अनुक्रम
रासायनिक बंध किसे कहते हैं?
अक्रिय गैसों को छोड़कर अन्य जितने भी तत्व हैं उनकी बाह्यतम कक्षा में 8 से कम इलेक्ट्रॉन रहते हैं। ये सभी तत्व अक्रिय गैसों की भांति अपनी बाह्यतम कक्षा मेंं स्थायी अष्टक प्राप्त कर लेने की प्रवृत्ति रखते हैं। तत्वों की यह प्रवृत्ति दूसरे तत्व से इलेक्ट्रॉन लेकर या उसको इलेक्ट्रॉन देकर या उनके बीच इलेक्ट्रॉनों का साझा होने से पूरी होती है। यही कारण है कि तत्वों के बीच रासायनिक संयोग होता है।
दो या अधिक परमाणुओं के बीच इलेक्ट्रॉनों का पुनर्वितरण होने से अणुओं का निर्माण होता है। इलेक्ट्रॉनों का यह पुनर्वितरण तीन प्रकार से हो सकता है, अत: बंध तीन प्रकार के होते हैं।
- आयनिक या वैद्युत संयोजक आबंध
- सहसंयोजक आबंध
- उपसहसंयोजक आबंध
इसके अलावा एक विशेष प्रकार का आबंध होता है जो हाइड्रोजन आबंध कहलाता है।
आयनिक या वैद्युत संयोजक आबंध
परमाणुओं के मध्य इलेक्टा्रॅनों के अदान पद्रान से जो बंध बनते हैं उन्हें विद्युत संयोजी अथवा आयनिक बंध कहते हैं। जो परमाणु इलेक्ट्रॉन ग्रहण करता है उस पर ऋण-आवेश और जो इलेक्ट्रॉन देता है उस पर धन-आवेश आ जाते हैं। इस प्रकार, ये दो विपरीत आवेशवाले आयन एक-दूसरे से स्थिर विद्यृतीय आकर्षण-बल द्वारा जुटकर अणु बनाते हैं। जिस आयन पर धन-आवेश रहता है वह धनायन और जिस पर ऋण-आवेश रहता है वह ऋणायन कहलाता है।
आयनी यौगिकों के निर्माण का ऊर्जा विज्ञान
हमने इलेक्ट्रॉन के स्थानांतरण से आयनिक यौगिक (NaCl) के निर्माण का वर्णन पढ़ा। जब क्लोरीन परमाणु क्लोराइड आयन बनने में कम ऊर्जा उत्सर्जित (इलेक्ट्रॉन बंधुता एन्थैल्पी) होती है और सोडियम परमाणु से सोडियम आयन बनने में अधिक ऊर्जा अवशोषित (आयनन एन्थैल्पी) होती है, तो आप कैसे कह सकते हैं कि NaCl निर्माण से ऊर्जा में कमी होती है ? आइए आपके संशय को मिटाने के लिए पूरे प्रक्रम को ध्यान से देखें। सोडियम और क्लोरीन से NaCl के निमार्ण को क चरणों में देखा जा सकता है।
जैसे –
अ. पूर्ण ऊष्मा ऊध्र्वपातन- ठोस सोडियम से गैसीय सोडियम परमाणु
NA(S)→NA(g) H=108.7kjmol-1
ब. आयनन एन्थैल्पी- गैसीय सोडियम परमाणु से सोडियम आयन
NA(S)→NA+(g)+e– H=493.8kjmol-1
स. वियोजन ऊर्जा- गैसीय क्लोरीन अणु से क्लोरीन परमाणु
1/2 CI2(g)→CI(g) H=-120.9kjmol-1
द. गैसीय क्लोरीन परमाणु का क्लोराइड आयन में परिवर्तन (इलेक्ट्रॉन का संकलन)
CI(g)+e-→CI– (g) H=-379.5kjmol-1
इ. सोडियम और क्लोराइड आयन से NaCl निर्माण (क्रिस्टल या जालक का बनना)
Na+(g)+CI– (g)→Na+CI–(S) H=-754.8kjmol-1
इस चरण में उत्सर्जित ऊर्जा जालक ऊर्जा कहलाती है। नैट क्रिया होगी
Na+(s)+1/2CI– (g)→Na+CI– (S) H=–410.9kjmol-1
