अनुक्रम
मनोविज्ञान के सम्प्रदाय का अर्थ
शिक्षा मनोविज्ञान के सम्प्रदाय
- संरचनावाद
- प्रकार्यवाद
- व्यवहारवाद
- मनोविश्लेषण
- गेसटाल्ट मनोविज्ञान
- हारमिक मनोविज्ञान
1. संरचनावाद
मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र से अलग करके क्रमबद्ध अध्ययन करने का श्रेय संरचनावाद को जाता है। जिसके प्रवर्तक विलियम बुण्ट (1832-1920) के शिवाय ई0बी0 टिचनर (1867-1927) थे। इन्होंने अमेरिका के कार्नेल विश्वविद्यालय में इसकी शुरूआत करी। बुण्ट ने मनोविज्ञान के स्वरूप को प्रयोगात्मक बनाया जब 1879 में लिपजिंग विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला की स्थापना करी। बुण्ट ने मनोविज्ञान को चेतन अनुभूति का अध्ययन करने वाला माना। जिसे मूलत: दो तत्वों में विश्लेषित किया जा सकता था। वे दो तत्व थे- संवेदन तथा भाव। बुण्ट ने चेतन को वस्तुनिष्ठ तत्व बताया।
संरचनावाद का शिक्षा में योगदान
- संरचनावाद का योगदान शिक्षा तथा शिक्षा मनोविज्ञान के लिये प्रत्यक्ष ना होकर परोक्ष रूप में है। संरचनावाद ने सर्वप्रथम मनोविज्ञान को दर्शनशास्त्र से अलग करके इसके स्वरूप प्रयोगात्मक बनाया। जिससे मनोविज्ञान की हर शाखा जिसमें शिक्षा मनोविज्ञान भी शामिल था, का स्वरूप प्रयोगात्मक हो गया।
- मनोविज्ञान का स्वरूप प्रयोगात्मक होने से शिक्षा की नयी पद्धति के बारे में शिक्षकों को सोचने की चेतना आयी। अन्तनिरीक्षण विधि को प्रयोग शिक्षार्थी की मानसिक दशाओं का जैसे ध्यान, सीखना, चिंतन आदि प्रक्रियाओं का अध्ययन करने में प्रारंभ कर दिया।
- शिक्षा में उन पाठ्यक्रमों को अधिक महत्व दिया जाने लगा जिससे शिक्षार्थियों के चिन्तन, स्मरण, प्रत्यक्षण एवं ध्यान जैसी मानसिक क्रियाओं का समुचित विकास तथा उनका प्रयोगात्मक अध्ययन संभव हो।
2. प्रकार्यवाद
मनोविज्ञान में कार्यवाद एक ऐसा स्कूल या सम्प्रदाय है जिसकी उत्पत्ति संरचनावाद के वर्णनात्मक तथा विश्लेषणात्मक उपागम के विरोध में हुआ। विलियम जेम्स (1842-1910) द्वारा कार्यवाद की स्थापना अमरीका के हारवर्ड विश्वविद्यालय में की गयी थी। परन्तु इसका विकास शिकागो विश्वविद्यालय में जान डीवी (1859-1952) जेम्स आर एंजिल (1867-1949) तथा हार्वे ए0 कार (1873-1954) के द्वारा तथा कोलम्बिया विश्वविद्यालय के ई0एल0 थार्नडाइक तथा आर0एफ0 बुडवर्थ के योगदानों से हुयी।
कार्यवाद में मुख्यत: दो बातों पर प्रकाश डाला- व्यक्ति क्या करते है ? तथा व्यक्ति क्यों कोई व्यवहार करते है ? वुडवर्थ (1948) के अनुसार इन दोनों प्रश्नों का उत्तर ढूंढ़ने वाले मनोविज्ञान को कार्यवाद कहा जाता हैं। कार्यवाद में चेतना को उसके विभिन्न तत्वों के रूप में विश्लेषण करने पर बल नहीं डाला जाता बल्कि इसमें मानसिक क्रिया या अनुकूली व्यवहार के अध्ययन को महत्व दिया जाता है। अनुकूली व्यवहार में मूलत: प्रत्यक्षण स्मृति, भाव, निर्णय तथा इच्छा आदि का अध्ययन किया जाता है क्योंकि इन प्रक्रियाओं द्वारा व्यक्ति को वातावरण में समायोजन में मदद मिलती है।
