उन्होंने आगे लिखा है कि ‘‘अधीनस्थो का मार्गदर्शन तथा उनके पर्यवेक्षण का प्रबन्धकीय कार्य ही संचालन की एक अच्छी परिभाषा है।’’
2. एम.ई.डी के शब्दों में ‘‘निर्देशन कार्य प्रशासन का हृदय होता है। इसमें क्षेत्र निर्धारण, आदेशन, निर्देशन तथा गतिमान नेतृत्व प्रदान करना अन्तस्थ होता है।’’
3. जोसेफ एल. मैसी के अनुसार,‘‘निर्देशन प्रबधंकीय प्रक्रिया का हृदय है क्योंकि वह कार्य प्रारंभन से संबंधित है। इसके मूल में समूह के लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु पहले लिये गये निर्णयों तथा पहले तैयार किये गये कार्यक्रमों एवं योजनाओं को प्रभावी बनाने का विचार निहित हैं।’’
4. हेनरी एच. एलबर्स के अनुसार, ‘‘निर्देशन नियोजन के परिणामस्वरूप प्राप्त नीतियों को कायािर्न्वत करने से संबंधित हैं। इस संबंध में अधिकार सत्ता-संबंध, संचार प्रक्रिया एवं अभिप्रेरण समस्या महत्वपूर्ण है।’’
निर्देशन की प्रकृति
1. भारार्पण – भारार्पण का आशय ही होता है अधिकारों को सौंपना। अधिकार इसलिए सौंपे जाते हैं क्योंकि अधीनस्थों से कार्य करवाना पड़ता है। भारार्पण के अंतर्गत इसकी सीमा का निर्धारण उच्च अधिकारियों के द्वारा ही होता है। अत: आदेश एवं निर्देशन की तुलना में अधिकारों का सौंपना निर्देशन प्रक्रिया का सामान्य स्वरूप कहा जाता है।
2. उच्च प्रबंधकीय प्रक्रिया – प्रबधंको के कार्य निर्देशन के कार्य कहे जाते हैं जो कि हमेशा उच्च अधिकारियों द्वारा किये जाते हैं। निर्देश हमेशा ऊपर से नीचे की ओर दिये जाते हैं। उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों का मार्गदर्शन ही नहीं करते वरन उपयुक्त आदेश भी देते हैं। इसलिए प्रबन्ध प्रक्रिया में निर्देशन को प्रबंध का केन्द्र माना गया है।जिसके चारों ओर सभी मानवीय क्रियाएं विचरण करती रहती हैं।
3. अभिस्थापना – कार्य करने हते ु आवश्यक सामग्री व सूचनाएं प्रदान करना, अभिस्थापना है। इसके अन्तर्गत कर्मचारियों को अधिक से अधिक सूचनायें प्रदान करने की कोशिश की जाती हैं। ऐसा करने से अधीनस्थ अपने से संबंक्रिात पर्यावरण एवं कार्य को अच्छी तरह से समझ जाते हैं। कार्य को अच्छी तरह से समझने के कारण वे उस कार्य को मन लगाकर होशियारी से करते हैं।
4. निर्देशन – उच्चाधिकारी अधीनस्थों को निर्देशन के द्वारा आवश्यक आदेश प्रदान करते हैं। इससे वे अपने कार्यों को सही प्रकार से निष्पादित कर पाते हैं। आदेश एवं निर्देश इसलिए आवश्यक होते हैं कि उच्च अधिकारी अपने अधीनस्थों से अपनी इच्छा और संस्था की नीति के अनुसार कार्य करवाते हैं। ये आदेश सामान्य अथवा विशिष्ट हो सकते हैं। ये अधीनस्थों की योग्यता के अनुसार ही हुआ करते हैं।
निर्देशन में उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थों की क्षमताओं के आधार पर उनसे कार्य करवाने के लिए निर्देश देते हैं। जो अनुशासित एवं संस्था की क्रियान्वयन प्रक्रिया के अनुसार होते हैं साथ ही साथ संस्था के विकास के लिए अपरिहार्य है।
