अनुक्रम
मानसिक विकास का सिद्धांत
- मानसिक विकास का पियाजे का सिद्धांत
- मानसिक विकास का विगोत्सकी द्वारा प्रतिपादित सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत
- बच्चों के मन का सिद्धांत
1. मानसिक विकास का पियाजे का सिद्धांत
जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत प्रमुख रूप से बच्चों एवं किशोरों के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं पर प्रकाश डालता है। पियाजे का यह सिद्धांत अवस्था सिद्धांत कहलाता है क्योंकि इस सिद्धांत में एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक होने वाला विकास पहली अवस्था के विकास पर निर्भर करता है। अर्थात् एक अवस्था का विकास होने पर ही दूसरी अवस्था में विकास का होना संभव है। इस सिद्धांत के अनुसार पूर्ण संज्ञानात्मक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को इन अवस्थाओं को क्रमश: उत्तरोत्तर क्रम में पार करना पड़ता है। यदि किसी कारण से किसी अवस्था में विकास अवरूद्ध होने की स्थिति में उससे ऊपर की अवस्था में संज्ञानात्मक विकास नहीं हो पाता है। पियाजे द्वारा निर्मित संज्ञानात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं की सारणी है।
अवस्था (Stage) | आयु(Age) | मुख्य उपलब्धियॉं (major accomplishments) |
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संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensorimotor stage) | 0 से 2 वर्ष | बच्चे में कारण-प्रभाव एवं वस्तु स्थिरता की समझ (The child develops basic ideas of cause and effect and object permanence) |
प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational stage) | 2 से 6 या 7 वर्ष | बच्चा संसार को संकेतो एवं प्रतीकों से समझना शुरू कर देता है। (The child begins to represent the world symbolically) |
ठोस संक्रिया की अवस्था (Concrete operations stage) | 7 से 11 या 12 वर्ष | बच्चे का संरक्षण के सिद्धान्तों को समझना प्रारम्भ करना। तार्किक विचारों की उत्पत्ति।(The child gains understanding of principles such as conservation: logical thought emerges.) |
औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Formal operations stage) | 12 से वयस्क | किशोर का तार्किक विचारों के विभिन्न स्वरूपों को समझने में सक्षम होना। (The adolescent becomes capable of several forms of logical thought.) |
- मानव शिशु जन्म से ही वातावरण में घटने वाली घटनाओं के अनिश्चितता से बचने एवं दूर करने के लिए अनुकूलन करता है।
- जब बालकों के सामने कोई ऐसी घटना घटती है जिसे उसका पहले कभी अनुभव नहीं हुआ है तो इससे उसमें एक तरह संज्ञानात्मक असंतुलन (cognitive disequilibrium) उत्पन्न हो जाता है जिसे वह आत्मसात्मकरण (assimilation) तथा समायोजन (accommodation) की प्रक्रिया अपनाकर संतुलित करता है।
- संतुलन की यह प्रक्रिया सिर्फ बालकों की पिछले अनुभवों पर ही निर्भर नहीं करती है बल्कि उनके शारीरिक विकास, स्नायुओं की क्षमता पर भी निर्भर करती है।
- संतुलन का प्रभाव यह होता है कि बालकों की संज्ञानात्मक संरचना उन्नत हो जाती है जिसके कारण संज्ञानात्मक विकास की चारों अवस्थाओं में उनका विकास सहज होता है।
1. संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensorimotor Stage)- यह अवस्था जन्म से दो वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में शिशुओं में अन्य क्रियाओं के अलावा वस्तुओं को शरीर द्वारा इधर-उधर करना, वस्तुओं की पहचान करने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना और प्राय: उसे मुंह में डालकर अध्ययन करना प्रमुख है। -जन्म से 30 दिन तक की आयु में बालक अंगूठा आदि चूसने आदि की प्रतिवर्त क्रियायें (reflex activities) ही प्रमुख रूप से करता है।
- एक से चार महीने की आयु में शिशुओं की प्रतिवर्त क्रियाओं में उनकी अनुभूतियों के आधार पर कुछ बदलाव आता है और वे अधिक समन्वित हो जाती हैं।
- चार से आठ महीने की आयु में शिशु वस्तुओं को उलटने-पलटने तथा छूने पर अधिक ध्यान देता है।
- आठ से बारह महीने की आयु में बालक लक्ष्यवस्तु तथा उस तक पहुॅंचने के साधन में अन्तर करना प्रारम्भ कर देता है। जैसे यदि किसी ने खिलौना छिपा दिया है तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है। इस अवधि में शिशु वयस्कों द्वारा किये जा रहे कार्यों का अनुकरण करना भी प्रारम्भ कर देता है।
- 12 से 18 महीने की आयु में बालक वस्तुओं की विशेषताओं का ज्ञान प्रयत्न एवं त्रुटि (trail and error) विधि से प्राप्त करने की कोशिश करता है। इस अवस्था में उसकी स्वयं की शारीरिक क्रियाओं में रूचि कम हो जाती है तथा वह वस्तुओं पर प्रयोग करना शुरू कर देता है। जिज्ञासा एवं उत्सुकता बढ़ जाती है। वह वस्तुओं को ऊपर से नीचे गिराकर, फेंककर उसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं।
- 18 महीने से 24 महीने की आयु में बालक वस्तुओं में बारे में चिन्तन प्रारम्भ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारम्भ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती है। इस गुण को वस्तु स्थायित्व (object permanence) कहा जाता है। दूसरे शब्दों में , बालक 3-4 महीने की आयु में जो यह सोचते थे कि जब कोई वस्तु उनके सामने होती है तब उसका अस्तित्व बना होता है परन्तु जब वस्तु उनके सामने से हट जाती है तब उसका अस्तित्व भी खत्म हो जाता है, को अब वे गलत समझने लगते हैं। परन्तु अब उसका चिन्तन अधिक वास्तविक हो जाता है और वह अब यह सोचता है कि जब वस्तु उसके सामने नहीं भी होती है तो भी उसका अस्तित्व बना रहता है। इसे ही वस्तु स्थायित्व का गुण कहा जाता है।
2. प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational Stage) – संज्ञानात्मक विकास की यह अवस्था दो से सात साल की होती है। यह प्रारम्भिक बाल्यावस्था की अवस्था होती है। इसे पियाजे ने दो अवस्थाओं में बॉंटा है। 1. प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि (Preconceptual period) तथा 2. अन्तर्दश्र्ाी अवधि (Intutive period)।
