अनुक्रम
वर्तमान सभ्यता में मानव का समाज के साथ वही घनिष्ठ सम्बंध हो गया है और शरीर में शरीर के किसी अवयव का होता है।
समाज का अर्थ
समाज की परिभाषा
ग्रीन ने समाज की अवधारणा की जो व्याख्या की है उसके अनुसार समाज एक बहुत बड़ा समूह है जिसका को भी व्यक्ति सदस्य हो सकता है। समाज जनसंख्या, संगठन, समय, स्थान और स्वार्थों से बना होता है।
एडम स्मिथ- मनुष्य ने पारस्परिक लाभ के निमित्त जो कृत्रिम उपाय किया है वह समाज है।
डॉ0 जेम्स- मनुष्य के शान्तिपूर्ण सम्बन्धों की अवस्था का नाम समाज है।
प्रो0 गिडिंग्स- समाज स्वयं एक संघ है, यह एक संगठन है और व्यवहारों का योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सम्बंधित है।
प्रो0 मैकाइवर- समाज का अर्थ मानव द्वारा स्थापित ऐसे सम्बंधों से है, जिन्हें स्थापित करने के लिये उसे विवश होना पड़ता है।
समाज की विशेषताएँ
समाजशास्त्रियों ने समाज की परिभाषा क अर्थों में दी है। समाज के साथ जुड़ी हुई कतिपय विशेषताएँ हैं और ये विशेषताएँ ही समाज के अर्थ को स्पष्ट करती है। हाल के समाजशास्त्रियों में जॉनसन ने समाजशास्त्र के लक्षणों को वृहत् अर्थों में रखा है।
1. एक से अधिक सदस्य
2. वृहद संस्कृति
3. क्षेत्रीयता
यह संभव है कि किसी निश्चित क्षेत्र में पायी जाने वाली संस्कृति अपने सदस्यों के माध्यम से दूसरे में पहुंच जाए, ऐसी अवस्था में जिस क्षेत्र का उद्गम हुआ है उसी क्षेत्र के नाम से संस्कृति की पहचान होगी। उदाहरण के लिए इंग्लैण्ड या न्यूयार्क में रहने वाला भारतीय अपने आपको भारतीय संस्कृति या भारतीय समाज का अंग कह सकता है, जबकि तकनीकी दृष्टि से अमेरीका में रहकर वह भारतीय क्षेत्र में नहीं रहता। महत्वपूर्ण बात यह है कि जिस क्षेत्र में संस्कृति का उद्गम हुआ है, उसी क्षेत्र के समाज के साथ में उसे पहचाना हुआ मानता है।
4. सामाजिक संबंधों का दायरा
5. श्रम विभाजन
6. काम प्रजनन
मानव एवं समाज के सम्बन्ध के सिद्धांत
मानव एवं समाज अन्योन्याश्रित है पर समाजशास्त्री इस सम्बंध के विषय में पृथक-पृथक विचार रखते हैं, इनके विचारों को नीचे प्रस्तुत किया जा रहा है।
समाज के प्रमुख तत्व
समाज के निर्माण के क तत्व है, इसे जानने के पश्चात ही समाज का अर्थ पूर्णतया स्पष्ट हो जायेगा-
- समाज की आत्मा से मनुष्य का अमूर्त सम्बंध है। समाज एक प्रकार से भावना का आधार लेकर बनता है। व्यक्ति समाज के अवयव के रूप में है। व्यक्तियों के बीच की विविधता समाज में समन्वय के रूप में परिलक्षित होती है। कोहरे राबर्टस के अनुसार-’’तनिक सोचने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि समाज के अभाव में व्यक्ति एक खोखली संज्ञा मात्र है। मानव कभी अकेले नहीं रह सकता वह समाज का सदस्य बनकर रह जाता है। मानव का अध्ययन मानव समाज का अध् ययन है, व्यक्ति का विकास समाज में ही सम्भव है।’’ रॉस ने स्पष्ट किया-’’समाज से अलग वैयक्तिकता का को मूल्य नहीं रह जाता है और व्यक्तित्व एक अर्थ ही न संज्ञा मात्र है।’’
- समाज में हम की भावना होती है। इस भावना के अन्तर्गत व्यक्तिगत मैं निहित होता है, और यही सामाजिक बंधन को जन्म देता है। पर समाज के सम्पूर्ण बंधन स्वार्थपूर्ण हेाते हैं।
- समाज में समूह मन व समूह आत्मा होती है।, यह सम्बंध पारस्परिक चेतना से युक्त हेाती है, समूह मन में यह चेतना होती है और उनके यह व्यवहार में प्रकट होती है।
- समाज में अपनी सुरक्षा की भावना पायी जाती है, इसके लिये वह अपने अस्तित्व की रक्षा के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है, और समाज अपनी निजता को बनाये रखने के लिये नियम कानून रीति रिवाज संस्कृति व सभ्यता को विकसित व निर्मित करता है।
- समाज की आर्थिक स्थिति उसके सदस्यों की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है तो उनसे आर्थिक स्थिति की विविधता पायी जाती है परन्तु इन सबके बाद भी उनमें एक समाज अधिकार भावना पायी जाती है, कि हम समाज के सदस्य है।
- समाज के जीवन एवं संस्कृति सभ्यता के कारण व्यक्तियों के आचार-विचार व्यवहार मान्यताओं में एका पायी जाती है। जिसे हम जीवन का सामान्य तरीका के रूप में देख सकते हैं।
- समाज निश्चित उद्देश्यों को रखकर निर्मित होते है, जिसमें पारस्परिक लाभ, मैत्रीपूर्ण व शान्तिपूर्ण जीवन आदर्शों एवं कार्यों की पूर्ति आदि के रूप में देखे जा सकते है।
- समाज में स्थायित्व की भावना होती है क्येांकि सभी सदस्य क पीढ़ियों से उसी समाज के आजीवन सदस्य रहते हैं, इससे समाज बना रहता है।
- समाज क समूहों के संगठन होते है जिनमें अन्योन्याश्रितता होती है।