कार्यवादियों ने साहचर्य के नियमों जैसे समानता का नियम, समीपता का नियम तथा बारंबारता का नियम प्रतिपादित किया जोकि सीखने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका बनाता है।
कोलम्बिया कार्यवादियों में ई0एल0 थार्नडाइक व आर0एस0 वुडवर्थ का योगदान सर्वाधिक रहा। थार्नडाइक ने एक पुस्तक शिक्षा मनोविज्ञान लिखी जिसमें इन्होंने सीखने के नियम लिखे हैं। थार्नडाइक के अनुसार मनोविज्ञान उछीपन-अनुक्रिया सम्बन्धों के अध्ययन का विज्ञान है। थार्नडाइक ने सीखने के लिये संबंधवाद का सिद्धान्त दिया। जिसके अनुसार सीखने में प्रारम्भ में त्रुटिया अधिक होती है। किन्तु अभ्यास देने से इन त्रुटियों में धीरे-धीरे कमी आ जाती है।
वुडवर्थ ने अन्य कार्यवादियों के समान मनोविज्ञान को चेतन तथा व्यवहार के अध्ययन का विज्ञान माना। इन्होनें सीखने की प्रक्रिया को काफी महत्वपूर्ण बताया क्योंकि इससे यह पता चलता है कि सीखने की प्रक्रिया क्यों की गयी। वुडवर्थ ने उद्वीपक-अनुक्रिया (एस0आर0) के सम्बन्ध में परिवर्तन करते हुये प्राणी की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुये उद्वीपक-प्राणी-अनुक्रिया (S.O.R.) सम्बन्ध को महत्वपूर्ण बताया।
कार्यवाद का शिक्षा में योगदान
- कार्यवाद ने मानव व्यवहार को मूलत: अनुकूली तथा लक्ष्यपूर्ण बताया। अत: स्कूलों का प्रमुख लक्ष्य बच्चों को समाज में समायोजित करना होना चाहिये। सीखने की प्रक्रिया में वातावरण की महत्ता पर बल दिया गया। अत: अध्यापकों का यह प्रयास होना चाहिये कि विद्यार्थियों को स्वस्थ वातावरण प्रदान किया जाये जोकि उनकी सीखने की प्रक्रिया को प्रेरित करें।
- इस विचारधारा ने पहले से चले आ रहे सैद्धान्तिक प्रत्ययों जोकि पाठ्यक्रम के अंग थे, में क्रांतिकारी बदलाव लाये। स्कूल पाठ्यक्रम में करके सीखना ( Learnning by doing ) पर बल दिया जाने लगा।
- शिक्षार्थियों की क्षमता में वैयक्तिक भिन्नता पर बल डाला गया।
- कार्यवाद ने अलग-अलग आयु स्तरों के बच्चों की आवश्यकतायें भिन्न-भिन्न होती है, इस बात पर बल दिया।
- कार्यवाद ने शिक्षा में उपयोगिता सिद्धान्त को जन्म दिया। इसने सीखने की प्रक्रिया में बालक की महता पर बल दिया। पाठ्यक्रम में केवल उन्हीं विषयों को सम्मिलत करना चाहिये जिनकी समाज में उपयोगिता हो।
- इस स्कूल ने शिक्षा में वैज्ञानिक जानकारी पर बल डाला। साथ ही शिक्षण व सीखने के लिये नयी विधियों जैसे: कार्य क्रमित सीखना ( Programmed Learning ) जैसी शिक्षण विधि को विकसित किया।
- कार्यवाद में विशेषकर थार्नडाइक ने इस बात पर बल दिया कि शिक्षक को अध्यापन कार्य करने के पहले शैक्षिक उद्देश्यों को परिभाषित कर लेना चाहिए। तभी शिक्षार्थी के व्यवहार में परिवर्तन ला सकते है।
शिक्षक को उन परिस्थितियों पर अधिक बल डालना चाहिये जो आम जीवन में अक्सर देखे जाते है तथा उन अनुक्रियाओं पर बल डालना चाहिये जिनकी जीवन में आवश्यकता हो।
3. व्यवहारवाद
