अनुक्रम
- संस्कृत में ‘‘प्रकर्षेण अर्धयते यस्यां सा प्रार्थना’’ अर्थात प्रकर्ष रूप से की जाने वाली अर्थना (चाहना अभ्यर्थना)
- आंग्ल भाषा का Prayer यह शब्द Preier, precari, prex, prior इत्यादि धातुओं से बना है, जिनका अर्थ होता है चाहना या अभ्यर्थना।
इस प्रकार हम देखते हैं कि धर्म, भाषा, देश इत्यादि सीमाएँ प्रार्थना या Prayer के समान अर्थों को बदल नहीं पाई हैं। ‘‘प्रार्थना शब्द की रचना ‘अर्थ उपाया×आयाम’ धातु में ‘प्र’ उपसर्ग एवं ‘क्त’ प्रत्यय लगाकर शब्दशास्त्रीयों ने की है। इस अर्थ में अपने से विशिष्ट व्यक्ति से दीनतापूर्वक कुछ मांगने का नाम प्रार्थना है।
प्रार्थना का तात्पर्य यदि सामान्य शब्दों में बताया जाए तो कह सकते है। कि प्रार्थना मनुष्य के मन की समस्त विश्रृंखलित एवं अनेक दिशाओं में बहकने वाली प्रवृत्तियों को एक केन्द्र पर एकाग्र करने वाले मानसिक व्यायाम का नाम है। चित्त की समग्र भावनाओं को मन के केन्द्र में एकत्र कर चित्त को दृढ़ करने की एक प्रणाली का नाम ‘प्रार्थना’ है। अपनी इच्छाओं के अनुरूप अभीश्ट लक्ष्य प्राप्त कर लेने की क्षमता मनुष्य को (प्रकृति की ओर से ) प्राप्त है।
जो माँगोगे वह आपको दे दिया जाऐगा।
जो खोजोगे वह तुम्हें प्राप्त हो जाएगा।
खटखटाओगे तो आपके लिए द्वार खुल जाएगा।।
‘‘उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्’’
इस प्रकार यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि प्रार्थना भिक्षा नहीं, बल्कि शक्ति अर्जन का माध्यम है, प्रार्थना करने के लिए सबल सक्षम होना महत्व रखता है। प्रार्थना परमात्मा के प्रति की गई एक आर्तपुकार है। जब यह पुकार द्रौपदी, मीरा, एवं प्रहलाद के समान हृदय से उठती है तो भावमय भगवान दौड़े चले आते हैं। जब भी हम प्रार्थना करते हैं तब हर बार हमें अमृत की एक बूंद प्राप्त होती है जो हमारी आत्मा को तृप्त करती है।
प्रार्थना की परिभाषा
हितोपदेश :- ‘‘स्वयं के दुगुर्णों का चिंतन व परमात्मा के उपकारों का स्मरण ही प्रार्थना है। सत्य क्षमा, संतोष, ज्ञानधारण, शुद्ध मन और मधुर वचन एक श्रेष्ठ प्रार्थना है।’’
पैगम्बर हजरत मुहम्मद – ‘‘प्रार्थना (नमाज) धर्म का आधार व जन्नत की चाबी है।’’
श्री माँ – ‘‘प्रार्थना से क्रमश: जीवन का क्षितिज सुस्पष्ट होने लगता है, जीवन पथ आलोकित होने लगता है और हम अपनी असीम संभावनाओं व उज्ज्वल नियति के प्रति अधिकाधिक आश्वस्त होते जाते हैं।’’
महात्मा गांधी – ‘‘प्रार्थना हमारी दैनिक दुर्बलताओं की स्वीकृति ही नहीं, हमारे हृदय में सतत् चलने वाला अनुसंधान भी है। यह नम्रता की पुकार है, आत्मशुद्धि एवं आत्मनिरीक्षण का आह्वाहन है।’’
श्री अरविंद घोष – ‘‘यह एक ऐसी महान क्रिया है जो मनुष्य का सम्बन्ध शक्ति के स्रोत पराचेतना से जोड़ती है और इस आधार पर चलित जीवन की समस्वरता, सफलता एवं उत्कृष्टता वर्णनातीत होती है जिसे अलौकिक एवं दिव्य कहा जा सकता है।’’
