अनुक्रम
वर्षण के रूप
पृथ्वी पर वर्षण कई रूपों में होता है जैसे जल की बूंदों, हिमलव व ठोस बर्फ या ओला तथा कभी-कभी एक साथ जल की बूदों व ओले के रूप में। वर्षण का रूप अधिकांशतः संघनन की विधि व तापमान पर निर्भर करता है। वर्षण के अनेक रूप हैं:-
वर्षा के प्रकार
- संवहनीय वर्षा
- पर्वतकृत वर्षा
- अभिसरण या चक्रवातीय वर्षा
1. संवहनीय वर्षा – उष्णकटिबन्ध में पृथ्वी के अत्याधिक गर्म होने से ऊध्र्वाधर वायु धाराएँ पैदा होती है। ये वायु धारायें गर्म-आर्द्र वायु को वायुमण्डल के उच्च स्तरों तक उठा देती हैं। जब इस प्रकार की आर्द्र वायु का तापमान ओसांक से नीचे लगातार गिरता है तो बादल बनते हैं। ये बादल बिजली की चमक व गरज के साथ वर्षा करते हैं। इस प्रकार की वर्षा को संवहनीय वर्षा कहते हैं। इस प्रकार की वर्षा विषुवतीय प्रदेशों में प्राय: प्रतिदिन दोपहर के बाद होती है।
- गर्म वाताग्र से सम्बद्ध वर्षा
- शीत वाताग्र से सम्बद्ध वर्षा
वर्षा के इन तीनों प्रकारों में आर्द्र वायुराशि का ठंडा होना बहुत जरूरी है। संवहनीय वर्षा में गर्म-आर्द्र वायु के ऊपर उठने के बाद की क्रियाएं पर्वतकृत वर्षा के समान हैं। प्रकृति में ये तीनों विधियां एक साथ कार्य करती हैं। वास्तव में पृथ्वी का ज्यादातर वर्षण या वर्षा किसी एक कारण की अपेक्षा दो या अधिक कारणों का परिणाम होता है
वर्षण का वितरण
वर्षण का प्रादेशिक वितरण संसार में असमान है। संसार में औसत वार्षिक वर्षा लगभग 97.5 से.मी. होती है। लेकिन स्थलीय भाग महासागर की अपेक्षा कम वर्षा प्राप्त करते हैं। स्थलीय भागों में वार्षिक वर्षण में काफी अन्तर देखने को मिलता है। पृथ्वी के धरातल के विभिन्न स्थानों पर भिन्न ऋतुओं में विभिन्न मात्रा में वर्षण होता है। वर्षण के वितरण के प्रमुख लक्षणों को भूमण्डलीय दाब व पवन पेटियों, स्थल व जलीय भागों के वितरण तथा स्थलाकृतिक लक्षणों की मदद से स्पष्ट किया जा सकता है। वर्षण के प्रादेशिक व मौसमी अन्तरों के लिए उत्तरदायी कारणों से संबंधित किन्हीं निष्कर्षों पर पहुँचने से पहले, आइए सबसे पहले इसके प्रादेशिक व मौसमी वितरण के रूपों का अवलोकन करें।
- भारी वर्षण के प्रदेश : जिन प्रदेशों में 200 से.मी. से अधिक वार्षिक वर्षण होता है, उन्हें इस वर्ग में सम्मिलित किया जाता है। इनमें विषुवतीय, उष्ण कटिबन्ध के तटीय क्षेत्रा तथा शीतोष्ण कटिबन्ध के पश्चिमी तटीय प्रदेश शामिल हैं।
- मध्यम वर्षण के प्रदेश : जिन प्रदेशों में 100 से 200 से.मी. वार्षिक वर्षण होता है, वे इस वर्ग में आते हैं। ये प्रदेश अति वर्षण प्रदेशों के साथ लगे हुए प्रदेश हैं। उपोष्ण कटिबन्ध के पूर्वी तटीय प्रदेश तथा गर्म शीतोष्ण कटिबन्ध के तटीय प्रदेश इस वर्ग के प्रदेशों में शामिल हैं।
- कम वर्षण के प्रदेश : इस वर्ग में वे प्रदेश आते हैं जहाँ वार्षिक वर्षण 50 से.मीसे 100 से.मी. तक होता है। ये प्रदेश उष्ण कटिबन्धों के आन्तरिक भागों तथा शीतोष्ण कटिबन्ध के पूर्वी आन्तरिक भागों में स्थित है।