व्यवहारवाद मनोविज्ञान का एक ऐसा स्कूल है जिसकी स्थापना जे0बी0 वाटसन द्वारा 1913 में जान हापीकन्स विश्वविद्यालय में की गयी। इस स्कूल की स्थापना संरचनावाद तथा कार्यवाद जैसे सम्प्रदायों के विरोध में वाटसन द्वारा की गयी। वह स्कूल अपने काल में विशेषकर 1920 ई0 के बाद अधिक प्रभावशाली रहा जिसके कारण इसे मनोविज्ञान में द्वितीय बल के रूप में मान्यता मिली।
वाटसन का व्यवहारवाद
जे0वी0 वाटसन ने व्यवहारवाद के माध्यम से मनोविज्ञान में क्रान्तिकारी विचार रखे। वाटसन का मत था कि मनोविज्ञान की विषय-वस्तु चेतन या अनुभूति नहीं हो सकता है। इस तरह के व्यवहार का प्रेक्षण नहीं किया जा सकता है। इनका मत था कि मनोविज्ञान व्यवहार का विज्ञान है। व्यवहार का पे्रक्षण भी किया जा सकता है तथा मापा भी जा सकता है। उन्होने व्यवहार के अध्ययन की विधि के रूप में प्रेक्षण तथा अनुबंधन को महत्वपूर्ण माना। वाटसन ने मानव प्रयोज्यों के व्यवहारों का अध्ययन करने के लिये शाब्दिक रिपोर्ट की विधि अपनायी जो लगभग अन्तर्निरीक्षण विधि के ही समान है।
वाटसन ने सीखना, संवेग तथा स्मृति के क्षेत्र में कुछ प्रयोगात्मक अध्ययन किये जिनकी उपयोगिता तथा मान्यता आज भी शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में अर्निाक है। व्यवहारवाद के इस धनात्मक पहलू को आनुभविक व्यवहारवाद कहा जाता है। वाटसन के व्यवहारवाद का ऋणात्मक पहलू वुण्ट तथा टिचनर के संरचनावाद को तथा एंजिल के कार्यवाद को अस्वीकश्त करना था। 1919 ई0 में वाटसन ने अपने व्यवहारवाद की तात्विक स्थिति को स्पष्ट किया जिसमें चेतना या मन के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया। इसे तात्विक व्यवहारवाद कहा गया। वाटसन ने सीखना, भाषा विकास, चिन्तन, स्मृति तथा संवेग के क्षेत्र में जो अध्ययन किया वह शिक्षा मनोविज्ञान के लिये काफी महत्वपूर्ण है।
वाटसन व्यवहार को अनुवंशिक न मानकर पर्यावरणी बलों द्वारा निर्धारित मानते थे। वे पर्यावरणवाद के एक प्रमुख हिमायती थे। उनका कथन “मुझे एक दर्जन स्वस्थ बच्चे दे, आप जैसा चाहे मै उनको उस रूप में बना दूंगा।” यह उनके पर्यावरण की उपयोगिता को सिद्ध करने वाला कथन है। वाटसन का मानना था कि मानव व्यवहार उदीपक-अनुक्रिया (S-R) सम्बन्ध को इंगित करता है। प्राणी का प्रत्येक व्यवहार किसी न किसी तरह के उद्दीपक के प्रति एक अनुक्रिया ही होती है।
उत्तरकालीन व्यवहारवाद
वाटसन के बाद भी व्यवहारवाद को आगे बढ़ाने का प्रयास जारी रहा और इस सिलसिले में हल स्कीनर, टालमैन और गथरी द्वारा किया गया प्रयास काफी सराहनीय रहा। स्कीनर द्वारा क्रिया प्रसूत अनुबन्धन पर किये गये शोधों में अधिगम तथा व्यवहार को एक खास दिशा में मोड़ने एवं बनाये रखे में पुनर्बलन के महत्व पर बल डाला गया है। कोई भी व्यवहार जिसके करने के बाद प्राणी को पुनर्बलन मिलता है या उसके सुखद परिणाम व्यक्ति में उत्पन्न होते है, तो प्राणी उस व्यवहार को फिर दोबारा करने की इच्छा व्यक्त करता है। गथरी ने अन्य बातों के अलावा यह बताया कि सीखने के लिये प्रयास की जरूरत नहीं होती और व्यक्ति एक ही प्रयास में सीख लेता है। इसे उन्होने इकहरा प्रयास सीखना की संज्ञान दी।
