सभी प्रकार के मानव समाजों में विवाह की अवधारणा पाई जाती है। सभी समाजों में विवाह के रीति-रिवाज एक दूसरे से अलग अलग हो सकते हैं। यह बहस आज भी जारी है कि विवाह कब अस्तित्व में आया और यह समाज का अभिन्न अंग कब बन गया।
विवाह का शाब्दिक अर्थ है, ’उद्वह‘ अर्थात वधू को वर के घर ले जाना। विवाह को परिभाषित करते हुए लूसी मेयर लिखती है ’’विवाह की परिभाषा यह है कि वह स्त्री-पुरूष का ऐसा योग है, जिससे स्त्री से जन्मा बच्चा माता-पिता की वैध सन्तान माना जाय।’’ बोगार्डस के अनुसार, ‘‘विवाह स्त्री और पुरूष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की एक संस्था है।’’ हिन्दू विवाह को हिन्दू धर्म में सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। अतः इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार का े सामान्य रूप से हिन्दू विवाह के नाम से जाना जाता है।
अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिन्दू विवाह पति और पत्नी के बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे कि किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं।
हिन्दू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संबंध से अधिक आत्मिक संबंध होता है और इस संबंध को अत्यंत पवित्र माना गया है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार मानव जीवन को चार आश्रमों (ब्रम्हचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, सन्यास आश्रम तथा वानप्रस्थ आश्रम) में विभक्त किया गया है और गृहस्थ आश्रम के लिये पाणिग्रहण संस्कार अर्थात् विवाह नितांत आवश्यक है। हिन्दू विवाह में शारीरिक संबंध केवल वंश वृद्धि के उद्देश्य से ही होता है।
शतपथ ब्राह्मण ने भी लिखा गया है कि “पत्नी निश्चित रूप से पति का आदर्श है। अतः जब तक पुरुष अपनी पत्नी प्राप्त नहीं करता एवं संतान उत्पन्न नहीं करता तब तक वह पूर्ण नहीं होता।”
विवाह की परिभाषा
डब्ल्यू. एच. आर. रिवर्स के अनुसार, जिन साधनों द्वारा मानव समाज यौन सम्बन्धों का नियमन करता है, उन्हें विवाह की संज्ञा दी जा सकती है।
वेस्टरमार्क के अनुसार, विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह सम्बन्ध है, जिसे प्रथा या कानून स्वीकार करता है और जिसमें इस संगठन में आने वाले दोनों पक्षों एवं उनसे उत्पन्न बच्चों के अधिकार एवं कर्तव्यों का समावेश होता है। वेस्टरमार्क ने विवाह बन्धन में एक समय में एकाधिक स्त्री पुरुषों के सम्बन्धों को स्वीकार किया है जिन्हें प्रथा एवं कानून की मान्यता प्राप्त होती है। पति-पत्नी और उनसे उत्पन्न सन्तानों को कुछ अधिकार और दायित्व प्राप्त होते हैं।
बोगार्डस के अनुसार, विवाह स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है। मजूमदार एवं मदान लिखते हैं, विवाह में कानूनी या धार्मिक आयोजन के रूप में उन सामाजिक स्वीकृतियों का समावेश होता है जो विषमलिंगियों को यौन-क्रिया और उससे सम्बिन्धात सामाजिक-आर्थिक सम्बन्धों में सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान करती है।
जॉनसन ने लिखा है, विवाह के सम्बन्ध में अनिवार्य बात यह है कि यह एक स्थायी सम्बन्ध है। जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री, समुदाय में अपनी प्रतिष्ठा को खोये बिना सन्तान उत्पन्न करने की सामाजिक स्वीकृति प्रदान करते हैं।
