अनुक्रम
नेपाल की प्रमुख नदियाँ
मध्य हिमालय क्षेत्र या घाटी क्षेत्र में अनेक प्रमुख नदियाँ, जिनमें सेती, करनाली, हेरी-काली गण्डकी, त्रिशूली, संकोसी, अरूण तथा तामूर बहती हैं।
नेपाल के कुटीर उद्योग
नेपाल की कृषि
नेपाल भी एक कृषि प्रधान देश है और इसकी लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या कृषि कार्य में लगी हुई है किन्तु नेपाल का लगभग 10 प्रतिशत भाग ही कृषि योग्य है। नेपाल में उत्पादित होने वाली मुख्य फसलें मक्का, धान, गेहूं, जौ और ज्वार-बाजरा हैं, इसके अलावा नेपाल की नगदी फसलों में गन्ना, तिलहन, तम्बाकू, आलू और जूट मुख्य हैं।
नेपाल की प्रमुख भाषा
नेपाल में नेपाली, मैथिली, भोजपुरी, थारू, तमंग एवं नेवारी छह मातृभाषाएं बोली जाती हैं। इन सभी में नेपाली बोलने वालो की संख्या सबसे अधिक हैं। नेपाल में मातृभाषाओं के अलावा 18 स्थानीय भाषाएं भी बोली जाती है-जो कि क्रमश: राई, मगर, अवधी, लिम्बू, गुरंग, उर्दू, हिन्दी, शेरपा, राजवंशी, चिपांग, बंगाली, सतार, धनुवार, मारवाडी, झांझर, धीमल, तमिल और मांझी हैं।
नेपाल की प्रमुख जातियां
नेपाल की प्राचीनतम निवासी नेवार जाति के लोगों को कहॉ जाता हैं। जो बाद के दिनों में काठमाण्डू घाटी में आ कर बस गए। इन लोगों द्वारा ही नेपाल के व्यापार एवं उद्योगों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया गया था। मगर एवं गुरूँग जाति पश्चिमी नेपाल के निवासी हैं, यह दोनों जातियॉ मंगोल जाति के वंशज प्रतीत होते हैं। इनके विषय में यह माना जाता है कि यह लोग देश-विदेश की सैनिक सेवाओं में लगे हुए हैं।
नेपाल का इतिहास
नेपाल के किरात शासक को लगा कि सम्राट अशोक अपनी विशाल सेना के साथ काठमाण्डू घाटी पर हमला करने आ रहा है। इस भय के कारण सुगिको एवं अन्य किरात शासक अपना-अपना राज्य छोड़कर गोकर्ण के वनों में जा छिप गए। बाद में उनका भय निराधार निकला। यद्यपि शेखर सिंह गौतम की पुस्तक ‘भारत खण्ड और नेपाल’ में किरात वंश एक शक्तिशाली, विशाल एवं समृद्धशाली वंश था। इस पुस्तक के अनुसार बलोचिस्तान जो अब पाकिस्तान में है, इसे भी किरातों ने ही बसाया था। नेपाल में किरातों की शक्ति जब कमजोर हुई तो सोमवंश राजपूतों का हमला शुरू हुआ। नेपाल में आखिरी किरात वंश का शासक ‘मस्ती’ था। जिसको सोमवंशी शासक निमिष ने पराजित किया तथा इसके साथ ही काठमाण्डू घाटी पर सोमवंश का परचम लहराने लगा। राजा निमिष के पश्चात् क्रमश: सत्ताक्षर, काकवर्मा एवं पशुपेक्षदेव इत्यादि प्रमुख सोमवंशिय शासक हुए।
भारत के लिच्छिवि वंश द्वारा नेपाल के काठमाण्डू में वैशाली छोड़कर प्रवेश किया गया था। डॉ0 मजूमदार ने यह माना हैं कि लिच्छिवि वैशाली से ही काठमाण्डू की ओर आए थे, लेकिन डॉ0 स्मिथ लिच्छिवि राज्य को पाटिलीपुत्र समीप मानते हैं। इस प्रकार डॉ0 स्मिथ एवं डॉ0 ब्लयूर दोनों कि एक राय हैं। दोनों ही यह मानते हैं कि लिच्छिवि मूल रूप से नेपाली ही थे। इन सभी तर्कों के पश्चात् भी पण्डित भगवानलाल के संग्रहीत लिच्छिविराज जयदेव परमचक्रकाम के शिलापट्ट में भी वंशावली दी गयी है और इस वंशावली से स्पष्ट होता है कि लिच्छिवियों ने लम्बे समय तक नेपाल राष्ट्र पर शासन किया था। सुपुष्प लिच्छवियों का प्रथम राजा था। सुपुष्प पाटलिपुत्र के गुप्त राजाओं से पराजित होने के पश्चात् नेपाल की तराई में आ गया।