- सीमा विधि
- थकान विधि
- परस्पर विरोधी उद्दीपन की विधि
व्यवहारवाद का शिक्षा में योगदान
पी0 साइमण्ड ने शिक्षण व अधिगम के क्षेत्र में व्यवहारवाद की उपयोगिता बताते हुये कहा कि सीखने में पुरस्कार (पुर्नबलन) की महती भूमिका है। जिसकी जानकारी एक अध्यापक के लिये होना आवश्यक है। अध्यापक द्वारा प्रदत्त पुनर्बलन बच्चों के भविष्य की गतिविधियों के क्रियान्वयन में निर्देशन का कार्य करता है। अध्यापक द्वारा मात्र सही या गलत की स्वीकश्ति ही बच्चे के लिये पुरस्कार का कार्य करती है। व्यवहारवाद का शिक्षा के क्षेत्र में योगदान है –
- व्यवहारवाद ने जो विधियां व तकनीक प्रदान करी उनसे बच्चों के व्यवहार को समझने में काफी मदद मिली।
- सीखने और प्रेरणा के क्षेत्र में व्यवहारवाद ने जो विचार प्रस्तुत किये वे अत्यन्त महत्वपूर्ण है।
- बच्चों के संवेगों का प्रयोगात्मक अध्ययन करके व्यवहारवादी मनोवैज्ञानिकों ने इनके संवेगात्मक व्यवहार को समझने का ज्ञान प्रदान किया।
- व्यवहारवाद ने मानव व्यवहार पर वातावरणीय कारकों की भूमिका पर विशेष जोर दिया। वाटसन ने पर्यावरणी कारकों को बच्चों के वयक्तित्व विकास में काफी महत्वपूर्ण बताया। वाटसन का यह कथन कि यदि उन्हें एक दर्जन भी स्वस्थ बच्चे दिये जाते है तो वे उन्हें चाहे तो डाक्टर, इंजीनियर, कलाकार या भिखारी कुछ भी उचित वातावरण प्रदान कर बना सकते है, ने वातावरण की भूमिका पर विशेष प्रकाश डाला।
- स्किनर द्वारा सीखने के लिये जो नयी विधि कार्यक्रमित सीखना दी गयी, ने शिक्षा मनोविज्ञान के क्षेत्र में हलचल मचा दिया। आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि को अत्यन्त महत्वपूर्ण माना है और अनेक तरह के पाठों को सिखाने में उन्हें सफलता भी मिली।
- कुसमायोजित बालकों के समायोजन के लिए व्यवहारवाद द्वारा जो विस्किायां दी गयी वे अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।
- व्यवहारवाद ने मानव व्यहवार को समझने के लिये पूर्ववर्ती समस्त वाद जोकि मानसिक प्रक्रियाओं पर बल देते थे, के विवाद का अंत किया।
4. मनोविश्लेषणवाद
मनोविश्लेषण का प्रयोग मनोविज्ञान में तीन अर्थो में होता है मनोविश्लेषण मनोविज्ञान का एक स्कूल है, मनोविश्लेषण व्यक्तित्व का एक सिद्धान्त है तथा मनोविश्लेषण मनोचिकित्सा की एक विधि है।
मनोविज्ञान के एक स्कूल के रूप में मनोविश्लेषण की स्थापना साइमण्ड फ्रायड (1856-1932) द्वारा नैदानिक परिस्थितियों में की गयी। मनोविज्ञान पर इस स्कूल का काफी प्रभाव पड़ा था। इसी कारण मनोवैज्ञानिक ने इसे प्रथम बल कहा। व्यवहारवादियों द्वारा व्यवहार की व्याख्या करने में अप्रेक्षणीय मानसिक बलों को पूर्णत: अस्वीकश्त कर दिया था, वहीं साइमण्ड फ्रायड ने ऐसे अदश्श्य एवं अचेतन मानसिक बलों को मानव प्रकश्त्ति तथा व्यवहार को समझने के लिये काफी महत्वपूर्ण बताया।
मनोविश्लेषणवाद की विशेषतायें