हॉबल के अनुसार, विवाह सामाजिक आदर्श-मानदण्डों (Social Norms) की वह समग्रता है जो विवाहित व्यक्तियों के आपसी सम्बन्धों को, उनके रक्त-सम्बन्धियों, सन्तानों तथा समाज के साथ सम्बन्धों को परिभाषित और नियन्त्रित करती है।
हेरी.एम. जॉनसन : यह एक स्थिर सम्बन्ध है जिसकी अनुमति, समुदाय के मध्य अपनी स्थिति को खोये बिना, पुरुष तथा स्त्री को समाज प्रदान करता है। इस तरह के स्थिर सम्बन्ध की दो और शर्तें है : यौन संतुष्टि तथा बच्चों का प्रजजन।
जी.पी. मुरडॉक : एक साथ रहते हुए नियमित यौन सम्बन्ध और आर्थिक सहयोग रखने को विवाह कहते हैं। इस तरह विवाह के मूलभूत तत्व है : स्त्री तथा पुरुष के बीच में समाज द्वारा अनुमोदित पति-पत्नी के रूप में नियमित यौन सम्बन्ध, उनका एक साथ रहना, बच्चों का प्रजनन, और आर्थिक सहयोग।
हिन्दू विवाह की शुरूआत
मानव समाज में विवाह की संस्था के प्रादुर्भाव के बारे में 19वीं शताब्दी में वेखोफन (1815-80 ई.), मोर्गन (1818-81 ई.) तथा मैकलीनान (1827-81) ने विभिन्न प्रमाणों के आधार पर इस मत का प्रतिपादन किया था कि मानव समाज की आदिम अवस्था में विवाह का कोई बंधन नहीं था, सब नर-नारियों को यथेच्छ कामसुख का अधिकार था।
महाभारत में पांडु ने अपनी पत्नी कुंती को नियोग के लिए प्रेरित करते हुए कहा है कि पुराने जमाने में विवाह की कोई प्रथा न थी, स्त्री पुरुषों को यौन संबंध करने की पूरी स्वतंत्रता थी। कहा जाता है, भारत में श्वेतकेतु ने सर्वप्रथम विवाह की मर्यादा स्थापित की।
क्रोपाटकिन व्लाख और व्राफाल्ट ने प्रतिपादित किया कि प्रारभिक कामचार की दशा के बाद बहुभार्यता (पोलीजिनी) या अनेक पत्नियाँ रखने की प्रथा विकसित हुई और इसके बाद अंत में एक ही नारी के साथ पाणिग्रहण करने (मोनोगेमी) का नियम प्रचलित हुआ। किंतु चार्ल्स डार्विन ने प्राणिशास्त्र के आधार पर विवाह के आदिम रूप की इस कल्पना का प्रबल खंडन किया, वैस्टरमार्क, लौंग ग्रास तथा क्राले प्रभृति समाजशास्त्रियों ने इस मत की पुष्टि की। प्रसिद्ध समाजशास्त्री रिर्क्ख ने लिखा है कि हमारे पास इस कल्पना का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है कि भूतकाल में कभी कामचार की सामान्य दशा प्रचलित थी।
विवाह की संस्था मानव समाज में जीवशास्त्रीय आवश्यकताओं से उत्पन्न हुई है। इसका मूल कारण अपनी जाति को सुरक्षित बनाए रखने की चिंता है। यदि पुरुष यौन संबंध के बाद पृथक् हो जाए, गर्भावस्था में पत्नी की देखभाल न की जाए, संतान उत्पन्न होने पर उसके समर्थ एवं बड़ा होने तक उसका पोषण न किया जाए तो मानव जाति का अवश्यमेव उन्मूलन हो जाएगा। अतः आत्मसंरक्षण की दृष्टि से विवाह की संस्था की उत्पत्ति हुई है। यह केवल मानव समाज में ही नहीं, अपितु मनुष्य के पूर्वज समझे जाने वाले गोरिल्ला, चिंपाजी आदि में भी पाई जाती हैं। अतः कामचार से विवाह के प्रादुर्भाव का मत अप्रामाणिक और अमान्य है।
वेस्टरमार्क ने लिखा है कि “विवाह एक या अधिक पुरुषों का एक या अधिक स्त्रियों के साथ होने वाला वह सम्बन्ध है। जो प्रथा या कानून के द्वारा स्वीकृत होता है तथा जिसमें विवाह से सम्बन्धित दोनों पक्षों और उन से उत्पन्न होने वाले बच्चों के अधिकारों व कर्तव्यों का समावेश होता है।”
हिन्दू विवाह के प्रकार
