अनुक्रम
सामाजिक विकास की परिभाषा
शैशवावस्था में सामाजिक विकास
यद्यपि जन्म के समय शिशु सामाजिक नहीं होता है परन्तु दूसरे व्यक्तियों के प्रथम सम्पर्क से ही उसके समाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है, जो निरन्तर आजीवन चलती रहती है। सामाजिक विकास ढंग से होता है-
- प्रथम माह – प्रथम माह में शिशु किसी व्यक्ति या वस्तु को देखकर कोई स्पष्ट प्रतिक्रिया नहीं करता हैं वह तीव्र प्रकाश तथा ध्वनि के प्रति प्रतिक्रिया अवश्य करता है। वह रोने तथा नेत्रों को घुमाने की प्रतिक्रियायें करता है।
- द्वितीय माह – दूसरे माह में शिशु आवाजों को पहचानने लगता है जब कोई व्यक्ति शिशु से बातें करता है या ताली बजाता है या खिलौना दिखाता है तो वह सिर घुमाता है तथा दूसरों को देखकर मुस्कराता है।
- तृतीय माह – तीसरे माह में शिशु माँ को पहचानने लगता है। जब कोई व्यक्ति शिशु से बातें करता है या ताली बजाता है तो वह रोते-रोते चुप हो जाता है।
- चतुर्थ माह – चौथे माह में शिशु पास आने वाले व्यक्ति को देखकर हँसता है, मुस्कराता है। जब कोई व्यक्ति उसके साथ खेलता है तो वह हँसता है तथा अकेला रह जाने पर रोने लगता है।
- पंचम माह – पाँचवें माह में शिशु प्रेम व क्रोध के व्यवहार में अंतर समझने लगता है। दूसरे व्यक्ति के हँसने पर वह भी हँसता है तथा डाँटने पर सहम जाता है।
- छठे माह – छठे माह में शिशु परिचित-अपरिचित में अंतर करने लगता है। वह अपरिचितों से डरता है। बड़ों के प्रति आक्रामक व्यवहार करता है। वह बड़ों के बाल, कपड़े, चश्मा आदि खींचने लगता है।
- नवम् माह – नवें माह में शिशु दूसरों के शब्दों, हावभाव तथा कार्यों का अनुकरण करने का प्रयास करने लगता है।
- प्रथम वर्ष – एक वर्ष की आयु में शिशु घर के सदस्यों से हिल-मिल जाता है। बड़ों के मना करने पर मान जाता है तथा अपरिचितों के प्रति भय तथा नापसन्दगी दर्शाता है।
- द्वितीय वर्ष – दो वर्ष की आयु में शिशु घर के सदस्यों को उनके कार्यों में सहयोग देने लगता है। इस प्रकार वह परिवार का एक सक्रिय सदस्य बन जाता है।
- तृतीय वर्ष – तीन वर्ष की आयु में शिशु अन्य बालकों के साथ खेलने लगता है। खिलौनों के आदान प्रदान तथा परस्पर सहयोग के द्वारा वह अन्य बालकों से सामाजिक संबन्ध बनाता है।
- चतुर्थ वर्ष – चौथे वर्ष के दौरान शिशु प्राय: नर्सरी विद्यालयों में जाने लगता है जहां वह नए-नए सामाजिक संबन्ध बनाता है तथा नए सामाजिक वातावरण में स्वयं को समायोजन करता है।
- पंचम वर्ष – पांचवे वर्ष में शिशु में नैतिकता की भावना का विकास होने लगता है। वह जिस समूह का सदस्य होता है उसके द्वारा स्वीकृत प्रतिमानों के अनुरूप अपने को बनाने का प्रयास करता है।
- छठे वर्ष – छठे वर्ष में शिशु प्राथमिक विद्यालय में जाने लगता है जहां उसकी औपचारिक शिक्षा का आरम्भ हो जाता है तथा नवीन परिस्थितियों से अनुकूलन करता है।
शैशावस्था में बालक के द्वारा किए जाने वाले उपरोक्त वर्णित सामाजिक व्यवहारों के अवलोकन से स्पष्ट है कि जन्म के उपरान्त धीरे-धीरे बालक का समाजीकरण होता है। जन्म के समय शिशु सामाजिक प्राणी नही होता है। परन्तु अन्य व्यक्तियों के सम्पर्क में आने पर उसके समाजीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