1. स्थलाकृतिक संरचना – फ्रायड ने मन के तीन स्तरों का वर्णन किया है-चेतन, अर्द्वचेतन तथा अचेतन। मन के चेतन में वैसी अनुभूति होती है जिससे व्यक्ति वर्तमान समय में पूर्णत: अवगत रहता है। अर्द्धचेतन में वैसी अनुभूतियां संचित होती है जिनमें व्यक्ति वर्तमान समय में अवगत तो नहीं रहता है। परन्तु थोड़ी कोशिश करने पर उससे अवगत हो सकता है। अचेतन में वैसी अनुभूतियां संचित होती है जिनसे व्यक्ति वर्तमान समय में अवगत तो नही रहता है, परन्तु थोड़ा कोशिश करने पर उससे अवगत हो सकता है। अचेतन में वैसी अनुभूतियां, इच्छाएं आदि होती है जो कभी चेतन में थी लेकिन प्राय: असामाजिक होने के कारण चेतन से दमित कर दी गयी और अचेतन स्तर पर चली गयी।
मनोविश्लेषणवाद का शिक्षा में योगदान
- शिक्षा में अचेतन प्रेरणाओं का बड़ा महत्व बताया गया है। इससे शिक्षार्थियों के उन व्यवहारों को समझने में शिक्षा मनोवैज्ञानिक को काफी मदद मिलती है जो ऊपर से देखने में बिना कारण लगते है। बालक द्वारा किया गया कोई भी कार्य जिसे बालक व्यक्त नहीं कर पाता है। इन्हीं अचेतन की प्रेरणाओं में छिपा रहता है।
- मनोविश्लेषणवाद ने एक बच्चे के जीवन की प्रारम्भिक अनुभूतियों व अनुभवों पर काफी बल दिया है जोकि उसकी शैक्षिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है। बच्चे को जो भी अनुभव अपने जीवन के पांच वर्षो में मिलते है वे ही उसके व्यक्तित्व की नीवं रखते है। यदि जीवन के आरम्भिक वर्षो में बच्चे को प्यार स्नेह और सहानुभूति मिलती है तो जीवन के प्रति धनात्मक अभिवश्त्ति का जन्म होता है। इसके विपरीत यदि ऋणात्मक व दण्डात्मक पुनर्वलन की अधिकता होती है तो भविष्य के लिये खतरा उत्पन्न हो जाता है।
- मनोविश्लेषणवाद ने बच्चों के लिये विरेचन प्रक्रिया को महत्वपूर्ण बताया। बच्चों को कक्षा के अन्दर व बाहर अपने संवेगों को स्वतंत्र रूप से अभिव्यक्त करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए।
- मनोविश्लेषणवाद ने शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को समस्यात्मक बालकों के कारणों तथा इन्हीं बच्चों को पुन: समायोजित करने में मदद दी।
- इस वाद ने शिक्षा प्रक्रिया में संवेगों की भूमिका पर विशेष बल दिया।
- व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास में स्वतन्त्र भावनाओं की अभिव्यक्ति का विशेष महत्व होता है। मनोविश्लेषणवाद ने इस स्वतंत्रता पर विशेष बल डाला।
- बाल्यकालीन अनुभवों का मानव व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव होता है। इसी कारण शिक्षा मनोवैज्ञानिकों ने बाल्यकालीन शैक्षिक व्यवस्था पर विशेष बल दिया।
- विद्यार्थी जीवन में अध्यापक की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विद्यार्थियों के साथ बने अध्यापक के अन्तवैयक्तिक सम्बन्ध ही उनके व्यवहार को प्रभावित करते है और जीवन के प्रति धनात्मक अभिवृत्ति विकसित करने में मदद करता है। अत: अध्यापकों का व्यवहार विद्यार्थियों के प्रति ध् नात्मक होना चाहिये।
5. गेस्टाल्ट मनोविज्ञान
