अनुक्रम
वैयक्तिक समाज कार्य का इतिहास
अमेरिका में वैयक्तिक समाज कार्य का इतिहास
उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम समय में अमेरिका में निर्धनता, रोग एवं बेरोजगारी की समस्याएं सामान्य रूप से फैली हुई थीं। विशेष रूप से बड़े-बड़े नगरों में बेरोजगारी की समस्या अधिक थी। उस समय के परोपकारी व्यक्तियों पर यह बात स्पष्ट हो गर्इं कि निर्धन विधान को चलाने वाले अधिकारियों द्वारा जो सहायता दी जा रही है वह न तो पर्याप्त है और न ही रचनात्मक। यह बात भी स्पष्ट हो गई कि परोपकारी संस्थाओं के बीच सहयोग के अभाव के कारण एक दूसरे के कार्यों एवं कार्यक्षेत्र के विषय में सूचना नही मिल पाती है और परिणामस्वरूप जो कुछ परिश्रम किया जाता है और धन व्यय होता है वह अधिकतर व्यर्थ हो जाता है।
हम पहले ही बता चुके हैं कि इस आन्दोलन का आधार टॉमस चामर्स के विचारों पर था। इस आन्दोलन का आधार इस विचार पर था कि सार्वजनिक निर्धन सहायता अपने उद्देश्य में असफल है और सेवाथ्री का इस प्रकार पुनर्वास होना चाहिए कि वह अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर सके। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस आन्दोलन ने इस बात की व्यवस्था की कि निर्धनों के घर जाकर उनका निरीक्षण किया जाये, उन्हें परामर्श दिया जाये, अनुचित कायोर्ं से रोका जाये और आर्थिक सहायता दी जाये। इस प्रकार निर्धनों के पुनर्वास के पूर्व उनकी दशा का सावधानी से परीक्षण और उनकी समस्या के विषय में स्वयं उनसे और उनके आस-पास के लोगों से विचार विमर्श आवश्यक समझा जाने लगा। निर्धनों एवं समस्याग्रस्त व्यक्तियों के विषय में इस प्रकार की वैयक्तिक रूचि समाज कार्य की एक नई दिशा की ओर संकेत करती है। इसी नई दिशा से वैयक्तिक समाज कार्य की उत्पत्ति हुई।
चैरिटी आर्गनाइजेशन सोसाइटीज ने सेवार्थियों की वैयक्तिक एवं आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए सामाजिक हल (सुझाव) का प्रयोग करना चाहा और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण, उपकरण, छोटे-छोटे कारखानों या व्यापार के लिए धन, भोजन, वस्त्र, एवं परिवारों के लिए कमरों या एक छोटे से घर की सुविधाएं प्रदान कीं। इस अवसर पर एक प्रमुख बात यह हुई कि स्वयं सेवकों और सी. ओ. एस. के प्रतिनिधि वैतनिक थे और वे सी.ओ.एस. के कायोर्ं के लिऐ नगर के धनी व्यक्तियों से धन एकत्र करते थे। स्वयंसेवक सेवार्थियों से वैयक्तिक सम्पर्क रखते थे और उन्हें आत्म निर्भर बनाने के लिए उपदेश एवं निर्देश देते थे।
