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जब किसी क्षेत्र में जल तथा नमी की मात्रा कुछ समय के लिए सामान्य से कम हो जाती है उसे सूखा कहते हैं। सूखा का अर्थ सूखा एक भयंकर प्राकृतिक प्रकोप है। इसका मुख्य सम्बन्ध जल वर्षा की कमी से है। यदि किसी क्षेत्र में दीर्घकालीन समय तक सामान्य या औसत वर्षा से यथार्थ वर्षा कम मात्रा में होती है तो सूखे की दशाएं उत्पन्न हो जाती है।
सूखा की परिभाषा
भारतीय मौसम विभाग के अनुसार यदि किसी क्षेत्र में सामान्य वर्षा यथार्थ वर्षा से 75 प्रतिशत कम होती है तो सूखा की स्थिति उत्पन्न होती है। मौसम विभाग ने सम्पूर्ण देश में सूखे की स्थिति का आकलन किया है। भारत की औसत भारित वर्षा 88 से0मी0 है। इसे भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून वर्षा कहा जाता है। जब यथार्थ वर्षा औसत भारित वर्षा से 10 प्रतिशत कम हो तथा 20 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र प्रभावित हो तो सम्पूर्ण क्षेत्र में सूखा की स्थिति मानी जाती है।
रामदास एलए (Ramdas L.A. 1950) – सूखा वह दशा है जब यथार्थ वर्षा की मात्रा सामान्य वर्षा के माध्य विचलन के दुगने से भी कम हो।
उपर्युक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सूखा को परिभाषित करने के लिए निश्चित मानदण्ड नहीं है क्योंकि वह उस स्थान की भौगोलिक स्थिति, जलवायु की दशाओं तथा मानवीय व आर्थिक क्रियाओं पर निर्भर करती है। स्थान विशेष के आधार पर सूखा मापन के मानदण्ड निर्धारित किए जाते हैं। भारतीय कृषि खरीफ के मौसम में पूर्णत: मानसून पर निर्भर है।
सूखा के कारण
भारत में सूखा कई कारणों से आता है। इसमें प्रमुख है दक्षिणी पश्चिमी मानसून का देरी से आना, मानसून में लम्बी अवधि का अन्तराल, मानसून का समय से पूर्व समाप्त होना तथा मानसूनी वर्षा का देश में असमान वितरण। इसके अलावा ENSO (एलनिनो दक्षिण दोलन) में एलनिनों तथा लानिनो के प्रभाव के कारण मानसून में अनिश्चितता आ जाती है तथा कभी-कभी भयंकर बाढ़ और सूखे की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। मानवीय क्रियायें भी सूखे को बढ़ावा देने में प्रमुख कारक हैं।
सूखा के लक्षण
- सूखा मौसमी कारणों के फलस्वरूप होता है। उच्च तापक्रम, कम वर्षा, गर्म हवाएं, कम आद्रता तथा वाष्पीकरण की मात्रा अधिक होने के कारण सूखा उत्पन्न होता है।
- सूखा अपर्याप्त वर्षा तथा मानसून की अनिश्चितता के कारण भी होता है। यदि मानसून तय समय से पूर्व या पश्चात में आता है तो भी फसलों को निर्धारित समय पर जल आपूर्ति न होने से सूखे की सम्भावना बढ़ जाती है।
- सूखा की समयावधि निश्चित नहीं है। यह कुछ माह से लेकर एक या दो वर्ष या इससे भी अधिक हो सकती है।
- सूखा प्रारम्भ होने का समय निश्चित नहीं होता क्योंकि इसका प्रभाव धीरे-धीरे परिलक्षित होता है।
- सूखा समाप्त होने के तिथि निश्चित नहीं होती। उच्च तापक्रम और शुष्क दशाए होने पर इसकी अवधि बढ़ सकती है। यदि समय पर पर्याप्त वर्षा हो जाए तो यह समाप्त भी हो जाता है।
- सूखा प्रभावित क्षेत्र की कोई सीमा नहीं होती है। इससे एक जिले के अलावा कई जिले प्रभावित हो सकते हैं। यहाँ तक कि पूरा राज्य और कई राज्य भी इससे प्रभावित हो सकते हैं।
- वर्षा की कमी, फसल चक्र में परिवर्तन और उन्नत बीजों किस्म के बीजों के प्रयोग से मृदा में नमी की मात्रा कम हो जाती है और पौधों का विकास नहीं हो पाता है तथा मरूस्थलीकरण की दशायें बढ़ जाती हैं।
- वर्षा कम मात्रा में होने तथा फसल की पैदावार के लिए सिचाई पर निर्भर रहने से सतही (नदियों, तालाब, जलाशय, झील) तथा भूमिगत जल के स्तर में कमी होने लगती है।
- कई वर्षों तक अपर्याप्त और अनिश्चित वर्षा होने से खाद्यान्न, चारा तथा शुद्ध पेयजल का संकट बढ़ जाता है। जल विद्युत की आपूर्ति न्यूनतम मांग से कम हो जाती है।