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान की स्थापना जर्मनी में मैक्स बरदाईमर द्वारा 1912 ई0 में की गयी। इस स्कूल के विकास में दो अन्य मनोवैज्ञानिकों, कर्ट कौफ्का (1887-1941) तथा ओल्फगैंग कोहलर (1887-1967) ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस स्कूल की स्थापना वुण्ट व टिचनर की आणुविक विचारधारा के विरोध में हुआ था। इस स्कूल का मुख्य बल व्यवहार में सम्पूर्णता के अध्ययन पर है। इस स्कूल में अंश की अपेक्षा सम्पूर्ण पर बल देते हुये बताया कि यद्यपि सभी अंश मिलकर सम्पूर्णता का निर्माण करते है। परन्तु सम्पूर्णता की विशेषताएं अंश की विशेषताओं से भिन्न होती है। गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने इसे गेस्टाल्ट की संज्ञा दी। जिसका अर्थ प्रारूप आकार या आकृति बताया। इस स्कूल द्वारा प्रत्यक्षण के क्षेत्र में प्रयोगात्मक शोध किए गए है। जिससे प्रयोगात्मक मनोविज्ञान का नक्शा ही बदल गया। प्रत्यक्षण के अतिरिक्त इन मनोवैज्ञानिकों ने सीखना, चिंतन तथा स्मृति के क्षेत्र में काफी योगदान दिया। जिसने शिक्षा मनोविज्ञान को अत्यधिक प्रभावित किया।
- प्रैगनैन्ज का नियम- इस नियम को उत्तम आकृति का नियम भी कहा जाता है। यह नियम इस बात को इंगित करता है कि व्यक्ति देखे गये उद्दीपनों को एक संतुलित एवं समकित आकृति के रूप में प्रत्यक्षण करता है, जबकि उद्दीपन पैटर्न इतना संतुलित व समकित नही भी हो सकता है।
- समानता का नियम – इस नियम में इस बात पर बल डाला है कि वस्तु जिनकी संरचना समान होती है, उसे व्यक्ति एक साथ संगठित कर एक प्रत्यक्षणात्मक समग्रता के रूप में प्रत्यक्ष करता है।
- समीप्यता का नियम – इस नियम के अनुसार वे सभी वस्तुएं जो समय तथा स्थान में एक-दूसरे से नजदीक होते है, उसे व्यक्ति प्रतयक्षणात्मक रूप में संगठित कर प्रत्यक्षण करता है।
- निरन्तरता का नियम – इस नियम के अनुसार वस्तुओं में एक दिशा में आगे बढ़ते रहने की निरन्तरता बनी रहती है, उसे व्यक्ति एक संगठित आकृति वाला तस्वीर के रूप में प्रत्यक्षण करता है।
- आकृति पृष्ठभूमि का नियम – यह नियम इस तथ्य पर बल डालता है कि प्रत्यक्षण किसी आकृति के रूप में संगठित हो जाती है जो एक निश्चित पृष्ठभूमि पर दिखायी देती है। आकृति का एक मुख्य गुण यह होता है कि यह स्पष्ट एवं उत्कृष्ट होती है तथा पृष्ठभूमि तुलनात्मक रूप से अस्पष्ट एवं अनुउत्कृष्ट होते है। पलटावी आकृति में आकृति कभी पृष्ठभूमि में और पृष्ठभूमि कभी आकृति के रूप में पलटते हुए देख पड़ता है।
2. सीखना – गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने सीखने के क्षेत्र में अनेक महत्वपूर्ण प्रयोगात्मक अध्ययन करके सीखने की एक नयी अन्तर्दृष्टि विधि प्रदान की । इन लोगों ने यह स्पष्ट किया कि सीखना एक तरह का क्षेत्र का प्रत्यक्षणात्मक संगठन होता है। जिसमें व्यक्ति परिस्थिति को नये ढंग से देखता है। इन लोगों ने भी यह स्पष्ट किया कि प्राणी प्रयत्न एवं भूल से नही बल्कि सूझ से सीखता है। सूझ व्यक्ति में किसी समस्या का समाधान करते समय या किसी पाठ को सीखते समय प्राय: अचानक विकसित होती है और व्यक्ति उद्धीपनों के बीच के संबन्धों के अर्थपूर्ण संबंध को समझ जाता है। इससे सीखने की प्रक्रिया में तेजी आ जाती है। इसलिये गेस्टाल्टवादियों का मत था कि सीखना भी अचानक होता है न कि अभ्यास के साथ क्रमिक ढंग से धीरे-धीरे होता है।
