- यांत्रिक समाज, और
- सावयवी समुदाय।
समाजशास्त्र में गांव और शहर के लिए समुदाय पद का प्रयोग ही होता है। रोबर्ट रेडफील्ड ने ग्रामीण समुदाय की अवधारणा पर विस्तृत रूप से लिखा है अमरीका और यूरोप में जहाँ कहाँ विशेषण की तरह वे ग्रामीण या शहरी समुदाय लगा देते है। हमारे देश में ई0 1952 में जब सामुदायिक योजनाएँ चली, तब ग्रामीण विकास का नाम सामुदायिक विकास यानी कम्युनिटी डवलपमेन्ट दिया गया।
मनुष्य किसी न किसी समुदाय का सदस्य अवश्य होता है किसी भी एक समुदाय में सम्पूर्ण जीवन बिताया जा सकता है। समुदाय में लोग विभिन्न गतिविधियों को करते है। कोई कारखाने में काम करता है, कोई फेरी लगाता है और कोई दफ्तरों में काम करता है। समय बिताने या मनोरंजन के लिए कोई सिनेमा या टेलीविजन देखता है, तो कोई क्लब जाता है। तात्पर्य यह है कि विभिन्न लोग शहरों या गांवों में विभिन्न प्रकार से अपना सम्पूर्ण जीवन बिता लेते है। इस तरह का संपूर्ण जीवन किसी बैंक या क्लब में बिताना संभव नहीं है। क्लब तो केवल एक रुचि मात्र को पूरा करने का साधन है। बैंक का प्रयोजन केवल विनिमय का है। अत: क्लब और बैंक चाहे और कुछ भी हो, समुदाय नहीं है। दूसरी ओर, जनजाति एक समुदाय है। समुदाय पड़ोस या गांव जैसा छोटा भी होता है और भारतीय समुदाय जैसा बड़ा भी। गाँव, शहर, जाति, जनजाति आदि समुदाय है।
यह ठीक है कि समुदाय प्राय: आत्मनिर्भर होता है। परन्तु आज के बढ़ते हुए आवागमन और संचार के युग में किसी भी समुदाय का पूर्ण रूप से आत्मनिर्भर होना संभव नहीं है। आज दूर-दूर जंगलों और पहाड़ियों में रहने वाली आदिम जातियाँ भी आत्म निर्भर नहीं है। शक्कर, चाय, साबुन, मिट्टी का तेल, नमक, बीड़ी, दियासलाई आदि वस्तुओं की पूर्ति के लिए वे भी शहरों पर निर्भर है। शहर भी दूसरी ओर जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए देश और विदेश पर निर्भर है। पारस्परिक निर्भरता आज के युग की विशेषता है। इतना होने पर भी एक निश्चित समुदाय के लोग दूसरे समुदाय से पृथक दिखाई देते है।
समुदाय की परिभाषा
प्रारंभ में समुदाय से मतलब एक ऐसे भू-भाग से था जिसमें लोग पारस्परिक आर्थिक क्रियाएँ करते थे और राजनीतिक दृष्टि से उनके पास स्वायत शासन की एक इकाई थी। इस दृष्टि से समुदाय का अर्थ एक संरचना से था जिसमें लोग या परिवार एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र में रहते थे। समुदाय के प्रति यह दृष्टिकोण संरचनात्मक था। गाँव, कस्बे और शहर इस विचारधारा के अनुसार समुदाय है।
लिंडमेन ने समुदाय के संरचनात्मक और प्रकार्यात्मक दोनों पहलुओं पर जोर दिया है, वे लिखते हैं : यदि हम समुदाय के स्पष्ट तत्वों की परिभाषा दें तो यह एक जागरूकता से बनाया गया संघ्ज्ञ है जो एक निश्चित क्षेत्र या बस्ती में रहता हो। इसके पास सीमित राजनीतिक अधिकार होता है और यह सामाजिक संस्थाओं जैसे स्कूल, मन्दिर, गिरिजाघर आदि पर देखरेख रखता है।
समुदाय के प्रकार्यात्मक पहलुओं का उल्लेख करते हुए लिडंमेन आगे लिखते हैं : यदि हम समुदाय के अस्पष्ट तत्वों की परिभाषा दें तो यह सामाजिक अन्त:क्रियाओं की एक प्रक्रिया है जो कि अधिक गहरी या विस्तृत धारणाओं को पैदा करती है, जिसमें पारस्परिक निर्भरता (सहकारिता), सहयोग और एकीकरण होते हैं। उपरोक्त परिभाषाओं से समुदाय के सम्बन्ध में दो तथ्य बहुत स्पष्ट है :
- समुदाय व्यक्तियों का एक संगठन है जो कि एक निश्चित भू-भाग में स्थित होना है।
- अस्प्ष्ट रूप से समुदाय सामाजिक अन्त:क्रियाओं सहयोग, संघर्ष, सम्पर्क आदि की एक प्रक्रिया है। यह समुदाय का क्रियात्मक रूप है।
