अनुक्रम
सुमित्रानंदन पंत की प्रमुख रचनाएँ
सुमित्रानंदन पंत जी ने हिन्दी की अनेक विधाओं में अपनी रचनाएँ लिखी। परन्तु उनकी ख्याति सबसे अधिक काव्य के क्षेत्र में ही मानी जाती है। सुमित्रानंदन पंत ने अपने काव्य जीवन का आरम्भ ‘वीणा’ नामक काव्य संग्रह से किया।, ‘ग्रंथि’(1920), ‘वीणा’ (1927), ‘पल्लव’ (1928) और ‘गुंजन’ (1932) उनक छायावादी कविता की रचनाएँ है। ‘युगान्त’ (1936), ‘युगवाणी’ (1939) और ‘ग्राम्या’ (1940) में उनके प्रगतिवादी विचार देखने में आते हैं।
- ग्रंथि’(1920)
- वीणा’ (1927)
- पल्लव’ (1928)
- गुंजन’ (1932)
- ‘युगान्त’ (1936)
- युगवाणी’ (1939)
- ग्राम्या’ (1940)
- स्वर्ण किरण’ (1947)
- स्वर्णधूलि’ (1947)
- उत्त्रा’ (1949)
- युगपथ’ (1948)
- अतिमा’ (1955)
1. वीणा
‘वीणा’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1927 ई. में हुआ। 1918 से 1920 तक की अधिकांश रचनाएँ इस संग्रह में छपी है। इसमें तिरसठ गीत रचनाएँ संकलित है। इस संग्रह का मूल व्यक्तित्व गीतात्मकता है। इसमें कवि की प्रारम्भिक कविताएँ संकलित है। इस संग्रह की प्रमुख कविताओं में ‘प्रथम रश्मि’, ‘जागरण’, है। इस काव्य संग्रह की शुरुआती कविताओं में बार-बार माँ सम्बोधन आया है।
2. ग्रन्थि
‘ग्रन्थि’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1929 ई. में हुआ। जबकि इसकी रचना 1920 ई. के जनवरी माह में हुई। यह कवि सुमित्रानंदन पंत जी आत्मकथात्मक कविता है, जिसमें कवि ने अपनी प्रियतमा के अद्भुत सौन्दर्य का चित्र अंकित किया है। प्रेम के संयोग और वियोग पक्ष की मार्मिक अभिव्यक्ति इस रचना में हुई है। इस काव्य में तीन खण्ड है।
2. पल्लव
‘पल्लव’ (1926) काव्य संग्रह कवि की प्रौढ़ काव्य रचना माना गया है। इस काव्य में कवि ने नवीन प्रतिमानों को स्थापित कर अपनी रचना दृष्टि को स्पष्ट किया है। ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएँ प्राकृतिक सौन्दर्य पर ही रची गई हैं। ‘उच्छ्वास’ ‘आँसू’, ‘मधुकरी’, ‘मौन निमंत्रण’, ‘छाया’, ‘बादल’, ‘परिवर्तन’ आदि लम्बी कविता ‘पल्लव’ काव्य संग्रह में संगृहीत है। ‘उच्छ्वास’ कविता प्रकृति का अवसाद एवं करुणा की गहराई को व्यक्त करने वाली कविता है। पंत जी का अतृप्त प्रेम आगे बढ़कर ग्रंथि बन जाता है। उच्छ्वास की सरलता में कवि अपने सौन्दर्य बोध को उजागर करते हुए यौवन की सीमाओं में आकर संचारियों के माध्यम से फूट पड़ा है।
‘ज्योत्स्ना’ प्रतीकात्मक काव्य नाटिका है। इसकी सम्पूर्ण कथा पाँच अंकों में विभाजित है। कवि सुमित्रानंदन पंत इस नाटिका के द्वारा समाज को व्यवस्थित करने एवं विश्व बन्धुत्व का संदेश देना चाहते हैं। इस काव्य में तत्कालीन भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन, वर्ग भेद, किसान आन्दोलन, मजदूरी की स्थिति, साहित्य कला आदि की चर्चा की गई।
4. गुंजन
‘गुंजन’ मानव-प्रेम की रचना है। यह कवि की आन्तरिक अनुभूतियों को व्यक्त करता है। जीवन के सुख-दुख, आशावाद, मानवतावाद, प्रेम, सौन्दर्य, प्रकृति-सौन्दर्य से सम्बन्धित रचनाएँ इस संकलन में संकलित है। प्रियतमा के प्रति स्वच्छंद प्रेम की अभिव्यक्ति ‘भावी पत्नी के प्रति’ और ‘प्राण तुम लघु गीत’ कविताओं में सुन्दर ढंग से हुई है। प्रकृति सौन्दर्य के मनोरम चित्र ‘लाई हूँ फूलों का हार’, ‘विहग के प्रति’, ‘एक तारा’, ‘चाँदनी’, ‘अप्सरा’ और ‘नौका विहार’ कविताओं में विद्यमान है। इस संग्रह में ‘एक तारा’, ‘चाँदनी’, ‘नौका विहार’ तीनों कविताओं में एक समानता है। इनमें प्रकृति का उदीप्त रूप दिखाई देता है।
