अनुक्रम
संघर्ष की परिभाषा
संघर्ष के प्रकार
1. वैयक्तिक संघर्ष
वैयक्तिक संघर्ष उसे कहते हैं जब संघर्षशील व्यक्तियों में व्यक्तिगत रूप से घृणा होती है तथा वे अपने स्वयं के हितों के लिए अन्य को शारीरिक हानि पहुंचाने तक भी तैयार हो जाते हैं। परस्पर विरोधी लक्ष्यों को लेकर घृणा, द्वेष, क्रोध, शत्रुता आदि के कारण इस प्रकार का संघर्ष हो सकता है।
वैयक्तिक संघर्ष आंतरिक व बाह्य दोनों प्रकार के हो सकते हैं। जब व्यक्ति का संघर्ष स्वयं से होता है तो वह आंतरिक संघर्ष का रूप है व जब व्यक्ति का संघर्ष किसी अन्य व्यक्ति या समूह से होता है तो वह बाह्य संघर्ष का रूप है। उदाहरण के लिए किसी कार्य को करने या न करने का मानसिक द्वन्द्व आंतरिक संघर्ष है व जमीन, जायजाद आदि के लिए होने वाला संघर्ष बाह्य संघर्ष है।
व्यक्ति के भीतर होने वाले संघर्ष- आंतरिक संघर्ष के मुख्य रूप से तीन कारक हैं जो इसे जन्म देते हैं- कुण्ठा, स्वार्थपरकता व हितों का टकराव।व्यक्ति स्वयं जब को लक्ष्य निर्धारित करता है व किसी अवरोध से यदि वह लक्ष्य बाधित हो जाता है तो व्यक्ति की वह असफलता, कुण्ठा का रूप ले लेती है और जिसके परिणाम से व्यक्ति की कुछ प्रतिक्रियाएं होती है जो उसके आंतरिक संघर्ष को प्रदर्शित करती है।
व्यक्ति में आंतरिक संघर्ष उत्पन्न होने के जो कारण हैं उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कारण व्यक्ति की स्वार्थपरकता है। अपने स्वार्थों की पूर्ति वह उचित-अनुचित, वैध-अवैध सभी तरीकों से करना चाहता है। फलत: व्यक्तिगत ष्र्या उत्पन्न हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति की कुछ आंतरिक प्रतिक्रियाएं होती हैं जो आंतरिक संघर्ष को दर्शाती हैं।व्यक्ति कभी स्वयं के हितों के कारण भी दुविधा में पड़ जाता है। व्यक्ति के पास स्वयं के हित के अनेक विकल्प होते हैं और उनमें से जब उसे यह चयन करना होता है कि क्या उसके लिए अच्छा होगा व क्या गलत, कौन-सा विकल्प हितकर होगा व कौन-सा अहितकर, कौन-सा सुगम होगा व कौन-सा जटिल तो यह असमंजस व ऊहापोह की सिथति संघर्ष पैदा करती है।
जब व्यक्ति का संघर्ष अन्य व्यक्तियों व समूहों से होता है तो वह बाह्य संघर्ष होताहै। यह भी दो प्रकार का होता है- वास्तविक व अवास्तविक। जब संघर्ष किसी न्यायपूर्ण या न्यायोचित उद्देश्यों को लेकर होते हैं तथा सामाजिक व कानूनी स्वीकृति को लेकर होते हैं तो वे वास्तविक संघर्ष कहलाते हैं। हितों का टकराव सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, व्यक्ति का अहम व स्तर आदि क कारक होते हैं जो इसे प्रभावित करते हैं।जब संघर्ष अन्यायपूर्ण व अनुचित उद्देश्यों को लेकर होते हैं तो वे अवास्तविक संघर्ष कहलाते हैं। इनमें ‘जैसे को तैसे’ की प्रवृत्ति रहती है। ये संघर्ष कानूनी प्रक्रियाओं के द्वारा भी होते हैं।
