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मन की हम मात्र कल्पना कर सकते हैं। इसको न तो किसी ने देखा है और न ही हम इसकी कल्पना कर सकते हैं।’’ दूसरे शब्दों में मस्तिष्क के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का नाम मन है।
मन का अर्थ
मन शब्द का प्रयोग कई अर्थों में किया जाता है। जैसे- मानस, चित्त, मनोभाव तथा मत। लेकिन मनोविज्ञान में मन का तात्पर्य आत्मन्, स्व या व्यक्तित्व से है। यह एक अमूर्त सम्प्रत्यय है। जिसे केवल महसूस किया जा सकता है। इसे न तो हम देख सकते है। और न ही हम इसका स्पर्श कर सकते है।
दूसरे शब्दों में मस्तिष्क के विभिन्न अंगों की प्रक्रिया का नाम मन है। प्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिगमण्ड फ्रायड के अनुसार मन का सिद्धांत एक प्रकार का परिकल्पनात्मक सिद्धांत है।
मन की परिभाषा
1. फ्रायड के अनुसार- ‘‘मन से तात्पर्य व्यक्तित्व के उन कारकों से होता है जिसे हम अन्तरात्मा कहते है। तथा जो हमारे व्यक्तित्व में संगठन पैदा करके हमारे व्यवहारों को वातावरण के साथ समायोजन करने में मदद करता है।’’
मन के प्रकार
1. चेतन मन – मन का वह भाग जिसका सम्बन्ध तुरन्त ज्ञान से होता है, या जिसका सम्बन्ध वर्तमान से होता है।
- यह मन का सबसे छोटा भाग है।
- चेतन मन का बाहरी जगत की वास्तविकता के साथ सीधा सम्बन्ध होता है।
- चेतन मन व्यक्तिगत, नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आदर्शों से भरा होता है।
- यह अचेतन और अर्द्धचेतन पर रोकने का कार्य करता है।
- चेतन मन में वर्तमान विचारों एवं घटनाओं के जीवित स्मृति चिन्ह होते हैं।
2. अर्द्ध चेतन मन – यह मन का वह भाग है, जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय सामग्री से है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार कभी भी याद कर सकता है। इसमें कभी-कभी व्यक्ति को किसी चीज को याद करने के लिए थोड़ा प्रयास भी करना पड़ता है। अर्द्धचेतन का तात्पर्य वैसे मानसिक स्तर से होता है। जो वास्तव में में न तो पूरी तरह से चेतन हैं और ही पूरी तरह से अचेतन। इसमें वैसी इच्छाएँ, विचार, भाव आदि होते हैं। जो हमारे वर्तमान चेतन या अनुभव में नहीं होते हैं परन्तु प्रयास करने पर वे हमारे चेतन मन में आ जाती है। जैसे- अलमारी में रखी किताबों में से जब किसी किताब को ढूँढते हैं और कुछ समय के बाद किताब न मिलने पर परेशान हो जाते है। फिर कुछ सोचने पर याद आता है कि वह किताब हमने अपने मित्र को दी थी। अर्थात् अर्द्धचेतन मन चेतन व अचेतन के बीच पुल का काम करता है।
- मन का वह भाग जो चेतन से बड़ा व अचेतन से छोटा होता है।
- अचेतन से चेतन में जाने वाले विचार या भाव अर्द्धचेतन से होकर गुजरते हैं।
- अर्द्धचेतन में किसी चीज को याद करने के लिए कभी-कभी थोड़ा प्रयास करना पड़ता है।
3. अचेतन मन – यह मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय वस्तु से होता है जिसे व्यक्ति इच्छानुसार याद करके चेतना में लाना चाहे, तो भी नहीं ला सकता है। अचेतन में रहने वाले विचार एवं इच्छाओं का स्वरूप कामुक, असामाजिक, अनैतिक तथा घृणित होता है। ऐसी इच्छाओं को दिन-प्रतिदिन के जीवन में पूरा कर पाना सम्भव नहीं है। इन इच्छाओं को चेतना से हटाकर अचेतन में दबा दिया जाता है और वहाँ पर ऐसी इच्छाएँ समाप्त नहीं होती है। बल्कि समय-समय पर ये इच्छाएँ चेतन स्तर पर आने का प्रयास करती रहती है।
- अचेतन मन अर्द्धचेतन व चेतन से बड़ा होता है।
- अचेतन में कामुक, अनैतिक, असामाजिक इच्छाओं की प्रधानता होती है।