5. अनुशासन एवं पुरस्कार – निर्देशन की क्रियाओं में अनुशासन भी एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया होती है। इसीलिए इस कार्य पर अधिक बल दिया जाता है। अधीनस्थ जो अपने कार्य को समय में पूरा करते हैं या अनुशासन को मानते हैं उन्हें पुरस्कार भी दिया जाता है। इससे निर्देशन की क्रिया अधिक प्रभावशाली बन जाती है।
निर्देशन प्रक्रिया में अनुशासन एवं पुरस्कार एक दूसरे के पूरक है। संगठन में अनुशासन स्थापित करने में पुरस्कार अपनरी महती भूमिका निभाते हैं जिससे संस्था में अनुशासन के साथ साथ एक प्रतियोगी वातावरण निर्मित होता है और अंतत: संस्था की कार्य संस्कृति का विकास होता है।
निर्देशन के सिद्धांत
निर्देशन के कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए सिद्धान्तों का पालन करना पड़ता है। उन्हें इन सिद्धान्तों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। वे सिद्धांत हैं –
1. नेतृत्व का सिद्धांत – इसका तात्पर्य है निर्देशक या उच्च अधिकारी को प्रभावी नेता भी होना चाहिए क्योंकि अध् ाीनस्थ उसी अधिकारी के आदेशों का पालन करते हैं जो उनके व्यक्तिगत हितों एवं लक्ष्यों की पूर्ति में पूर्ण रूचि का प्रदर्शन एवं सक्रिय भूमिका का निर्वाह करते हैं। आधुनिक नेतृत्व सिद्धांत की अवधारणा है कि एक प्रभावी नेता ऐसा होना चाहिए जो अपने अधीनस्थों में एक पारिवारिक संस्कृतिक का निर्माण कर सके एवं उनमें स्वप्रेरणा जागृत कर सके जिसके आधार पर अधीनस्थों में यह भाव उत्पन्न हो कि, कार्यों का संपादन सुचारु रूप से चल सके।
2. आदेश की एकता – इसका तात्पर्य यह है कि कर्मचारी को एक ही प्रबन्ध अधिकारी द्वारा आदेश दिये जाने चाहिए। आदेश का स्रोत एक ही होना चाहिए। कर्मचारी को जब आदेश एक ही स्रोत से प्राप्त होंगे तो वह अपने कार्य के लिए उत्तरदायी भी सिर्फ एक ही व्यक्ति के प्रति होगा। ऐसा होने पर आदेशों में विरोध एवं संघर्ष नहीं होगा। परिणामों के प्रति व्यक्तिगत उत्तरदायित्वों की भावना में वृद्धि होगी।
इस सिद्धांत के परिणामस्वरूप निर्देशों की प्राथमिकता के निर्धारण, उच्चाधिकारियों के प्रति निष्ठा आदि के कारण उत्पन्न समस्यायें न्यूनतम हो जाती हैं और अधीनस्थ अधिक अच्छे ढंग से कार्य करते हैं।
3. अभिप्रे्रणा का सिद्धांत – यह सिद्धांत इस बात को दर्शाता है कि कर्मचारियों को अभिप्रेरित करना आवश्यक है। परन्तु इसे मानवीय व्यवहार के रूप में देखना चाहिए और इसके अनुसार कार्य करने में व्यक्तियों का व्यवहार, उनके व्यक्तित्व, कार्यों एवं पुरस्कार की प्रत्याशा, संगठनात्मक जलवायु तथा अन्य अनेक परिस्थितिजन्य घटकों को ध्यान में रखना चाहिये।
