अनुक्रम
सामाजिक परिवर्तन की सैद्धांतिक व्याख्या पहले समाजशास्त्र के जनक विचारकों ने की थी। शायद सबसे पहले ई. 1893 में दुर्खीम ने श्रम विभाजन की व्याख्या में सामाजिक परिवर्तन का उल्लेख किया था। दुर्खीम ने पूर्व औद्योगिक समाज की तुलना औद्योगीकरण समाज से की। पूर्व औद्योगीकरण समाजों में सामाजिक स्तरीकरण किसी भी अर्थ में चौकने वाला नहीं था। औद्योगिक समाज में स्तरीकरण अधिक तीव्र हो गया।
इस समाज में मानदण्ड एंव मूल्यों में भी परिवर्तन आ गया। दुर्खीम की पदावली में पूर्व औद्योगिक समाज वस्तुत: यांत्रिक समाज थ्ज्ञा। जब इस समाज का उद्विकास सावयवी समाज में हुआ तक परिवर्तन की गति तीव्र हो गयी। इस परिवर्तन का मूल्याकंन दुर्खीम ने किया है। औद्योगिकरण समाज में जो परिवर्तन देखने को मिलता है वह समानता पर आधारित नहीं है, विभिन्नता या स्तरीकरण पर आधारित है।
कार्ल माक्र्स ने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या और संदर्श में की है। उन्होंने कहा है कि सामाजिक परिवर्तन का कारण वर्ग संघर्ष हैं मेक्स वेबर भी सामाजिक परिवर्तक की व्याख्या वर्ग के संदर्श में करते है। सामाजिक परिवर्तन को सामान्यता प्रमुख विचारकों ने दी दृष्टियों से देखा है : (1) इतिहासवादी व्याख्या और (2) उद्विकासवादी व्याख्या। यहां हम दोनों दृष्टिकोणों को देखेंगे। वास्तविकता यह है कि विचारकों के अनुसार सामाजिक परिवर्तन के अलग-अलग सोपान है। इन लेखकों के चिन्तन में परिवर्तन, उद्विकास, तथा प्रगति की अवधारणाएं एक दूसरे से मिली हुई है। सच्चाई यह है कि ये विचारक इन तीन अवधारणाओं (सामाजिक परिवर्तन, उद्विकास एवं प्रगति) को बहुत स्पष्ट रूप से समझा नहीं पाये है।
सामाजिक परिवर्तन की इतिहासवादी व्याख्या
इतिहासवाीदी व्याख्या में सामान्यतया हीगेल एवं माक्र्स की चर्चा की जाती है। हीगेल वास्तव में एक परिपक्व दार्शनिक थे। इसके अनुसार इतिहास में परिवर्तन चेतना के कारण आता हैं सामाजिक परिवर्तन के विचार, परस्पर विरोधी विचार और उनके समन्यव के तीन सोपान हेाते है। हीगेल की यह व्याख्या विचारों को केन्द्र मानकर चलती है। कार्ल माक्र्स का संदर्श दूसरा है। उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी के संदर्भ में की है। इनके अनुसार उत्पादन साधनों और सम्बन्धों में परिवर्तन के साथ समाज इतिहास के एक काल खण्ड से दूसरे काल खण्ड की ओर बढ़ता है।
सामाजिक परिवर्तन की उद्विकासवादी व्याख्या
उद्विकासवादी व्याख्या करने वाले विचारकों में कॉम्प, स्पेन्सर, दुर्खीम, सोरोकीन मारग्रेट कीड़ के नाम विशेष रूप से उल्लेखीय है। विचारकों की इस श्रेणी में जहां तक संस्कृति का प्रश्न है। टाइलर ने प्रीमिटीव कल्वर में उद्विकाीसीय दृष्टिकोण को भली प्रकार रखा है। उद्विकासवादी विचारकों का कहना है कि विवाह, नातेदारी, राज्य सरकार आदि सामाजिक संस्थाओं के उद्विकास सामान्य गति से होने वाले परिवर्तन का परिणाम है। यहां हम केवल इसी तथ्य पर जोर देना चाहते है कि सामाजिक परिवर्तन के अलग-अलग सोपान है और इन सोपानों की व्याख्या उद्विकास तथा प्रगति के माध्यम की गयी है। टी.बी. बोटोमोर जैसे विचारकों ने तो सामाजिक परिवर्तन की व्याख्या केवल उद्विकास, प्रगति तथा विकास के संदर्भ में ही की हैं इस अध्याय में आगे चलकर हम तीनों अवधारणों की विशद् व्याख्या करेंगे।
सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएँ
सामाजिक परिवर्तन की कुछ विशेषताएं ऐसी है जिनसे कभी समाजशास्त्री सहमत है। ऐसी ही कुछ सामान्य विशेषताओं का उल्लेख हम यहां करेंगे :-
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया
पिछले पृष्ठों में हमने इस तथ्य को बिल्कुल प्रस्तुत किया है कि सामाजिक परिवर्तन एक प्रक्रिया है। इसका सीधा अर्थ यह है कि सामाजिक परिवर्तन कभी समाप्त नहीं होता है। इसमें निरन्तरता होती है टी.बी. बोटोमोर ने सामाजिक परिवर्तन की मोटभ्-मोटी प्रक्रियाओं का उल्लेख अपनी पुस्तक सोशियोलोजी में किया है। उन्होंनें सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा है। वे कहते है कि शुरू से ही समाजशास्त्र का संबंध इतिहास के दर्शन और यूरोपयी समाजों में होने वाले तीव्रतम और हिसांत्मक परिवर्तन से जुड़ा रहा है।
सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रियाओं में यानि सामाजिक प्रक्रिया किन आयामों में गुजरती है, इसका उल्लेख इन सभी समाजशास्त्रियों ने किया है। मुख्यतया ये सामाजिक प्रक्रियाएं पांच है :
- उद्विकास,
- विकास,
- प्रगति,
- सुधार तथा,
- क्रांति है।
1. उद्विकास – उद्विकास की अवधारणाा का सीधा संबंध जैवकीय उद्विकास से है। 19वीं शताब्दी के समाजशास्त्रीयों ने उद्विकास की अवधारणा का प्रयोग बहुत अधिक किया है। यह सब होते हुए भी इन लेखकों ने उद्विकास में निहित अर्थ को कोई अधिक स्पष्ट नहीं किया है। इन शताम्बदी में प्राणिशास्त्री डार्विन का प्रभाव प्राकृतिक विज्ञानों के अतिरिक्त समाज वैज्ञानिकों पर भी बहुत अधिक था। इन उद्विकासवादी प्राणिशास्त्रीयों ने यह स्थापित किया कि मनुष्य का उद्विकास जीवाश्य से हुआ है। ये जीवधारी पानी में निवास करते थे, फिर जमीन पर आये, इसके बाद पेड़ों पर। पेड़ों पर रहने वाले ये वानर गुफाओं में मिले और इस तरह सिलसिले से लाखों वर्षो में चलकर मानव आया।
जिस तहर विभिन्न प्राणियों का उद्विकास हुआ, कुछ इसी तरह स्पेन्सर ने कहा कि सामाजिक संस्थाओं का उद्विकास भी हुआ। स्पेन्सर ने अपनी पुस्तक सामाजिक स्थैतिक में विस्तारपूर्वक समाज को एक सावयव की तरह उसके उद्विकासीय रूप में रखा है। उन्होंने उद्विकास का तात्पर्य संशोधन के साथ वंश की व्याख्या के रूप में किया है। सामाजिक डार्विनवाद की परम्परा में टाइलर ने भी उद्विकास की अवधारणाा का प्रयोग किया है। हाल में उद्विकासवादियों ने जो कार्य किया है, उसमे वे प्राणिशास्त्रीकय सिद्धांत तथा विभिन्न सामाजिक उद्विकास सिद्धांतों के अन्तर को स्पष्ट करते है।
- मात्रा : यानी संख्यात्मक रूप से समाज के विभिन्न क्षेत्रों में वृद्धि। हाब हाऊस विकास और वृद्धि दोनों को समानार्थक समझते है।
- कुशलता : इसमें उद्योग में कार्यरत लोग कुशल होते है। ऐसे समाज में बौद्धिकों और वैज्ञानिकों विशेषज्ञों का योगदान बहुत अधिक होता है।
- पारस्परिकता : विकास में प्रकार्यात्मक होती है यदि कम्पयूटर विज्ञान में विकास होता है तो इसका प्रभाव उत्पादन, सूचना संचयन और औद्योगिक विकास पर पड़ता है।
- स्वतंत्रता : विकास समाजों को स्वतंत्रता देता है। विकसित समाज एक सीमा पर पहुंच कर स्वायत्त बन जाते है।