शास्त्रों के अनुसार विवाह आठ प्रकार के होते हैं। विवाह के ये प्रकार है – ब्रह्म, दैव, आर्श, प्राजापत्य, असुर, गन्धर्व, राक्षस और पिशाच। उक्त आठ विवाह में से ब्रह्म विवाह को ही मान्यता दी गई है बाकि विवाह को धर्म के सम्मत नहीं माना गया है। हालांकि इसमें देव विवाह को भी प्राचीन काल में मान्यता प्राप्त थी। प्राजापत्य, असुर, गंधर्व, राक्षस और पिशाच विवाह को बेहद अशुभ माना जाता है।
हिन्दू विवाह भोगलिप्सा का साधन नहीं, एक धार्मिक-संस्कार है। संस्कार से अंतःशुद्धि होती है और शुद्ध अंतःकरण में ही दांपत्य जीवन सुखमय व्यतीत हो पाता है। संस्कारों में ब्रह्म विवाह को ही शामिल किया गया है।
1. ब्रह्म विवाहः दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या की इच्छानुसार विवाह निश्चित कर देना ‘ब्रह्म विवाह‘ कहलाता है। इस विवाह में वैदिक रीति और नियम का पालन किया जाता है। यही उत्तम विवाह है।
2. देव विवाहः किसी सेवा धार्मिक कार्य या उद्देश्य के हेतु या मूल्य के रूप में अपनी कन्या को किसी विशेष वर को दे देना ‘दैव विवाह‘ कहलाता है। लेकिन इसमें कन्या की इच्छा की अनदेखी नहीं की जा सकती। यह मध्यम विवाह है। ए. एसअल्तेकर के मतानुसार, ’देव-विवाह वैदिक यज्ञों के साथ ही लुप्त हो गए।’’
3. आर्श विवाहः कन्या-पक्ष वालों को कन्या का मूल्य देकर (सामान्यतः गौदान करके) कन्या से विवाह कर लेना ‘अर्श विवाह‘ कहलाता है। यह मध्यम विवाह है।
4. प्रजापत्य विवाहः कन्या की सहमति के बिना माता-पिता द्वारा उसका विवाह अभिजात्य वर्ग (धनवान और प्रतिष्ठित) के वर से कर देना ‘प्रजापत्य विवाह‘ कहलाता है।
5. गंधर्व विवाहः इस विवाह का वर्तमान स्वरूप है प्रेम विवाह। परिवार वालों की सहमति के बिना वर और कन्या का बिना किसी रीति-रिवाज के आपस में विवाह कर लेना ‘गंधर्व विवाह‘ कहलाता है। वर्तमान में यह मात्र यौन आकर्षण और धन तृप्ति हेतु किया जाता है, लेकिन इसका नाम प्रेम विवाह दे दिया जाता है। इसका नया स्वरूप लिव इन रिलेशनशिप भी माना जाता है।
6. असुर विवाहः कन्या को खरीद कर (आर्थिक रूप से) विवाह कर लेना ‘असुर विवाह‘ कहलाता है।
7. राक्षस विवाहः कन्या की सहमति के बिना उसका अपहरण करके जबरदस्ती विवाह कर लेना ‘राक्षस विवाह‘ कहलाता है।
8. पैशाच विवाहः कन्या की मदहोशी (गहन निद्रा, मानसिक दुर्बलता आदि) का लाभ उठा कर उससे शारीरिक संबंध बना लेना और उससे विवाह करना ‘पैशाच विवाह‘ कहलाता है।
विवाह के नियम
विवाह का कोई भी प्रकार हो, इसके कुछ नियम होते हैं जिनका पालन करना होता है। सभी समाजों में विवाह के दो नियम पाये जाते हैं :
अन्तर्विवाह
इस विवाह में एक जाति, जनजाति, समूह अथवा समुदाय के सदस्य ही समूह में विवाह करते हैं। ब्राह्मण, ब्राह्मणों में विवाह करेगा और संथाल, संथाल जनजाति में। इसी कारण जाति की पहचान अन्तर्विवाह है। कई बार विशेष जाति या जनजाति को अन्र्तवैवाहिकी भी कहते है।
बहुर्विवाह
विवाह का यह नियम अन्तर्विवाह के एकदम विपरीत होता है। यह होते हुए भी ये दोनों नियम एक साथ प्रजाति और जाति पर लागू होते हैं। जाति व्यवस्था के अन्तर्गत एक जाति के सदस्यों से अपेक्षा की जाती है। कि वे अपनी ही जाति के अन्तर्गत विवाह करें लेकिन इसके साथ ही साथ उनसे बहिर्विवाह की भी अपेक्षा की जाती है कि वे अपने निकट सम्बन्धियों, एक ही रक्त सम्बन्धियों, अपने गोत्र, पिण्ड तथा प्रवर के बीच में विवाह न करें।