बरदाइमर ने चिन्तन के तीन प्रकार बताये ए, बी तथा वाई। ए प्रकार का चिंतन एक तरह का उत्पादी चिन्तन है। जिसमें बालक लक्ष्य तथा उस पर पहुंचने के साधनों के बीच सीधा संबंध स्थापित कर पाता है। इस तरह के चिन्तन में बालक समस्या के विभिन्न पहलुओं का पुनर्सगठन करने में समर्थ हो पाते है। वाई प्रकार का चिन्तन ऐसा चिंतन है जिसमें प्रयत्न एवं भूल की प्रधानता होती है तथा समस्या के विभिन्न पहलुओं का आपसी संबंध बिना समझे-बूझे ही बालक उसका समाधान करना प्रारम्भ कर देता है। वाई प्रकार का चिंतन अधिक होने से ए प्रकार का चिन्तन स्वभावत: कम हो जाता है। बी प्रकार का चिन्तन ऐसा चिंतन है जो अंशत: उत्पादी तथा अंशत: अनुत्पादी व यांत्रिक होता है।
गेस्टाल्टवाद का शिक्षा में योगदान
- गेस्टाल्टवादियों ने प्रत्यक्षण के नियमों का प्रयोग सीखने के क्षेत्र में भी किया। अत: अध्यापक को चाहिये कि वह शिक्षार्थी के सामने विषय सामग्री को पूर्ण रूप में प्रस्तुत करे।
- गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने सर्वांिगक व्यवहार की महत्ता पर बल दिया। प्राणी द्वारा जो भी अनुभव प्राप्त किये जाते है वह उन्हें समग्र रूप में बताता है नाकि उद्वीपन-अनुक्रिया संबन्धो के रूप में तोड कर।
- व्यक्तित्व विकास में वातावरण की अग्रणी भूमिका पर बल दिया। अत: स्कूल का वातावरण ऐसा होना चाहिये जोकि बच्चे के व्यक्तित्व विकास में सहायक हों।
- शिक्षार्थियों में सूझ उत्पन्न करने पर बल दिया गया। ताकि विद्यार्थी समस्यात्मक परिस्थिति का समाधान सूझ विधि से करके सीख सके।
- सीखने के लिये यह आवश्यक है कि अधिगमार्थी को उद्धेश्यों और लक्ष्यों को जानकारी हो। अत: अध्यापक का प्रयास होना चाहिये कि विद्यार्थी स्वयं के लिये एक वैयक्तिक लक्ष्य निर्धारित करें। यह वैयक्तिक लक्ष्य शिक्षाथ्र्ाी के समक्ष एक तनाव की स्थिति उत्पन्न कर देगा, जिससे विद्यार्थी उस तनाव को दूर करने के लिये सीखने के लिये सक्रिय हो जायेगा। इस प्रकार लक्ष्यों का निर्धारण व्यक्ति को सक्रिय बनाता है।
- स्कूल में शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को उन्नत बनाने के लिये अध्यापक, प्रध् ाानाचार्य और विद्यार्थियों को संगठित होकर कार्य करना चाहिये।
- अध्यापकों को विद्यार्थियों के विचारों को जानने व समझने का प्रयास करना चाहिये। अपने विचारों को उन पर लादकर विद्यार्थियों के प्रत्यक्षण को प्रभावित नही करना चाहिये।
- अध्यापक को पाठ्न सामग्री रूचिपूर्ण तथा समझ आने योग्य रूप में शिक्षाथ्र्ाी के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिये। जो भी निर्देश दिये जाये अर्थपूर्ण होने चाहिये।