सोलहवीं शताब्दी के स्पेन के संत टेरेसा के अनुसार प्रार्थना -’’प्रार्थना सबसे प्रिय सत्य (ईश्वर) के साथ पुनर्पुन: प्रेम के संवाद तथा मैत्री के घनिष्ठ सम्बन्ध हैं।’’
अत: कहा जा सकता है कि हृदय की उदात्त भावनाएँ जो परमात्मा को समर्पित हैं, उन्हीं का नाम प्रार्थना है। अपने सुख-सुविधा-साधन आदि के लिये ईश्वर से मांग करना याचना है प्रार्थना नहीं। बिना विचारों की गहनता, बिना भावों की उदात्तता, बिना हृदय की विशालता व बिना पवित्रता एंव परमार्थ भाव वाली याचना प्रार्थना नहीं की जा सकती।
वर्तमान में प्रार्थना को गलत समझा जा रहा है। व्यक्ति अपनी भौतिक सुविधओं व स्वयं को विकृत मानसिकता के कारण उत्पन्न हुए उलझावों से बिना किसी आत्म सुधार व प्रयास के ईश्वर से अनुरोध करता है। इसी भाव को वह प्रार्थना समझता है जो कि एक छल है, भ्रम है अपने प्रति भी व परमात्म सत्ता के लिये भी।
अत: स्वार्थ नहीं परमार्थ, समस्याओं से छुटकारा नहीं उनका सामना करने का सामर्थ्य, बुद्धि नहीं हृदय की पुकार, उथली नहीं गहन संवेदना के साथ जब उस परमपिता परमात्मा को उसका साथ पाने के लिए आवाज लगायी जाती है उस स्वर का नाम प्रार्थना है।
प्रार्थना के स्वरूप
प्रार्थना ईश्वर के बहाने अपने आप से ही की जाती है। ईश्वर सर्वव्यापी और परमदयालु है, उस हर किसी की आवश्यकता तथा इच्छा की जानकारी है। वह परमपिता और परमदयालु होने के नाते हमारे मनोरथ पूरे भी करना चाहता है। कोई सामान्य स्तर का सामान्य दयालु पिता भी अपने बच्चों की इच्छा आवश्यकता पूरी करने के लिए उत्सुक एवं तत्पर रहता है। फिर परमपिता और परमदयालु होने पर वह क्यों हमारी आवश्यकता को जानेगा नहीं। वह कहने पर भी हमारी बात जाने और प्रार्थना करने पर ही कठिनाई को समझें, यह तो ईश्वर के स्तर को गिराने वाली बात हुई। जब वह कीड़े-मकोड़ों और पशु-पक्षियों का अयाचित आवश्यकता भी पूरी करता है। तब अपने परमप्रिय युवराज मनुष्य का ध्यान क्यों न रखेगा ? वस्तुत: प्रार्थना का अर्थ याचना ही नहीं। याचना अपने आप में हेय है क्योंकि वही दीनता, असमर्थता और परावलम्बन की प्रवृत्ति उसमें जुड़ी हुई है जो आत्मा का गौरव बढ़ाती नहीं घटाती ही है। चाहे व्यक्ति के सामने हाथ पसारा जाय या भगवान के सामने झोली फैलाई जाय, बात एक ही है। चाहे चोरी किसी मनुष्य के घर में की जाय, चाहे भगवान के घर मन्दिर में, बुरी बात तो बुरी ही रहेगी। स्वावलम्बन और स्वाभिमान को आघात पहुँचाने वाली प्रक्रिया चाहे उसका नाम प्रार्थना ही क्यों न हो मनुष्य जैसे समर्थ तत्व के लिए शोभा नहीं देती।