1. प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि- यह अवधि दो से चार वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता विकसिकत कर लेते हैं। सूचकता (signifiers) से तात्पर्य यह होता है कि बालक यह समझने लगते हैं कि वस्तु, शब्द, कल्पना, तथा चिन्तन-विचार किस चीज के लिए किया जाता है। उन्होंने दो तरह की सूचकता पर बल डाला है। संकेत (symbol) तथा चिह्न (sign)। किसी दृश्य ठोस वस्तु के मानसिक रूप का दूसरा नाम भी संकेत है। संकेत तथा उस ठोस वस्तु में बहुत सादृश्यता होती है। उदाहरण के लिए जब बच्चा अपनी मॉं की आवाज सुनता है तब उसके मन में मॉं का रूप या प्रतिमा बनती है, जो संकेत का उदाहरण है। ठोस वस्तुओं के लिए प्रयुक्त शब्द अथवा भाषा उनके चिह्न कहलाते हैं। पियाजे के अनुसार अनुकरण की प्रक्रिया द्वारा बच्चे सूचकता को सीखते हैं।
- पहली यह किइस अवधि में बच्चों में जीववाद (Animism) उत्पन्न होता हैं। जीववाद अर्थात् बच्चा निर्जीव किन्तु गतिमान वस्तुओं (पंखा, कार, हवा, बादल) को भी स्वयं के समान सजीव समझता है।
- दूसरी कमी आत्मकेंद्रण (Egocentrism) के रूप में सामने आती है। इसमें बच्चा केवल अपनी सोच को ही सही मानता है। उसे कुछ इस प्रकार का विश्वास हो जाता है कि दुनिया की अधिकतर चीजें उसके इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। जैसे वह तेजी से दौड़ता है, तो सूरज भी तेजी से चलना शुरू कर देता है। उसका गुड्डा वही देखता है जो वह देख रहा है। पियाजे ने यह भी बताया है कि जैसे-जैसे बच्चों का सम्पर्क का दायरा अन्य बच्चों के साथ बढ़ता है, आत्मकेंद्रण कम होता जाता है।
2. अन्तर्दशीय अवधि- यह अवधि 4 साल की आयु से लेकर 7 वर्ष की अवस्था तक होती है। इस अवधि में बच्चों का चिन्तन एवं तर्कशक्ति में पहले की अपेक्षा अधिक बेहतर हो जाती है। बच्चा जोड़, घटाव, गुणा, भाग जैसी मानसिक क्रियायें आसानी से करने लगता है। परन्तु इन क्रियाओं के पीछे के सिद्धांत को वह नहीं समझ पाता है। अन्तर्दशी चिन्तन एक ऐसा चिन्तन होता है जिसमें कोई क्रमबद्ध तर्क नहीं होता है। इस उम्र के बच्चों के चिन्तन में प्रक्रियाओं को उलटकर समझने की विशेषता नहीं होती है। जैसे बच्चा यह तो समझता है कि 2×2 = 4 हुआ परन्तु 4×2 =2 कैसे हुआ, यह वह नहीं समझ पाता है।
1- संरक्षण (conservation), 2- संबंध (relation), 3- वर्गीकरण (classification)। इस अवस्था में बच्चा द्रव, लम्बाई, भार तथा तत्व के संरक्षण को समझने लगता है वह यह समझ जाता है कि मिट्टी एवं मिट्टी से बना बर्तन दोनों तत्वत: एक ही हैं तथा समान मात्रा में गीली मिट्टी से बनाये गये घड़े को यदि खिलौने का स्वरूप् दे दिया जाय तब भी उसका भार उतना ही रहता है और वह तत्व रूप में मिट्टी ही होता है। वे क्रमिक संबंधों से संबंधित समस्याओं का भी समाधान करते पाये जाते हैं। उनमें दी गई वस्तुओं को उनकी लम्बाई या वनज के अनुसार घटते क्रम या बढ़ते क्रम में व्यवस्थित करने की क्षमता विकसित हो जाती है। इसे पंक्तिबद्धता (seriation) कहा जाता है। इसी प्रकार इस अवस्था में बच्चों में वस्तुओं की विशेषताओं के आधार पर उसे किसी एक वर्ग या उपवर्ग में बॉंटने की समझ भी विकसित हो जाती है।
2. मानसिक विकास का विगोत्सकी द्वारा प्रतिपादित सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत
विगोत्सकी द्वारा सन् 1987 में प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास का सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत पियाजे के मानसिक विकास के सिद्धांत की मूल विचार के विपरीत दृिष्कोण प्रस्तुत करता है। यह सिद्धांत बच्चों के मानसिक विकास की व्याख्या करने वाला एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह सिद्धांत पियाजे के अवस्था सिद्धांत से भिन्न है। अवस्था सिद्धांत में पियाजे ने माना है कि प्रत्येक बालक को क्रमानुसार मानसिक विकास की उच्च अवस्थाओं में पहुंचने के लिए पूर्व की अवस्थाओं से गुजरना आवश्यक होता है। हालॉंकि गोपनिक आदि अनुसंधानकर्ताओं द्वारा प्राप्त शोध परिणाम बतलाते हैं कि मानसिक विकास से संबंधित संज्ञानात्मक बदलाव काफी धीरे-धीरे होते हैं, और ऐसा बहुत ही कम होता है कि किसी एक अवस्था में अनुपस्थित विशेषता दूसरी अवस्था में प्रवेश करते ही अचानक से दिखलायी पड़ने लगती हो। वरन इन विकासात्मक बदलावों के अलग अलग दायरे होते हैं, बच्चे किसी चिन्तन के किसी एक दायरे में अधिक कुशल हो सकते हैं एवं वहीं किसी अन्य में कमजोर हो सकते हैं। जैसा कि हमने जाना कि पियाजे के अनुसार बच्चों में ‘समझ का विकास’ उनके द्वारा उनके वातावरण में उपस्थित वस्तुओं के साथ सक्रियता पूर्वक किये गये उनके प्रयास एवं परिपक्वता के विकास का परिणाम होता है। यहॉं प्रयास से तात्पर्य बच्चों द्वारा वस्तुओं के साथ किये गये व्यवहार एवं क्रियाओं से होता है।
- अन्तवर्ैयक्ति संदर्भ (interpersonal context),
- सामाजिक संदर्भ (social context)।
इन संदर्भो में बच्चे का मानसिक विकास एक स्तर से शुरू होकर दूसरे स्तर तक पहुंच जाता है। एक स्तर से दूसरे स्तर तक पहुॅंचने के बीच में एक दूरी होती है जिसकी संज्ञानात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
3. बच्चों के मन का सिद्धांत
बच्चों की थ्योरी ऑफ माइंड से तात्पर्य उनके चिंतन के विषय में किये जाने वाले चिंतन से है। एक वयस्क के रूप में हम सभी विचार एवं चिन्तन प्रक्रिया के सम्बन्ध में एक सुलझी हुई समझ रखते हैं। हम यह जानते हैं कि समय के साथ हमारे अपनी सोच में बदलाव आते हैं एवं हमारे विश्वास, निष्कर्ष एवं धारणायें गलत भी हो सकती हैं। इसी प्रकार हम यह भी जानते हैं कि हमारे लोगों के अपने उद्देश्य, लक्ष्य एवं इच्छायें हो सकती हैं जो कि हमारी स्वयं की इच्छाओं एवं उद्देश्यों से भिन्न हो सकती हैं, एवं दूसरे लोग हमसे अपनी इच्छाओं एवं लक्ष्यों को छिपा भी सकते हैं। इसके आगे हम इससे भी परिचित हैं कि एक समय में, एक परिस्थिति में प्राप्त समान जानकारी के बावजूद दूसरे व्यक्तियों के हमसे भिन्न निष्कर्ष हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, हम यह समझते हैं कि किस प्रकार हम स्वयं एवं दूसरे व्यक्ति सोचते हैं। लेकिन क्या बच्चों के साथ भी ऐसा ही होता है? किस आयु में एवं कैसे उनमें यह समझ विकसित होती है? यह थ्योरी ऑफ माइण्ड के अनुसंधानकर्ताओं का विशिष्ट विषय रहा है।
आइये इसकी शुरूआत सोच के सबसे सरल पहलू से करें, जिसका की संबंध बच्चों द्वारा स्वयं की सोच एवं दूसरों की सोच में अन्तर होने की पहचान करने की क्षमता से है। बच्चों के मानसिक विकास के अनुसंधान में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या बच्चों में यह समझने की क्षमता होती है कि दूसरों की धारणायें एवं विश्वास उनकी धारणाओं से अलग हो सकते हैं एवं गलत भी हो सकते है। यह बच्चे इस मूल तथ्य को समझते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में पाया गया है कि चार वर्ष के अवस्था से पूर्व बच्चे इस तथ्य को समझने में असमर्थ होते हैं।