अनुक्रम
दूरस्थ शिक्षा में मुद्रित एवं अमुद्रित बहुमाध्यमों का प्रयोग शिक्षक एवं छात्र के बीच संचार माध्यम के रूप में किया जाता है। दूरस्थ शिक्षा, शिक्षा की ऐसी प्रणाली है, जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरण से सुसम्बद्ध है। इलेक्ट्रानिक संचार माध्यमों का विकास इस दिशा में सर्वाद्रिाक महत्वपूर्ण विकास है। इस शिक्षा ने सम्प्रेषण की नई विधियों को जन्म दिया। दूरस्थ शिक्षा को अनेक शिक्षाणास्त्रियों ने अपने ढंग से पारिभाषित किया है। कुछ प्रमुख विचारकों ने दूरस्थ शिक्षा की विशेषताओं को उजागर करते हुये नीचे कुछ परिभाषायें प्रस्तुत की गयी है
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा की परिभाषा
मूरे- मूरे (1972-73) ने दूरस्थ शिक्षा को एक व्यवस्थित स्व अधिगम की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया कि-’’दूरस्थ शिक्षण को अनुदेशन विधियों के परिवार के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसमें शिक्षण व्यवहार अधिगम व्यवहार (प्रक्रिया) से अलग अर्थात् कहीं दूर पर सम्पन्न किये जाते हैं। इनके अन्तर्गत छात्र की उपस्थिति में सम्पन्न होने वाली क्रियायें भी सम्मिलित होती है। अत: शिक्षक एवं शिक्षाथ्र्ाी के मध्य सम्प्रेषण को मुद्रित सामग्री, इलेक्ट्रानिक, यांत्रिक एवं अन्य साधानों से सुगम बनाया जा सकता है।’’
- इस परिभाषा में भी वेडमीयर की ही तरह स्व-अधिगम की बात स्पष्ट हुई।
- शिक्षण व्यवहार अधिगम व्यवहार से अलग है।
- इलेक्ट्रानिक एवं अन्य संचार माध्यमों के प्रयेाग की बात स्पष्ट की गयी है।
डोहमेन – डाहे मने ने 1977 में दूरस्थ शिक्षा को एक स्वअध्ययन हेतु विधिवत सगंठित रूप में पारिभाषित किया ‘‘जिसमें छात्र परामर्ण, अधिगम सामग्री का प्रस्तुतीकरण तथा छात्रों की सफलता का सुनिश्चितीकरण एवं निरीक्षण शिक्षकों के एक समूह द्वारा किया जाता है, तथा प्रत्येक शिक्षक का अपना दायित्व है। संचार माध्यमों के द्वारा बहुत दूर रहने वाले शिक्षर्थियों के लिये इसे सम्मत बनाया जाता है।’’
- दूरस्थ शिक्षण में स्व-अधिगम पर बल।
- संचार माध्यमों का शैक्षिक सम्प्रेषण में प्रयोग।
पीटर्स- पीटर्स (1973) ने दूरस्थ शिक्षा को ‘‘ज्ञान, कौशल एवं अभिवृत्ति पद्रान करने की एक विधि के रूप में परिभाषित किया, जिसे तकनीकी संचार माध्यमों के व्यापक प्रयोग के साथ-साथ श्रम विभाजन तथा संगठनात्मक सिद्धान्तों के प्रयोग द्वारा तर्क संगत बनाया जाता है। इसमें विणेण रूप से उच्च स्तरीय शिक्षण अधिगम सामग्री के पुननिर्माण का उद्देश्य निहित होता है, जिससे छात्रों की बहुल संख्या को एक ही समय में अनुदेशन प्रदान करना सम्भव होता है, यह शिक्षण अधिगम काध् एक औद्योगिक रूप है।’’
होमबर्ग- हामे बर्ग (1981) ने शिक्षा में दूरस्थ शिक्षा को शिक्षा का वह प्रकार बताया है ‘‘जिसमें शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर अध्ययन के विभिन्न प्रकार, उन विद्यार्थियों के लिये जो शिक्षकों के निरन्तर एवं तुरन्त निरीक्षण में कक्षाओं में नहीं होते हैं, प्रयुक्त किये जाते हैं, किन्तु जो किसी भी प्रकार के शैक्षशिक संस्थाओं से नियोजन निर्देशन एवं शिक्षण से कम लाभ नहीं प्रदान करते हैं।’’ इस परिभाषा से यह तथ्य उभरा- दूरस्थ शिक्षा अध्ययन के विभिन्न स्तरों को व्यवस्थित करती है, और सुगम बनाती है।