किशोरावस्था में किशोर एवं किशोरियों का सामाजिक परिवेश अत्यन्त विस्तृत हो जाता है। शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक परिवर्तनों के साथ -साथ उनके सामाजिक व्यवहार में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है। किशोरावस्था में होने वाले अनुभवों तथा बदलते सामाजिक संबंधो के फलस्वरूप किशोर – किशोरियां नए ढंग के सामाजिक वातावरण में समायोजित करने का प्रयास करते है। किशोरावस्था में सामाजिक विकास का स्वरूप होता है –
- समूहों का निर्माण – किशोरावस्था में किशोर एवं किशोरियां अपने-अपने समूहों का निर्माण कर लेते है। परन्तु यह समूह बाल्यावस्था के समूहों की तरह अस्थायी नही होते है। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन करना होता है। पर्यटन, नृत्य, संगीत पिकनिक आदि के लिए समूहों का निर्माण किया जाता है। किशोर-किशोरियों के समूह प्राय: अलग-अलग होते है।
- मैत्री भावना का विकास – किशोरावस्था में मैत्रीभाव विकसित हो जाता है। प्रारम्भ में किशोर-किशोरो से तथा किशोरियां-किशोरियों से मित्रता करती है। परन्तु उत्तर किशोरावस्था में किशोरियों की रूचि किशोरो से तथा किशोरों की रूचि किशोरियों से मित्रता करने की भी हो जाती है। वे अपनी सर्वोत्तम वेशभूषा, श्रश्ंगार व सजधज के साथ एक दूसरे के समक्ष उपस्थित होते है।
- समूह के प्रति भक्ति – किशोरों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्तिभाव होता है। समूह के सभी सदस्यों के आचार-विचार, वेशभूषा, तौर-तरीके आदि लगभग एक ही जैसे होते है। किशोर अपने समूह के द्वारा स्वीकृत बातों को आदर्श मानता है तथा उनका अनुकरण करने का प्रयास करता है।
- सामाजिक गुणों का विकास – समूह के सदस्य होने के कारण किशोर-किशोरियों में उत्साह, सहानुभूति, सहयोग, सद्भावना, नेतृत्व आदि सामाजिक गुणों का विकास होने लगता है। उनकी इच्छा समूह में विशिष्ट स्थान प्राप्त करने की होती है, जिसके लिए वे विभिन्न सामाजिक गुणों का विकास करते है।
- सामाजिक परिपक्वता की भावना का विकास – किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं में वयस्क व्यक्तियों की भांति व्यवहार करने की इच्छा प्रबल हो जाती है। वे अपने कार्यो तथा व्यवहारों के द्वारा समाज में सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। स्वयं को सामाजिक दश्ष्टि से परिपक्व मान कर वे समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने का प्रयास करते है।
- विद्रोह की भावना – किशोरावस्था में किशोर किशोरियों मे अपने माता-पिता तथा अन्य परिवारीजनों से संघर्ष अथवा मतभेद करने की प्रवृत्ति आ जाती है। यदि माता-पिता उनकी स्वतंत्रता का हनन करके उनके जीवन को अपने आदर्शो के अनुरूप ढ़ालने का प्रयत्न करते है अथवा उनके समक्ष नैतिक आदर्शो का उदाहरण देकर उनका अनुकरण करने पर बल देते है तो किशोर-किशोरियां विद्रोह कर देते है।
- व्यवसाय चयन में रूचि – किशोरावस्था के दौरान किशोरों की व्यावसायिक रूचियां विकसित होने लगती है। वे अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिये सदैव चिन्तित से रहते है। प्राय: किशोर अधिक सामाजिक प्रतिष्ठा तथा अधिकार सम्पन्न व्यवसायों को अपनाना चाहते है।