3. प्रगति – इस अवधारणाा के साथ बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति रही है। स्पेन्सर के समय से लेकर आज तक समाजशास्त्रियों का यह प्रयास रहा है कि वे समाजशास्त्र को एक विज्ञान की तरह स्थापित कर सकें। इसी प्रयास में लम्बी अवधि तक समाजशास्त्री समाजशास्त्र को मूल्य विज्ञान बनाने का प्रयास भी करते रहे है। मूल्य मुक्त विज्ञान की अवधारणाा ने प्रगति की अवधारणा का एक तरह से बहिष्कार कर दिया। इस भांति समाजशास्त्र में प्रगति की अवधारणा एक उपेक्षित अवधारणा रही।
प्रगति की अवधारणा पर स्पेन्सर और हाबहाऊस ने विशेष रूप से विचार किया है। स्पेन्सर के चिन्तन में उद्विकास और प्रगति तथा हाबहाऊस के लेखन में विकास और प्रगति की अवधारणाएं मिलीजुली है। अत: इनका विशिष्ट अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। ‘‘प्रगति के सिद्धांत और कारण’’ पर प्रकाश डालते हुए स्पेन्सर का मत है कि पृथ्वी, जीवन, समाज, सरकार, वाणिज्य, भाषा, साहित्य तथा विज्ञान चाहे जिस क्षेत्र में भी हम प्रगति की धारणा परविचार करें, वह सरल से जटिल, कत, विभेदीकृत से अधिक विभदीकृत और सजातीय से विजातीय की ओर बढ़ने की उद्विकासीलय सिद्धांत का ही अंग है। ‘‘प्रगति के साथ नैतिक पक्ष भी जुड़े है’’।
क्रांति समाज के किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। विज्ञान के क्षेत्र में डीजल इंजिन, नायलोन, टेरेलीन, टेलिवीजन, सेल्यूलर, पेजर आदि जीवन के अन्य क्षेत्रों में किस तरह शीघ्रपात से परिवर्तन कर दिया है वइ हमने छिपा रही है। क्रांति में प्राय: हिंसा का समावेश होता है। पर हमेशा ऐसा होना आवश्यक नहीं है। अहिंसात्मक क्रांति भी होती है और रक्तहीन क्रांति भी होती है। इंग्लैण्ड की क्रांति को इतिहासकार रक्तहीन क्रांति कहते है। हमारे देश में भी ई. 1947 में स्वतंत्रता प्राप्त हुई, वह भी रक्तहीन क्रांति थी।
सामाजिक परिवर्तन के संबंध में महत्वपूर्ण बात यह है कि यह परिवर्तन विभिन्न प्रक्रियाओं के माध्यम से देखा जाता हैं परिवर्तन में महत्वपूर्ण तथ्य परिवर्तन की गति से जुड़ा है। यह गति ही सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया है। यह गति ही सामाजिक परिवर्तन को उद्विकास, विकास, प्रगति या क्रांति बना देती है। यदि सामाजिक परिवर्तन की विभिन्न प्रक्रियाओं का सावधनीपूर्वक तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो पता लगेगा कि सामाजिक उद्विकास की अवधारणाा का स्वरूप जैविक है। इसमें समाज सरल स्तर से उठकर जटिलता की ओर बढ़ता है। इस सामाजिक प्रक्रिया में स्तरीकरण न्यूनतम होता है और समाज में सजातीयता अधिक होती है लेकिन सामाजिक परिवर्तन की इस प्रक्रिया में परिवर्तन तो होता है। यह अवश्य है कि परिवर्तन की गति धीमी होती है।
सामाजिक परिवर्तन् की दूसरी प्रक्रिया विकास की है। यह प्रक्रिया या अवधारणाा अपने स्वरूप् में सामाजिक, आर्थिक और प्रौद्योगिकीय होती है। शिक्षा का प्रसार, स्वास्थ्य में सुधार, आर्थिक उत्पादन में वृद्धि और प्रौद्योगिकी में सुधार विकास के सूचक है। सामाजिक प्रक्रिया का एक और स्वरूप प्रगति का है। प्रगति की धारणा केन्द्रीय रूप से नैतिक है। समाजशास्त्रियों का कहना है कि उद्विकास और प्रगति के उपरान्त भी नैतिक दृष्टि से समाज नीचे गिर सकता है। आज के आधुनिकरीण के युग में प्रगति की अवधारणा एशि के कई देशों में विवादापस्द बन गयी है।
सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा का एक व्यापक अवधारणा है। निश्चित रूप से सामाजिक परिवर्तन में मूल्य, मानक और वैज्ञानिता होती है। इसकी सामाजिक प्रक्रियाएँ कई स्वरूप धारण करती है। हमने उद्विकास, विकास, प्रगति, सुधार तथा क्रांति आदि सामाजिक प्रक्रियाओं का उल्लेख किया है। ये प्रक्रियाएं थोड़े बहुत फेर-फेर के साथ सभी देशों में देखने को मिलती है लेकिन परिवर्तन की कुछ सामाजिक प्रक्रियाएं अनिवार्य रूप से स्थानीय होती है।
सामाजिक परिवर्तन के कारक
सामाजिक परिवर्तन का विश्लेषण मूल रूप से उद्विकासीय सिद्धांतों और ऐतिहासिक भौतिकवाद द्वारा किया जात है। सिद्धांत स्तर पर सामाजिक परिवर्तन की यह विश्लेषण तार्किक है लेकिन इसमें एक कठिनाई है। प्रत्ये सिद्धांत एक केन्दीय कारक एवं संदर्श से बंध होता है। उदाहरण के लिए, ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत केवल आर्थिक कारकों को ही प्रभावी समझते है। गैर-आर्थिक कारक उनकी विषय वस्तु नहीं बनते। ठीक इसी तरह भांति-भांति के उद्विकासीय सिद्धांत केवल उद्विकास को अपने अध्ययन विषय की केन्द्रीय सामग्री समझकर चलते हैं। अत: सामाजिक परिवर्तन का सिद्धांतों द्वारा विश्लेषण केवल एक सीमा तक ठीक है। इस अभाव की पूर्ति में कुछ लेखकों ने उन कारकों का विवरण दिया है जो सामाजिक परिवर्तन को प्रभवित करते है।
- भौतिक पर्यावरण
- राजनैतिक संगठन
- सांस्कृति कारक
- आर्थिक प्रभाव
- प्रौद्योगिकीय कारक
- जनानंकिकीय कारक
- कानूनी एवं प्रशासनिक कारक
- सामाजिक परिवर्तन के सामयिक कारक
1. भौतिक पर्यावरण – जैसा कि उद्विकासवादियों ने कहा है, पर्यावरण का प्रभाव मानव सामाजिक संगठन के विकास में बहुत प्रभावशाली होता है इस तरह के प्रभाव को तब सरलता से देखा जा सकता है जब पर्यावरण की दशाओं में निकट परिवर्तन आ जाता है। ऐसी अवस्था में मौसम दशाओं के अनुसार लोगों को अपने जीवन को ढालना पड़ता है। उदाहरण के लिये ध्रुवीय क्षेत्रों में रहने वाले लोग भौतिक पर्यावरण के अनुसार अनिवार्य रूप से अपने जीवन को संचालित करते हैं। बाढ़ आने पर सूखा होने पर लोगों को अपनी जीवन पद्धति में परिवर्तन लाना पड़ता है। यदि हम प्रारंभिक सभ्यताओं के इतिहास को देखें तो ज्ञान होगा कि बड़ी-बड़ी सभ्यताओं का जन्म वहां हुआ है जहां खेती-बाड़ी के लिये उपजाऊ मिट्टी प्राप्त हुई है।
इन ऐतिहासिक प्रभावों के होते हुए भी ऐसा नहीं लगता कि भौतिक पर्यावरण का प्रत्यक्ष और सीधा प्रभाव समाज पर पड़ता हो। यह देखा गया है कि कई बार जब लोगों को प्रौद्योगिकी बहुत निम्न होती है फिर भी सामान्य क्षेत्रों में लोग पर्याप्त विकास कर जाते है। बहुत साफ बात यह है कि भौतिक पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन के लिये उत्तरदायी तो है लेकिन पर्यावरण और सामाजिक परिवर्तन सीधे या प्रत्यक्ष रूप से जुड़े हों, इसके प्रमाण हमारे पास बहुत थोड़े है। इस संबंध में एंथोनी गिडेन्स लिखते है :-