नेपाल में प्राप्त शिलालेखों से लिच्छिवियों द्वारा अपने आप को कई उपाधियों से सुशोभित करने का भी पता चलता है। इनके द्वारा महादण्डनायक, महाप्रतिहार, युवराज और महासामान्त आदि उपाधियों को धारण किया गया था। लिच्छिवियों एवं भारत के गुप्त शासकों के मध्य बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध होने का भी प्रमाण इतिहास में मिलता है। इसी कारण से डा. फ्लोट ने गुप्त संवत को वास्तव में लिच्छिवि संवत ही लिखा है। समुद्रगुप्त के पिता चन्द्रगुप्त तथा उनकी पत्नी लिच्छिवी कुमार देवी से नेपाल में गुप्त संवत का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
वंशावली के अनुसार लिच्छवि राजा जयकामदेव की मृत्यु के उपरान्त नुवाकोट का ठकुरी वंशी राजा भास्करदेव काठमाण्डू घाटी के एक प्रभाग का राजा बना। नेवारी भाषा में हस्तलिखित एक ग्रंथ ‘विष्णु धर्म’ में भास्करदेव पर टिप्पणी की गयी है कि उसके द्वारा परम भट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर की उपाधि धारण किया गया था। भास्कर देव के उपरान्त बलदेव ठकुरी वंश का शासक बना। बलदेव के पश्चात् नागार्जुन देव राजा हुआ। इस वंश का अन्तीम शासक शंकरदेव हुआ। शंकर देव के शासन काल के दौरान उसकी राजधानी पाटन-ललितपुर थी। उसके समय में ही धर्म पुत्रिका, पष्ट सहस्त्रिका एवं बोधिचर्मावतार जैसे ग्रंथों की रचना हुई। नेपाल पर लिच्छिवि राजाओं का शासनकाल करीब 900 सालों तक रहा।
ठकुरी वंश ने नेपाल की चित्रकला को बहुत हद तक प्रभावित किया। सूर्य वंशी क्षत्रियों ने ठकुरी वंश के सामन्तों तथा राजाओं को पराजित कर अपने राज्य की स्थापना की। वामादेव इस वंश का पहला क्षत्रिय राजा हुआ। इसी का एक नाम वाणदेव भी मिलता है। इसके पश्चात् रामहर्ष देव तथा सदाशिव देव राजा हुए। इन शासकों के उपरान्त इन्द्रदेव और फिर मानदेव शासक हुए। मानदेव ने अपने पुत्र नरेन्द्र देव को शासन का कमान सौंप दिया और स्वयं बौद्ध चक्र बिहार में बौद्ध भिक्षु के रूप में अपना शेश जीवन व्यतीत किया। नरेन्द्र देव पश्चात् आनन्द देव शासक हुआ। आनन्द देव ने सन् 1165 ई0 से सन् 1166 ई0 तक शासन किया। कुछ हस्तलिखित ग्रंथ आनन्द देव के शासनकाल को सन् 1156 ई0 से लेकर सन् 1166 ई0 तक मानते हैं। इसके पश्चात् रूद्रदेव शासक हुआ। रूद्रदेव ने करीब 8 वर्ष 1 माह तक शासन किया, उसके पश्चात् सम्पूर्ण सत्ता अपने पुत्र के हाथों में सौंप कर एक साधारण पुरूष की तरह जीवन जीने लगा।