5. युगवाणी
‘युगवाणी’ का प्रकाशन 1939 ई. में हुआ। ‘युगवाणी’ पंत का गद्यात्मक काव्य है। ‘युगवाणी’ में प्रगतिवादी रूप ही अधिक जागरूक है। इसमें युग की समस्याओं को वाणी देने का प्रयास किया गया है। इस काव्य में कवि समाज के निचले तबके के लोगों के दु:ख दर्द को महसूस करते हुए चीटीं जैसी सूक्ष्म प्राणी को काव्य का विषय बनाया। ‘युगवाणी’ में दलित शोशित नारी, धन पति, श्रमजीवी आदि से सम्बन्धित कविताएँ है। ‘युगवाणी’ ने कवि मानव जीवन के सत्य को व्यापक रूप में प्रस्तुत किया है। कवि पंत ‘घनानंद’ कविता के अन्तर्गत खेतों में काम करने वाले मजदूरों को जगाने का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि वे धरती के सच्चे अधिकारी है।
6. युगान्त
‘युगान्त’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1936 ई. में हुआ। ‘युगान्त’ द्वारा पंत जी ने छायावाद युग के अंत की घोषणा कर दी। ‘युगान्त’ सुमित्रानंदन पंत का दूसरा चरण है। जहाँ से कवि की वैचारिकता का विकास हुआ है। यह काव्य यथार्थवादी होते हुए लोककल्याण की ओर प्रेरित करने वाली है। इस काव्य संग्रह में कवि मानव कल्याण के लिए प्रकृति को साधन माना है। कवि का मानना है कि संसार में परिवर्तन हो रहा है। पुरानी मान्यताएँ, रूढ़ियाँ, परम्परायें, संस्कृति सब टूट रहे हैं। वे प्राचीन परम्पराओं का विरोध तो करते हैं, किन्तु उनका संघर्ष बाह्य नहीं है। वे अपने नैतिक आदर्शों को साथ लेते हुए चलते हैं। इस कारण उनका विरोध केवल बौद्धिक है।
7. ग्राम्या
‘ग्राम्या’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1940 ई. में किया गया। इसमें सुमित्रानंदन पंत जी ने ग्रामीण जीवन के परिदृष्य को समेटने का प्रयास किया है। इस समय तक छायावाद का कल्पना लोक यथार्थ की भूमि पर आ चुका था। इस कारण इस काव्य संग्रह में गाँवों का संघर्ष पूर्ण जीवन का यथार्थ एवं सजीव चित्रण हुआ है। इसमें ‘ग्राम्य देवता’, ‘भारत माता’, ‘ग्राम्य श्री’, ‘दिवास्वप्न’, ‘संध्या के बाद’, ‘ग्राम युवती’, ‘ग्राम वधू’, ‘संक्रान्ति का नहान’, ‘ग्राम संस्कृति’, ‘वे आँखें’ आदि कविताएँ संग्रहित है। ‘ग्राम्या’ संग्रह की प्रत्येक कविता अपने आप में विशिष्ट है।
8. स्वर्णधूलि
‘स्वर्णधूलि’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1947 ई. में हुआ। ‘स्वर्ण आध्यात्मिक चेतना का प्रतीक है। इस काव्य संग्रह में ‘कुण्ठित’, ‘आजाद’, ‘सावन’, ‘देवकाव्य’, ‘अग्निदेव’, ‘अन्तरगमन’, ‘इन्द्र’, ‘वरूण’, ‘सामंजस्य’, ‘मृत्युंजय’ आदि कविताएँ है। इस कविता द्वारा कवि मनुष्य की कुण्ठा को आध्यात्मिक चेतना द्वारा समन करते हैं।
9. स्वर्णकिरण
