इससे देश को अधिक आर्थिक लाभ होगा। इस प्रकार वाणिज्यवाद ने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का मार्ग प्रशस्त किया।
वाणिज्यवाद क्रांति के उदय और विकास के कारण
1. समुद्री यात्राएं और भौगोलिक खोजें – कोलम्बस, वास्कोडिगामा, अमेरिगो, मेगलन, जान केबाट जसै साहसी नाविकों ने जाेि खमभरी समुद्री यात्राएँ करके अनेक नये देशों की खोज की। वहाँ धीरे-धीरे नई वस्तियाँ बसायी गयी। यूरोप के पश्चिमी देशों ने विशेषकर स्पेन, पतुर् गाल, हालैण्ड, फ्रांस और इंग्लैण्ड ने नये खोजे हुए देशों में अपने-अपने उपनिवेश और व्यापारिक नगर स्थापित किए। इन उपनिवेशों से चमड़ा, लोहा , रुई ऊन आदि कच्चा माल प्राप्त कर अपने देश में इनसे नवीन वस्तुएँ निर्मित कर उपनिवेशों को नियार्त के रूप में भेजी और बदले में वहाँ से प्रचुर मात्रा में स्वर्ण और चांदी प्राप्त की। इससे पूँजी का संचय हुआ, आयात-निर्यात बढ़ा और देश समृद्ध हुआ।
2. पुनर्जागरण का प्रभाव – पुनर्जागरण ने यूरोप में नवीन वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ-साथ मानवजीवन के प्रति अधिक अभिरुचि और आकांक्षाएँ उत्पन्न की। मानव जीवन को अधिक रुचिकर और सुख-सुविधा सम्पन्न बनाने की प्रवृित्त को प्रोत्साहन दिया गया। इससे भौतिकवाद की वृद्धि हुई। भौतिक सुख-सुविधाओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त धन की माँग बढ़ी और यह बढ़ता हुआ धन वाणिज्य-व्यापार और उद्योग धंधों से ही प्राप्त हो सकता था। इससे वाणिज्यवाद को प्रोत्साहन मिला।
3. मुद्रा प्रचलन और बैंकिंग प्रणाली – विभिन्न व्यवसायों, उद्यागे -धंधों और वाणिज्य-व्यापार बढ़ जाने से व्यवसाय ओर व्यापार प्रणालियों में संसाधन, सुधार और परिवर्तन हुए। वैज्ञानिक अन्वेषणों के आधारों पर उद्योग-धध्ं ाों में अधिकाधिक उत्पादन ओर व्यापार में वस्तुओं का अधिकाधिक क्रय-विक्रय होने लगा। इससे मुद्रा प्रचलन बढ़ा और आधुनिक बैंकिंग प्रणाली का प्रारंभ और विकास हुआ। बैंकों ने अपने जमा धन को अन्य व्यापारियों, व्यवसायियों और उद्यागे पतियों को उसकी साख पर उधार दिया और उनके व्यापारिक वस्तुओं के क्रय-विक्रय संबंधी भुगतान को सरलता से किया। इससे वाणिज्यवाद को अधिकाधिक प्रोत्साहन मिला। धीरे-धीरे अधिकाधिक पूँजी को व्यापारियों को उपलब्ध कराने हेतु जाइटं स्टाक कंपनियाँ स्थापित की गयी और उनका विकास किया गया।
इन जाइटं स्टाक कंपनियों और बैंकों में अनेक लोगों की बचत का धन संचित हो रहा था। इस धन को बड़े-बड़े उद्योगों और विदेशी व्यापार में लगाया गया। विशाल पैमाने पर बड़े कारखाने स्थापित और विकसित हुए। इससे विशाल पैमाने पर वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा, बड़ी मात्रा में वस्तुओं का वितरण और क्रय-विक्रय होने लेगा। इससे देशी और विदेशी व्यापार तथा वाणिज्यवाद का एक नवीन युग प्रारंभ हुआ।
4. नवोदित राष्ट्र राज्यों द्वारा प्रोत्साहन और संरक्षण- यूरोप में पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में राष्ट्रीय राज्यों का उदय और विकास हुआ। इन बलशाली राष्ट्रीय राजाओं ने देश में आतंरिक शान्ति स्थापित की और बाहरी आक्रमणों से देश को सुरक्षा प्रदान की। सुरक्षा ओर शान्ति के वातावरण में उद्यागे -धंधे और देशी-विदेशी व्यापार बढ़ा और राष्ट्रीय राजाओं ने सोने-चांदी के आयात को प्रोत्साहित किया। इसी बीच व्यापारियों से कर के रूप में पर्याप्त धन प्राप्त हो जाने से राष्ट्रीय राजाओं ने युद्ध किये और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया तथा अन्य महाद्वीपों में अपने नये उपनिवेश स्थापित किए। उन्होंने उद्योग पतियों और व्यापारियों को प्रोत्साहित किया कि वे उपनिवेशों से व्यापार करके अपनी धन-सम्पित्त बढ़ावें। फलत: उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ व्यापार और देश की आर्थिक समृद्धि राष्ट्रीय राज्य की शक्ति बन गयी। इन परिस्थितियों मेंं वाणिज्यवाद और पूँजीवाद खूब फले-फूले।
वाणिज्यवाद क्रांति का महत्व और परिणाम