4. अच्छे मानवीय सम्बन्धोंं का सिद्धांत – व्यक्तियों के बीच जितना अधिक सदविश्वास, सहयोग और मित्रतापूर्ण वातावरण होगा, निर्देशन का कार्य उतना ही अधिक सरल होगा। संघर्ष, अविश्वास, अनुपस्थिति आदि कार्य निष्पादन को सीमित एवं विलम्बित करते हैं। इससे निर्देशन प्रभावहीन हो जाता है। अत: अच्छे मानवीय सम्बन्धों के आधार पर ही निर्देशन कुशल कहा जा सकता है। एक अच्छे निर्देशक में सामाजिक सरोकार उसकी मानवीय सम्बन्धों को मजबूत करते हैं जिससे निर्देशन करना आसान होता है।
5. प्रत्यक्ष निरीक्षण – प्रबंधकों को स्वत: अपने अधीनस्थों का प्रत्यक्ष निरीक्षण करना चाहिए। विभागाध्यक्ष को कर्मचारियों के प्रत्यक्ष सम्पर्क में रहना चाहिए। कर्मचारियों पर व्यक्तिगत संपर्क का अच्छा प्रभाव पड़ता है। इसके कारण उनमें अनुशासन की भावना जागृत होती है और कार्य के प्रति रूझान में वृद्धि होती है।
6. उद्देश्य निर्देशन का सिद्धांत – इसका तात्पर्य है कि निर्देशन प्रभावशाली होना चाहिए। निर्देशन जितना अधिक प्रभावशाली होगा अधीनस्थ उतने ही प्रभावी रूप से कार्य करेंगे। अधीनस्थों को अपने लक्ष्यों एवं भूमिका का पूरा ज्ञान होना चाहिए। इसी के परिणामस्वरूप संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति में उनका योगदान सक्रिय हो सकेगा।
7. निर्देशन तकनीक की उपयुक्तता – संगठन के सफल संचालन के लिए यह आवश्यक है कि प्रबन्धक निर्देशन की उपयुक्त तकनीक की व्यवस्था करें। ये तकनीकें हैं – परामर्शात्मक, निरंकुश तथा तटस्थवादी तकनीक। प्रबन्धक को इनमें से कर्मचारियों की प्रकृति व परिस्थितियों के अनुकूल उचित तकनीक का चुनाव करना चाहिए।
8. सूचना प्रवाह – वर्तमान परिदृश्य में सूचनाओं का प्रवाह एवं प्रबन्ध, निर्देशन सिद्धान्तों के लिए महत्वपूर्ण है। इसका तात्पर्य है कि संगठन व्यवस्था में सही सही सूचना का संवहन न्यूनतम समय में किया जाना चाहिए। इसके लिए औपचारिक और अनौपचारिक दोनों प्रकार की व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिए। निर्देशन उतना ही प्रभावी होगा, जितना कि सूचना प्रवाह तीव्र है एवं सूचना तकनीकियों का प्रयोग किया गया है।
आधुनिक सूचना क्रान्ति का प्रयोग कर्मचारियों को निर्देशित करने के लिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि सूचना तकनीकियों का प्रयोग अधिकाधिक तीव्र गति से बढ़ रहा है।
9. निरंतर जागरूक निर्देशन – निर्देशन का यह प्रमुख कार्य होता है कि वह अपने कर्मचारियों को आदेश देकर और आवश्यकतानुसार परामर्श देकर उनका पथ प्रदर्शन करे। यह देखना भी आवश्यक है कि सारा कार्य निर्धारित नीतियों के अनुसार चल रहा है या नहीं। यदि निर्धारित नीतियों के अनुसार कार्य न चल रहा हो तो आवश्यक निर्देशन देने चाहिए। अर्थात निर्देशक को निरंतर जागरूक रहकर आदेश देने के उपरांत भी कर्मचारियों के कार्य का निरीक्षण करना चाहिए। वे इस कार्य हेतु पर्यवेक्षक और फोरमैन की सहायता ले सकते हैं।