‘‘कीगन (1986) – कीगन ने 1986 में एक सम्पूर्ण व्यावहारिक एवं व्यापक परिभाषा प्रस्तुत की और जिसमें दूरस्थ शिक्षा शिक्षा का वह माध्यम है-
- अधिगम के सम्पूर्ण काल तथा शिक्षक एवं शिक्षाथ्र्ाी के मध्य अर्ध स्थायी अलगाव बना रहता है, यही दूरस्थ शिक्षा को परम्परागत शिक्षा से अलग करती है।
- यह शिक्षण संस्थाओं को अधिगम सामग्री तैयार करने हेतु नियोजन करने के लिये प्रेरित करती है, यह उसे स्व शिक्षण एवं व्यक्तिगत अध्ययन से अलग करती है।
- शिक्षक एवं शिक्षाथ्र्ाी को मिलाने हेतु प्रौद्योगिकी माध्यम मुद्रण, श्रव्य, विडियो या कम्प्यूटर का प्रयोग। पाठ्यवस्तु के सम्प्रेषण का आधार देती है।
- अधिगम के सम्पूर्ण काल तक अधिगम समूह की पूर्ण उपस्थिति के अभाव में व्यक्तिगत शिक्षण का रूप ले लेता है और विणेण अवसरों पर सामाजीकरण व परामर्ण हेतु मिलाप होता है। कीगन की परिभाषा ने दूरस्थ शिक्षा के विषय में जो महत्वपूर्ण भ्रम थे उन्हें भी दूर किये। जिससे दूरस्थ शिक्षा को परम्परागत विश्वविद्यालयों से अलग करना जिसमें कि बिना दीवार, अनुभव आधारित अधिगम वाह्य परिसर शिक्षा, मुक्त अधिगम एवं परिसर प्रसार जैसे तथ्य सम्मिलित हुये।
विभिन्न विद्वानों की परिभाषाओं से दूरस्थ शिक्षा के विषय में सरलता से समझा जा सकता है।
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा की प्रकृति
- दूरस्थ शिक्षा एक नवाचार है, जो कि परम्परागत शिक्षा प्रणाली से तुलना में अत्यन्त उदार है।
- दूरस्थ शिक्षा में शिक्षण व्यवहार व अधिगम व्यवहार में सीधा सम्पर्क नहीं होता है। इसमें छात्र की उपस्थिति से सम्बंधित क्रियायें यदा कदा सम्मिलित हैं।
- इस विधा में श्रम विभाजन एवं संगठनात्मक सिद्धान्तों का प्रयोग करके इसे तर्कसंगत बनाया जाता है।
- इसमें उच्च स्तरीय स्व अधिगम सामग्री के निर्माण पर विणेण बल दिया जाता है।
- दूरस्थ शिक्षा का नियोजन किसी शैक्षिक संस्था एवं संगठन द्वारा किया जाता है। इस प्रकार यह व्यक्गित अध्ययन से भिन्न है। इस प्रणाली में शिक्षक कक्षा तथा विद्यालय की आवश्यकता नहीं पड़ती है।
- इसमें आयु एवं समय की आबद्धता नहीं है, यह आवश्यकता आधारित है।
- इसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों एक-दूसरे से अलग हेाते हैं, और आपस में सीधा सम्पर्क व प्रत्यक्ष संवाद नहीं या न्यूनतम रहता है। दोनो दूर रहकर अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं।
- दूरस्थ शिक्षा में विद्यार्थियों को स्व-निर्मित वातावरण में स्व-निर्देशित स्व अर्मिागम का अवसर दिया जाता है।
- शिक्षार्थियों को अधिगम सामग्री के सम्प्रेषण के लिये मुद्रित, तकनीकी, संचार माध्यमों का प्रयोग किया जाता है, जैसे- रेडियो, दूरदर्णन, वीडियो, कैसेट्स, तथा कम्प्यूटर सहायिका अधिगम, प्रिन्टेड पत्र पत्रिकायें प्रयुक्त होते हैं।
- इस प्रणाली में शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के माध्यम द्विपक्षीय सम्पर्क बना रहता है। शिक्षक की सामग्री के प्रस्तुतीकरण को समाकलित एवं सम्पोशित करता रहता है।
- यह प्रणाली शिक्षार्थियों का आवश्यकता एवं व्यवसायनुरूप उसके ज्ञान एवं कौशल में वश्द्धि करने तथा उसमें परिमार्जन लाने के लिये शिक्षण, पुन: शिक्षण का अवसर प्रदान करने में सक्षम है।
- विद्यार्थियों का अपने ही समूह के सदस्यों से अलगाव रहता है।