- अचेतन का स्वरूप गत्यात्मक होता है। अर्थात् अचेतन मन में जाने पर इच्छाएँ समाप्त नहीं होती है। बल्कि सक्रिय होकर ये चेतन में लाटै आना चाहती है। परन्तु चेतन मन के रोक के कारण ये चेतन में नहीं आ पाती है और रूप बदलकर स्वप्न व दैनिक जीवन की छोटी-मोटी गलतियों के रूप में व्यक्त होती है और जो अचेतन के रूप को गत्यात्मक बना देती है।
- अचेतन के बारे में व्यक्ति पूरी तरह से अनभिज्ञ रहता है क्योंकि अचेतन का सम्बन्ध वास्तविकता से नहीं होता है।
- अचेतन मन का छिपा हुआ भाग होता है। यह एक बिजली के प्रवाह की भाँति होता है। जिसे सीधे देखा नहीं जा सकता है परन्तु इसके प्रभावों के आधार पर इसको समझा जा सकता है।
स्पष्ट है कि अचेतन अनुभूतियों एवं विचारों का प्रभाव हमारे व्यवहार पर चेतन, अर्द्धचेतन अनुभूतियों एवं विचारों से अधिक होता है। इसी कारण चेतन व अर्द्धचेतन का आकार चेतन की अपेक्षा बड़ा होता है।
चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन मन का तुलनात्मक अध्ययन –
- चेतन मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध तुरन्त ज्ञान से होता है। अर्द्धचेतन मन का वह भाग है जिसका सम्बन्ध ऐसी विषय-सामग्री से होता है, जिसे व्यक्ति इच्छानुसार कभी भी याद कर सकता है।
- चेतन मन का आकार छोटा अर्द्धचेतन मन का आकार उससे बड़ा और अचेतन मन का आकार सबसे बड़ा होता है।
- चेतन मन में केवल वर्तमान अनुभव की स्मृतियाँ रहती है। परन्तु अचेतन का सम्बन्ध पिछले अनुभव से होता है और अर्द्धचेतन में ऐसे अनुभव से होता है जो पिछली अनुभूतियाँ (अनुभव) तो होती है। परन्तु आवश्यकता पड़ने पर हम उनका प्रत्यावहन कर सकते हैं।
- चेतन मन का विषय व्यक्त एवं स्पष्ट होता है। अचेतन मन में विषय पूरी तरह से दमित होते हैं और अर्द्धचेतन मन में विषय आंशिक रूप से दमित होते हैं।
4. उपाहं – जन्म के समय शरीर की संरचना में जो कुछ भी निहित होता है वह पूर्णत: उपाहं होता है। अर्थात् जन्मजात और वंशानुगत है। तात्कालिक सन्तुष्टि की इच्छाएँ और विचार ही उपाहं की प्रमुख विषय सामग्री है। वातावरण की वास्तविकता से उपाहं का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। इसका नैतिक, तार्किकता, समय, स्थान और मूल्यों आदि से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।
- सहज क्रियाएँ- ये जन्मजात और स्वयं चलने वाली होती है। जैसे पलक झपकना, छींकना आदि। सभी व्यक्ति इन क्रियाओं को करने के बाद संतोष का अनुभव करते हैं।
- प्राथमिक क्रियाएँ- तनाव को दूर करने के लिए प्राथमिक क्रियाएँ व्यक्ति के सामने उस वस्तु की प्रतिभा बनाती है। जैसे- एक प्यासे व्यक्ति के सामने पानी की प्रतिमा प्रस्तुत कर उसकी प्यास की सन्तुष्टि करना। यहाँ पानी की प्रतिमा उपस्थित करना एक प्राथमिक प्रक्रिया का कार्य है।
5. अहम – यह मन के गत्यात्मक पहलू का दूसरा भाग है। यह जन्म के समय बच्चे में मौजूद नहीं होता है बल्कि बाद में विकसित होता है। बालक की आयु बढ़ने के साथ-साथ वह वातावरण की वास्तविकता की ओर बढ़ने लगता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ वह ‘मेरा’ और ‘मुझे’ जैसे शब्दों का अर्थ समझने लगता है। धीरे-धीरे वह समझने लगता है कि कौन सी वस्तु उसकी है और कौन सी वस्तु दूसरों की। यह उपाहं का एक मुख्य भाग है। जो वाºय वातावरण के प्रभाव के कारण विकसित होता है।
- उपाहं के अनैतिक, असामाजिक और कामुक संवेगों पर रोक लगाना।
- अहमं के आवेगों को नैतिक और सामाजिक लक्ष्यों की ओर ले जाने की कोशिश करना।
- पूर्ण सामाजिक और आदर्श प्राणी बनाने के लिए प्राणी बनाने के लिए प्रयास करना।