रूद्रदेव के उपरान्त अमृतदेव ने शासन संभाला। अमृतदेव करीब 3 साल 11 माह तक शासक रहा। इसके उपरान्त रत्नदेव शासक हुआ। इसके उपरान्त गुणकामदेव, लक्ष्मीकामदेव एवं विजयकामदेव नामक राजा हुए। अन्त में विजयकामदेव का उत्तराधिकारी अरिमल्लदेव हुआ। मल्ल युद्ध करते समय ही उसे सन्तानोत्पत्ति का समाचार प्राप्त हुआ और उसने अपने पुत्र के नाम के साथ मल्ल की उपाधि जोड़ दी। प्रजातियों के इतिहासकारों के अनुसार सूर्यवंशी शासकों के द्वारा अपना अधिक समय सूर्य की उपासना में लगाया जाता था। नेपाल में मल्लों का उदय 12वीं शताब्दी के अंतिम वर्श में माना गया है और इन्होंने सन् 1769 ई0 तक शासन किया। प्राय: ऐसा माना जाता है कि यह भारत से आए हुए राजपूत थे।
नेपाल में शाहवंश का अंतिम राजा राजेन्द्र हुआ। इनके द्वारा आपसी प्रतिस्पर्धा में लगे गुटों को एक दूसरे से भिड़ाते रहने के प्रयासों ने नेपाल को राजनैतिक अराजकता की ओर धकेल दिया। इनके शासनकाल में एक के बाद एक तेजी से मंत्रिमंडल में बदलाव हुए। जिससे नेपाल देश गृह युद्ध के कगार पर पहुंच गया और इसके कारण देश पर लगभग पूरी तरह छिन्न भिन्न हो जाने का खतरा पैदा हो गया। इसका लाभ कुंवर जंगबहादुर ने उठाया, जोकि इतिहास में जंग बहादुर राणा के नाम से जाना जाता है। उसने सन् 1846 ई0 में, राजमहल में भारी कत्लेआम कराकर सभी विरोधी राजनैतिक गुटों का सफाया कर दिया। साथ ही उसने राजा के विशेषाधिकारों को समाप्त कर सत्ता पर कब्जा किया और निरकुंश सत्ता को अपने परिवार के हाथों में केन्द्रित कर लिया। इस प्रकार जंग बहादुर ने एक नई खोज की, जो राणा शासन को पिछले पारिवारिक शासनों से अलग करती है। उसने राजा सुरेन्द्र से जबर्दस्ती सन् 1856 ई0 की सनद (राजसी आदेश) जारी करवाकर राणा शासन के अस्तित्व के लिए वैधानिक आधार प्रदान किया। इस सनद के आधार पर उसके द्वारा अपने परिवार की हैसियत को राजनैतिक संरचना के भीतर स्थापित कर लिया गया। इस दस्तावेज ने जंग बहादुर एवं उसके उत्तराधिकारियों को, नागरिक तथा सैन्य प्रशासन, न्याय एवं विदेशी संबंधों में निरंकुश सत्ता प्रदान कर दी, जिसमें राजा के आदेशों को राष्ट्रीय हितों के लिए अपर्याप्त अथवा विरोधाभासयुक्त होने पर नजरअंदाज कर देने का अधिकार शामिल था। इसप्रकार राजसी परिवार ने अपनी सभी संप्रभु शक्तियों का समर्पण कर दिया और स्वयं महल के आहाते में एकांतवास में रहने लगे। इसके बदले शाह राजाओं को अधिक गौरवशाली, बल्कि एक तरह से विडम्बनापूर्ण महाराजाधिराज (राजाओं के राजा) की उपाधि से सम्मानित किया गया।
सन् 1856 ई0 की सनद के द्वारा प्रधानमंत्री का पद शाश्वत रूप से राणाओं को प्राप्त हो गया और इसके साथ ही उन्हें काशी एवं लामजुंग के महाराजा की उपाधि भी प्रदान कर दी। इस सनद ने देश में राणा परिवार के शासन के लिए वैधानिक आधार उपलब्ध करा दिया। प्राय: कहा जाता है कि जंग बहादुर राजतंत्र की संस्था से पूरे तौर पर मुक्ति पाना चाहता था, जिसके लिए कुछ इतिहासकारों का मनना है कि उसने भारत के ब्रिटिश शासकों की स्वीकृति प्राप्त करनी चाही थी। किन्तु वह इसमें सफल नहीं हो सका तथा उसे शाह वंश के बंधक राजतंत्र के साथ ही संतोष करना पड़ा, जो कि राणा के प्रभुत्व वाली राजनैतिक