- यह शिक्षण व अधिगम का एक औद्योगीकश्त रूप है।
- यह शैक्षिक प्रक्रिया का वैयक्तीकरण को बढ़ावा देता है।
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा के समकालिक प्रत्यय
- स्वतंत्र अध्ययन – वडे मेयर ने स्वतत्रं अधिगम/अध्यन शब्द का प्रयोग सर्वाधिक किया है। इसीलिये अमेरिका में इस शब्द का प्रचलन बढ़ा है।
- बाह्य परिसर अध्ययन- विद्यालय के अन्दर प्रदान किये जाने वाली परम्परागत शिक्षा से अलग हटकर दी जाने वाली शिक्षा ही बाह्य परिसर अध् ययन कही जा सकती है। इस शिक्षा की मुख्य विणेणता परिसर के अन्दर के बन्धनों से मुक्ति है। इस शब्द का मुख्य रूप से प्रयोग आस्टे्रलिया एवं दक्षिण पूर्व एशियाई देणों में होता है।
- बाह्य प्रणाली/ अध्ययन – लन्दन में बाहय् प्रणाली शब्द अत्यधिक पच्र लित था। इस प्रणाली में विद्याथ्र्ाी बिना शिक्षण के मान्यता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं से परीक्षा उत्तीर्ण करने का अवसर दिया जाता है। इस शिक्षा में भी शिक्षार्थियों को कक्षा शिक्षण हेतु उपस्थिति की अनिवार्यता नहीं होती। इस प्रत्यय में भी मुक्त अधिगम के सभी गुण परिलक्षित नहीं होते हैं, न ही यह दूरस्थ शिक्षा के जितना स्पष्ट है। यह शब्द आस्टे्रलिया में प्रयुक्त होता है।
- गृह अध्ययन- इसका सीधा अभिप्राय है विद्यार्थियो को बन्धनों से उन्मुक्त मुक्त वातावरण में स्वयं अध्ययन करने हेतु अवसर प्रदान करना। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग ‘‘स्वीडिस स्कूल आफ करेस्पान्डेन्स कोर्सेज’’ के द्वारा किया गया। अब यह शब्द यूरोप में ही प्रयोग में लाया जाता है।
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा और परम्परागत शिक्षा में अन्तर
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा और परम्परागत शिक्षा में अन्तर
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा | परम्परागत शिक्षा |
इस व्यवस्था में शैक्षिक तकनीकी का बहुत अधिक प्रयोग है। | इस व्यवस्था में सम्प्रेषण का आधार शैक्षिक, विधियां है एव प्रत्यक्ष सम्प्रेषण है। |
इस विधा में प्रत्यक्ष कक्षा शिक्षा का प्रावधान नहीं है। | इसमें प्रत्यक्ष कक्षा शिक्षण ही शिक्षा की मुख्य प्रक्रिया है। |
दूरस्थ शिक्षा में आयु, प्रवेण,नियम, व्यावसायिक पाठ्यक्रमों को छोड़कर अधिकांशत: में नही के बराबर है। | इसमें आयु, प्रवेण एवं पूर्व उपलब्धि पाठ्यक्रम में उपलब्धि सम्बंधित से सम्बंधित कठोर नियम होते हैं। |
इसमें शिक्षक एवं छात्र के बीच प्रत्यक्ष कक्षागत व्यवहार नहीं हेाता है। | यह शिक्षक एवं छात्र के बीच प्रत्यक्षकक्षागत परिस्थितियों में सम्पन्न होने वाली शिक्षण अधिगम प्रक्रिया है। |
यह विद्यार्थियों को मुद्रित सामग्री प्रदान करती है। | यह विद्यार्थियों को मुद्रित सामग्री नही देती है। इसमें मौखिक अभिव्यक्ति का मुख्य स्थान है। |
यह विधा विद्यालयी बन्धनों से उन्मुक्त है। | यह शिक्षा विद्यालयी बन्धनों से युक्त है। |
यह विद्यार्थियों को प्रथम स्थान देकर स्वतंत्र अध्ययन व स्वगति से बढ़ने हुए भी गौण रहता है और अध्ययन हेतु प्रेरित करता है। | इसमें विद्यार्थियों का प्रथम स्थान होत पाठ्यक्रम एवं उपलब्ध समय के आधार पर संचालित होता है। |
यह विद्यार्थियों की रूचि एवं आवश्यकता पर आधारित है। | यह विद्यार्थियेां की रूचि एवं आवश्यकता से पूर्णतया सम्बंध नहीं रख पाती है। |