उत्पादन व्यवस्था के प्रकारों और पर्यावरण के बीच में भौतिक पर्यावरण में संचार व्यवस्था को भी सम्मिलित करते है। समुद्र, नदी,नाले और पहाड़ प्राकृतिक पर्यावरण के अंग है। पिछले वर्षो में भौतिक पर्यावरण ने लोगों के बीच के संचार को बहुत अधिक प्रभावित किया है। हमारे यहां हिमालय पहाड़ कई सदियों तक हमें एशिया के दूसरे देशों से पृथक करता आया है। यह अवश्य है कि आज कि विकसित संचार व्यवस्था में इस प्रकार का भौतिक पर्यावरण कोई अधिक प्रभावपूर्ण सिद्ध नहीं होता।
लेकिन धर्म द्वारा प्रतिपादित सामाजिक परिवर्तन में शायद मेकस वेबर का प्रोटेस्टेन्ट आचार और पूंजीवादी विकास की थीरिस का उल्लेख करना यहां ज्यादा उचित होगा। मेक्स वेबर जर्मन की एक प्रख्यात विचारक थे। वे कार्ल माक्र्स के सामाजिक परिवर्तन के आर्थिक कारक से हिम्मत नहीं थे। वेबर ने बताया कि ईसाई धर्म के काल्विनादी सम्प्रदाय में ऐसे विचार थे – ऐसे आचार थे जिन्होंने आधुनिक पूंजीवादी को जन्म दिया। वेबर का यह सैद्धांन्तिक योगदान बताता है कि धर्म एक सांस्कृतिक कारक के रूप से सामाकि परिवर्तन लाने का एक शक्तिशाली हथियार है।
यूरोप में बोर्दियों और दरीदा जैसे विचारकों ने यह प्राक्कल्पना रखी है कि आज के युग में भाषा सबसे अधिक शक्तिशाली कारक है। जो सामाजिक परिवर्तन के लिये उत्तरदायी है। बोर्दियों का तर्क है कि आज के युग में शक्तिशाली राष्ट्र वही है जिसकी भाषा समृद्ध है। यह भाषा ही है जिसमें दुनियाभर के देशों की सूचनाएं संचयी होती है। यही इसी कारण है कि जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों में प्राथमिक विद्यालय का विद्याथ्र्ाी चार-पांच भाषाओं को अनिवार्य भाषा के रूप में पढ़ता है। यह भाषा ही है जिसमें दुनिया के विभिन्न देशों का ज्ञान संचयी होता है। हमारी ऐसी समझ है कि आज के समाजशास्त्र का, विशेष करके यूरोप का प्रभावी मुहावरा सांस्कृतिक कारक है। यह सांस्कृतिक कारक ही इन समाजों को उत्तर आधुनिकता की ओर खींच लाता है।
एंथोनी गिडेन्स सांस्कृतिक कारकों को उनके वृहद् रूप में देखते है। इन कारकों में नेतृत्व भी एक महत्वपूर्ण कारक है। दुनिया के इतिहास में व्यक्तिगत नेताओं ने भी समाज के बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका दी है।ऐसे व्यक्तियों में हम आर्थिक नेताओं, राजनीतिक व सैनिक अधिकारियों तथा विज्ञान में अविष्कार करने वाले नेतृत्व को सम्मिलित कर सकते है। धार्मिक नेताओं में विश्व स्तर पर ईसा मसीह, बुद्ध, महावीर स्वामी आदि को सम्मलित कर सकते है। राजनीतिक और सैन्य नेताओं में जुलियस सीजर, महात्मा गांधी और विज्ञान के नेताओं में न्यूटन आदि को सम्मिलित कर सकते है। वह नेता जो कोटि-कोटि लोगों को अपना जनाधार बनाकर चलताा है। सामाजिक परिवर्तन का प्रणेता होता है। ई. 1930 को जर्मनी में हिटलर में ऐसे ही नेता का काम किया। हमारे देश में गांधी जी ने रक्तहीन क्रांति द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फैंका। दुनिया के इतिहास में ऐसे कई दृष्टान्त है जो बताते है कि सामाजिक परिवर्तन के सांस्कृतिक कारकों में नेतृत्व की अगुआई बहुत महत्वपूर्ण होती है।