व्यवस्था के अन्तर्गत एक संस्था के रूप में बरकरार रहा। इसप्रकार नेपाल में जो राजनैतिक प्रणाली उभर कर सामने आयी, उस प्रणाली को राणाशाही अथवा राणावाद कहा जाता है। राणा प्रशासकों द्वारा राजनैतिक प्रशासनिक प्रणाली के स्वेच्छाचारी चरित्र को बनाए रखा गया और राणा प्रधानमंत्री ही सत्ता का वास्तविक स्रोंत बन गया। शाह के शासन के दौरान राणा परिवार के सदस्यों को राजनैतिक एवं प्रशासनिक पदों पर बैठाने का कार्य पुराने कुलीनों को हटाकर किया गया। इस प्रकार नेपाल में राणा प्रधानमंत्री का पद उत्तराधिकार के रूप में एक के बाद दूसरे भाई को मिलता गया। राणा शासकों ने फरमान एवं उद्धोषणाएं जारी कर देश के प्रशासन को चलाने का कार्य किया। उन्होनें इसके लिए नेपाल में किसी संविधान का निर्धारण नहीं किया। इस प्रकार राणाओं की कानूनी एवं प्रशासनिक प्रणाली फरमानों एवं उद्धोषणाओं पर ही आधारित रही।
नेपाल में यद्यपि राणा शासक एक ऐसी निरंकुश राजनैतिक प्रणाली स्थापित करने का प्रयास करते रहे, जो देष को अलग-थलग रखने, समाज को राजनैतिक रूप से दबाकर रखने तथा साथ ही नेपाल की अर्थव्यवस्था को पिछड़ा हुआ बनाए रखने में सफल साबित हो सके, परन्तु देश विश्व व्यवस्था में होने वाली परिवर्तन की हवाओं से अछुता नहीं रह सका, जो उस समय समूचे एशिया में बह रही थीं। 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ काल में उदयीमान शिक्षित मध्यम वर्ग द्वारा राणा निरंकुशता की आलोचना की जाने लगी तथा राजनैतिक एवं सामाजिक पिछड़ेपन के लिए राणाओं को दोषी ठहराया जाने लगा। इसी काल के दौरान भारत में जोर शोर से चल रहे सामाजिक, धार्मिक एवं साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलनों ने भी नेपालियों को प्रभावित किया, जिसने राणा तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाने के लिए शक्ति का कार्य किया। राजवंषों ने नेपाल के साहित्य तथा वहाँकी वास्तुकलाओं को प्रभावित करने का कार्य किया। अंशु वर्मा द्वारा देवपाटन का 9 मंजिला कैलाशकुट भवन सन् 589 ई0 में बनवाया गया था। उसने महाराजाधिराज की उपाधि अपने नाम के साथ जोड़ी एवं मुद्राएं चलवाई। राजा नरेन्द्रदेव ने राजदरबार बनवाया, जो पगौड़ा शैली पर आधारित था। पशुपेक्ष्यदेव ने काशी से मिट्टी मंगवा कर पशुपतिनाथ मंदिर का निर्माण कराया एवं मंदिर के शिखर पर सोने की चादर चढ़वाई। इसी प्रकार राजा शिवदेव द्वारा भोट विष्टि गुटी की स्थापना की गई। जयदेव जो संस्कृत का विद्वान था, ने एक स्तुति पशुपतिनाथ मंदिर के पास शिला पर अंकित करवाई। जयदेव गुणकामदेव द्वारा ही सन् 713 ई. में काठमाण्डू नगर को स्थापित किया गया। इसके अलावा 9वीं शताब्दी में यहां कई मंदिर तथा स्तूप आदि बने। जिसमें स्वयंभूनाथ, काष्ठमण्डप, महाबौद्ध तथा कुम्भेश्वर प्रमुख है। गुणकामदेव ने इन्द्रयात्रा, कृष्ण यात्रा तथा लाखे यात्रा जैसे उत्सव शुरू करवाया।