इसमें विद्यार्थी स्वप्रेरित व स्वनिर्देशित हेाता है। | इसमें विद्यार्थी शिक्षक प्रेरित एवं शिक्षक निर्देशित होता है। |
यह अत्यधिक लचीली है और अध्येता के समय आवश्यकता एवं स्थान के सापेक्ष ढल जा रही है। | यह लचीली नहीं है। |
इसमें अध्यापक परामर्णदाता और यही कार्य भी करता है। | इस प्रणाली में शिक्षण करने वाला कहलाता है, शिक्षक/शिक्षिका कहलाते है। |
इस व्यवस्था में अधिगम करने दूर- अध्येता कहलाते हैं | इसमें अधिगम करने वाला वालेशिक्षार्थी कहलाता है। |
दूरस्थ शिक्षा का प्रारूप स्पष्ट एवं पहचान में आ सकने वाला नहीं होता है। | परम्परागत शिक्षा का प्रारूप स्पष्ट एव पहचान में आ सकने वाला होता है। |
यह वास्तविक जीवन से जुड़ी हुई शिक्षा है। | इसमें जीवन से वास्तविक सम्बंध का अभाव पाया जाता है। |
शिक्षक-छात्र के प्रत्यक्ष सम्पर्क न होने के कारण यह कम जीवन्त के कारण यह अधिक जीवन्त रहती मानी जाती है। | शिक्षक-छात्र के प्रत्यक्ष सम्पर्क होने है। |
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा की आवश्यकता
- परम्परागत शिक्षा व्यवस्था अपनी अपरिवर्तनणील कठोर नियमों में आबद्धता के कारण आधुनिक वैज्ञानिक और तकनीकी युग की शैक्षिक आवश्यकताओं को पूरा करने में सक्षम नहीं है और दूरस्थ शिक्षा इन आवश्यकताओं को पूरा करने का प्रयास कर रही है।
- यह विधा लागत प्रभावी ही नहीं लागत कुणल भी है। यह नम्य व नवाचारात्मक शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देती है।
- यह प्रणाली सामाजिक शैक्षिक एवं आर्थिक स्थितियों के कारण उत्पन्न पश्थकता को दूर करने में सहायता प्रदान करती है।
- यह प्रणाली लोकतंत्र समाज की सभी आवश्यकताओं को पूरा करते हुये भारतीय संविधान में सभी के लिये शिक्षा के समान अवसर प्रदान करने में सक्षम है।
- यह प्रणाली कम खर्चीली है इसमें अध्येताओं को परम्परागत शिक्षा की अपेक्षा कर्म खर्च करना पड़ रहा है।
- दूरस्थ शिक्षा प्रणाली देण के 75 प्रतिशत गांवो में बस रही जनसंख्या को भी शिक्षा प्रदान करने में सक्षम हैं।
- यह शिक्षा प्रणाली व्यवस्था विभिन्न व्यवसायों में कार्यरत लोगों को भी आगे पढ़ने के सुअवसर प्रदान करती है।
- यह प्रणाली घर-घर शिक्षा उपलब्ध कराने में असमर्थ परम्परागत शिक्षा प्रणाली के पूरक के रूप में कार्य कर रही है।
- यह प्रणाली सामाजिक व आर्थिक रूप में पिछड़े लोगों को समाज के उपयोगी नागरिक बनने में सहायता करती है।
- विभिन्न व्यवसायों से सम्बंधित पाठ्यक्रमों को संचालित कर यह घर बैठे लोगों को व्यवसाय विणेण में प्रशिक्षित कर आत्म निर्भर बनाने में विणेण योगदान निभा रही है।
- दूरस्थ शिक्षा सभी शैक्षिक उपलब्धि वाले विद्यार्थियों केा आगे की शिक्षा प्राप्त करने व निरन्तरता रखने का आधार प्रदान करती है।
- दूरस्थ शिक्षा प्रणाली हमारी शिक्षा व्यवस्था को भूण्मण्डीकरण के चुनौतियों के अनुरूप तैयार करने में समर्थ है क्योंकि इसका प्रचार-प्रसार का क्षेत्र व्यापक है, और यह आन लाइन शिक्षण एवं मूल्यांकन की व्यवस्था देती है, और तकनीकी साधनों, प्रिन्ट, दृश्य श्रब्य, एवं कम्प्यूटर का प्रयोग करके इस प्रणाली को अधिक आधुनिक बना दिया गया है।
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा के सिद्धांत