संभवन की पूर्ण ऊष्मा में परिर्वतन का परिकलन अन्य ऊर्जाओं का योग में परिवर्तन को लेकर किया जा सकता है।
H=(180 .7+493.8+120.9-379.5-754.8)=–410 .9kjmol-1
अत: हम देख सकते हैं कि सोडियम और क्लोरीन से NaCl बनने का प्रक्रम ऊर्जा को काफी कम कर देता है। यह युक्ति ऊर्जा के संरक्षण नियम का पालन करती है और यह बार्न हॉबर चक्र कहलाती है।
इसमें सम्मिलित पाँच विभिन्न प्रकार की ऊर्जाओं मेंं से दो (पूर्ण ऊष्मा ऊध्र्वपातन और वियोजन ऊर्जा) का मान बाकियों से कम होता है। इसलिए बाकी तीन ऊर्जा- आयनन एन्थैल्पी, इलेक्ट्रान बन्धुता और जालक ऊर्जा एक आयनिक यौगिक के बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। उपर्युक्त चर्चा के बाद हम कह सकते हैं कि आयनिक यौगिकों का बनना सुगमता से सम्भव होता है। यदि-
- धातु की कम आयनन एन्थैल्पी हो
- दूसरे तत्व की इलेक्ट्रान बंधुता अधिक हो (अधातु की इलेक्ट्रॉन ग्रहण एन्थैल्पी)
- जालक ऊर्जा अधिक हो
विद्युत संयोजी यौगिकों के गुण-
- सामान्यत: विद्युत संयोजी यौगिक पानी में घुलनशील होते हैं।
- विद्युत संयोजी यौगिकों के गलनांक तथा क्वथनांक बहुत ऊंचे होते हैं। क्योंकि इनमें दो आयन आपस में प्रबल विद्युत आकर्षण बल द्वारा बंधे होते हैं। अत: आकर्षण बल रेखाओं को तोड़ने के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है।
- विद्युत संयोजी यौगिक जल में घुलने पर अथवा पिघली अवस्था मेंं आयनित हो जाते है।
- ये प्राय: विद्युत के सुचालक होते हैं।
- विद्युत संयोजी यौगिक आयनिक अभिक्रियाएं देते है, जो तीव्रगामी होते है।
वैद्युत संयोजक बंध कब बनते हैं?
- जब प्रबल धन विद्युती तत्व (वर्ग I, II, III) किसी प्रबल ऋण विद्युती तत्व (वर्ग VI, VII) के साथ संयोग करता है।
- जब दो संयोजी तत्वों की विद्युत ऋणात्मकताओं में अंतर होता हैं।
- जब एक तत्व आसानी से इलेक्ट्रॉन त्यागकर तथा दूसरा आसानी से इलेक्ट्रॉन ग्रहण करके उत्कृष्ट गैस की संरचना प्राप्त करता है।
लुइस संरचना-
इस सरंचना में परमाणु में उपस्थित संयोजकता इलेक्ट्रॉन को दर्शाने के लिए इलेक्ट्रॉन बिन्दु प्रतीक या लुइस प्रतीक का उपयोग किया जाता है। इस विधि में परमाणु के बाह्य कोश मेंं उपस्थित इलक्े ट्रॉनो को दर्शाने के लिए उस तत्व के प्रतीक के चारों ओर उतने ही बिंदु लगा देते हैं, जितने इलेक्ट्रॉन उसके बाह्य कोश मेंं उपस्थित रहते है।
सहसंयोजक आबंध –
सहसंयोजक बंधन परिभाषा-