वस्तुत: प्रार्थना का प्रयोजन आत्मा को ही परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझना है कि वह इसका पात्र बन कि आवश्यक विभूतियाँ उसे उसकी योग्यता के अनुरूप ही मिल सकें। यह अपने मन की खुषामद है। मन को मनाना है। आपे को बुहारना है। आत्म-जागरण है आत्मा से प्रार्थना द्वारा कहा जाता है, कि हे शक्ति-पुंज तू जागृत क्यों नहीं होता। अपने गुण कर्म स्वाभाव को प्रगति के पथ पर अग्रसर क्यों नहीं करता। तू संभल जाय तो सारी दुनिया संभल जाय। तू निर्मल बने तो सारे संसार की निर्बलता खिंचती हुई अपने पास चली जाए। अपनी सामथ्र्य का विकास करने में तत्पर और उपलब्धियों का सदुपयोग करने में संलग्न हो जाए, तो दीन-हीन, अभावग्रस्तों को पंक्ति में क्यों बैठना पड़े। फिर समर्थ और दानी देवताओं से अपना स्थान नीचा क्यों रहें।
प्रार्थना के माध्यम से हम विश्वव्यापी महानता के साथ अपना घनिष्ठ सम्पर्क स्थापित करने हैं। आदर्शों को भगवान की दिव्य अभिव्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं और उसके साथ जुड़ जाने की भाव-विव्हलता को सजग करते हैं। तमसाच्छन्न मनोभूमि में अज्ञान और आलस्य ने जड़ जमा ली है। आत्म विस्मृति ने अपने स्वरूप एवं स्तर ही बना लिया है। जीवन में संव्याप्त इस कुत्सा और कुण्ठा का निराकरण करने के लिए अपने प्रसुप्त अन्त:करण से प्रार्थना की जाय, कि यदि तन्द्रा और मूर्छा छोड़कर तू सजग हो जाय, और मनुष्य को जो सोचना चाहिए वह सोचने लगे, जो करना चाहिए सो करने लगे तो अपना बेड़ा ही पार हो जाए। अन्त:ज्योति की एक किरण उग पड़े तो पग-पग पर कठोर लगने के निमित्त बने हुए इस अन्धकार से छुटकारा ही मिल जाए जिसने शोक-संताप की बिडम्बनाओं को सब ओर से आवृत्त कर रखा है।
परमेष्वर यों साक्षी, दृश्टा, नियामक, उत्पादक,संचालक सब कुछ है। पर उसक जिस अंश की हम उपासना प्रार्थना करते हैं वह सर्वात्मा एवं पवित्रात्मा ही समझा जाना चाहिए। व्यक्तिगत परिधि को संकीर्ण रखने और पेट तथा प्रजनन के लिए ही सीमाबद्ध रखने वाली वासना, तृष्णा भरी मूढ़ता को ही माया कहते हैं। इस भव बन्धन से मोह, ममता से छुड़ाकर आत्म-विस्तार के क्षेत्र को व्यापक बना लेना यही आत्मोद्धार है। इसी को आत्म-साक्षात्कार कहते हैं। प्रार्थना में अपने उच्च आत्म स्तर से परमात्मा से यह प्रार्थना की जाती है कि वह अनुग्रह करे और प्रकाश की ऐसी किरण प्रदान करे जिससे सर्वत्र दीख पड़ने वाला अन्धकार -दिव्य प्रकाश के रूप में परिणत हो सके।
लघुता को विशालता में, तुच्छता को महानता में समर्पित कर देने की उत्कण्ठा का नाम प्रार्थना है। नर को नारायण-पुरुष को पुरुषोत्तम बनाने का संकल्प प्रार्थना कहलाता है। आत्मा को आबद्ध करने वाली संकीर्णता जब विषाल व्यापक बनकर परमात्मा के रूप में प्रकट होती है तब समझना चाहिए प्रार्थना का प्रभाव दीख पड़ा, नर-पशु के स्तर से नीचा उठकर, जब मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर होने लगे तो प्रार्थना की गहराई का प्रतीक और चमत्कार माना जा सकता है। आत्म समर्पण को प्रार्थना का आवश्यक अंग माना गया है। किसी के होकर ही हम किसी से कुछ प्राप्त कर सकते हैं। अपने को समर्पण करना ही हम ईश्वर के हमार प्रति समर्पित होने की विवशता का एक मात्र तरीका है। ‘शरणागति’ भक्ति का प्रधान लक्षण माना गया है।