सामाजिक सुधार के उपायों से निर्धन व्यक्तियों की दशा में उन्नति होने लगी परन्तु फिर भी कुछ परिवार ऐसे थे जिनकी आवश्यकताएं पूरी नहीं हो पाती थीं और जिन्हें ऐसे सहायकों की आवश्यकता थी जो उनकी समस्याओं को सहानुभूति के साथ समझकर उन्हें उपदेश दें जिससे वे सामुदायिक साधनों का सदुपयोग कर सकें। यह समझा जाने लगा कि सामाजिक सुधार से ही समस्त वैयक्तिक समस्याएं नहीं सुलझ जातीं। अत: सामाजिक संस्थाएं वैयक्तिक समाज कार्य सेवाएं प्रदान करती रहीं। बीसवी शताब्दी के आरम्भ में समाज कार्य के विद्यालयों की स्थापना हुई और व्यवसायिक प्रशिक्षण की सुविधाएं उपलब्ध हुई।
इस प्रकार उनका महत्व बढ़ गया क्योंकि अब उनकी जांच का प्रतिवेदन किसी समिति के सम्मुख रखने की अपेक्षा स्वयं उनकी राय के अनुसार ही सहायता का कार्य होने लगा। 1917 में पहली बार मेरी रिचमण्ड ने वैयक्तिक समाज कार्य की प्रक्रियाओं को एक निश्चित रूप में अपनी पुस्तक सोशल डाइग्नोसिस में प्रस्तुत किया। परन्तु यह स्पष्ट हो गया कि केवल परामर्श से ही पुनर्वास नहीं हो सकेगा और यह कि इसके लिये आर्थिक साधनों की भी आवश्यकता होगी। अत: निजी एवं सार्वजनिक आर्थिक सहायता के कार्यक्रम प्रचलित रहे और अब भी प्रचलित हैं।
इंग्लैण्ड में वैयक्तिक समाज कार्य का इतिहास
मध्यकाल में इंग्लैण्ड में गरीबों की सहायता का कार्य चर्च का था। धार्मिक भावना से पे्िर रत होकर लोग असहायों, अंधों, लंगड़ों तथा रोगियों की सहायता करते थे। दान वितरण के कार्य को अधिक महव देने के कारण चर्च तथा राज्य में असहमति उत्पन्न हुई उसके फलस्वरूप सोलहवीं शताब्दी में निर्धनों की सहायता का उत्तरदायित्व राज्य पर हो गया।
- दुर्गति के प्रत्येक मामले की जाँच भली भाँति की जाय, कश्ट के सभी कारणों का निश्चय किया जाय और निर्धनों में आत्म-निर्भरता की सभी सम्भावनाओं को विकसित किया जाय।
- यदि आत्मावलम्बन सम्भव न हो तो सम्बन्धियों, मित्रों और पड़ोसियों को अनाथ, बृद्ध, बीमार और अपंगों की सहायता के लिए प्रोत्सािहत किया जाय,
- यदि निर्धन परिवारों की आवश्यकता इस प्रकार भी पूरी न की जा सके तो कुछ धनाड्य नागरिकों से उनके निर्वाह के लिए सम्बन्ध स्थापित किया जाय।
- केवल जब इन प्रस्तावित तरीकों में से एक भी सफल न हो तो तभी जिले का डीकन अपनी धार्मिक परिशद् से सहायता से प्रार्थना करे।
4. थामस चाल्मर्स को दान-भिक्षा कार्यक्रम का व्यावहारिक अनुभव होने से दान की अवधारणा में परिवत्रन लाने में काफी योगदान रहा। उन्होंने वैयक्तिक आधार पर जाँच करने को प्रोत्साहन दिया तथा दरिद्रता के कारणों को ज्ञात करने का प्रयत्न करने के सिद्धांत को उत्पन्न करती है। उन्होंने व्यक्तिगत असफलताओं को ही निर्धनता का निराश्रितों के भाग्य निर्धारण में वैयक्तिक रूप से ध्यान देना आवश्यक होता है, सहायता कार्य की प्रगति के लिए महत्वपूर्ण मानी गयी।
भारत में वैयक्तिक समाज कार्य का इतिहास
प्राचीन दृष्टिकोण