जब दो सदृश या असदृश परमाणु अपने बाह्यतम शेल के इलेिक्ट्रॉनों का आपस में साझा करके संयोग करते हैं तब उनके बीच स्थित बंधन को सहसंयोजक बंधन कहते हैं तथा इस प्रकार से निर्मित यौगिक सहसंयोजक यौगिक कहलाता है। ये परमाणु इलेक्ट्रॉनों की साझेदारी द्वारा अपना अष्टक पूरा करके स्थायित्व प्राप्त करते हैं। जब दो परमाणु एक-एक इलेक्ट्रॉन का साझा करते हैं तब एक सहसंयोजक बध्ंनबनता है। जब दो परमाणु दो-दो इलेक्ट्रॉन का साझा करते है। तब एक सहसंयोजक बध्ं ान बनता है। जिस द्विबंधन कहते हैं। इसी प्रकार, जब दो परमाणु तीन-तीन इलेक्ट्रानों का साझा करते है तब तीन सहसंयोजक बंधन बनते है जिसे त्रिबंधन कहते है ।
सहसंयोजी बंध के प्रकार-
सहसंयोजी बंध दो प्रकार के होती है।
- अध्रुबीय सहसंयोजक बंध- जब सहसंयोजक बंध दो सदृश परमाणुओं के बीच होता है इसमें दोनों परमाणुआ ें की विद्युत ऋणात्मकता एक ही होती है। अत: साझा में भाग लेने वाले इलेक्ट्रॉन अणु में समगित रूप हो वितरित रहते है। उदाहरण- हाइड्रोजन का बनना H–H→H:H
- ध्रवीय सहसंयोजक बंध- वे सहसंयोजक बंध जो असमान ऋणाविधुतताओं वाले परमाणुओं के मध्य बनते है धु्रवीय सहसंयोजक बंध कहलाते है इस बंध में भाग लेने वाले इलेक्ट्रॉन दोनों परमाणुओं से असमान दूरी पर रहते है। इस कारण एक परमाणु पर आंशिक धनावेश (S+) तथा दूसरे पर आंशिक ऋणावेश (s-) उत्पन्न हो जाता है। उदाहरण– हाइड्रोजन क्लोराइड का अणु-हाइड्रोजन क्लोराइड के अणु में हाइड्रोजन और क्लोरीन परमाणुाओं के बीच एक जोड़ा इलेक्ट्रॉन रहते हैं। इनमें एक इलेक्ट्रॉन हाइड्रोजन परमाणु से और दूसरा क्लोरीन परमाणु से आता है। किंतु क्लोरीन परमाणु, हाइड्रोजन की अपेक्षा बहुत अधिक विद्युत-ऋणात्मक होता है, अत: इलेक्ट्रॉनों की यह जोड़ी हाइड्रोजन की अपेक्षा क्लोरीन परमाणु की ओर अधिक खिंची हु रहती है।
धु्रवीय और अध्रुवीय अणुओं के आचरण वैद्युत क्षेत्र में विभन्न प्रकार के होते है। धु्रवीय अणुओं से बने हुए पदार्थ को वैद्युत क्षेत्र में रखने पर ये अणु द्विधु्रव जैसा आचरण करते हैं। इनके धन-धु्रव वैद्युत क्षेत्र की ऋण-प्लेट की ओर तथा इनके ऋण धु्रव धन-प्लेट की ओर निर्देशित हो जाते हैं। इस आचरण को हम यह कहकर व्यक्त करते हैं कि अणु में द्विधु्रव-आघुर्ण होता है जो अणु को किसी वैद्युत क्षेत्र में एक खास दिशा में दिक्-निर्देशित हो जाने के लिए प्रेरित करता है।
सह-संयोजी यौगिकों के गुण-
- सामान्य: सह संयोजी यौगिक जल में अघुलनशील होते हैं।
- इनके गलनांक एवं क्वथनांक के मान प्राय: कम होते हैं।
- सह-संयोजी यौगिक विद्युत के कुचालक होते हैं।
- सह-संयोजी यौगिक की आण्विक अभिक्रियाएं मंद गति से होती हैं।
- सह-संयोजी यौगिकों का विलयन में अथवा पिघली अवस्था में आयनीकरण नहीं होता है।
उपसहसंयोजक बंधन –
उपसहसंयोजक यौगिकों के गुण –
- उपसहसंयोजक बंधन दृढ़ और दिशात्मक होता है।