अत: यह स्पष्ट है कि वैयक्तिक संघर्ष शीघ्र ही उत्पन्न हो जाते हैं। इनकी प्रकृति में निरन्तरता नहीं रहती, कभी संघर्ष चलता है तो कभी बंद हो जाता है व फिर चल सकता है। जब तक संघर्ष की परिणति सहयोग में न हो जाए यह चलता ही रहता है। ये संघर्ष अत्यधिक कटु नहीं होते हैं क्योंकि सामाजिक नियम उन्हें किसी न किसी रूप में नियंत्रित रखते हैं। इसमें शारीरिक हिंसा तुलनात्मक रूप से कम होती है।
2. प्रजातीय संघर्ष
जब आनुवांशिक शारीरिक भेदभाव के कारण व्यक्तियों का वर्गीकरण किया जाता है तो उसे प्रजाति कहते हैं। वैयक्तिक संघर्ष के अतिरिक्त सामूहिक संघर्ष भी हो सकता है। प्रजातीय संघर्ष भी इसमें से एक है। प्रजातीय संघर्ष का आधार प्रजातीय श्रेष्ठता व हीनता जैसी वैज्ञानिक अवधारणा है। श्रेष्ठता व हीनता का मुख्य आधार संस्तरण है व उच्चता व निम्नता की भावना होती है। संस्तरण के कारण उच्च स्तर के व्यक्ति को अधिकार प्राप्त हो जाते हैं व उन अधिकारों का प्रयोग जब संस्तरण के निचले स्तर के व्यक्तियों पर किया जाता है या प्रदर्शित किए जाते हैं तो यह प्रजातीय संघर्ष है। भौगोलिक परिस्थितियों की भिन्नता, जीन संरचना, विशिष्ट शारीरिक लक्षण, सांस्कृतिक भिन्नता आदि ऐसे क तत्त्व हैं तो प्रजाति की उच्चता व निम्नता निर्धारण में सहायक होते हैं।
वर्तमान प्रगतिशील युग में प्रजातीय भेदभाव राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में कानून के रूप में व व्यवहार में जातीय भेदभाव के रूप में विद्यमान है। प्रजातीय संघर्ष कहीं सरकारी नीतियों से पुष्ट है तो कहीं प्रच्छन्न रूप में, जिससे विभिन्न वर्गों के बीच विषमता पायी जाती है।
भेदभाव की यह भावना उस समाज में अधिक पायी जाती है जहां सांस्कृतिक, सामाजिक व आर्थिक जीवन में बहुत अधिक विरोधाभास होता है। नस्ल, रंग व वंश की दृष्टि से जिन राष्ट्रों में अलगाव की भावना है एवं जहां संस्कृति, रीति-रिवाज व परम्पराओं के कारण भिन्नताएं हैं वहां की स्थितियां वास्तव में ही शोचनीय है। जातीय पृथक्करण की नीतियां विश्व के लिए एक बड़ा कलंक है।
3. वर्ग संघर्ष
वर्ग संघर्ष का इतिहास समाज के निर्माण से ही प्रारम्भ हो गया था। कार्लमाक्र्स ने लिखा था कि ‘‘आज तक अस्तित्व में रहे समाज का इतिहास, वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।’’ समूचे समाज का इतिहास वर्ग संघर्ष में ढूंढा जा सकता है। प्राचीन काल में जब मुखिया सर्वेसर्वा था तब से वर्ग प्रणाली का प्रादुर्भाव हुआ।
4. जातीय संघर्ष
जातीय संकीर्णता सामाजिक संघर्षों का एक प्रमुख कारण बनी है। यह समस्या अर्द्धविकसित व विकासशील देशों में अधिक पायी जाती है। हम कुछ जातीय पूर्वाग्रहों को पालते हैं, क्योंकि इनसे हमारी सुरक्षा, प्रतिष्ठा व मान्यता जैसी कतिपय गहन आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है। सामाजिक व्यवस्था में जाति विशेष की श्रेष्ठता व हीनता को मानने की प्रवृत्ति जातीय संघर्ष का कारण बनती है। ऐसे संघर्ष भी संस्तरण की मानसिकता से जुड़े रहते हैं।