ठकुरी वंश के अंतिम राजा शंकरदेव हुआ, इसके समय में अष्ट सहस्त्रिका, धर्म पुत्रिका, बोधि चर्मावतार जैसे ग्रन्थों की रचना की गई। नेपाल में मैथिली भाषा में सबसे अधिक नाटक राय मल्ल के वक्त में लिखे गए। जीतमित्र ने कई मंदिरों का निर्माण कराया एवं अश्वमेध नाट्य तथा जैमिनी भारत गं्रथ लिखे। इसप्रकार लिच्छिवियों से लेकर मल्लों तक ने नेपाल की प्राचीन कला तथा साहित्य को गहरे ढ़ंग से प्रभावित करने का कार्य किया। इनके द्वारा अनेकों मन्दिरों का जीर्णोद्धार करते हुए ऐतिहासिक भवनों का निर्माण करवाया गया। नेपाल पर मोनादेव के शासन का वर्णन मिलता है, जो एक लिच्छवी शासक था, लेकिन विभिन्न छोटे-छोटे रियासतों पर विजय प्राप्त करके उन्हें एकीकृत कर सन् 1769 ई0 में नेपाल राज्य की स्थापना करने वाला शासक गोरखा राजा पृथ्वीनारायण शाह था। शाह शासकों ने एक निरंकुश राजनैतिक प्रणाली स्थापित किया, जिसमें राजतंत्र सत्ता के केन्द्र में था, किन्तु राजा ही शक्ति का एक मात्र स्रोंत था। शाह राजा के मुंह से निकलने वाले शब्द तथा आदेश ही देश के नियम एवं कानून माने जाने लगे थे। राजा के निर्णयों को चुनौती नहीं दी जा सकती थी और इसके साथ ही वह हर तरह के न्याय का अंतिम स्रोत था। उत्तरवर्ती काल में, शासक परिवार के भीतर सत्ता के लिए होने वाले आंतरिक संघर्श ने इनकी स्थिति को कमजोर बना दिया। एक अन्य कारक ने भी इनकी परिस्थिति को ज्यादा बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। शाहों के लिए यह एक दुर्घटना ही थी कि 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में एक संक्षिप्त अंतराल को छोड़कर सन् 1777 ई0 से सन् 1832 ई0 तक राजसिंहासन पर नाबालिक लोगों को राजा बनाकर बैठाना पड़ा। इसके कारण प्रति शासकों एवं मंत्रियों (देसी भाषा में जिन्हें ‘‘मुक्तियार’’ कहॉ जाता था) को, राजनैतिक प्रक्रिया से राजा को लगभग अलग-थलग रखकर, अपने हाथों में सत्ता को केन्द्रीत करने का अवसर मिल गया। पुन: उच्च जाति के अनेक प्रतिभाशाली परिवार राज्य के तीव्र विस्तार के चलते शाहों की शासक प्रणाली में शरीक हो गए, जिनकी शाह वंश के प्रति वफादारी अथवा सेवा की कोई स्थापित परम्परा नहीं थी। इस प्रक्रिया में गोरखा कुलीन परिवारों के बीच सत्ता के केन्द्रीयकरण को तथा जनता की जनतांत्रिक आकांक्षाओं को उनके द्वारा स्वीकार न किए जाने का भारतीय नेतृत्व ने पसन्द नहीं किया। नेपाल की जनवादी शक्तिया को भारत की जनता ने भी समर्थन प्रदान किया।
इस तरह इस काल में राजनैतिक प्रणाली एक पिरामिड नुमा संरचना बनकर रह गई थी। जो कि वास्तव में कुछ प्रमुख ब्राह्मण परिवारों की सलाह पर चलने वाली प्रणाली के अलावा कुछ नहीं थी, इन्हीं परिवारों के मध्य सत्ता तथा प्रभाव का आवंटन समय-समय बदलता रहा, जिसमें प्रमुख थे, चौतरियाओं (शाह परिवार की एक संगोत्रीय शाखा) का सन् 1785 ई0 से सन् 1794 ई0 तक प्रभुत्व रहा, सन् 1799 ई0 से सन् 1805 ई0 तक पाण्डे, तथा सन् 1806 ई0 से सन् 1837 ई0 तक थापाओं का दबदबा रहा। इन सभी में भीमसेन थापा ने राज्य की पूर्णशक्ति धारण कर ली थी।
