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संस्कृति (Culture) अपने व्यापक रूप में ज्ञान, कला, साहित्य, विचारधारा, सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं, कानून एवं अन्य क्षमताओं और आदतों का मिश्रित रूप है, जिसे मनुष्य अपने समाज से अर्जित करता है। अर्थात, यह सामूहिक ज्ञान प्रणाली है जो मनुष्य को संस्कार देती है। इसलिए कहा जा सकता है कि संस्कृति से उन संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे मनुष्य अपने व्यक्तिगत अथवा सामाजिक जीवन के आदर्शों का निर्माण करता है।
संस्कृति क्या है?
संस्कृति मनुष्य के सीखे हुए व्यवहार-प्रतिमानों का योग है। मनुष्य जिस समाज में जन्म लेता है, उसी संस्कृति को धीरे-धीरे समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा सीखता है। एक मनुष्य का लालन-पालन किसी सांस्कृतिक पर्यावरण में ही होता है। संस्कृति में प्रचलित रीति-रिवाजों, धर्म, दर्शन, संगीत, कला, विज्ञान प्रथाओं इत्यादि का प्रभाव मनुष्य के व्यक्तित्व पर पड़ता है।
संस्कृति का अर्थ
संस्कृति की परिभाषा
संस्कृति की विशेषताएं
संस्कृति की विशेषताएं या प्रकृति को इन बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है :
- संस्कृति मानव आवश्यकताओं को पूरा करती है।
- संस्कृति किसी समाज की एक अमूल्य धरोहर होती है।
- संस्कृति मानव-निर्मित होती है।
- संस्कृति का हस्तान्तरण पीढी-दर-पीढ़ी होता रहता है।
- संस्कृति वंशानुक्रमण में प्राप्त होती है।
- संस्कृति सीखी व अपनायी जाती है।
- संस्कृति में सामाजिक गुण शामिल रहता है।
- संस्कृति समूह के लिए आदर्श होती है।
- प्रत्येक समाज की अपनी एक विशिष्ट संस्कृति होती है।
- संस्कृति में अनुकूलन की क्षमता होती है।
- संस्कृति में संतुलन एवं संगठन होता है।
- मानव व्यक्तित्व के निर्माण से संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
- संस्कृति मानव एवं जीवन से ऊपर तथा श्रेष्ठ होती है।
संस्कृत तथा संस्कृति दोनों ही ‘संस्कार’ शब्द से बने हैं। ‘संस्कार’ शब्द का अर्थ है कुछ कृत्यों को विधि के अनुसार करना। एक हिन्दू जन्म से ही विभिन्न प्रकार के संस्कारों को पूरा करता है जिनमें उसे अनेक प्रकार की भूमिकाएँ निभानी पड़ती हैं। संस्कृति का अर्थ विभिन्न संस्कारों द्वारा सामाजिक जीवन के उद्देश्यों की प्राप्ति है। संस्कारों को निभाने पर ही एक मानव श्रेष्ठ सामाजिक प्राणी बनता है।
संस्कृति के प्रकार
संस्कृति दो प्रकार की हो सकती है :
- भौतिक संस्कृति, तथा
- अभौतिक संस्कृति।
1. भौतिक संस्कृति
मनुष्य द्वारा निर्मित भौतिक तथा मूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति में शामिल किया जाता है। मनुष्य ने विभिन्न प्रकृतिदत्त वस्तुओं व शक्तियों को परिवर्तित करके अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया है। ये सभी भौतिक संस्कृति के अन्तर्गत आती है। भौतिक संस्कृति में साइकिल, स्कूटर, कार, पेन-पेन्सिल, कागज, पंखे, कूलर, फ्रिज, बल्ब, रेल, जहाज, वायुयान, टेलीफोन, मोबाइल इत्यादि सभी आते हैं।
2. अभौतिक संस्कृति
इस संस्कृति में सामान्यत: सामाजिक विरासत में प्राप्त विश्वास, विचार, व्यवहार, प्रथा, रीति-रिवाज, मनोवृत्ति, ज्ञान, साहित्य, भाषा, संगीत, धर्म, नैतिकता इत्यादि को शामि किया जाता है। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे चलती है तथा प्रत्येक पीढ़ी में इसका अर्जन व परिवर्तन भी सम्भव होता है। यदि को व्यक्ति अपने समाज के रीति-रिवाजों प्रथाओं, धर्म व नैतिकता के विरूद्ध कार्य करता है तो उसे आलोचना या निन्दा का शिकार होना पड़ता है।