समुदाय की व्याख्या लिंडमेन के अतिरिक्त कई अन्य समाजशास्त्रियों ने भी की है। उदाहरण के लिए, ऑगबर्न एवं निमकॉफ ने समुदाय को एक ‘सीमित क्षेत्र में सामाजिक जीवन के सम्पूर्ण संगठन’ से पारिभाषित किया है। मेन्जर ने समुदाय की परिभाषा में भू-भाग पर अधिक जोर दिया है। ‘‘वह समाज जो किसी निश्चित भौगोलिक स्थान पर रहता है, समुदाय कहा जा सकता है। इस तरह समुदाय में जहां लोग एक निश्चित भू-भाग में रहते हैं, वहीं उनमें कुछ निश्चित सामाजिक पक्रियाएँ और संस्थाएँ भी होती है। समुदाय जहाँ एक संरचना है, वही एक प्रक्रिया भी है।’’
समुदाय के आधार तत्व
ऊपर की परिभाषाओं की दृष्टि में रखकर हम समुदाय के आधारभूत तत्वों का उल्लेख करेंगे। किसी भी समुदाय में आधारभूत लक्षण पाये जाते हैं :
- समुदाय में स्थानीयता होती है
- सामुदायिक या ‘हम की भावना’
- सामान्य जीवन
- विशिष्ट नाम
- स्थायित्व
1. समुदाय में स्थानीयता होती है – समुदाय के लोग अपनी जमीन से जुडे़ होते है। लोगों का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है। इस क्षेत्र के अन्दर रहने वाले लोगों का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन एक सूत्र में बंधा हुआ होता है। प्रत्येक गांव की चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, एक सीमा होती है। हमारे देश की भी भौगोलिक सीमाएँ है, इन सीमाओं में रहने वाले लोग ही भारतीय समुदाय कहे जाते है। एक ही भौगोलिक पर्यावरण में रहने के कारण लोगों का जीवन भी एक जैसा ही बन जाता है। दक्षिण भारत में रहने वाले ढीले-ढाले कपड़े पहनते हैं क्योंकि यहाँ गर्मी अधिक होती है। कश्मीर और लेह के लोग ठंडी जलवायु के कारण गर्म कपड़े अधिक पहनते है। सर्दी के मौसम में घरों में सिगड़ियाँ रखते हैं। इस भाँति समुदाय का बहुत बड़ा और प्रधान गुण भौगोलिक स्थान है। समुदाय की सदस्यता के लिए लोगों का समुदाय में रहना आवश्यक है।
समुदाय में हम की भावना सुदृढ़ होती है। प्रत्येक सदस्य में जीवन की विभिन्नता होते हुए भी हम इस समुदाय के है, यह भावना सुदृढ़ होती है। जो लोग समुदाय के सदस्य होते हुए भी समुदाय की भावना को महत्व नहीं देते या ठेस पहुँचाते है, समुदाय उनहें हेय दृष्टि से देखता है। सामुदायिक भावना का महत्वपूर्ण तत्व हम की भावना है। यह भावना मोहल्ले वालों, गाँव वाले, और राष्ट्र के लोगों में देखी जा सकती है। हम भावना का मूल कारण एक ही स्थान पर रहने वाले लोगों के हितों की समानता है।
सामुदायिक भावना में दूसरा महत्वपूर्ण तत्व योगदान की भावना है। समुदाय में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी एक स्थिति होती है। इस स्थिति में जुड़े कार्य होते है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी स्थिति के अनुसार कार्यों को करता है।
सामुदायिक भावना का तीसरा तत्व आश्रितता की भावना है। इस भावना के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति अपने को समाज पर आश्रित समझता है। इसी भावना के आधार पर वह सामान्यता समाज का विरोध नहीं करता।
समाजशास्त्र में समुदाय की अवधारणा का प्रयोग सामान्य है। शहरी और ग्रामीण जीवन का अध्ययन, इन दो समुदायों का अध्ययन होता है। देश या राष्ट्र भी समुदाय के ही दृष्टान्त है और समाजशास्त्र में इनकी व्याख्या समुदाय की तरह की जाती है। जैसा कि हमने ऊपर लिखा है कि समुदाय की अवधारणा का प्रयोग दुख्र्ाीम, टॉनीज और सोरोकीन ने भी पर्याप्त रूप से किया है। हमारे यहाँ तोसमुदाय की अवधारणा कए प्रकार से गावँ आरै शहर की पयार्य वाची है।