भारत का संविधान एक धर्मनिरपेक्ष, सहिष्णु और उदार समाज की गारंटी देता है। संविधान में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा माना गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मनुष्य का एक सार्वभौमिक और प्राकृतिक अधिकार है। लोकतंत्र में विश्वास रखने वालों का कहना है कि कोई भी राज्य और धर्म इस अधिकार को छीन नहीं सकता।
भारतीय संविधान में ‘विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को नागरिक स्वतंत्रताओं की आधार रेखा’ कहा गया है। संविधान के अनुच्छेद 19;1द्ध जिन छह मौलिक अधिकारों का प्रावधान करती है उनमें विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रथम स्थान है। अन्य मौलिक अधिकारों की ही तरह विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी आत्यंतिक और अनियंत्रित नहीं है।
- मानहानि,
- न्यायालय की अवमानना,
- शिष्टाचार या सदाचार,
- राज्य की सुरक्षा,
- दूसरे देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध,
- अपराध के लिये उकसावा,
- सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और
- भारत की संप्रभुता और अखंडता।
सुप्रीम कोर्ट ने विचार और अभिव्यक्ति के इस मूल अधिकार को ‘लोकतंत्र के राजीनामे का मेहराब’ कहा है क्योंकि लोकतंत्र की नींव ही असहमति के साहस और सहमति के विवेक पर निर्भर है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आवश्यकता क्यों है?
1. सत्य तथा ज्ञान की खोज और उसके प्रसार के लिए अभिव्यक्ति की आजादी अत्यंत आवश्यक है।
2. अभिव्यक्ति की आजादी इंसान को आत्म-विकास से ओतप्रोत और सम्मानजनक महसूस करने के लिए जरूरी है।
3. अभिव्यक्ति की आजादी इंसान को अपनी सोच के अलावा राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक नजरिया रखने का भी अवसर प्रदान करती है, जिससे देश और समाज का विकास होता है। यह व्यक्ति को लोकतंत्र में भागीदारी लेने का अवसर भी उपलब्ध कराती है।