तार से लोगों का आवागमन बढ़ा , जिससे व्यापार में वृद्धि हुई। व्यापार के अनेक तरीके प्रचलित थे। जो उत्पादन के तरीके और इसके संगठन से जुड़ा हुआ था। हस्तशिल्प उद्योग या कारीगर उत्पादन उद्योग श्रेणियों के रूप में संगठित हो गए थे। लेकिन इस काल में शिल्पियों की संख्या में वृद्धि हुई।
मैगस्थनीज ने भी श्रेणियो की गणना सात भारतीय जाति में की है। विभिन्न प्रकार के धातुकर्मी, बुनकर, बढ़ई, चर्मकर, कुम्भकार और चित्रकार आदि इस काल की प्रमुख श्रेणियाँ थी इस काल में गंगा घाटी में पाए गए उतरी काली चमकदार पालिश किए मृदभाण्ड विशिष्टीकरण हस्तशिल्प के उतम नमूने है। शिल्पकार या दस्तकार पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही शिल्प से जुड़े होने के कारण अपनी दस्तकारी कार्य में उद्योग का रूप धारण कर लिया था। शिल्पियों के समान व्यापारी भी श्रेणियों में विभक्त थे। खनन एवम् खनिज पदार्थो के व्यापार पर राज्य का एकाधिकार था, यानि कच्चा माल राज्य के नियत्रांण में था। इनके समुचित उपयोग से कृषि का विकास और उत्पादन में वृद्धि हुई जिससे राज्य सुदृढ़ हुआ। नई खानों का पता लगाने और उनकी व्यवस्था करने के लिए एक खान अध्यक्ष (आकाराध्यक्ष) होता था। नमक खनन के क्षेत्र पर भी राज्य का एकाधिकार था। विभिन्न प्रकार की धातुओं का प्रयोग सिक्कें ढ़ालने के लिए ही नही बल्कि उनके अस्त्रा-शस्त्रा तथा भी बनाए जाते थे। लोहे के अस्त्रा-शस्त्रा तथा औजार बनाने वालों पर नियुक्त लोह अधीक्षक (लोहाध्यक्ष) कहलाता था।
मौर्यकालीन सर्वाधिक विकसित उद्योग सूती वस्त्र उद्योग था। अर्थशास्त्र में जिक्र है कि काशी, मगध, वंग (पूर्वी बंगाल) पुंडू (पश्चिमी बंगाल), कलिंग और मालवा सूती वस्त्रों के विख्यात केन्द्र थे। बंगाल मलमल के लिए विश्वविख्यात केन्द्र था। सूती वस्त्र भंडौच बन्दरगाह से पश्चिमी देशें को निर्यात किया जाता था। मेगस्थनीज ने भारतीय वस्त्रों की काफी प्रशंसा की है। इस काल में काशी और पुन्डू में रेशमी वस्त्र बनते थे। संभवत: रेशम और रेशमी वस्त्र चीने से आयात किए जाते थे। वस्त्रों पर सोने की कढ़ाई और कशीदाकारी भी की जाती थी। अर्थशास्त्र में विभिन्न धातुओं के आभूषण बनाने वाले, बर्तन, अस्त्रा-शस्त्रा लकड़ी का कार्य, पत्थर तराशने का व्यवसाय, मणिकारी, शराब बनाना और कृषि उपकरण तैयार करने वाले विभिन्न व्यवसायों का उल्लेख किया गया है।
मौर्य शासकों द्वारा व्यापारिक मार्गो पर सुरक्षा व्यवस्था लागू किए जाने के कारण व्यापारिक गतिविधियों को विशेष प्रोत्साहन मिला। व्यापारी वर्ग का सुरक्षा प्रदान करने के लिए विभिन्न नियम भी बनाए गए। इस काल के प्रमुख व्यापारिक केन्द्र नदी के किनारे स्थित थे, इनमें मुख्य थे कौशांबी, वाराणसी, वैशाली, राजगृह और चम्पा आदि। इनमें से ज्यादातर नगर स्थल मार्ग द्वारा भी एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। राजमार्गो ने व्यापार के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया प्रमुख मार्ग निम्न थे। पहला प्रमुख राजमार्ग पाटलीपुत्र से तक्षशिला तक बना था। यह मार्ग वाराणसी, कोशांबी, और