- चाल्र्स बेडेमियर का स्वतंत्र अध्ययन का सिद्धांत ।
- माइकेन मुरे के स्वतंत्र अध्ययन का पुनरावलोकित सिद्धांत ।
- आटोपीटर्स का शिक्षण अधिगम का औद्योगिकश्त रूप का सिद्धांत।
- बोजी होमबर्ग का निर्देशित शैक्षिक वार्तालाप का सिद्धांत ।
- जॉन बाथ का द्विमार्गी डाक सम्प्रेषण का सिद्धांत ।
- डेविड स्पार्ट का शिक्षण अधिगम के औद्योगिकश्त रूप में मानवीय तत्व का सिद्धांत ।
उपरोक्त सभी सिद्धान्त सम्पूर्ण दूरस्थ शिक्षा प्रणाली की विवेचना करते हैं, इनको विस्तृत रूप में हम आगे पढ़ेंगे।
चाल्र्स बेडेमियर का स्वतंत्रत अध्ययन का सिद्धांत–
अमेरिका के विस्कान्सिल विश्वविद्यालय में शिक्षा के प्रोफेसर रह चुके बेडेमियर 1960 से 1970 तक दूरस्थ शिक्षा प्रणाली से जुड़े रहे। बेडेमियर ने दूरस्थ शिक्षा व परम्परागत शिक्षा व्यवस्था को आमने-सामने रखकर उनके मध्य अन्तर का विण्लेणण किया जो कि दूरस्थ शिक्षा की पहचान के रूप में उभरे हैं।
- स्वतंत्रत अध्ययन के अन्तर्गत शिक्षार्थी को स्वतंत्रता होगी अपने ढंग, अपने गति से सीखने का।
- अपने शैक्षिक लक्ष्यों को अपने तरीके से चयन करने की स्वतंत्रता होगी।
- अपने अध्ययन में उपलब्ध माध्यमों एवं संसाधनों का अधिकतम उपयोग कर सकेगा। अपने अध्ययन का उत्तरदायित्व एवं मूल्यांकन कर सकेगा।
अ)-शिक्षक शिक्षार्थी की दूरी- छात्र स्वतत्रं ता का सबसे बडा आधार शिक्षक से दूरी होगी। बेडेमियर ने इसको स्पष्ट किया कि कक्षा-कक्ष के शिक्षण में शिक्षक, शिक्षाथ्र्ाी, पाठ्यक्रम व सम्प्रेषण होता है। परन्तु दूरस्थ शिक्षा में कक्षा-कक्ष में निहित गतिविधि को लिखित एंव मुद्रित सामग्री के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और यह मुद्रित सामग्री शिक्षक द्वारा दिये गये व्याख्यान एवं मध्य में किये मूल्यांकन (बोध प्रण्नों) एवं स्पष्टीकरण को समेटे रहती है। शिक्षक और छात्र के मध्य दूरी से यह स्पष्ट होता है कि-
- शिक्षार्थी अपनी अधिगम क्रियाओं केा प्रारम्भ करने, गति प्रदान करने तथा समाप्त करने के लिये स्वतंत्रत होता है और असफलता के लिये जिम्मेदार होता है।
- शिक्षार्थी को अपने परिवेण में अपने ढंग से अध्ययन का अवसर प्राप्त होता है।
- शिक्षक एवं छात्र दोनेां के लाभ के लिये अन्य सम्भव माध्यम जैसे मुद्रित सामग्री, श्रव्य दृण्य साधन आदि का उपयोग किया जाता है।
- अधिगम को अधिक प्रांसगिक बनाने का प्रयास किया जाता है।
ब)-संरचनात्मक व्यवस्था- दूरस्थ शिक्षा शिक्षक एवं शिक्षार्थी दाने ा ें को आवश्यक सांस्कश्तिक परिवर्तन करने के लिये बाध्य करती है। दोनों की भूमिका में परम्परागत शिक्षा व्यवस्था से अधिक अन्तर है, इसमें शिक्षार्थी को अपेक्षाकश्त अधिक उत्तरदायित्व निर्वहन करना पड़ता है।
- शिक्षार्थी को पाठ्यवस्तु व अध्ययन विधि चयन की स्वतंत्रता है।
- शिक्षार्थी व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर ही अधिगम कर पाते हैं, और अपनी गति के आधार पर पाठ्यक्रम को पूर्ण करने की स्वतंत्रता होती है।
- विद्यार्थियों की उपलब्धि का मूल्यांकन स्वतंत्र ढंग से किया जाता है।
- शिक्षा पाठ्यवस्तु की व्यवस्थापक के रूप में कार्य करता है, तथा प्रशासनिक कार्यों से मुक्त रहता है।
- शिक्षक कक्षा-कक्ष में परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है।