- बर्हिमुखी प्रवृत्ति – किशोरावस्था में बर्हिमुखी प्रवृत्ति का विकास होता है। किशोर-किशोरियों को अपने समूह के क्रियाकलापों तथा विभिन्न सामाजिक क्रियाओं में भाग के अवसर मिलते है, जिसके फलस्वरूप उनमें बर्हिमुखी रूचियां विकसित होने लगती है।
बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
बाल्यावस्था में समाजीकरण की गति तीव्र हो जाती है। बालक वाºय वातावरण के सम्पर्क में आता है। जिसके फलस्वरूप उसका सामाजिक विकास तीव्र गति से होता है। बाल्यावस्था में होने वाले सामाजिक विकास को इस ढंग से व्यक्त किया जा सकता है।
- बालक किसी न किसी टोली या समूह का सदस्य बन जाता है। यह टोली अथवा समूह ही उसके खेलो, वस्त्रों की पसंद तक्षा अन्य उचित-अनुचित बातों का निर्धारण करते है।
- समूह के सदस्य के रूप में बालक के अंदर अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है। उत्तरदायित्व, सहयोग, सहनशीलता, सद्भावना, आत्मनियन्त्रण, न्यायप्रियता आदि सामाजिक गुण बालक में धीरे-धीरे उदित होने लगते है।
- इस अवस्था में बालक तथा बालिकाओं की रूचियों में स्पष्ट अंतर दृष्टिगोचर होता है।
- बाल्यावस्था में बालक प्राय: घर से बाहर रहना चाहता है, और उसका व्यवहार शिष्टतापूर्ण होता है।
- इस अवस्था में बालक में सामाजिक स्वीकृति तथा प्रशंसा पाने की तीव्र इच्छा होती है।
- प्यार तथा स्नेह से वंचित बालक इस आयु में प्राय: उद्धण्ड हो जाते है।
- बाल्यावस्था में बालक मित्रों का चुनाव करते है। वे प्राय: कक्षा के सहपाठियों को अपना घनिष्ठ मित्र बनाते है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि इस अवस्था में बालक के सामाजिक जीवन का क्षेत्र कुछ विस्तृत हो जाता है जिसके फलस्वरूप बालक – बालिकाओं के समाजीकरण के अवसर तथा सम्भावनायें बढ़ जाती है।
वयस्क अवस्था में सामाजिक विकास
वयस्क अवस्था सामाजिक विकास की यह अवस्था वास्तव में किशोरावस्था का परिणाम मात्र है। इस अवस्था में द्वितीयक समाजीकरण, विसमाजीकरण तथा पुर्नसमाजीकरण की प्रक्रिया मन्द गति से जारी रहती है। इस अवस्था की मुख्य विशेषता यह है कि यहां व्यक्ति वैवाहिक जीवन को निभाने में सक्रिय हो जाता है, जीविकोपार्जन भी इस अवस्था की मुख्य विशेषता है।
बालक के सामाजिक विकास की प्रमुख कसौटियां
बालक के सामाजिक विकास के मूल्यांकन की प्रमुख कसौटियां होती है –
- सामाजिक अनुरूपता – एक बालक जितनी शीघ्रता व कुशलता से अपने समाज की परम्पराओं, नैतिक मूल्यों व आदर्शो के अनुरूप व्यवहार करना सीख लेता है। उसके सामाजिक विकास का स्तर भी प्राय: उतना ही अधिक उच्च होता है। स्पष्टत: यहां सामाजिक अनुरूपता व सामाजिक विकास में एक प्रकार का ध् ानात्मक सह-सम्बन्ध देखने में आता है।
- सामाजिक समायोजन – एक बालक अपनी सामाजिक स्थितियों को जितनी अधिक सफलता व कुशलता से समझने व सुलझाने में सम्पन्न होता है, जितनी अधिक उसमें समायोजन की शक्ति होती है उसके सामाजिक विकास का स्तर भी प्राय: उतना ही अधिक होता है।
- सामाजिक अन्त: क्रियाएं – एक बालक की सामाजिक अन्त: क्रियाओं का स्तर जितना अधिक विस्तश्त व जटिल होता है, यह स्थिति भी लगभग उसी समानुपात में उसकी सामाजिक विकास के स्तर की द्योतक होती है।
- सामाजिक सहभागिता – एक बालक अथवा व्यक्ति जितने अधिक सहज भाव और जितने अधिक आत्मविश्वास के साथ सामाजिक गतिविधियां में भाग लेता जाता है, वह भी प्राय: उसके उच्च सामाजिक विकास का ही सूचक होता है।