ऐसी प्रथा जनजातियों कृषकों तथा औद्योगिक समाजों में समान रूप से विद्यमान है। भारत की जनजातियों में तो ग्राम बहिर्विवाह का नियम भी सख्ती से लागू होता है।
विवाह की प्रमुख विशेषताएँ
- विवाह प्रत्येक देश, काल, समाज और संस्कृति में पायी जाती है।
- विवाह दो विषमलिंगियों का सम्बन्ध है। विवाह के लिए दो विषमलिंगियों अर्थात् पुरुष और स्त्री का होना आवश्यक है। इतना अवश्य है कि कहीं एक पुरुष का एक या अधिक स्त्रियों के साथ और कहीं एक स्त्री का एक पुरुष या अधिक पुरुषों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होता है, परन्तु आजकल एक-विवाह (Monogamy) की प्रथा का चलन ही पाया जाता है।
- विवाह को मान्यता उसी समय प्राप्त होती है जब उसे समाज की स्वीकृति मिल जाती है। यह स्वीकृति प्रथा या कानून के द्वारा अथवा धार्मिक संस्कार के रूप में हो सकती है।
- विवाह संस्था के आधार पर लैंगिक या यौन सम्बन्धों को मान्यता प्राप्त होती है।
- विवाह यौन इच्छाओं की पूर्ति के साथ-साथ सन्तानोत्पत्ति एवं समाज की निरन्तरता को बनाये रखने की आवश्यकता की पूर्ति भी करती है। व्यक्तित्व के विकास की जैविकीय, मनोवैज्ञानिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
- विवाह सम्बन्ध एक स्थायी सम्बन्ध है। विवाह के आधार पर पति-पत्नी के बीच स्थायी सम्बन्ध की स्थापना होती है।
विवाह के उद्देश्य
हिन्दू विवाह अनेक धार्मिक विधियों द्वारा सम्पन्न होता है हिन्दू विवाह अनेक धार्मिक विधियों तथा अनुष्ठानों के पश्चात् ही सम्पन्न होता है।
1. शुभ मुहूर्त – विवाह सम्पन्न होने से पूर्व एक शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। बालक – बालिका के जन्म के समय को ध्यान में रखकर एक शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। इसी शुभ दिन विवाह सम्पन्न किया जाता है।
ऽ कन्या के घर जाना – विवाह सम्पन्न कराने के लिए वर पक्ष, कन्या पक्ष के घर जाता है। वर पक्ष अपने साथ कुछ अन्य व्यक्तियों को भी ले जाता है। ये व्यक्ति वर के सगे सम्बन्धी तथा मित्र होते हैं। इन्हें ‘बाराती‘ कहा जाता है और ये सब मिलकर बारात कहलाते हैं यही बारात कन्या पक्ष के यहाँ जाती है।
3 कन्यादान – हिन्दू धर्मग्रन्थों में कन्यादान को महादान माना है। कन्यादान देने वाले को मोक्ष मिलता है, ऐसा विश्वास किया जाता है। पिता अपनी कन्या वर को दान में दे देता है।
4. यज्ञ वेदी – यज्ञ वेदी में अग्नि जलाई जाती है अग्नि को साक्षी मानकर वर तथा वधू को सदैव के लिए एक सूत्र में बाँध दिया जाता है। वर तथा वधू से अग्नि में आहूतियाँ दिलाई जाती हैं।
5. पाणिग्रहण – पाणिग्रहण संस्कार में वर तथा वधू एक दूसरे का हाथ पकड़ते हैं। इस समय वर तथा वधू कुछ प्रतिज्ञाऐं करते हैं। कुछ मन्त्रों का उच्चारण किया जाता है। वर तथा वधू जीवनपर्यन्त साथ रहने की प्रतिज्ञा करते हैं।
6. अष्मारोहण – इस कार्य के लिए कन्या का भाई कन्या के पैर को पत्थर पर रखवाता हैं। इस अवसर पर वर अपनी हाने वाली पत्नी से पत्थर की तरह दृढ़ रहने को कहता है।
7. लाजाहोम – इस अनुष्ठान में वधू अग्नि में खीलें डालती है। इस विधि से वधू, वर की दीर्घ आयु होने की कामना करती है।
8. अग्नि – परिण्यत- इसमें वर-वधू अग्नि की परिक्रमा करते हुए विवाह के सम्बन्ध को दृढ़ करते हैं।
ऽ सप्तपदी – सप्तपदी में वर-वधू से निश्चित कर्तव्यों को पूर्ण कराने की प्रतिज्ञा कराता है। इसमें वर-वधू गाँठ बाँधे हुए सात कदम चलते हैं।