- सम्पूर्ण सहायक प्रणाली को शिक्षार्थी के परिस्थिति के अनुरूप ही संचालित करना पड़ता है। बेडेमियर के अनुसार शिक्षा की जिस प्रणाली में यह गुण होते हैं वही स्वतंत्रत अध्ययन हेाती है।
माइकल मूरे- स्वतंत्र अध्ययन की पुनरावलोकित सिद्धांत-
माइकले मूरे ने भी संयुक्त राज्य अमेरिका की नोवा स्कोटिया एवं विसकान्सिन विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग व ब्रिटिश मुक्त विश्वविद्यालय के वरिष्ठ काउन्सलर के अनुभवों के आधार पर दूरस्थ शिक्षा के सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया है। इन्होनें स्वतंत्र सिद्धान्त प्रस्तुत करने के बजाय बेडेमियर के विचारों की ही अन्तर्दश्ष्टि एवं विश्लेषणात्मक प्रतिमान प्रस्तुत किया है।
- दूरस्थ शिक्षा में कक्षा-कक्ष के संवाद को टेलीफोन, पत्राचार, दूरदर्शन, मुद्रित पाठ्यसमाग्री एवं अभिक्रमित अनुदेशन एवं कम्प्यूटर आधारित अनुदेशन के माध्यम से किया जाता है परन्तु टेलीफोन व पत्राचार से द्विपक्षीय संवाद भी स्थापित होता है।
- परम्परागत शिक्षा व्यवस्था में शैक्षिक कार्यक्रमों की एक निश्चित संरचना एवं स्वरूप होता है।
इसका तात्पर्य यह है कि औपचारिक शिक्षा में उद्देश्य, अध्ययन विधियां, पाठ्य सामग्री एवं मूल्यांकन विधियों आदि पहले से ही निश्चित होते हैं तथा निर्धारण में शिक्षार्थियों की समस्याओं की अनदेखी हो जाती है। इसके विपरित एसे शैक्षिक कार्यक्रम का जिसमें शिक्षार्थियों की विशेषताओं की विविधता के अनुरूप पर्याप्त लचीलापन हो, कोई निश्चित स्वरूप नहीं हो सकता क्योंकि इसमें संरचना का अभाव होता है, और यही अभाव अधिगम के वैयक्तिकरण को सम्भव बनाता है, क्योंकि इसमें शिक्षार्थियों को ध्यान में रखकर उद्देश्य, विधियां, पाठ्यसामग्री एवं मूल्यांकन प्रणाली को निर्धारित किया जाता है।
ऑटो पीटर्स की शिक्षण अधिगम के औद्योगीकश्त रूप का सिद्धांत–
जर्मनी के दूरस्थ शिक्षा संस्थान में कार्य करते हुये आटो पीटर्स ने इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। सन् 1975 ई0 में उन्होनें जर्मनी के मुक्त विश्वविद्यालय के प्रथम वाइस चान्सलर के रूप में कार्य करते हुये यह अनुभव किया कि उच्च विकसित समाज में वर्तमान की आवश्यकता के अनुसार शिक्षा की आवश्यकता है जो कि परम्परागत शिक्षा से सम्भव नहीं है, इन्होनें अपने विचार 1960 के दशक में अपनी पुस्तक ‘‘दि डिडेक्टिव स्ट्रकचर ऑफ डिस्टैन्स टिचींग इन्वेस्टीगेसन्स टुवर्डस एन इन्डस्ट्रिलाइज्ड फार्म आफ टीचिंग एण्ड लर्निंग’’ में लिखा। इन्हेानें यह स्पष्ट किया कि दूरस्थ शिक्षा की विषयवस्तु संक्षिप्त, स्पष्ट एवं बोधगम्य होती है, और शिक्षा विधियां परम्परागत शिक्षा विधियों से बहुत अधिक भिन्न है। इनके अनुसार दूरस्थ शिक्षा व्यवस्था के प्रमुख औद्योगिक विशेषतायें है-
- श्रम का विभाजन अर्थात् प्रत्येक स्तर पर विषय विशेषज्ञ, कोर्स लेखक, अनुदेशन सामग्री सम्पादक, मुद्रक, प्रेशक आदि होता है। यह सम्पूर्ण शैक्षशिक प्रक्रिया पर भी लागू होता है।
- दूरस्थ शिक्षा में उद्योगो की भांति व्यापक स्तर पर बढ़ती मांग के अनुरूप शिक्षण सामग्री का उत्पादन किया जाता है।
- कार्य प्रणाली को सुव्यवस्थित किया जाता है, जिसमें नियोजन, प्रक्रिया का औपचारीकरण उत्पादन का मानकीकरण, समूची प्रक्रिया का व्यवस्थीकरण, मणीनीकरण जैसे सभी पक्ष सम्मिलित किये जाते हैं।
