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एक किंवदन्ती के अनुसार ऐसा ज्ञात होता है, कि प्रात:काल नदी में अचानक से सूर्य के अर्घ्य देते समय कोई बालक एक ब्राह्मण के अंजलि में आ गया और उस दृश्टान्त के कारण इनका नाम पतंजलि पड़ गया। बाद में उसी ब्राह्मण के यहां इनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। कुछ विद्वान इन्हें शुंगवंशीय महाराज पुश्यमित्र के दरबारी पण्डित के रूप में भी बताते हैं। इस आधार पर इनका समय द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व (2 Century B.C.) निर्णय किया जाता है। इनके समय के विषय में भी स्थिति स्पष्ट नहीं होती है लेकिन फिर भी अधिक से अधिक सन्दर्भ हमें यही समय बताते हैं। इन सभी तथ्यों को जानने के बाद आपके लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण जानकारी है कि पतंजलि, योग सूत्र के मूल लेखक नहीं बल्कि संकलनकर्त्ता माने जाते हैं।
महर्षि पतंजलि का जीवन का परिचय
महर्षि पतंजलि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में चर्चा में थे इनका जन्म गोननरद्य (गोनिया) में हुआ था लेकिन कहते हैं कि ये काशी में नागकूप में बस गये थे। एक अन्य प्रचलित मान्यता के आधार पर इन्हें शेषनाग का अवतार बताया जाता है। विद्वानों को मानना है कि ये कश्मीर में रहने वाले नागू जाति के ब्राह्मणों के बीच पैदा हुए थे और मुखिया थे। अद्भुत शास्त्रज्ञान और विभिन्न भाषाओं के प्रकाण्ड विद्वान पण्डित होने के कारण इनको सहस्रजिव्हत्व (एक हजार जीभ वाला) की कल्पना में शेशावतार के रूप में प्रसिद्धि मिल गयी होगी। इसी कारण कुछ स्थानों पर ऐसा विवरण भी मिलता है कि पतंजलि अपने शिष्यों को पर्दे के पीछे छिपकर पढ़ाते थे, और शिष्यों के लिए कड़ा निर्देश था कि पर्दे को उठाकर न देखा जाए। इस दु:साहस का बड़ा गंभीर परिणाम हो सकता है। एक दिन अत्यन्त जिज्ञासावश एक शिष्य ने दु:साहस कर दिया और पतंजलि ने क्रुद्ध होकर अपनी एक हजार जिव्हाओं से अग्नि फेंककर सब कुछ नष्ट कर दिया। भाग्यवश एक शिष्य वहाँ से बचकर भाग गया जिसके बाद में उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का संग्रह किया।
एक मत के अनुसार पाणिनी व्याकरण का महाभाश्य एवं वैधक की चरक संहिता ये दोनों इन्हीं के रचे हुए हैं जैसा कि कहा गया है-
‘‘योगेन चित्तस्य पदेन वाचां, मलं शरीरस्य च वैधकेन।योSपाकरोत् तं प्रवंर मुनीनां, पतंजलि प्रांजलिरानतोSस्मि।
अन्य धारणा के अनुसार यह ग्रन्थ अन्य व्यक्तियों की कृतियाँ हैं। प्राचीन काल के पतंजलि मुनि का महाभाश्य का रचयिता होना भी एक विचित्र रुप में दिखाया गया है जिसके अनुसार पतंजलि मुनि को शेशनाग अवतार मानकर काषी में एक बावड़ी पर पाणिनी मुनि के समझ स्वरूप मे प्रकट होना बताया गया है (तीर्थ 1960: 152-153)। ‘‘प्राय: भारत के प्राचीन लेखको ने अपने जीवन परिचय का उल्लेख बहुत ही कम किया है। कहीं-कहीं ढुंढ़ने से इन प्राचीन लेखको की जीवनी की झलक एक आध सूत्र में मिलती है, उनकी जीवनी का पूरा लेखा जोखा असंभव है। महर्षि पतंजलि की जीवनी का ब्यौरा भी हमें परिष्कृत रूप में इस प्रकार मिलता है प्राचीन काल के पतंजलि मुनि का महाभाष्य का रचयिता होना भी एक विचित्र घटना के रूप में दिखलाया गया है।