भारत में दीन दुखियों, असहायों तथा पीड़ित व्यक्तियों की सहायता करने की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। मानेचिकित्सा सम्बन्धी कार्य भी प्राचीन युग से ही चले आये हैं। कृष्ण का अर्जुन को उपदेश देना, वशिष्ठ का राम को कर्तव्य बोध कराना, बुद्ध का अंगुलिमाल के व्यवहार को परिवर्तित करना आदि इसके उदाहरण हैं। भारतीय संस्कृति तथा धर्म का मुख्य उद्देश्य उन व्यक्तियों की सहायता करना है जो उत्पीड़ित हों तथा दयनीय जीवन व्यतीत करते हैं।
बौद्ध काल
बौद्ध काल में समाज की भलाई के लिए अनेक प्रकार के उपदेश देने का प्रबन्ध किया गया था। बोधिसत्त्व में इस बात का उल्लेख मिलता है कि दानी व्यक्तियों के कौन-कौन से कार्य थे। बोधिसत्त्व के अनुसार सहायताकारी कार्यों को पहले अपने सगे सम्बन्धियों तथा मित्रों की सहायता उसके पश्चात असहाय, रोगी, संकटग्रस्त तथा दरिद्र व्यक्तियों तथा मित्रों की सहायता उसके पश्चात असहाय, रोगी, संकटग्रस्त तथा दरिद्र व्यक्तियों की सहायता करनी चाएिह।
मौर्य काल
मौर्य काल में सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य का क्षेत्र अधिक व्यापक हो गया था। बच्चों, वृद्धों तथा रोग्रस्त व्यक्तियों की देखभाल का कार्य अत्यन्त धार्मिक समझा जाता था। गाँव के वयोवृद्ध तथा मुखिया माता-पिता विहीन बालकों की देख भाल का कार्य करता था। निर्धन बच्चों के लिए नि:शुल्क शिक्षा तथा भोजन का प्रबन्ध अध्यापक करता था।
इस्लाम काल
13वीं शताब्दी से भारतीय लोक जीवन में इस्लाम का आविर्भाव हुआ। इस्लाम धर्म में प्रारम्भ से ही भिक्षा देने की व्यवस्था तथा प्रथा रही है। यह दान उन व्यक्तियों को दिये जाने की व्यवस्था है जो हज पर जाने का व्यय न वहन कर सके, जिनके पास भोजन न हो, भिखारी हों तथा जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ईश्वर हेतु अर्पित कर दिया हो। जकात से प्राप्त धन का उपयोग समाज कल्याण के कार्यों में ही किया जाता था। कुतुबुद्दीन, इल्तुतमिष, नासिरुद्दीन आदि सुल्तानों ने इस क्षेत्र में अनेक कार्य किये। फिरोज ने ऐसे व्यक्तियों की सहायता करने के लिए जिनके पास पुत्रियों का विवाह करने के लिए पर्याप्त धन नहीं था एक दीवान-ई-खरात संस्था का निर्माण किया था।
अंग्रेजी शासन काल
अंग्रेजी शासन काल में अनेक समाज सुधार आन्दोलनों का सूत्रपात हुआ। राजाराम मोहन राय ने बाल विवाह तथा सती प्रथा को रोकने का प्रयत्न किया। उनके प्रयत्नों के फलस्वरूप सन् 1829 ई0 में प्रतिबन्ध अधिनियम पारित किया गया जिसने सती प्रथा को अवैध घोषित कर दिया।
स्वतंत्रता के बाद
बीसवीं शताब्दी में ऐसी समाज सेवी संस्थाओं की वृद्धि हुई। अनाथालयों, शिशु सदनों की तथा अंधों के लिए स्कूलों की स्थापना की गयी। विकलांग बालकों के लिये पहली बार सन् 1947 ई0 में एक ऐच्छिक संस्था स्थापित हुई। इस संस्था के कार्यों से प्रभावित होकर भारत के अनेक चिकित्सालयों में विकलांग चिकित्सा विभाग स्थापित हुए।
समाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य का चिकित्सा क्षेत्र में उपयोग होना “ाीघ्र ही प्रारम्भ हुआ। जब भारतीय चिकित्सक अमेरिका तथा इग्लैंण्ड गये और उन्होंने रोगियों के साथ सेवा कार्य के महत्त्व को समझा तो भारतीय चिकित्सालयों ने भी इसके विकास पर जोर दिया। दि हेल्थ सर्वे एण्ड डेवलपमेन्ट कमेटी (भोर कमेटी) ने
सन् 1945 ई0 में चिकित्सालयों में प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता की नियुक्ति की सिफारिश की। चिकित्सीय वैयक्तिक सेवा कार्य के विकास में यह महत्वपूर्ण कारक था। दूसरा कारण मानसिक चिकित्सालयों की स्थापना तथा इसमें मनोसामाजिक कार्यकर्ताओं के महत्त्व को समझ जाता है। सन् 1946 ई0 में टाटा इन्स्टीट्यूट ने चिकित्सकीय समाज कार्य की शिक्षा का प्रबन्ध किया।
सन् 1946 ई0 में जे0 जे0 हास्पिटल बाम्बे में प्रथम चिकित्सकीय समाज कार्यकर्ता की नियुक्ति हुई थी। उस समय से उसमें काफी वृद्धि हो रही है। आज चिकित्सकीय सामाजिक कार्यकर्ता ने केवल सामान्य चिकित्सालयों में बल्कि विशेषीकृत चिकित्सालयों, क्लिनिकों तथा पुनस्र्थापन केन्द्रों में कार्य करने लगे हैं।
यद्यपि यह सत्य है कि सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य का क्षेत्र व्यापक हो रहा है परन्तु कार्यकर्ता अपनी भूमिकाओं को पूरा करने में अनेक बाधाएँ अनुभव कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त प्रशिक्षित कार्यकर्ताओं को चयन में कोई विशेष वरीयता नहीं मिलती है। आशा है समय परिवर्तन के साथ-साथ इस दृष्टिकोण में परिवर्तन आयेगा तथा सामाजिक वैयक्तिक सेवा कार्य का सामान्य विकास सम्भव हो सकेगा।
बीसवीं शताब्दी में वैयक्तिक समाज कार्य की नवीन रूचि
बीसवीं शताब्दी के पहले दस वर्षों में वैयक्तिक समाज कार्यकर्ताओं ने इस बात पर बल देना आरम्भ किया कि जिस व्यक्ति की सहायता करनी है उसके जीवन के विषय मे पर्याप्त सूचना प्राप्त की जाये। इन सूचनाओं के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक एवं वैयक्तिक समस्याओं का सामाजिक निदान बनाया जाये जो उन समस्याओं के कारणों को स्पष्ट करता है। इसी सामाजिक निदान के आधार पर चिकित्सा की योजना बनाई जाये। उस समय चिकित्सा की योजनाएं अधिकतर पर्यावरण के बाहरी परिवर्तन, जीवन सम्बन्धी दशाओं और व्यवसाय से सम्बन्धित परिवर्तन एवं उन्नति से सम्बन्धित होती थीं।
मनोविज्ञान एवं मनोचिकित्सा विज्ञान में जो विकास हुआ उसका प्रभाव समाज कार्य की प्रणालियों एवं अभ्यास पर पड़ा। इन विचारों के प्रभाव से समाज कार्य की रूचि आर्थिक एवं सामाजिक कारकों से हटकर सेवाथ्री की मनोवैज्ञानिक एवं संवेगात्मक समस्याओं की ओर केन्द्रित हुई और उसकी प्रतिक्रियाओं, सम्पेर्र णाओं एवं मनोवृत्तियों को अधिक महत्व दिया जाने लगा। विशेष प्रकार से सिगमन्ड फ्रायड के मनोविश्लेषणात्मक सम्बन्धी सिद्धांतों ने सामाजिक वैयक्तिक समाज कार्य को प्रभावित किया और वैयक्तिक समाज कार्य में मनोविश्लेषण सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रयोग होने लगा। बीसवीं शताब्दी के दूसरे दस वर्षों में समाज कार्यकर्ताओं का प्रयोग सामान्य चिकित्सालयों में होने लगा।