- अध्यापकों को विद्यार्थी के सोचने को क्षमता या कार्यशैली की जानकारी होनी चाहिये। यदि कोई बच्चा अमूर्त चिंतन करने योग्य नहीं है तो साचां केतिक रूप में प्रस्तुत की गयी सूचनायें उसके लिये लाभदायक नहीं होगी।
- अध्यापक को विद्यार्थियों के समक्ष सूचनायें इस तरह संगठित करके प्रस्तुत करनी चाहिये कि विद्यार्थी नये व पुराने अनुभवों की विवेचना करके उन्हें समझने योग्य हो जाये।
6. हारमिक मनोविज्ञान
हारमिक मनोविज्ञान की स्थापना विलियम मैक्डूगल ने की। उन्होने ग्रीक शब्द Horme से Hormic बनाया। जिसका अर्थ होता है वृत्ति। मैक्डूगल ने मानव व्यवहार की जो व्याख्या व्यवहारवादियों द्वारा दी गयी, उसका विरोध करते हुय बताया कि वृत्ति उद्देश्यपूर्ण होती है। उनका विचार था कि उद्देश्य या लक्ष्य व्यक्ति को संबंधित अनुक्रिया करने के लिए बिना किसी तरह के आभास पैदा किए हुए ही प्रेरित करता है। हालांकि कभी-कभी एक अस्पष्ट आभास व्यक्ति में उत्पन्न हो जाता है। इन्होंने उद्देश्यपूर्ण व्यवहार की चार विशेषताओं का वर्णन किया –
- उद्धेश्यपूर्ण व्यवहार अपने आप होता है। अन्य शब्दों में कोई उद्धेश्य या लक्ष्य को देखकर व्यक्ति स्वत: संबंधित अनुक्रिया कर देता है।
- उद्धेश्यपूर्ण व्यवहार का प्रभाव लक्ष्य पर पहुंचने के कुछ देर बाद भी प्राणी में बना रहता है।
- उद्धेश्यपूर्ण व्यवहार में प्राणी एक के बाद एक क्रियाएं व्यक्ति तब तक करता जाता है जब तक कि वह लक्ष्य पर न पहुंच जाए।
- उद्धेश्यपूर्ण व्यवहार अभ्यास से उन्नत बनाता है।
मैकडूगल के अनुसार उद्धेश्यपूर्ण व्यवहार करने के पीछे छिपी शक्ति को मूल प्रवृत्ति कहा गया है। मूल प्रवृत्ति व्यक्ति में एक जन्मजात मनोदैहिक प्रवृत्ति होती है जो व्यक्ति की कोई उद्धेश्यपूर्ण क्रिया करने के लिये बाध्य करती है। मैक्डूगल ने प्रमुख सात मूल प्रवृत्तियां बतायी जो कि किसी न किसी संवेग से जुड़ी होती है। वे सात मूल प्रवृत्तियां तथा उनसे सम्बंधित संवेग है –
मूल प्रवृत्ति | संवेग |
---|---|
स्वीकृति | विरक्ति |
लड़ाई | क्रोध |
आत्म-दृढ़कथन | उल्लास |
उत्सुक ता | अचरज |
मातृत्व-पितृत्व | नरम संवेग |
आत्म-अपमान | नकारात्मक |
आत्म-भाव | उन्मुक्ति डर |
हारमिक मनोविज्ञान का शिक्षा में योगदान
शैक्षिक परिस्थितियों में हारमिक मनोविज्ञान द्वारा प्रतिपादित मूल प्रवृत्ति के सिद्धान्त द्वारा बालकों के मूलप्रवृत्तिक व्यवहारों को समझने में काफी सहायता मिली है। टारेन्स (1965) के अनुसार शिक्षक को शिक्षार्थियों द्वारा वर्ग में किए जाने वाले मूल-प्रवृत्ति से संबंधित स्वाभाविक व्यवहार को तो समझने में मदद मिलती है, साथ ही साथ इन शिक्षार्थियों के विभिन्न तरह के, संवेगात्मक व्यवहार जैसे साथियों के साथ क्रोध करना, साथियों के साथ मिल कर खुशी मनाना, अपने को स्वयं दोषी मानना आदि व्यवहारों के कारणों को भी समझने में, काफी मदद मिलती है। मूलप्रवृत्ति के सिद्धान्त ने विद्यार्थियों के व्यवहार को समझने योग्य बनाया।