महर्षि पतंजलि के जीवन संबंधी कुछ दंत कथाएँ हैं, जो इस प्रकार है – ‘‘महर्षि पतंजलि मुनि काशी में ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में विद्यमान थे। इनका जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था, परन्तु ये काशी में नागकूप पर बस गये थे। ये व्याकरणाचार्य पाणिनी के शिष्य थे। काशीवासी आज भी श्रावण कृष्ण 5, पंचमी (नागपंचमी) को छोटे गुरु का, बड़े गुरु का नाग लो भाई नाग कहकर नाग के चित्र बाँटते हैं, क्योंकि पतंजलि को शेषनाग का अवतार माना जाता है।’’
महर्षि पतंजलि मुनि के जन्म के संबंध में Hindu World Vol II (लेखक बेंजामिनन वॉकर) में भी दो दन्त कथाएँ बताई गई है जो कि निम्न हे – ‘‘पहली दन्तकथा के अनुसार पतंजलि शेषनाग का अवतार है क्योकि वह पाणिनी की हथेली पर एक छोटे साँप के रुप में उतरा था, इसलिए उसका नाम पतंजलि (पत याने गिरा अंजली याने हथेली में) पड़ा। दूसरी कथा के अनुसार वह अपनी माँ की गुहिका से गिर पड़े इसलिए इनका नाम पतंजलि पड़ा, पतंजलि को गोनिका पुत्र भी कहा जाता है उनकी माँ का नाम गोनिका था, इसलिए इनका नाम ‘गोनिका पुत्र‘ पड़ा।’’
उपरोक्त अध्ययन से ज्ञात होता है कि इनका जन्म 200 ई. पू. रहा होगा तथा इनका जन्म स्थान भी काशी है और इनके द्वारा पतंजलि योग सूत्र पाणिनी महाभाष्य ओर परग्रंथ (चरक-संहिता) लिखा गया था।
महर्षि पतंजलि की रचनाएं
1. समाधिपाद
इस ग्रन्थ के पहले पाद में योग के लक्षण, स्वरूप और उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन करते हुए चित्त की वृत्तियां े के पांच भेद और उनके लक्षण बतलाये गये हैं इस पाद में प्रधानता से समाधि के स्वरूप का वर्णन है, इस कारण इसे समाधिपाद कहते हैं।
2. साधनपाद
इस पाद में प्रधानता से समाधि के साधनों का वर्णन है इस कारण उसे साधनपाद कहते हैं। निर्बीज समाधि वही साधक प्राप्त कर सकता है जिसका अन्त:करण स्वभाव से ही शुद्ध हो गया है। अन्त:करण की शुद्धिपूर्वक निर्बीज-समाधि प्राप्त करने का उपाय साधनापाद में बताये गये हैं।
3. विभूतिपाद
विभूतिपाद के पहले सूत्र में ‘धारणा’, दूसरे में ‘ध्यान’ तथा तीसरे में ‘समाधि’ के बारे में बताते हुऐ ऋषि ने 7वें सूत्र में उक्त तीनों को अन्तरंग साधन बताया है। 12वें सूत्र में चित्त की वृत्तियां, सूत्र 16 में भूत भविष्य की घटनाओं का ज्ञान होने, सूत्र 22 में साधक को मृत्यु का पूर्व ज्ञान होने एवं सूत्र 23 से 32 तक साधक को प्राप्त होने वाली विभिé सिद्धिया ें का ज्ञान हो जाने के बारे में विस्तार से बताया है।
4. कैवल्यपाद
कैवल्यपाद के 2 और 3वें सूत्र में ऋषि ने जात्यान्तरण की बात कही है जिसमें मनुष्य की वृत्ति बदल जाती है। तमोगुण से सतोगुण वृत्ति हो जाती है। उपरोक्त तीनों पादों में समाधि का वास्तविक फल (कैवल्य) का वर्णन प्रसंगानुसार हुआ है किन्तु विवेचनापूर्ण नहीं हुआ, अत: उसका अच्छी तरह वर्णन इस पाद में किया गया है इसलिये इसका नाम ‘‘कैवल्यपाद’’ रखा गया है।
- Website-http://hi.wikipedia.org/wiki/iratfy
- Website-http://hi.wikipedia.org/wiki/iratfy
- Benjamin Walker , Hindu World Vol. II, Pg no. 195
- C.D.sharma –a criticalsurvey of Indian Philosophy, Pg. no. 162
- Website-http://hi.wikipedia.org/wiki/iratfy
- Website-http://hi.wikipedia.org/wiki/iratfy