- पीटर्स के अनुसार मुक्त विश्वविद्यालय के परिसर का प्रारूप परम्परागत विश्वविद्यालयों के प्रारूप से भिन्न हेाता है। यह काफी हद तक औद्योगिक क्षेत्रों के प्रारूपों जैसे हेाते है।
- पीटर्स के अनुसार शैक्षिक सम्प्रेषण बनावटी होता है।
- दूरस्थ शिक्षा में शिक्षक की भूमिका प्रबंधक जैसी है। इस व्यवस्था में शिक्षक तथा शिक्षाथ्र्ाी देानेां की भूमिकाओं एवं प्रकृति में परिवर्तन आ जाता है।
बोर्जी होमबर्ग का निर्देशित शैक्षिक वार्तालाप का सिद्धांत–
बोर्जी होमबर्ग ने एक प्राध्यापक के रूप में 1956 में स्वीडन के हामॉडस पत्राचार शिक्षा संस्थान में कार्य करते हुये दूरस्थ शिक्षा की ओर प्रवश्त्त हुये थे। ये आगे चलकर पश्चिमी जर्मनी ने फर्न यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर पद पर नियुक्त हुये। इनके अनुसार शिक्षा का सार ‘‘व्यक्तिगत शिक्षार्थी द्वारा सीखना’’ होता है। व्यक्तिगत अध्ययन हेतु दूरस्थ माध्यम सर्वोत्तम है, क्येांकि यह अध्येता को पूर्ण स्वतंत्रता देता है, इसमें अध्येता को रेडियो, दूरदर्शन, श्रव्य दश्ण्य कैसेट, टेलीफोन, कम्प्यूटर व सम्पर्क कार्यक्रम के द्वारा शिक्षण आदि को चुनने तथा उनसे लाभ उठाने की स्वतंत्रता होती है। सीखने व शैक्षिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का दायित्व अध्येता का होता है। इनके अनुसार शैक्षिक वार्तालाप दो प्रकार के होते हैं-
- वास्तविक व प्रत्यक्ष वार्तालाप- यह द्विमार्गी हाते ा है। यह दो व्यक्तियों या समूहों के आमने-सामने होने पर होता है, पर यह वास्तविक अन्त: क्रिया को जन्म देता है।
- नाटकीय वार्तालाप- इसमें अध्ययन सामग्री का प्रस्तुतीकरण एक तरफ से हाते ा है, इसमें सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया में अध्येता अकेला रहता है। इसमें पाठ्य सामग्री एक विशिष्ट ढंग से प्रस्तुत होती है। आप दूरस्थ शिक्षा के विद्यार्थी होने के कारण यह समझ गये होंगे कि अप्रत्यक्ष वार्तालाप की स्थिति उत्पन्न करने हेतु प्रस्तुत विषय सामग्री को एक विशिष्ट ढंग से प्रस्तुत करना होता है। हेामवर्ग ने इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करते हुये कहा कि ‘‘निर्देशित शैक्षशिक वार्तालाप की विधि के रूप में मेरा दूरस्थ शिक्षा का सिद्धान्त यह बतलाता है कि अच्छे दूरस्थ शिक्षा की प्रकृति अधिगमोन्मुख निर्देशित वार्तालाप से मेल खाती है तथा इस प्रकार के वार्तालाप के विशिष्ट तत्वों की उस्थिति अधिगम में सहायक होती है।’’ हेामवर्ग के अनुसार शैक्षशिक वार्तालाप की विशेषतायें होनी चाहिये-
- अध्ययन सामग्री के बोधगम्यता, प्रस्तुतीकरण, स्पष्ट एवं शैक्षशिक भाषा, पठनीय लिखावट।
- विद्यार्थियों के लिये सहयोग एवं सुझाव विचारों के आदान-प्रदान हेतु सुझाव, निर्णय लेने की क्षमता व अध्येता को भावात्मक रूप से जोड़ने का प्रयास एवं सम्बोधन के व्यक्तिगत ढंग से होना चाहिये।
जॉन बाथ का द्विमार्गी डाक सम्पे्रषण का सिद्धांत–