सांस्कृतिक के घटक
‘संस्कृति’ शब्द के अन्तर्गत मूल्य, मापदंड, कलाकृतियां तथा लोगों के स्वीकृत व्यवहार के स्वरूप आते हैं जिनका बहुत लम्बे काल के अंतर्गत समाज में विकास हुआ है। संस्कृति की परिभाषा व्यवहार की समग्रता (totality of behaviour) के रूप में भी दी जाती है जिसे मानव समाज आपने पुरखों से सीखता है और फिर उन्हें आगे आने वाली पीढ़ी को सिखाता है। समाज में जो सांस्कृतिक परिवर्तन हुआ है तथा अभी भी जो हो रहा है उसके कारक रहे हैं- विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में प्रगति, बड़े पैमाने के उद्योगों का विकास तथा देश के अंदर एवं देश के बाहर परिवहन और संचार के साधनों में सुधार।
1. धर्म
भारतीय समाज विभिन्न धर्मों के लोगों से बना है। अलग-अलग धार्मिक समुदायों में अलग-अलग पंथ एवं संप्रदाय हैं। लोग अपनी आस्था के अनुसार धार्मिक अनुष्ठानों का पालन करते हैं। उनकी आस्थाओं, आदतों और रीति-रिवाजों में उनके धर्म की झलक मिलती है। धर्म निरपेक्षता को भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण पक्ष माना जाता है। धर्मनिरपेक्षता से आशय यह होता है कि राज्य, नैतिक सिद्धांत, शिक्षा आदि का धर्म से को संबंध नहीं होता। भारत के संविधान में यह सुनिश्चित कर दिया गया है कि भारत के नागरिकों को अपने-अपने धर्मों को पालने का अधिकार है परन्तु राज्य का को धर्म नहीं होगा।
धर्म निरपेक्षता के लाभकारी प्रभावों का परीक्षण करने पर हम पाएंगे कि इसका क्या महत्व है। पहली बात तो यह है कि शिक्षा, रोजगार तथा सरकारी कार्यों से संबंधित लोगों के सार्वजनिक जीवन में धर्म के आधार पर उनके बीच को भेदभाव नहीं किया जाता। दूसरी बात है कि विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के अनुयायी अपनी सामान्य समस्याओं का समाधान एक साथ मिलकर करते हैं। खाद्य पदार्थों को छोड़कर अन्य वस्तुओं के व्यवसाय के संबंध में ग्राहकों के साथ धार्मिक आधार पर को भेदभाव नहीं किया जाता।
2. मूल्य
सामाजिक संदर्भ में मूल्यों के सापेक्ष महत्व को समझने के लिए उन्हें विभिन्न प्रकार के वर्गों में बांटा जा सकता है। जैसे कि सैद्धांतिक मूल्य (सत्यता और तर्कसंगतता), आर्थिक मूल्य (भौतिक लाभ और व्यावहारिकता), सामाजिक मूल्य (लोगों के प्रति प्रेम, समानता), राजनीतिक मूल्य (शक्ति प्राप्त करना), धार्मिक मूल्य (नैतिकता, सद्व्यवहार) और उपयोगितावादी मूल्य (अधिक लोगों की अधिकतम भला)। किसी मूल्य विशेष को कितनी प्राथमिकता दी जाती है यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज में विभिन्न हितों वाले कौन से लोग हैं।
पश्चिम के समाजों में जिन मूल्यों की प्रधानता है वे एशिया के देशों के मूल्यों से भिन्न हैं। लेकिन मूल्य स्थायी (static) नहीं होते। मध्य युग में पश्चिम के देशों में धार्मिक मूल्यों की प्रधानता थी। लेकिन अब वहां स्थिति बिल्कुल विपरीत हो ग है। मध्य युग में द्रव्य और संपत्ति की प्राप्ति (आर्थिक मूल्य) को दोषपूर्ण माना जाता था लेकिन पूंजीवादी समाज का तो यह प्रमुख गुण माना जाने लगा है। आगे चलकर अल्पविकसित देशों में भी ऐसा ही हुआ।
- श्रीवास्तव, अंजना, महिला शिक्षा तथा कानून, 12।ए चतुर्थ तल, रमन टावर आगरा, राखी प्रकाशन प्रा.लि. (2016)
- दुबे मनीष कुमार, शर्मा अंषु, शारीरिक शिक्षा स्वास्थ्य एवं योग, 12A, चतुर्थ तल, रमन टावर, संजय प्लेस आगरा 282002, राखी प्रकाशन प्रा.लि. (2016)
- पाण्डे रेणु, कार्की निधि, विविधता समावेशित शिक्षा और जेण्डर, 12A, चतुर्थ तल, रमन टावर, संजय प्लेस आगरा 282002, राखी प्रकाशन प्रा.लि. (2016)