इसके पूर्व केवल मानसिक चिकित्सालयों में ही समाज कार्यकर्ताओं का प्रयोग होता था। सामान्य चिकित्सालयों में जो वैयक्तिक समाज कार्यकर्ता नियुक्त किये जाते थे वे रोगी के रोग के विषय में जानकारी प्राप्त करके और उसकी सामाजिक एवं आर्थिक परिस्थिति का पता लगाकर चिकित्सक की निदान और चिकित्सा योजना बनाने में सहायता करते थे। इसके अतिरिक्त वे रोगी के परिवार के साधनों और समुदाय, सामाजिक संस्थाओं, नियोक्ताओं एवं मित्रों से सम्बन्धों का भी प्रयोग करते थे जिससे रोगी की चिकित्सा में सहायता मिल सके।
जब द्वितीय महायुद्ध हुआ तो अमेरिकन रेडक्रास ने ऐसे परिवारों की सहायता के लिए जिनके पति युद्ध पर गए हुए थे होम सर्विस डिवीजन्स स्थापित किये। यहां जो परिवार आते थे उन्हें आर्थिक सहायता की उतनी आवश्यकता नहीं होती थी जितनी मनोवैज्ञानिक और संवेगात्मक सहायता की। अत: सहायता के दृष्टिकोण में परिवर्तन की आवश्यकता थी। इसी कारण और भी अधिक समाज कार्यकर्ताओं की रूचि पर्यावरण सम्बन्धी कारकों से हटकर अधिकतर मनोवैज्ञानिक कारकों की ओर हुई।
युद्ध के कारण अनेक प्रकार के मनोविकार सामने आने लगे। विशेषतया ‘‘शेल-शाक’’ से प्रभावित व्यक्ति रोगी बनकर आने लगे। अत: मनोचिकित्सात्मक समाज कार्यकर्ताओं की अधिक आवश्यकता का अनुभव किया जाने लगा और इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए पहली बार 1918 में स्मिथ कालेज में साइकिट्रिक सोशल वर्कर्स प्रशिक्षिण दिया जाने लगा। इस समय मनोचिकित्सकों का इतना अभाव था कि मनोविकार की चिकित्सा में मनोचिकित्सात्मक समाज कार्यकर्ताओं को पर्याप्त उत्तरदायित्व दिया जाने लगा और वे सेना के मनोचिकित्सकों से घनिष्ठ सम्पर्क रखते हुए कार्य करने लगे।
फ्रायड के सिद्धान्तों ने यह सिद्ध कर दिया था कि बहुधा मनुष्य का व्यवहार भावनाओं पर आधारित होता है और व्यक्ति को स्वयं अपनी सम्प्रेरणाओं का ज्ञान नहीं होता। इसके अतिरिक्त यह बात भी स्पष्ट हो गई थी कि बाल्यावस्था की घटनाओं का प्रभाव व्यक्तित्व पर महत्वपूर्ण रूप से पड़ता है और बहुत कुछ व्यक्तित्व का विकास प्रारम्भिक जीवन की घटनाओं एवं परिस्थितियों के अनुसार होता है। इन सब सिद्धान्तों से समाज कार्यकर्ताओं को जो नवीन ज्ञान प्राप्त हुआ उसे उन्होंने अपने अभ्यास में प्रकट करने का प्रयत्न किया।
वैयक्तिक समाज कार्यकर्ताओं ने अनुभव किया कि सेवाथ्री के व्यक्तित्व सम्पेर्र णाओं एवं भावनात्मक आवश्यकताओं को समझने के लिये अधिक विस्तृत सूचना प्राप्त करने की आवश्यकता है। इस प्रकार मानवीय व्यवहार की मनोवैज्ञानिक व्याख्या उच्चतर प्रकार से की जाने लगी और आर्थिक समस्याओं का भी अधिक विषयात्मक रूप से मूल्यांकन किया जाने लगा।