- इसके यौगिक के अणु में परमाणु प्रदत्त इलेक्ट्रॉनों द्वारा दृढ़ता से एक-दूसरे से जुटे रहते है; अत: ये यौगिक जल में घोले जाने पर या द्रवित किए जाने पर वियोजित नहीं होते है।
- ये जल में प्राय: अविलेय, किंतु कार्बनिक विलायकों में विलेय होते है।
- इन यौगिकों के द्रवणांक और क्वथनांक वैद्युत संयोजक यौगिकों की अपेक्षा प्राय:कम और सहसंयोजक यौगिक की अपेक्षा प्राय: अधिक होते है। की अपेक्षा प्राय:कम और सहसंयोजक यौगिक की अपेक्षा प्राय: अधिक होते है।
हाइड्रोजन बन्धन –
हाइड्रोजन बन्ध बनने की शर्तें –
- उच्च विद्युत-ऋणात्मकता-अणु में को एक परमाणु उच्च विद्युत-ऋणात्मक होना चाहिए।
- छोटा आकार- विद्युत-ऋणात्मक तत्व का आकार छोटा होना चाहिए।
इन कारणों से हाइड्रोजन बन्ध फ्लओरीन, नाइट्रोजन और ऑक्सीजन के साथ प्रभावी ढंग से बनता है।
हाइड्रोजन बन्ध के प्रकार –
- अन्तर-अणुक हाइडोजन बन्ध- जब हाइड्रोजन और विद्युत-ऋणात्मक तत्व परमाणु दो भिन्न-भिन्न अणुओं में उपस्थित हो तब इस प्रकार बने H-बन्ध को अन्तर-अणुक हाइड्रोजन बन्ध कहते हैं; जैसे- H2O, HF, C2H5OH आदि।
इस बिन्दुकित रेखा द्वारा प्रदर्शित करते हैं। के अनेक अणु आपस में जुड़कर एक संगुणित अणु बना लेते है।। इसी प्रकार जल और ऐल्कोहॉल के अनेक अणु हाइड्रोजन बन्ध द्वारा जुड़े रहते हैं।
हाइड्रोजन फ्लुओराइड-
हाइड्रोजन बन्ध एक दुर्बल बन्ध होता है। इसकी ऊर्जा 5 किलो-कैलोरी होती है, जबकि सामान्य सहसंयोजक बन्ध की ऊर्जा 50-100 किलो-कैलोरी होती है।
- अन्त:अणुक हाइड्रोजन बन्ध- हाइड्रोजन और विद्युत ऋणात्मक तत्व परमाणु दोनों ही जब एक ही अणु में उपस्थित हों, तब इस प्रकार बने H-बन्ध को अन्त अणुक हाइड्रोजन बन्ध कहते हैं; जैसे- o-नाइट्रोफीनॉल, ऐसीटो ऐसीटिक एस्टर इत्यादि में-
संयोजकता कोश इलेक्ट्रॉन युग्म प्रतिकर्षण सिद्धांत-
VSEPR सिद्धात- अणुओं या आयनों की लुइस संरचनाओं से उनकी ज्यामिति आकृति का अनुमान करने मैं संयोजकता कोश इलेक्ट्रॉन युग्म प्रतिकर्षण सिद्धांत अर्थात् वेस्पर (VSEPR) सिद्धांत बहुत महत्व पूर्ण एवं उपयोगी है। यह सिद्धांत सिजविक एवं पॉवले ने प्रस्तुत किया और गिलस्े पी व नाइहामे ने संशोधन किये। यह सिद्धातं सहसंयोजक अणु बनने पर संयोजकता कोश में बने इलेक्ट्रॉन युग्मों का आपस में प्रतिकर्षण का अणु ज्यामिति पर प्रभाव स्पष्ट करता है। इस सिद्धांत के अनुसार ‘‘किसी अणु के केन्द्रीय परमाणु के संयंयोजेजेजकता कोश मे उपास्थित इलेक्ट्रान युग्म से भरे हुए कक्षक त्रिविम में इस प्र्रकार व्यवस्थित होते है कि उनके मध्य न्यूनतम प्रतिकर्षण (अधिक स्थायित्व) हो।’’
वेस्पर सिद्धांत के मुख्य बिन्दु इस प्रकार है-