ये संघर्ष परम्परागत रूप से लम्बे समय से एक सामाजिक बुरा के रूप में स्थापित होते रहे हैं। यद्यपि कानूनी रूप से विभिन्न जातियों के बीच ऊंच-नीच की भावना को अस्वीकार किया गया है फिर भी ऊंच-नीच की भावना के कारण विभिन्न जातियों में बैर-भाव रहता है व जातीय संघर्ष चलते रहते हैं। इन जातीय विवादों के कारण आज भारतीय राजनीति का मुख्य आधार ही जातिवाद बन गया है जिससे जनता सदैव आपसी संघर्षों में उलझी रहती है। एक पूर्ण विकसित समाज में ऐसे संघर्षों के खत्म होने की संभावना रहती है अन्यथा ये संघर्ष निरन्तर चलते रहते हैं।
5. राजनैतिक संघर्ष
राजनैतिक संघर्ष के दो रूप हैं-राष्ट्रीय संघर्ष एवं अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष। जातिवाद, साम्प्रदायिक तनाव, राजनैतिक तनाव, उग्रवाद, पृथक्करण, विभाजन आदि राष्ट्रीय संघर्षों के प्रमुख कारण बनते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष की अभिव्यक्ति के भी अनेक रूप हैं- जैसे घृणा तथा आक्रामकता की अभिवृत्ति, जिसके फलस्वरूप समाचार पत्रों, रेडियो व दूरदर्शन पर भड़कीले समाचार प्रसारित कर मनोवैज्ञानिक युद्ध किया जाता है। स्वजातिवाद की पृष्ठभूमि भी अन्तर्राष्ट्रीय तनाव का एक प्रमुख कारण है।
उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त वैचारिक भिन्नताएं, विस्तारवादी नीतियां, व्यापारिक एवं सीमा विवाद, अस्त्र-शस्त्र आदि भी अन्तर्राष्ट्रीय विवादों के प्रमुख कारण बनते हैं।
6. अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष
यह भी राजनैतिक संघर्ष का ही एक विस्तृत रूप है। राजनैतिक संघर्ष का क्षेत्र जब एक राष्ट्र की सीमा पार करके अन्य राष्ट्रों तक फैल जाता है तो उसे अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष कहते हैं। दूसरे शब्दों में, जब राष्ट्रीय सीमाओं के पार संघर्ष होता है तो वह अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष कहलाता है। इसका सबसे स्पष्ट रूप युद्ध है जो कि भारत और चीन के बीच, भारत-पाकिस्तान के बीच व अन्य राष्ट्रों के बीच होते हैं।
उपरोक्त समस्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संघर्ष अनेक स्वरूपों/प्रकारों में दृष्टिगोचर होता है। वैयक्तिक संघर्ष से प्रारम्भ होकर संघर्ष प्रजातीय व वर्ग संघर्ष की सीढ़ियां चढ़ते-चढ़ते जातीय संघर्ष परिवर्तित होता है व अंतत: संघर्ष के विभिन्न रूप राजनैतिक स्तर के राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष में परिवर्तित हो जाता है। भारत के संदर्भ में संघर्ष के इन स्वरूपों की विवेचना की जा सकती है। धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हुआ व पाकिस्तान के रूप में एक नए राष्ट्र की स्थापना हुई। विभाजन के बाद धर्म को लेकर जो दंगे हुए वे धार्मिक आधार पर निर्मित थे व स्वतंत्रता के बाद भी कहीं-कहीं समाज विरोधी तत्त्वों के द्वारा धार्मिक भावनाओं के आधार पर दंगे फसाद किए गए। धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में ऐसी घटनाएं राष्ट्र विरोधी मानी जाती हैं।