‘स्वर्णकिरण’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1947 ई. में हुआ। यह कविता सम्मोहन युक्त है। इस कविता में स्वर्ण के प्रति कवि की आसक्ति देखी जा सकती है। इस काव्य संग्रह का शीर्षक स्वर्णिम पराग, स्वर्ण निर्झर, स्वर्णिम पुलिन तथा स्वर्ण पंख आदि है। कवि इस नवीन काव्य चरण में आध्यात्मिक सौन्दर्य को प्राथमिकता देते हैं। इस काव्य संग्रह में कवि अतिभौतिकता का विरोध व उससे ऊपर उठने की प्रेरणा देते हैं। वे मनुष्य को आध्यात्मिक लोक में विचरण करते हुए बाह्य जगत की विभिशिका को छोड़ कर आन्तरिक चेतना द्वारा जीवन को संचालित करने का उपदेश देते हैं।
10. उत्तरा
‘उत्तरा’ काव्य संग्रह तक आते-आते कवि पंत का आध्यात्मिक झुकाव के प्रति लगाव कम हो जाता है और उनमें जीवन संस्पर्ष प्रतीत होने लगता है। उत्तरा’ काव्य संग्रह की कविताओं का शीर्षक नवमानव प्रगति, युग विशाद, युग संघर्श, युग छाया, युगमन, भू-यौवन, भू-जीवन, निर्माण कला आदि है। इनके कविता शीर्षक से ही उनकी यथार्थता का बोध हो जाता है। कवि जानते हैं कि देष में जो जातिवाद व अंधविश्वास के कारण चारों ओर घृणा और द्वेश की आँधियाँ उठ रहीं है। समाज में व्याप्त विषमता, जातिवाद व अज्ञानता का अंधकार छाया हुआ है। ऐसे वातावरण में नवीन आलोक का आàान करते हुए इस काव्य संग्रह द्वारा कवि मानवीय जीवन को सुखद बनाने के लिए नवीन कल्पनाएँ की गयी है।
11. रजत शिखर
‘रजत शिखर’ काव्य संग्रह में मानव जीवन के सुखद क्षणों का उल्लेख किया गया है। इसमें कवि अपने विचारों एवं अनुभव की गहराई को व्यक्त करने का प्रयत्न करते हैं। इस काव्य संग्रह में ‘फूलों का देष’, ‘उत्त्ारषती’, ‘शुभ्र पुरुष’, ‘विश्रूत वासना’, ‘षरद चेतना’ आदि प्रमुख कविताएँ है।
12. कला और बूढ़ा चाँद
‘कला और बूढ़ा चाँद’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1959 ई. में हुआ। यह काव्य संग्रह कवि के काव्य यात्रा के चतुर्थ एवं अंतिम चरण के आरम्भ की है। इसमें कवि प्रतीकों एवं बिम्बों की नयी भूमियों की तलाष करता हुआ, नवीन शब्दावली का प्रयोग करने की चेष्टा करते हैं। इस काव्य संग्रह में कवि ने प्रेम को गुलाब से, हिमालय में रिक्त मौन, शंखध्वनि को अमृत के रूप में देखते हैं। इस काव्य संग्रह को पढ़ने में आधुनिक पाठक को कम कठिनाई होती है, क्योंकि इसमें आधुनिकता पूर्ण मुहावरों का प्रयोग किया गया है। ‘धेनुए’ कविता में आध्यात्मिक वक्तव्यों का सहारा न लेकर यथार्थ को उधृत करने का प्रयास किया गया है।
13. चितम्बरा
‘चितम्बरा’(1958) में 1937 से 1957 तक की विषेश रूप से लोकप्रिय कविताओं का संग्रह है। इसमें ‘युगवाणी’, ‘ग्राम्या’, ‘स्वर्णकिरण’, ‘युगपथ’, ‘उत्तरा’, ‘रजतषिखर’, ‘शिल्पी’, ‘सौवर्ण’, ‘अतिमा’, ‘वाणी’ की प्रतिनिधि कविताओं को चुना गया है। इसी कृति पर पंत को 1969 ई. को ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।
14. लोकायतन
‘लोकायतन’ काव्य संग्रह का प्रकाशन 1964 ई. में हुआ। इस काव्य संग्रह के निर्माण में कवि को लगभग चार वर्ष (1959 ई. से 1963 ई.) लगे। यह लोकजीवन का महाकाव्य है। सम्पूर्ण काव्य दो भागों में विभाजित है। बाह्य परिवेष और अन्तष्चैतन्य। ‘लोकायतन’ महाकाव्य के प्रथम खण्ड में 1925 ई. से लेकर 1947-48 ई. तक भारतीय समाज की स्थितियों पर विस्तार से चर्चा की गई है। इस काव्य संग्रह में स्वतंत्रता आन्दोलन- डांडी यात्रा, नमक सत्याग्रह आदि राजनीतिक आन्दोलनों एवं भारतीय राजनीति पर गांधी दर्शन का प्रभाव दिखाई देता है।