जब भी निम्न जातियों ने उच्च जातियों के जजमानों और जमींदारों के प्रति अपने परम्परागत कर्त्तव्यों का उल्लंघन किया है, उच्च और निम्न जातियों के बीच तनाव और झगड़े हुए है। निम्न जातियों के प्रयत्नों के प्रति विरोध प्रकट करने के अतिरिक्त, उच्च जातियों ने पअनी जीवन प्रणालियों, उच्च शिक्षा, लाभ की नौकरियों, नगरीय प्रवसन और राजनीति में दखल आदि द्वारा सामाजिक प्रस्थिति के स्नानापन्न आधार ढूंढ लिये है। इन सबका स्पष्ट परिणाम विभिन्न जाति और वर्ग समूहों के बीच सामाजिक और आर्थिक अंतर की निरन्तरता को बनाये रखना है। भारतीय समाज के दलित वर्गो में चेतना उत्पन्न करने के अलावा, सांस्कृति गतिशीलता सामाजिक परिवर्तन के लिये अव्यक्त अन्त: शक्ति है।
ऑग्बर्न ने सामाजिक परिवर्तन में सांस्कृतिक विलम्बन की प्राक्कलपना को रखा है। इनका कहना है कि किसी भी संस्कृति के दो भाग होते है : भौतिक संस्कृति और अभौतिक संस्कृति। भौतिक संस्कृति से ऑग्बर्न का तात्पर्य अविष्कारों, नवीनीकरणों आरे प्रौद्योगिकी से है। अभौतिक संस्कृति में सामाजिक मानदण्ड, मूल्य, वैचारिकी, विश्वास परम्परा आदि आते है। आधुनिक समाज में अविष्कार और प्रौद्योगिकी के विकास की तीव्र होती है। दूसरी ओर इसी गति से अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन नहीं आता। इसे ऑग्बर्न सांस्कृतिक विलम्बन कहते है। इसका सीधा अर्थ यह है कि भौतिक परिवर्तन की तुलना में सांस्कृतिक परिवर्तन पिछड़ जाता है। उदाहरण के लिये कोई भी व्यक्ति नयी से नयी कार खरीद सकता है। लेकिन इस गाड़ी की भी एक अभौतिक संस्कृति है। उसे घनी बस्ती में धीरे चलाना चाहिये। स्कूल या ऐसे ही शांतिपूर्ण स्थानों पर हार्न नहीं बजाना चाहिये। सड़ के बायी ओर चलना चाहिए। पार्क करने के निश्चित स्थानों पर गाड़ी रखनी चाहिये।
- भौतिक संस्कृति में तीव्र परिवर्तन
- अभौतिक संस्कृति में परिवर्तन का प्रतिरोध, धीमी गति से परिवर्तन।
- भौतिक तथा आभौतिक संस्कृति के संतुन का भंग होना।
- अन्त में,भौतिक संस्कृति का आगे बढ़ जाना और अभौतिक संस्कृति का परिवर्तन के प्रतिरोध अथवा धीमे परिवर्तन के कारण पिछड़ जाना।
सांस्कृतिक विलम्बर की अवधारणाा की आलोचना कई विद्वानों ने की है। इस सिद्धांत पर सामान्य आरोप यह है कि इसमें ऑग्बर्न यह स्पष्ट नहीं करते कि संस्कृति के कौन से तत्व पिछड़ जाते है और कौन से आगे बढ़ जाते है। यह सिद्धांत अपने परिवेश में भी बहुत सीमित है।
परम्परागत समाजों में उत्पादन स्थानीय हुआ करता था। आज इस स्थिति में भी परिवर्तन आ गया है। सच्चाई यह है कि औद्योगिक पूंजीवाद के विकास के साथ आम लोगों की जीवन पद्वति में परिवर्तन आ गया है। आज के आधुनिक समाजों में बहुत अधिक लोग गांवों की अपेक्षा शहर में रहना पंसद करते है। आज का यह औद्योगिक पूंजीवाद, वस्तुत: 19वीं शताब्दी के पूंजीवाद का प्रभाव है।
- उद्योग और कृषि एक दूसरे से जुड़े हुए हैं
- भारत में कृषि उत्पादन अपने स्वरूप और अन्तवुर्स्त दोनों में पूंजीवादी हे।
इन मान्यताओं को आधारित मानते हुए हमें यह देखने की आवश्यकता है। कि एक समूह या वर्ग से अन्य समूह का वर्ग के पास आर्थिक शक्ति हस्तान्तरित होने से कोई संरचनात्मक परिवर्तन हुआ है या नही। क्या प्रौद्योगिकी उपायों द्वारा परम्परागत असमनताएं (जाति, प्रस्थिति और भू-स्वामित्व पर आधारित असमनताएं) अधिक सुढृढ़ हुई है या उनमें महत्वपूर्ण कमी हुई है?