- सहसंयोजक बंध का निर्माण इलेक्ट्रॉन के साझे के फलस्वरूप होता है।
- किसी रासायनिक बंध में अभिकारकों के बाह्म आर्बिटल के इलेक्ट्रॉनों के मध्य अन्त: क्रिया होती है।
- बाक्ष कोश के वे इलेक्ट्रॉन जो बंधन में भाग लेते है, बंधी इलेक्ट्रान युग्म कहलाते है तथा वे इलेक्ट्रॉन जो बंधन में भाग नहीं लेते अबंध्ंधी इलेक्ट्रॉन युुग्म या बंधहीन कहलाते है।
- केन्द्रीय परमाणु के बाह्यतम कोश में उपस्थित बंधित एवं बंधहीन या अबंधित इलेक्ट्रॉन के योगफल को संयोजकता कोश इलेक्ट्रॉन कहते है।
- बन्धी इलेक्ट्रॉन युग्म तथा बंधहीन इलेक्ट्रॉन युग्मों के मध्य आपस में प्रतिकर्षण होने के कारण अणु वह ज्यामितीय विन्यास प्राप्त करने का प्रयास करता है, जिससे इन इलेक्ट्रॉन युग्मॉ के बीच अधिकतम दूरी हो।
- अणु या आयन मे केन्द्रीय परमाणु के चारो ओर इलेक्ट्रॉन युग्मों की व्यवस्था संयोजकता कोश में उपस्थित बंधी और अबंधी इलेक्ट्रॉन युग्मों की कुल संख्या पर निर्भर करती है।
जब केन्द्रीय परमाणु केवल बंधी इलेक्ट्रॉन युग्मों से घिरा हो तब अणु की ज्योमिति स्वरूप होगी परंतु यदि केन्द्रीय परमाणु बंधी इलेक्ट्रॉन युग्मों के साथ-साथ बंधहीन युग्मो से भी घिरा हो तो अणु की ज्यामिति विकृत हो जायेगी। इसका कारण यह है कि बंधहीन इलेक्ट्रॉनिक युग्मों तथा बंधी इलेक्ट्रॉन युग्मों के बीच प्रतिकर्षण केवल बंधी इलेक्ट्रॉन युग्मों के प्रतिकर्षण से अधिक होता है। इलेक्ट्रॉन युग्मों के बीच प्रतिकर्षण निम्न क्रम में होता है-
केंद्रीय परमाणु के चारों ओर इलक्ट्रॉन युग्मों की ज्यामितीय व्यवस्था –
संयोजकता बन्ध सिद्धान्त –
- इस सिद्धान्त के अनुसार परमाणुओं के मध्य सहसंयोजक बंध उनके संयोजकता कोश के अर्द्धपूरित परमाणु ऑर्बिटलों के आंशिक अतिव्यापन से बनते हैं।
- अतिव्यापन में भाग लेने वाले परमाणु ऑर्बिटलों में विपरीत चक्रण वाले इलेक्ट्रौन स्थित हों।
- बन्ध की प्रबलता अतिव्यापन की सीमा पर निर्भर होती है अधिक अतिव्यापन होन पर प्रबल बन्ध बनता है।
- अतिव्यापन तथा इलेक्ट्रॉन के युग्मन के फलस्वरूप ऊर्जा मुक्त होती है तथा निकाय (आण्विक अवस्था) निम्न ऊर्जा अवस्था (अधिकतम स्थायित्व) को प्राप्त कर लेता है।
यह सिद्धान्त हाइड्रोजन अणु का बनना सन्तोषप्रद ढंग से समझाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, हाइड्रोजन परमाणु हाइड्रोजन अणु के अन्तर्गत भी अपनी विशिष्टता बनाये रखता है। संयोजकता बन्ध सिद्धान्त के आधार पर F2, NH3, H2O, CH4, C2H2 आदि अणुओं का बनना भी समझाया गया। इस सिद्धान्त द्वारा क अणुओं का बनना तथा उनके आकार समझाये जा सके, किन्तु कुछ अणुओं के चुम्बकीय व्यवहार को समझाने में यह सिद्धान्त असफल रहा।