भगवान को अपने में और अपने को भगवान में समाया होने की अनुभूति की, जब इतनी प्रबलता उत्पन्न हो जाए कि उसे कार्य रूप में परिणित किए बिना रहा ही न जा सके तो समझना चाहिए कि समर्पण का भाव सचमुच सजग हो उठा। ऐसे शरणागति व्यक्ति को प्रार्थना द्रुतगति से देवत्व की ओर अग्रसर करती है और यह गतिशीलता इतनी प्रभावकारी होती है कि भगवान को अपनी समस्त दिव्यता समेत भक्त के चरणों में शरणागत होना पड़ता है। यों बड़ा तो भगवान ही है पर जहाँ प्रार्थना, समर्पण और शरणागति की साधनात्मक प्रक्रिया का सम्बन्ध है, इस क्षेत्र में भक्त को बड़ा और भगवान को छोटा माना जायेगा क्योंकि अक्सर भक्त के संकेतों पर भगवान को चलते हुए देखा गया है। हमें सदैव पुरुषार्थ और सफलता के विचार करने चाहिए, समृद्धि और दयालुता का आदर्श अपने सम्म्मुख रखना चाहिये। किसी भी रूप में प्रार्थना का अर्थ अकर्मण्यता नहीं है। जो कार्य शरीर और मस्तिष्क के करने के हैं उनको पूरे उत्साह और पूरी शक्ति के साथ करना चाहिये। ईश्वर आटा गूंथने, न आयेगा पर हम प्रार्थना करेंगे तो वह हमारी उस योग्यता को जागृत कर देगा।
अंग्रेज कवि टैनीसन ने कहा है कि ‘‘बिना प्रार्थना मनुष्य का जीवन पशु-पक्षियों जैसा निर्बोध है। प्रार्थना जैसी महाशक्ति जैसी महाशक्ति से कार्य न लेकर और अपनी थोथी शान में रहकर सचमुच हम बड़ी मूर्खता करते हैं। यही हमारी अंधता है।’’
प्रभु के द्वार में की गई आन्तरिक प्रार्थना तत्काल फलवती होती है। महात्मा तुकाराम, स्वामी रामदास, मीराबाई, सूरदास, तुलसीदास आदि भक्त संतों एवं महांत्माओं की प्रार्थनाएँ जगत्प्रसिद्ध हैं। इन महात्माओं की आत्माएँ उस परम तत्व में विलीन होकर उस देवी अवस्था में पहुँच जाती थीं जिसे ज्ञान की सर्वोच्च भूमिका कहते हैं। उनका मन उस पराशक्ति से तदाकार हो जाता था। जो समस्त सिद्धियों एवं चमत्कारों का भण्डार है। उस दैवी जगत में प्रवेश कर आत्म श्रद्धा द्वारा वे मनोनीत तत्व आकर्शित कर लेते थे। चेतन तत्व से तादात्म्य स्थापित कर लेने के ही कारण वे प्रार्थना द्वारा समस्त रोग, शोक, भय व्याधियाँ दूर कर लिया करते थे।
यह परमेश्वर से वार्तालाप करने की एक आध्यात्मिक प्रणाली है। जिसमें हृदय बोलता व विश्व हृदय सुनता है। यह वह अस्त्र है जिसके बल का कोई पारावार नहीं है। जिस महाशक्ति से यह अनन्त ब्रह्माण्ड उत्पन्न लालित-पालित हो रहा है, उससे संबंध स्थापित करने का एक रूप हमारी प्रार्थना ही है। प्रार्थना करन जिसे आता है उसे बिना जप, तप, मन्त्रजप आदि साधन किए ही पराशक्ति से तदाकार हो सकता है। अपने कर्तव्य को पूरा करना प्रार्थना की पहली सीढ़ी है। दूसरी सीढ़ी जो विपत्तियाँ सामने आएँ उनसे कायरों की भांति न तो डरें, न घबराएँ वरन् प्रभु से प्रार्थना करें कि वह हमें सबका सामना करने का साहस व धैर्य दें।
‘‘हृदय नम्र होता है नहीं जिस नमाज के साथ।
ग्रहण नहीं करता कभी उसको त्रिभुवन नाथ।।’’