- अति अल्प वर्षण के प्रदेश : वृष्टि छाया क्षेत्रों या पर्वत श्रेणियों के पवन विमुख ढ़ालों पर, महाद्वीपों के आन्तरिक भागों, अयन वृत्तों पर स्थित महाद्वीपों के पश्चिमी सीमान्त क्षेत्रों और उच्च आक्षांशों में वार्षिक वर्षण 50 से.मी. से कम होता है। इन प्रदेशों में, उष्ण, शीतोष्ण तथा शीत कटिबन्धीय मरूस्थल भी सम्मिलित हैं।
2. ऋतुवत् अन्तर – संसार के भिन्न भागों में वर्षण के वितरण में पाये जाने वाले प्रादेशिक अन्तर औसत वार्षिक वर्षण पर आधारित है। इनसे मुख्यत: उन प्रदेशों के वर्षण के स्वरूप का सही चित्रण नहीं होता जहाँ वर्षण की मात्रा में ऋतुवत अन्तर एक सामान्य लक्षण हैं, उदाहरण के लिए मरूस्थलीय, अर्द्ध मरूस्थलीय या उपाद्र प्रदेश। अत: संसार में वर्षण के ऋतुवत् अन्तरों का अध्ययन महत्वपूर्ण हो जाता है। इससे संबंधित तथ्य इस प्रकार हैं-
- विषुवतीय प्रदेशों तथा शीतोष्ण भूमियों के पश्चिमी भागों में वर्षण वर्ष भर होता है। विषुवतीय क्षेत्रों में जहाँ संवहनीय वर्षा होती है और शीतोष्ण प्रदेश में पछुआ पवनों द्वारा चक्रवातीय एवं पर्वतकृत वर्षा होती है।
- संसार के लगभग दो प्रतिशत भागों में वर्षण केवल शीतकाल में होता है। इनमें संसार के भूमध्य सागरीय प्रदेश तथा भारत का कोरोमण्डल तट शामिल है। वायुदाब कटिबन्धों तथा भूमण्डलीय पवनों के ऋतु के अनुसार उत्तर-दक्षिण खिसकने से, भूमध्य सागरीय प्रदेशों में उपोष्ण उच्च दाब क्षेत्रा तथा सन्मार्गी पवनों की उपस्थिति के कारण गर्मियों में वर्षा नहीं होती, क्योंकि सन्मार्गी पवनें महाद्वीपों के इन पश्चिमी भागों में पहुँचते-पहुँचते शुष्क हो जाती हैं।
- संसार के शेष भागों में वर्षण केवल गर्मियों में होता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संसार के अधिकांश भागों में वर्षण में ऋतुवत अन्तर स्पष्ट रूप में अनुभव किये जाते हैं। इससे वर्षा जल का कुछ भाग बर्बाद हो जाता है। हमारे देश की भी कुछ ऐसी ही कहानी है।
वर्षण का ऋतुवत् वितरण हमें उसकी प्रभावी क्षमता को आंकने में मदद करता है। उदाहरण के लिये उच्च अक्षांशीय सीमित वर्धन काल वाले प्रदेशों में होने वाला हल्का वर्षण, निम्न अक्षांशीय प्रदेशों में भारी वर्षण की तुलना में अधिक प्रभावी होता है। इसी प्रकार, ओस, धुंध व कोहरे के रूप में होने वाला वर्षण भारत में मध्यवर्तीय भागों तथा कालाहारी मरूस्थलों में खड़ी हुई फसलों व प्राकृतिक वनस्पति पर प्रशंसनीय प्रभाव डालता है।
वर्षा के वितरण को प्रभावित करने वाले कारक
1. नमी की आपूर्ति : किसी प्रदेश में वर्षा की मात्रा को निर्धारित करने वाला महत्वपूर्ण कारक वायुमंडल को मिलने वाली नमी की मात्रा है। ऊष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में वाष्पीकरण सर्वाधिक होता है। अत: वायुमंडल को इस क्षेत्रा से सबसे ज्यादा नमी की आपूर्ति होती है। तटीय भागों में आन्तरिक भागों की अपेक्षा अधिक नमी मिलती है। धु्रवीय प्रदेशों में वाष्पीकरण बहुत कम है, अत: वहाँ वर्षा भी कम है।