आर्थिक कारक का भारत के सामाजिक परिवर्तन पर जो प्रभाव पड़ा है, उसकी व्याख्या के.एल.शर्मा ने निम्न शब्दों में की है :
भारत में सामाजिक आर्थिक सरचंना में विषमता और सामाजिक तनाव और संघर्षो की विभिन्नता है। भारत एक ऐसा विकासशील समाज है जिसमें पूर्व-पूंजीवाद सामाजिक कोटियां पूंजीवादी श्रेणियों के साथ पायी जाती है। माक्र्स ने मूलत: औद्योगिक समाज की समस्याओं के बारे में विचार अधिक किया है जबकि भारत को आज भी प्रमुख रूप में कृषक अर्थव्यवस्था और आदिम सामाजिक संरचना मान सकते है। भारत एक बहुत ही जटिल और विभेदीकृत समाज है। कृषक वर्ग में विभेदीकरण स्वरून ने स्थितियों को और भी जटिल बना दिया है। बहुत हद तक कृषि उत्पादन प्रविधि अर्द्ध सामन्तीय, अर्द्ध उपनिवेशयी, अर्द्ध पूंजीवादी और गैर पूंजीवादी या पारम्परिक है। जाति और क्षेत्रीय विस्तार के साथ विभेद और अधिक बढ़ जाते है। भारत में कृषि के लिये परिवार श्रम आज भी एक वास्तविकता है।
जनसंख्या वृद्धि जिसे हम कई बार जनानंकिकी विस्फोट कहते है, ने भारत ही चीन के सामने भी सामाजिक व्यवस्था के कई नये प्रश्न खड़े कर दिये है। प्रश्न उठता है : तेजी से बढ़ती हुई जनसंख्या के लिये सरकार रोजगार कहां से लायेगी, चिकित्सालय, स्कूल, कॉलेज आदि की व्यवस्था कैसे करेगी? यह प्रश्न एशिया के सभी देशों के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
जनसंख्या में पाने जाने वाले आयु-समूह भी सामाजिक व्यवस्था को प्रभावित करते है। भारत में बालकों और युवाओं की जनसंख्या सबसे अधिक है। इसका अर्थ हुआ हमें अधिक से अधिक लोगों को रोजगार देना होगा और बच्चों के पढ़ने के लिये विद्यालय खोलने होंगे। स्वास्थ्य की दृष्टि से, औसत आयु के बढ़ने से वृद्ध उम्र समूह की संख्या अधिक है। इस बड़ी जनसंख्या को रोगमुक्त रखने के लिए अधिक चिकित्सालय चाहिये। शहरीकरण और औद्योगिकरण के कारण जनसंख्या का एक निश्चित भाग तेजी से एड्स रोग की चपेट में आ रहा है। इसका बचाव करने के लिए प्रचारतंत्र की आवश्यता है। देखा जाये तो किसी भी देश के सामाजिक परिवर्तन को दिशा देने के लिए जनानंकिकीय नियोजन आवश्यक है।
हाल के प्रजातांत्रिक देशों ने भूमि सुधार को लेकर कई कानून बनाये है। भारत में तो बंगाल सरकार के भूमि सुधार कानून सबसे अधिक स्पष्ट और क्रांतिकारी है। यह होते हुए भी भूमि सुधारों का प्रभाव कृषकों पर असमान रूप से पड़ा है। इस कानून के बनने पर भी भूमिहीन किसानों को कोई लाभ नहीं मिला है। सामाजिक परिवर्तन के क्षेत्र में कानून की निश्चित भूमिका हैं योगेन्द्र सिंह ने कानून के तीन प्रकार्यो का उल्लेख किया है : (1) कानून परिवर्तन का सूचक है। (2) कानून सामाजिक परिवर्तन का प्रवर्तक है और (3) सामाजिक परिवर्तन में समन्वय लाने का काम कानून करता है। योगेन्द्र सिंह कहते है कि भारत में कानून व्यवस्था ऐतिहासिक है। इसकी उपनिवेशक और सामन्तवपादी विरात है। वस्तुत: इस देश का कानून अभिजातपरक कहा जाता है और इसका लाभ सामान्तया अभिजात वर्ग के लोगों और मध्यम वर्गो को मिला है।