प्रार्थना विश्वास की प्रतिध्वनि है। रथ के पहियों में जितना अधिक भार होता है, उतना ही गहरा निशान वे धरती में बना देते हैं। प्रार्थना की रेखाएँ लक्ष्य तक दौड़ी जाती हैं, और मनोवांछित सफलता खींच लाती हैं। विश्वास जितना उत्कृष्ट होगा परिणाम भी उतने ही प्रभावषाली होंगे। प्रार्थना आत्मा की आध्यात्मिक भूख है। शरीर की भूख अन्न से मिटती है, इससे शरीर को शक्ति मिलती है। उसी तरह आत्मा की आकुलता को मिटाने और उसमें बल भरने की सत् साधना परमात्मा की ध्यान-आराधना ही है। इससे अपनी आत्मा में परमात्मा का सूक्ष्म दिव्यत्व झलकने लगता है और अपूर्व शक्ति का सदुपयोग आत्मबल सम्पन्न व्यक्ति कर सकते हैं। निष्ठापूर्वक की गई प्रार्थना कभी असफल नहीं हो सकती।
प्रार्थना प्रयत्न और ईश्वरत्व का सुन्दर समन्वय है। मानवीय प्रयत्न अपने आप में अधूरे हैं क्योंकि पुरुशार्थ के साथ संयोग भी अपेक्षित है। यदि संयोग सिद्ध न हुए तो कामनाएँ अपूर्ण ही रहती है। इसी तरह संयोग मिले और प्रयत्न न करे तो भी काम नहीं चलता। प्रार्थना से इन दोनों में मेल पैदा होता है। सुखी और समुन्नत जीवन का यही आधार है कि हम क्रियाषील भी रहें और दैवी विधान से सुसम्बद्ध रहने का भी प्रयास करें। धन की आकांक्षा हो तो व्यवसाय और उद्यम करना होता है साथ ही इसके लिए अनुकूल परिस्थितियाँ भी चाहिए ही। जगह का मिलना, पूँजी लगाना, स्वामिभक्त और ईमानदार, नौकर, कारोबार की सफलता के लिए चाहिए ही। यह सारी बातें संयोग पर अवलम्बित हैं। प्रयत्न और संयोग का जहाँ मिलाप हुआ वहीं सुख होगा, वहीं सफलता भी होगी।
आत्मा-शुद्धि का आवाहन भी प्रार्थना ही है। इससे मनुष्य के अन्त:करण में देवत्व का विकास होता है। विनम्रता आती है और सद्गुणों के प्रकाश में व्याकुल आत्मा का भय दूर होकर साहस बढ़ने लगता है। ऐसा महसूस होने लगता है, जैसे कोई असाधारण शक्ति सदैव हमारे साथ रहती है। हम जब उससे अपनी रक्षा की याचना, दु:खों से परित्राण और अभावों की पूर्ति के लिए अपनी विनय प्रकट करते हैं तो सद्व प्रभाव दिखलाई देता है और आत्म-संतोष का भाव पैदा होता है।
असंतोष और दु:ख का भाव जीव को तब परेशान करता है, जब तक वह क्षुद्र और संकीर्णता में ग्रस्त है। मतभेदों की नीति ही सम्पूर्ण अनर्थों की जड़ है। प्रार्थना इन परेशानियों से बचने की रामबाण औषधि है। भगवान की प्रार्थना में सारे भेदों को भूल जाने का अभ्यास हो जाता है। सृष्टि के सारे जीवों के प्रति ममता आती है इससे पाप की भावना का लोप होता है। जब अपनी असमर्थता समझ लेते है और अपने जीवन के अधिकार परमात्मा को सौंप देते हैं तो यही समर्पण का भाव प्रार्थना बन जाता है। दुर्गुणों का चिन्तन और परमात्मा के उपकारों का स्मरण रखना ही मनुष्य की सच्ची प्रार्थना है।
प्रार्थना का तात्त्विक विश्लेषण
प्रार्थना का निर्माण करने वाले कौन-कौन पृथक्-पृथक् तत्व हैं ? किन-किन वस्तुओं से प्रार्थना विनिर्मित होती है ? यह प्रश्न अनायास ही मन में उत्पन्न होता है।