संघर्ष की विशेषताएं
संघर्ष के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों या समूहों का होना जरूरी है जो एक-दूसरे के हितों को हिंसा की धमकी, आक्रमण, विरोध या उत्पीड़न के माध्यम से चोट पहुँचाने की कोशिश करते हैं।
- संघर्ष एक चेतन प्रक्रिया है जिसमें संघर्षरत व्यक्तियों या समूहों को एक-दूसरे की गतिविधियों का ध्यान रहता है। वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति के साथ-साथ विरोधी को मार्ग से हटाने का प्रयत्न भी करते हैं।
- संघर्ष एक वैयक्तिक प्रक्रिया है। इसका तात्पर्य यह है कि संघर्ष में ध्यान लक्ष्य पर केन्द्रित न होकर प्रतिद्विन्द्वयों पर केन्द्रित हो जाता है।
- संघर्ष एक अनिरन्तर प्रक्रिया है। इसका अर्थ यह है कि संघर्ष सदैव नहीं चलता बल्कि रूक-रूक कर चलता है। इसका कारण यह है कि संघर्ष के लिए शक्ति और अन्य साधन जुटाने पड़ते हैं जो किसी भी व्यक्ति या समूह के पास असीमित मात्रा में नहीं पाए जाते। को भी व्यक्ति या समूह सदैव संघर्षरत नहीं रह सकते हैं।
- संघर्ष एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। इसका तात्पर्य यह है कि संघर्ष किसी न किसी रूप में प्रत्येक समाज और प्रत्येक काल में कम या अधिक मात्रा में अवश्य पाया जाता है।
- समाज की रचना इस तरह की होती है जिसमें व्यक्तियों व समूहों में विभिन्न स्वार्थ और हित होते हैं। व्यक्ति और समूह अपने हित की पूर्ति के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संघर्ष करते रहते हैं।
- संघर्ष आंतरिक व बाह्य प्रक्रियाओं के कारण होता है। आंतरिक प्रक्रिया- जब स्त्रियों को शिक्षा में प्रवेश दिया तो वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गयी और फिर उन्होंने अपने अधिकारों की मांग की। आज नारी आंदोलन का जो स्वरूप दिखा देता है वह व्यवस्था या समाज का आंतरिक संघर्ष है। साम्प्रदायिक दंगे, आतंकवाद, भ्रष्टाचार, विद्याथ्र्ाी और श्रमसंघ आंदोलन आदि आंतरिक संघर्ष हैं। बाह्य प्रक्रिया- दो राष्ट्रों के मध्य युद्ध, अन्तर्राष्ट्रीय बाजार व मंडी में युद्ध, तकनीकी साधनों के उत्पादन में जापान व अमेरिका में जो होड़ है वह भी बाह्य संघर्ष है।
- कोजर व उसकी परम्परा के विचारकों का मानना है कि संघर्ष हमेशा समाज के लिए हानिकारक नहीं होता। जब एक समाज दूसरे समाज के साथ संघर्ष में होता है तो समाज की सुदृढ़ता बढ़ती है।
संघर्ष का स्वरूप
मूलत: संघर्ष परिवर्तन का एक साधन है। परिवर्तन की आवश्यकता और इच्छा को नकारा नहीं जा सकता और यह भी स्वीकार करना ही होगा कि परिवर्तन के साधनों से ही परिवर्तन होगा। अतएव संघर्ष को सदैव हिंसक रूप में ही न देखकर उसे परिवर्तन के संदर्भ में भी देखना चाहिए। यह धारणा या विचार मिथ्या है कि ‘‘संघर्ष नैतिक रूप से गलत व सामाजिक रूप से अनचाहा है, संघर्ष सदैव त्याज्य या विध्वंसात्मक ही नहीं होता, यह समूहों के बीच तनाव को समाप्त भी करता है, जिज्ञासाओं व रुचियों को प्रेरित करता है तथा यह एक ऐसा माध्यम भी हो सकता है जिसके द्वारा समस्याएं उभारकर उनके समाधान तक पहुंचा जा सकता है अर्थात् यह व्यक्तिगत और सामाजिक परिवर्तन का आधार भी हो सकता है।