लगभग 250 वर्षों तक वाणिज्यवाद की विचारधारा का बाहुल्य यूरोप में रहा। वाणिज्यवाद की विचारधारा ने यूरोप के राश्ट्रों की आर्थिक नीति को ढाला। यूरोप में अंतर्राश्ट्रीय व्यापार का प्रारंभ वाणिज्यवाद से होता है। आर्थिक लाभ के लिए विभिन्न राश्ट्रों ने संतुलित आयात-निर्यात की नीति अपनायी। वाणिज्यवाद के कारण नवीन उद्योग के माल को अधिकाधिक निर्यात कर विदेशों से बड़े पैमाने पर सोना-चांदी और धन प्राप्त किया गया। इस सिद्धांत को अपनाया गया कि वस्तुओं का अधिकाधिक निर्यात करना और आयात कम करना, जिससे देश अधिक समृद्ध हो जाए। विदेशी माल की खरीद और आयात को निरुत्साहित किया गया।
स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहित करने हेतु उत्पादन में अधिकाधिक वृद्धि की गई। कच्चा माल प्राप्त करने और बने हुए माल की बिक्री और खपत के लिए नवीन उपनिवेशों की स्थापना की गई। इससे औपनिवेशिक साम्राज्य बने। वाणिज्यवाद की नीतियाँ ओर सिद्धातं अपनाने से यूरोप में इंग्लैण्ड, फ्रांस और जमर्न ी जैसे महान शक्तिशाली राज्यों का निर्माण हो सका। शीघ्र ही इनका साम्राज्य यूरोप के बाहर महाद्वीपों में फैल गया।
वाणिज्यवाद क्रांति के दोष
1. पूँजीवाद – वाणिज्यवाद ने उद्योग -धंधों के प्रसार से पूँजीवाद को जन्म दिया। इस पूँजीवाद से यूरोपीय समाज में दो वर्गों का उदय हुआ- प्रथम पूँजीपतियों और उद्योगपतियों का वर्ग जिसने उत्पादन के साधनों पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया, ओर द्वितीय सर्वहारा वगर् जिसके पास स्वयं के स्वामित्व के उत्पादन के साधन नहीं होने से अपने श्रम को सस्त दामों पर बेचना पड़ता था। इससे कालांतर में पूँजीपति और सर्वहारा वर्ग में कहा संघर्श छिड़ गया, जिससे विद्रोह और क्रांतियाँ हुई तथा आर्थिक व्यवस्था डगमगा गयी।
2. संकीर्ण राष्ट्रीयता – वाणिज्यवाद ने एक राश्ट्र को महत्व देकर उसकी समृद्धि के लिए दूसरे अन्य राश्ट्रों के शोषण का मार्ग प्रशस्त किया। एक राष्ट्र अधिक सशक्त और संपन्न हो गया और अन्य छोटे-छोटे देश शोशित होने से और गरीब हो गये। इस प्रकार संकीर्ण राष्ट्रीयता का मार्ग प्रशस्त हुआ।
3. अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक और औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा – वाणिज्यवाद ने विभिन्न देशों में मधुर मैत्रीपूर्ण अंतर्राश्ट्रीय संबंधों के स्थान पर अंतर्राश्ट्रीय व्यापारिक और औपनिवेशिक प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया, इससे विध्वंसकारी युद्ध हुए।
4. सोने-चांदी के संचय की निरर्थकता – वाणिज्यवाद ने सोना-चांदी प्राप्त कर उसके संचय पर अधिक महत्व दिया। फलत: जिस वर्ग के पास स्वर्ण और चांदी संचित होते गये वह अपार धन सम्पित्त के आधार पर अनैतिक, विलासी ओर भश्ट हो गया। समाज में नैतिक मूल्य समाप्त हो गए। उद्योग धंधों के विकास होने पर यह तथ्य सामने आया कि किसी देश में सोने-चांदी के भण्डार की अपेक्षा लोहा, इस्पात, कोयला, खनिज तेल आदि अधिक मूल्यवान है। इनके समुचित दोहन से राष्ट्र अधिक समृ़द्ध़ और शक्तिशाली होगा। इस सिद्धांत ने सोने-चांदी के भण्डार को निरर्थक कर दिया।
5. कृषि की उपेक्षा – वाणिज्यवाद के समर्थकों ने उद्यागे -धंधों और व्यवसायों के अधिकतम विकास पर बल दिया। इससे कृशि का क्षेत्र अविकसित और पिछड़ा रह गया। किसी भी देश की आर्थिक समृद्धि के लिए कृषि और उद्योगधंधों का संतुलित विकास होना चाहिए।
6. लोक कल्याण का अभाव – वाणिज्यवाद ने राजनीतिक क्षेत्र में राज्य और शासक और आर्थिक क्षेत्र में उद्योगधंधों और व्यापार को अधिक महत्व दिया। सर्वहारा वर्ग या दरिद्र जनता या आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के हित में, लोक कल्याण में कोई अभिरुचि नहीं ली, इसके लिए कोई याजेना या सिद्धांत नहीं थे। वाणिज्यवाद में गरीबो, शिल्पियों, श्रमिकों का शोषण हुआ।
7. राजसत्ता और भक्ति में वृद्धि – वाणिज्यवाद के समर्थकों, व्यापारियों और उद्यागे पतियों ने शक्तिशाली राज्य का समर्थन किया क्योंकि उनके हित संवर्धन के लिए सशक्त राजा ही आंतरिकशांति और बाह्य सुरक्षा प्रदान कर सकता था। कालातंर में देश में धन की प्रचुरता और समृद्धि से बलशाली राजा निरंकुश स्वेच्छाचारी शासक हो गये राजाओं और शासकों ने अपनी शक्तियों अधिकारों का दुरुपयोग किया। कालांतर में उनकी निरंकुशता के विरूद्ध विद्रोह हुए।
उपरोक्त कारणों से वाणिज्यवाद के विरूद्ध तीव्र अंसतोष फैलने लगा और 19वीं सदी में परिवर्तित परिस्थितियों में इसके सिद्धांतों का विरोध हुआ। इन्ही कारणों स े वाणिज्यवाद का हृास हो गया।