प्रार्थना का मर्म है – विश्वास, जीता-जागता विश्वास, प्रार्थना में श्रद्धा सबसे मूल्यवान तथ्य है। श्रद्धा की अखण्ड धारा रोम-रोम में, कण-कण में, अणु-अणु में भ लो, तब प्रार्थना आरम्भ करो। श्रद्धा प्रत्येक वस्तु को असीम, आंतरिक शक्ति प्रचुरता से अनुप्राणित करती हुई अग्रसर होती है। श्रद्धाभाव के बिना समस्त वस्तुएँ प्राणहीन, जीवनहीन, निरर्थक एवं व्यर्थ हैं। श्रद्धा से युक्त प्रार्थना बुद्धि को प्रधानता नहीं देती प्रत्युति इसे उच्चतर धारणा शक्ति की ओर बढ़ाती है जिससे हमारा मनोराज्य विचार और प्राण के अनन्त साम्राज्य के साथ एकाकार हो जाता है। इस गुण से प्रत्येक प्रार्थी की बुद्धि में अभिनव शक्ति एवं सौन्दर्य आ जाते हैं तथा उसकी चेतना उस अनन्त ऐश्वर्य की ओर उन्मुक्त हो जाती है, जो वान्छां कल्पतरु’ है तथा जिसके बल पर मनुष्य मनोवांछित फल पा सकता है। स्वास्थ्य, सुख, उन्नति, आयु जो कुछ भी हम प्राप्त करना चाहे वह श्रद्धा के द्वारा ही मिल सकते हैं। श्रद्धा उस अलौकिक साम्राज्य का राजमार्ग है। श्रद्धा से ही प्रार्थना में उत्पादक शक्ति, रचनात्मक बल का संचार होता है।
ध्यान अन्त:करण की मानसिक क्रिया है। इसमें केवल मन:शान्ति की आवश्यकता है। यहाँ बाह्य मिथ्याडम्बरों की आवश्यकता नहीं। ध्यान तो अन्तर की वस्तु है-करने की चीज है, इसमें दिखावा कैसा ? चुपचाप ध्यान में संलग्न हो जाइए, दिन-रात परमप्रभु का आलिंगन करते रहो। भगवान के दिव्य मूर्ति को अन्त:करण के कमरे में बन्द कर लो, तथा बाह्य जगत को विस्मृत कर दो। वस्तुत: ऐसे दिव्य साक्षात्कार के समक्ष बाह्य जगत् की स्मृति आती ही किसे है ? ऐसा ध्यान अमर शान्ति प्रसार करने वाला है।
ध्यान करते समय नेत्र बन्द करना आवश्यक है। नेत्र मूँदने से यह प्रपंचमय विश्व अदृश्य हो जाता है। विश्व को दूर हटा देना और ध्येय पर सब मन:शक्तियों को केन्द्रित कर देना ही ध्याान का प्रधान उद्देश्य है, परन्तु केवल बाहर का दृश्य अदृश्य होने से पूर्ण नहीं होता जब तक हमारा मन भीतर नवीन दृश्य निर्माण करता रहे। अत: भीतर के नेत्र भी बन्द कीजिए। इस प्रकार जब स्थूल और सूक्ष्म दोनों जगत् अदृश्य हो जाते हैं, तभी तत्काल और तत्क्षण एकाग्रता हो जाती हैै। ध्यान करने की विधि का उल्लेख सांख्य तथा येाग दोनों ने ही बताया है पर सांख्य का ‘ध्यानं निर्विशयं मन:’ अर्थात मन को निर्विशय बनाना, ब्लैंक बनाना महा कठिन है, परन्तु योग का ध्यान सबकी पहुँच के भीतर है। किसी वस्तु या मनुष्य का मानस-चित्र निर्माण कर उसके प्रति एकता, एकाग्रता करना व उसके साथ पूर्ण तदाकार हो जाना इसी का नाम योग शास्त्र का ध्यान है। ऐसे ही ध्यान के अभ्यास से प्रार्थना में शक्ति का संचार होता है।
आपका आत्म-निवेदन आशा से भरा हो, उसमें उत्साह की उत्तेजना हो, आप यह समझे कि जो कुछ हम निवेदन कर रहे हैं वह हमें अवश्य प्राप्त होगा। आप जो कुछ निवेदन करें वह अत्यन्त प्रेमभाव से होना चाहिए। उत्तम तो यह है कि जो निवेदन किया गया हो वह सब प्राणियों के लिए हो, केवल अपने लिए नहीं।