- न्यायोचित लक्ष्य के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होना एवं
- ऐसा लक्ष्य जो न्यायोचित नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिए प्रतिस्पर्धा में शामिल होना।
प्रथम यथार्थवादी संघर्ष है, जो एक विशेष परिणाम की प्राप्ति के लिए होता है। इसलिए यह संघर्ष या तो मूल्यों की संरक्षा के लिए या उन जीवनदायिनी चीजों के लिए होता है जिनकी आपूर्ति कम होती है।
उपर्युक्त अर्थ में संघर्ष कुछ परिणाम की प्राप्ति का साधन है। समाजशास्त्रियों का मानना है- संघर्ष विहीन समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेक्स वेबर के अनुसार-’’सामाजिक जीवन से हम संघर्ष को अलग नहीं कर सकते। हम जिसे शांति कहते है। वह और कुछ नहीं है अपितु संघर्ष के प्रकार व उद्देश्यों तथा विरोधी में परिवर्तन है।’’ रोबिन विलियम्स के अनुसार-किसी भी परिस्थिति में हिंसा पूर्ण रूप से उपस्थित या अनुपस्थित नहीं हो सकती। यहां भगवान् महावीर की दृष्टि ज्ञातव्य है-उनके अनुसार समाज केवल हिंसा या केवल अहिंसा के आधार पर नहीं चल सकता।
द्वितीय अयथार्थवादी संघर्ष है जो ऐसे लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है जिन्हें किसी भी परिस्थिति में न्यायोचित नहीं कहा जा सकता। जैसे उग्रवादी हिंसा। ऐसा को भी संघर्ष अथवा इसके लिए किये जा रहे प्रयत्न सदैव त्याज्य है।
- समाज के विभिन्न समूहों की वस्तुनिष्ठ रूचियों में भेद एवं
- सामाजिक गतिविधियों के आत्मनिष्ठ लक्ष्यों में विरोध।
दृष्टिकोण व व्यवहार जब संघर्ष से जुड़ जाते ह® तब उन्हें निषेधात्मक दृष्टिकोण व व्यवहार कहा जाता है। इस प्रकार के निषेध अचानक घृणा या प्रत्यक्ष हिंसा के रूप में प्रकट होते है। जातीय और प्रजातीय संघर्षों में सामाजिक दूरी पूर्वाग्रहों के कारण होती है जबकि संरचनात्मक हिंसा में यह भेदभाव के रूप में प्रकट होती है।
- मानवीय एकता
- कर्त्ता बनाम व्यवस्था
प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे से अनेक बन्धनों व सामाजिक सम्बन्धों से जुड़े ह®। उनके बीच के सम्बन्ध सामंजस्यपूर्ण है। तो वे उन्हें प्रदर्शित कर और अधिक प्रगाढ़ कर सकते है। यदि उनके बीच सामंजस्य नहीं है तो हम उन्हें यह समझा सकते है। कि सामंजस्यपूर्ण संबंध मानवीय एकता के लिए आवश्यक है। यदि उनके बीच किसी प्रकार के सम्बन्ध ही नहीं है।, तो यह मानवीय एकता का बहिष्कार है। किसी व्यक्ति के अन्यायी बनने में परिस्थितियों व व्यवस्था का भी योगदान होता है। सम्बन्धों को स्वीकार न करना अन्यायी की अस्वीकृति है जबकि असामंजस्यपूर्ण सम्बन्धों का स्वीकरण व्यवस्था व व्यक्ति सुधार की दिशा में प्रस्थान है।