इन सभी के शासन काल में राजनैतिक प्रक्रिया के लक्ष्य तथा तरीके अधिकांश तौर पर अपरिवर्तित ही रहे। इसप्रकार इसकाल में इन सभी परिवारों ने अनिवार्य रूप से एक ही तरह से प्रशासन का संचालन किया था। इन्होनें अपना अधिक ध्यान भौतिक एवं राजनैतिक सौभाग्य को बढ़ाने पर लगाया। इस तरह से परिवारवाद ही राजनैतिक प्रणाली की आत्मा बन गया और प्राथमिक वफादारी राष्ट्र अथवा राजतंत्र की संस्थाओं के बजाए, परिवार के प्रति ही रही। जिसके कारण से नेपाली प्रशासन का गठन भी पारिवारिक अथवा प्रभुत्वशाली परिवारों की अनेक शाखाओं के बीच बंट गई। इसप्रकार से किसी को सौंपी गई रेजीमेण्टों की संख्या ही उसकी अपेक्षित शक्ति एवं प्रभाव की सबसे विश्वस्त सूचक बन गई। यहां तक कि इस काल के दौरान अव्यवस्था वाली राजनैतिक परिस्थिति में भी शाह वंश ने अपनी सरकार के लिए वैधता के लिए जरूरी अंतिम स्रोत के रूप में, शासक परिवारों द्वारा जटिल जोड़-तोड़ के लंबे समय के दौरान राजसिंहासन में वह निरन्तरता तथा स्थिरता प्रदान करता रहा। किन्तु शासक परिवार स्वयं भी राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं से बचा नहीं रहा और उसका व्यवहार भी अक्सर कुलीनों की भांति परिवारवाद को बढ़ाने की भावना का शिकार रहा। यह सबसे अधिक थापा परिवार के पतन ( सन् 1837 ई0 ) तथा राणा परिवार के उदय ( सन् 1846 ई0 ) के बीच के काल में दिखाई दिया, जबकि राजा राजेन्द्र ने राजसी परिवार की सत्ता को बहाल करने की कोशिश की। हालांकि उसके काल की बुनियादी राजनैतिक परिस्थिति प्रतिकूल थी और उसकी कोशिशों से अंतत: राजवंश पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा।
गोरखा शासक पृथ्वी नारायण शाह द्वारा सन् 1769 ई0 नेपाली राष्ट्र की आधारशिला रखी गई। नेपाल देश एक राज्य के रूप में सन् 1769 ई0 में ही अस्तित्व में आया किन्तु संविधान निर्माण की प्रक्रिया सन् 1948 ई0 में जाकर शुरू हो सकी। पुन: चार दशकों के अवधि के भीतर ही देश को संविधान निर्माण के अनेक प्रयासों के दौर से गुजरना पड़ा, विभिन्न अवधियों में, राज्य में राजनैतिक घटना विकास को भिन्न-भिन्न दिशाएं प्रदान करने वाले विभिन्न संविधान लागू किए गए। सन् 1950 ई0 में अधिनायकवादी राणा प्रणाली का तख्ता पलट के बाद, जो जनतांत्रिक प्रयोग किया गया था, उसे सन् 1960 ई0 में तब धक्का लगा, जब राजा महेन्द्र ने संसदीय स्वरूप वाली शासन प्रणाली को निरस्त करके राजा के प्रत्यक्ष शासन की स्थापना की। एक निरंकुश राजतंत्र के अधीन अपने प्रत्यक्ष शासन को वैधता का मुखौटा प्रदान करने के लिए राजा महेन्द्र ने सन् 1962 ई0 में पार्टी विहीन पंचायती लोकतंत्र, नामक एक प्रणाली लागू की। इस प्रणाली में, जन्मजात तौर पर जनतांत्रिक तत्व का अभाव था और साथ ही यह प्रणाली सच्ची प्रतिनिधि संस्थाओं की बहाली कर पाने में अक्षम थी। बहुदलीय जनतंत्र की स्थापना के लिए चलाये गए एक सफल संघर्ष के बाद सन् 1990 ई0 में पंचायती युग का अंत हो गया और देश में एक बार फिर संसदीय प्रणाली की स्थापना हो गई।