- फसल विफलता और न्यून पैदावार के कारण प्रभावित क्षेत्र के कृषकों की आय कम हो जाती है जिससे जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने में परेशानी का सामना करना पड़ता है।
सूखा के प्रकार
सूखे के प्रकारों को निर्धारित करने के लिए आधार है- जैसे औसत से वर्षा की मात्रा कम होना, मृदा में नमी की मात्रा कम होना तथा सतही और भूमिगत जल का स्तर दिनोदिन नीचे गिरना तथा फसल विफलता आदि है। इसके अलावा सूखे के घटने की अबाधि तथा माध्यम के आधार पर सूखे को इन प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है –
- मौसमी सूखा –
- जलीय सूखा –
- कृषि सूखा-
- सामाजिक, आर्थिक सूखा –
- पारिस्थितिकी सूखा –
1. मौसमी सूखा – भारतीय मौसम विभाग के अनुसार मौसमी सूखा वह दशा है जब किसी क्षेत्र की सामान्य वर्षा से वास्तविक वर्षा 75 प्रतिशत कम हो। यह सूखा वर्षा की मात्रा के अलावा वर्षा की प्रभाविता पर भी निर्भर करता है। भारत में 118 सेमी0 औसत वार्षिक वर्षा होती है। विश्व के दूसरे देशों की तुलना में यह मात्रा काफी अधिक है। लेकिन मानसून की अनिश्चितता जेट स्ट्रोम और एलनिनो के कारण भारत के कई भाग सूखे से ग्रसित हो जाते हैं।
- सतही जल सूखा- सतही जल स्त्रोत नदी, तालाब, झील, जलाशय आदि के सूखने के कारण होता है। वृहद पैमाने पर निर्वनीकरण सतही जल सूखा का प्रमुख कारण है। खनन क्रिया भी इसके लिए जिम्मेदार है। दून घाटी में चूने के पत्थर के खनन के कारण सतही जल का प्रवाह क्षेत्र परिवर्तित हो गया है जिसके कारण मानसून के प्रारम्भ में बाढ़ आती है। इसके बाद सूखा उत्पन्न हो जाता है।
- भूमिगत जल सूखा- यह सामान्य से भूमिगत जल स्तर के अधिक गिर जाने कारण उत्पन्न होता है। इसमें पुन:भरण की अपेक्षा जल का दोहन अधिक होता है। सामान्य जल वर्षा की स्थिति में भी यह सूखा उत्पé होता है। भूमिगत जल का पुन:भरण मृदा के स्वभाव पर निर्भर करता है। जैसे भारत के मैदानी भाग में जलोढ़ मिट्टी पाई जाती है। यह मुलायम और प्रवेश्य है। इसके कारण जल इसमें आसानी से प्रवेश कर जाता है और भूमिगत जल में वृद्धि होती है। इसके विपरीत दक्षिणी का पठारी भाग कठोर और अप्रवेश्य है। सन्धियों में ही जल प्रवेश कर पाता है। इस कारण भूमिगत जल में वृद्धि नहीं हो पाती है।
3. कृषि सूखा- इस सूखे का सम्बन्ध मौसमी और जलीय सूखे से है। जब दीर्घकाल तक मृदा में नमी की मात्रा कम हो, खत्म हो गई हो और पर्याप्त मात्रा में वर्षा न हो, तो पौधों का विकास अवरूद्ध हो जाता है जिससे फसल विफलता, न्यून फसल पैदावार, अनाज की न्यून गुणवत्ता तथा धूल उत्सर्जन आदि की स्थितियां पैदा हो जाती है। इसे ही कृषि सूखा कहते हैं। मृदा में कम नमी से जब कोई पौधा जीवित नहीं रह सकता है तो इसे मरूस्थलीयकरण कहते हैं। भारत में 1960 में हरितक्रान्ति आई। इससे कृषि उत्पादन के क्षेत्र में आशातीत वृद्धि हुई लेकिन उéत किस्म के बीजों, उर्वरको और रसायनिक खादों के प्रयोग से मृदा में नमी की मात्रा कम होने लगी। यदि फसलों की समय पर सिंचाई न हो तो कृषि सूखे की स्थिति पैदा हो जाती है।
सूखे से निवारण के उपाय
- लोगों को तत्कालीन सेवाएं प्रदान करना जैसे सुरक्षित पेय जल वितरण, दवाइयां, पशुओं के लिए चारा, व्यक्तियों के लिए भोजन तथा उन्हें सुरक्षित स्थान प्रदान करना।
- भूमि जल भंडारों की खोज करना जिसके लिए भौगोलिक सूचना तंत्र की सहायता लेना।
- वर्षा के जल को संग्रहण एक संचय करना तथा इसके लिए लोगों को प्रोत्साहित करना तथा छोटे बांयो का निर्माण करना।
- अधिक जल वाले क्षेत्रों को निम्न जल वाले क्षेत्रों से नदी तंत्र की सहायता से मिलाना
- वृक्षारोपण द्वारा सूखे से काफी हद तक छुटकारा पाया जा सकता है।