पूर्व में आप हामे बर्ग के सिद्धान्त को पढ़ चुके हैें। जॉन बाथ के विचार उनसे अलग नहीं है। स्वीडन के मूल निवासी जान बाथ का हारमाडस पत्राचार शिक्षा संस्थान से नाम जुड़ा। वाथ का मानना है कि, शिक्षा को औद्योगीकश्त रूप प्रदान कर दूरस्थ शिक्षा ने जन शिक्षा का रूप लिया यह वास्तव में स्वतंत्र अध्ययन है। वाथ के अनुसार पत्राचार शिक्षा प्रणाली मे अध्येता शिक्षकों को कुछ प्रश्नों के उत्तर लिखकर मूल्यांकन हेतु संस्थान भेजना होता है और ये कार्य सत्रीय कार्य कहलाते हैं। संस्थान दूर शिक्षक से यह कार्य मूल्यांकन करवाता है, जिसमें सुधार हेतु शिक्षक टिप्पणी देता है। ये टिप्पणी विद्यार्थी को प्रतिपुष्टि प्रदान कर प्रेरित करती है। परन्तु शिक्षा के औद्योगीकश्त रूप में शिक्षक टिप्पणी के महत्व को नकार दिया है। द्विमार्गी सम्प्रेषण ने शिक्षण टिप्पणी एक कडी का काम करती है। वाथ के अनुसार प्रदत्त कार्यों पर शिक्षक की टिप्पणी का विशेष शैक्षशिक महत्व होने पर भी द्विमार्गी डाक सम्प्रेषण के प्रयोग में कमी की प्रवश्त्ति दखेने को मिलती है। यह प्रवश्त्ति समाप्त होनी चाहिये। शिक्षण अधिगम में सुधार हेतु द्विमार्गी सम्प्रेषण आवश्यक है।
डेविड स्र्वाट का शिक्षण अधिगम के औद्योगीकश्त रूप में मानवीय तत्व का सिद्धांत–
डेविड स्र्वाट ने 1973 में ब्रिटने के मुक्त विश्वविद्यालय में दरू वर्ती शिक्षा के प्राप्त अनुभव के आधार पर कहा कि दूरस्थ शिक्षा में टयूटोरियल सेवाओं का बहुत अधिक महत्व है। स्र्वाट का मानना है कि दूरस्थ शिक्षा वास्तव में जनशिक्षा की संस्थाये हैं। इसमें विशाल समूह को अध्ययन पैकेज दी जाती है, परन्तु इनमें शिक्षक के कार्यों का अभाव पाया जाता है। वास्तव में दूरस्थ शिक्षा में त्वरितपोषण का अभाव एवं अपने समूह के साथियों से अन्त: क्रिया का अभाव पाया जाता है। स्र्वाट दूरस्थ शिक्षा में भी मानवीय सम्बधंों पर विशेष बल देते हैं। स्र्वाट के अनुसार दूरस्थ शिक्षा में भी शिक्षार्थियों की विविध समस्याओं का समाधान होना चाहिये और त्वरित पोषण तत्व प्राप्त होना चहिये तथा शिक्षार्थियों को स्वयं के समूह में प्रतिपुष्टि का अवसर मिलना चाहिये।
मुक्त एवं दूरस्थ शिक्षा के तत्व
- मुद्रित सामग्री- इसके अन्तगर्त पुस्तके स्वयं पठनीय मुिदत्र मागर्दिशिर्क ायें आदि सम्मिलित है। यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग है।
- श्रव्य दृश्य सहायक सामग्री- प्रत्यक्ष सम्पेषण का अभाव होने के कारण इन माध्यमों को अधिक लोकप्रिय बनाया गया है। इनके अन्तर्गत फिल्म, रेडियो, स्लाइड व दृश्य-श्रव्य कैसेट हेाते हैं।
- रेडियों एवं दूरदर्शन- जनसचं ार के माध्यम एक मार्गीय सम्प्रेषण को प्रभावशाली बनाने का कारगर उपाय है, इनसे सम्प्रेषण सुगमता पूर्वक एवं व्यापक स्तर पर हो जाता है। समस्या समाधान हेतु द्विमार्गी वार्तालाप हेतु फोन – इन कार्यक्रम शिक्षक तथा शिक्षार्थी के बीच एक मजबूत कड़ी का कार्य करते हैं।
- कम्प्यूटर आधारित शिक्षण अधिगम- दूरस्थ शिक्षा के प्रचार-प्रसार एवं सम्प्रेषण का मुख्य आधार कम्प्यूटर है, यह एक मार्गीय सम्प्रेषण का प्रभावी साधन है।
- दत्त कार्य- यह दूरस्थ शिक्षा में शिक्षक व छात्र को जाडे ने का एकमात्र साधन है, क्योंकि अध्येता कुछ प्रश्नों के उत्तर लिखकर जमा करते हैं। इनका मूल्यांकन कर सुझाव दिया जाता है। इससे शिक्षक छात्र का सम्पर्क द्विमार्गी हो जाता है।
- परामर्श कक्षायें- दूरस्थ शिक्षा ने दूरअध्येताओं की समस्याओं को सुलझाने के लिये परामर्श कक्षाओं का आयोजन किया जाता है तथा दूर शिक्षक इसमें विद्यार्थियों को परामर्श देते है। इस कार्यक्रम के माध्यम से ही अध्येता एवं अध् यापक का अल्प सम्पर्क प्रत्यक्ष हो पाता है।