10. प्रबंधकीय संवादवाहन – निर्देशन का यह भी एक आवश्यक सिद्धांत है कि प्रबन्ध तथा अन्य कर्मचारियों के बीच संवादवाहन की व्यवस्था अच्छी होनी चाहिए। संगठन चार्ट में प्रत्येक प्रबन्धकीय एवं संवादवाहन के माध्यम का काम करते हैं। इस कार्य के लिए प्रबंध को द्विगामी संवादवाहन तथा प्रति पुष्टि के सिद्धांत को काम में लाना चाहिए। वर्तमान प्रबन्धकीय परिवेश में संवादवाहन एक महत्वपूर्ण तकनीक के रूप में उभर रही है।
जिसके आधार पर संगठन में कर्मचारियों एवं अधिकारियों के बीच में एक स्वस्थ संवादवाहन व्यवस्था का निर्माण होता है और उसके मध्य में एक संवाद स्थापित हो जाता है। परिणामस्वरूप संस्था में इस व्यवस्था के माध्यम से निर्देशन करना सुविधाजनक हो जाता है।
निर्देशन की तकनीकियाँ
1. अधिकारों का प्रत्यायोजन करना – निर्देशन की तकनीकों के अन्तर्गत जहॉं कर्मचारियों से कार्य कराना पड़ता है वहॉं यह आवश्यक है कि कार्य पर उपयुक्त अधिकारी की नियुक्ति करके उसके अधिकारों का प्रत्यायोजन किया जाये। उसे उसके अधिकार एवं कर्तव्य स्पष्ट रूप से बता दिये जाने चाहिए। इससे सम्बन्धित अधिकारी कार्य में अपने दायित्व को महसूस करेगा और रूचि पूर्वक कार्य करेगा। कार्य का दायित्व प्रभारित करने से कर्मचारी अपनी जिम्मेदारी महसूस करता है जिससे कार्य निष्पादन प्रभावशाली तरीके से सम्भव होती है।
2. आदेश एवं निर्देश देना – प्रबन्धक को अधीनस्थ कर्मचारियों को संदेशवाहन के द्वारा आदेश एवं निर्देश देने चाहिए। इससे वे अपने कार्य को प्रारम्भ कर सकेंगे। उच्च अधिकारी को अपने अधीनस्थ अधिकारी के माध्यम से विभिन्न कर्मचारियों को आदेश देना चाहिए। निर्देशों के द्वारा उनका समयानुसार मार्गदर्शन भी करना चाहिए। सूचना तकनीकी के प्रभावी उपयोग से आदेश एवं निर्देश देने में आसानी हो गर्इ है साथ ही साथ समय की भी बचत हो जाती है।
3. संदेशवाहन – आदेश व निर्देशों को कर्मचारियों तक पहुॅंचाने के लिए संदेशवाहन की व्यवस्था भी प्रभावशील होनी चाहिए। इससे उन्हें उचित समय पर आदेश निर्देश प्राप्त होंगे एवं प्रतिपुष्टि के माध्यम से संदेशवाहन निर्देशन में सुधारात्मक कदम उठाने में सहायक होगा।
4. अनुशासन – प्रबन्ध के कुछ विद्वान अनुशासन को भी निर्देशन की प्रभावी तकनीक मानते हैं । इसके द्वारा निर्देशन कुशल और प्रभावशाली बनता है। अनुशासन मानवीय संगठन का अपरिहार्य अंग है जिससे संगठन के अष्टिाकारी एवं कर्मचारी स्वप्रेरित होकर कार्य करते हैं।
5. पुरस्कार – अनुशासन की भॉंति ही उचित पुरस्कार की तकनीक भी निर्देशन को सफलता प्रदान करती है। इसके अंतर्गत अच्छा कार्य करने वाले व लक्ष्य को पूरा करने वाले व्यक्तियों को पुरस्कृत किया जाता है एवं अकर्मण्य कर्मचारियों को दण्ड के माध्यम से सुधारा जाता है और उनको प्रशिक्षण सुविधा प्रदान कर पुरस्कृत कर्मचारियों की श्रेणी में लाया जाता है। इससे निर्देशन करना सुविधाजनक हो जाता है।