मथुरा होते हुए तक्षशिला पहुँचती थी, जो 1300 मील लम्बा था। पाटली पुत्र से पूर्व की तरफ यह मार्ग ताम्रलिप्ति तक जाता था। यह मार्ग आजा ग्रांड ट्रंक रोड के नाम से जाना जाता था। उतरी पथ मार्ग वैशाली होता हुआ श्रावस्ती और कपिलवस्तु तक जाता था। कपिलवस्तु से यह पेशावर तक जाता था। दक्षिणा पथ मार्ग कोशांबी से मथुरा, विदिशा और उज्जैन होते हुए भंडौच बन्दरगाह तक जाता था। यह मार्ग आगे नर्मदा के दक्षिण-पश्चिम तक जाता था। यह मार्ग दक्षिणी मार्ग के नाम से जाना जाता था। यहाँ से भारतीय वस्तुएँ पश्चिमी देशों को भेजी जाती थी। दक्षिण-पूर्वी मार्ग पाटलीपुत्र से श्रावस्ती से गुजरता हुआ गोदावरी नदी के तटीय नगर प्रतिष्ठान तक जाता था। वहां से कलिंग होता हुआ दक्षिण की ओर मुड़कर आन्ध्र और कर्नाटक तक जाता था। पश्चिम-एशिया के देशों की ओर जाने वाला मार्ग तक्षशिला से गुजरता था। स्थल मार्ग के अतिरिक्त समुद्री मार्ग से भी व्यापारिक गतिविधियों होती थी।
मौर्य शासकों का सभी मार्गो पर पूर्ण नियंत्रण होने के कारण व्यापारिक मार्ग सुरक्षित थे। दक्षिणी मार्ग व्यापारिक गतिविधियों से अधिक लाभदायक थे जबकि उतरीपथ मार्ग को व्यापारी सुरक्षित मार्ग होने के कारण ज्यादा पंसद करते थे। आन्तरिक व्यापर उतरी क्षेत्रों से कम्बल, खाल और घोडे दक्षिण को निर्यात होते थे, दक्षिण से हीरे, मोती, शंख, सोना और कीमती पत्थर आते थे। सुगम व्यापारिक मार्गो के कारण आन्तरिक व्यापार भी उन्नत अवस्था में था। जबकि दूसरे देशों के साथ स्थल और समुद्री दोनों मार्ग से व्यापार होता था। स्थल मार्ग तक्षशिला से गुजरता हुए पश्चिमी देशों को जाता था, जबकि समुद्री मार्ग तहत पश्चिमी समुद्र तट से जहाज फारस की खाड़ी होते हुए आदेन तट जाते थे। मिस्र और चीन से भी भारतीय व्यापरियों के व्यापरिक संबध थे।
मौर्यकालीन शहरी अर्थव्यवस्था का अन्य महत्वपूर्ण पहलू यह था कि व्यापरिक विकास से मुद्रा का चलान बढ़ा और लेने-देन मुद्रा में होने लगा। सम्पूर्ण मुद्रा प्रणाली पर राज्य का पूरा नियंत्रण था। अर्थशास्त्र में मुद्रा के बढ़ते महत्व को दर्शाया गया है। संभवत: इस काल में अधिकारियों को वेतन भी नकदी के तौर पर दिया जाता था। अर्थशास्त्र में उल्लेख है कि 48000 पण और 60,000 पण के बीच वार्षिक वेतन देने का प्रावधान था। अर्थशास्त्र से यह भी ज्ञात होता है सिक्के ढालने के लिए सरकारी साल थी और अधिकारी उसका निरिक्षण करते थे। कौटिल्य ने चांदी और तांबे के विभिन्न प्रकार के सिक्कों का उल्लेख किया है। चांदी के सिक्के चार प्रकार के थे-पण, अर्द्धपण, पाद और अष्टभाग। माशक, अर्धमाशक, काकणी और अर्धकाकणी तांबे के सिक्के थे। इस शक्तिशाली नकदी अर्थव्यवस्था को सुचारू ढंग से चलाने के लिए सिक्कों की ढ़लाई और चांदी तथा तांबे जैसी धातुओं का महत्व बढ़ गया होगा। इस काल के चांदी के पंच माक्र्ड (आहत सिक्के) सिक्के इस बात के प्रमाण है कि मौर्य शासकों में मुद्रा प्रणाली को सुव्यवस्थित रूप से लागू किया। आहत सिक्के मुख्य रूप से उतरप्रदेश और बिहार के क्षत्रा में पाए गए है, जो मौर्य साम्राज्य का केन्द्रीय स्थल था।