यहां यह कहना अनिवार्य है कि श्रीलंका, भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में जो भी प्रचलित कानून है उसका मूल इन देश का संविधान है। यह संविधान प्रजातान्त्रिक होते हुए भी अपने देश की समस्याओं के अनुकूलन होता है। हमारे देश का संविधान सांस्कृति बहुलवाद, जाति आधारित असमानताओं और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन का उल्लेख भी करता है। इन संवैधानिक सुविधाओं के हेाते हुए भी कई जगह संविधान में विरोधाभास भी है। उदाहरण के लिये, संविधान में कुछ मूल अधिकारों को प्रावधान है परन्तु इन अधिकारों के काम के अधिकार को शामिल नहीं किया है। समाज के निर्धन तबकों के लिये जो आवश्यक है उसे मूल अधिकारों में शामिल नहीं किया गया है।
प्रत्येक देश की अपनी-अपनी सामाजिक समस्याएं होती है। इन समस्याओं की गहनता को देखकर सामाजिक सुधार के लिये कानून बनाया जाता है। खाडत्री के देश कुरान के संदर्भ में मद्यपान को अनैतिक समझते है। इसी कारण कुवैत, ईरान, इराक, सऊदी अरब, पाकिस्तान आदि देखों ने मद्यपान पर पाबंधी लगा दी है लेकिन इन देशों के पति एक एक साथ अधिकतम चार पत्नियों को रख सकता है। इसके लिये उनके यहां कानून है। भारत की समस्या दूसरे प्रकार की है। यहां कुछ समूहों को छोड़कर (जैसे आदिवासी और मुसलमान) हिन्दू जातियों एक ही समय में एक से अधिक पत्नियां नहीं रख सकती। इसके लिये हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 है। दोसे अधिक संतान होने पर माता-पिता को कतिपय सार्वजनिक लाभ से वंचित किया गया है। हम इस तथ्य पर जोर देना चाहते है कि समाज में परिर्वन लाने का बहुत बड़ा स्त्रोत कानून है और कानून की गंगोत्री हमेशा संविधान होती है।
सामाजिक परिवर्तन का एक ओर स्त्रोत प्रशासनिक है। कई बार प्रशासनिक व्यवस्था जब सावधान होती है, सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र हो जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि प्रशासकों में परिवर्तन की गति प्रतिबद्धता हो। यदि प्रशासक अपने कर्त्तव्यों की प्रति पांबद हो तो परिवर्तन के प्रभाव अवश्य देखने को मिलते है। हमारे यहां कई राज्यों ने नशाबंदी के प्रयोग किये है लेकिन प्रशासकों की सुस्ती और उनकी भ्रष्टाचार प्रवृत्ति ने इस तरह के प्रयोग को असफल कर दिया है। यह कहा जाता है कि भारत में जितने कानून है।, दुनिया में किसी भी देश में नहीं है। कानून के होते हुए भी जब उनमें अपेक्षित परिणाम नहीं मिलते तो निश्चित रूप से इसके लिसे प्रशासन उत्तरदायी होता है।