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बेरोजगारी योग्यता के अनुसार काम का न होना। भारत में मुख्यतया तीन प्रकार के बेरोजगार हैं। एक वे, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वे पूरी तरह खाली हैं। दूसरे, जिनके पास कुछ समय काम होता है, परंतु मौसम या काम का समय समाप्त होते ही वे बेकार हो जाते हैं। ये आंशिक बेरोजगार कहलाते हैं। तीसरे वे, जिनहें योग्यता के अनुसार काम नहीं मिला। जैसे कोई एम0 ए0 करके रिक्शा चला रहा है या बी0 ए0 करके पकौड़े बेच रहा है।
बेरोजगारी के प्रकार
- मौसमी बेरोजगारी –
- चक्रीय बेरोजगारी
- सामान्य बेरोजगारी
- औधोगिक ढाँचे सम्बन्धी बेरोजगारी
1. मौसमी बेरोजगारी
2. चक्रीय बेरोजगारी
3. सामान्य बेरोजगारी
4. औधोगिक ढाँचे सम्बन्धी बेरोजगारी
बेरोजगारी के विभिन्न रूपों में चक्रीय बेरोजगारी ही विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। इस प्रकार की बेरोजगारी का प्रधान कारण विनियोजन में परिवर्तन है। साधारणतया यह देखा जाता है कि मन्दी के समय मूल्य तल में निरन्तर कमी होने से पूंजीपतियों के लाभ की मात्रा घटने लगती है जिससे उत्पादन के कार्य में शिथिलता आ जाती है। ऐसी स्थिति में कारखानों से श्रमिकों की छंटनी होने लगती है।
बेरोजगारी के कारण
अर्थशास्त्रियों ने बेरोजगारी को पूँजी के अभाव, निवेश के अभाव और अधिक उत्पादकता के संदर्भ में देखते है। कुछ अर्थशास्त्री विश्वासी करते है कि बेरोजगारी की जड़े औघौगिक समृद्धि के बाद व्यापार चक्र में आई मंदी में है। कुछ का कहने कि उद्योगों मे अव्यवस्थायें और मंदी के बारे में भविष्यवाणी करने में असमर्थता ने व्यक्तियों के बहुत बड़े अंष को बेरोजगार कर दिया है।
समाजवादियों के अनुसार पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था में बेरोजगारी प्रधानतया पूंजीवादी की एक आवश्यक विशेषता, निजी लाभ की प्रवृत्ति का परिणाम है। उनका कहना है कि जब तक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को समाप्त नहीं किया जायेगा तब तक बेरोजगारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। अपने इस कथन की पुष्टि के लिये वे 1929-32 ई0 की वैश्विक आर्थिक महामंदी का उदाहरण देते है। भयानक विश्व आर्थिक मंदी के समय अमेरीका, जर्मनी व ब्रिटेने जैसे पूँजीवादी देष मे बेरोजगारों की संख्या लाखों में हो गई थी।
बेरोजगारी दोषपूर्ण शिक्षा प्रणाली का भी परिणाम है। इस शिक्षा प्रणाली को अंग्रेजों ने 150 वर्ष पहले प्रारम्भ की थी। उनका उद्देश्य केवल अपनी बढ़ती हुई नौकरशाही के लिये क्लर्क को प्रशिक्षित करना था। जो वर्तमान काल में ‘अर्थपूर्ण’ शिक्षा प्रणाली नहीं है। यह शिक्षा प्रणाली अपर्याप्त है क्योंकि यह प्राथमिक शिक्षा को सही प्राथमिकता नहीं देती और यह उच्चतर राजकोष पर भारी कीमत के बाद जो शिक्षा प्रदान करती है वह उन मनोवृत्तियों को पैदा नहीं करती जो राष्ट्र निर्माण के लिये आवश्यक है। शिक्षा उघोग सही मायने में बहुत ही विशाल है। शिक्षा का वार्षिक बजट सुरक्षा के बजट के बाद ही आता है। शिक्षा का लाभ मध्यम और ऊँची आय के छोटे समूह तक सीमित है। और वह युवा व्यक्तियों को रोजगार दिलाने में सहायक नहीं सिद्ध हो सका है। यह विडम्बना ही है कि उनके दिमाग में पाठ्य-पुस्तक के ऐसे सिद्धांतों, जो पुराने हो चुके है और जो भारत के विकास के लिये असंगत है, को कूट-कूट कर भर देते है। परिणामतः तकनीकी रूप से सक्षम नहीं रह जाता है वे तकनीकी नौकरी के योग्य नहीं रहते हैं।
यदि माँग मे कमी होगी तो लोग बेरोजगार होते जायेंगे। इस प्रकार व्यक्तियों की आय कम होने लगेगा। इसका प्रभाव उत्पादन पर पड़ता है, और मांग न होने से उत्पादन कम करना पड़ता है। अत: यह बेरोजगारी को उत्पन्न करता रहता है। यह वर्तमान में सभी राष्ट्रों की प्रमुख समस्या है। काई भी राष्ट्र अपने नागरिकों को पूर्ण रोजगार प्रदान नहीं कर पाता है।
कुछ विचारकों के अनुसार, बेरोजगारी पूर्ण प्रतियोगिता तथा स्वतंत्र व्यापार के सिद्धांत से विचलित होने का परिणाम होता है। इसके अनुसार यदि उत्पादन स्वतंत्र रूप में हो तथा इस पर किसी भी प्रकार का सरकारी नियंत्रण न हो एवं बाजार में एकाधिकार की स्थिति नहीं रहे या सरकार द्वारा हस्तक्षेप न किया जाये तथा माँग के अनुसार ही पूर्ति की जाये व वस्तुओं का उत्पादन किया जाये तो बेरोजगारी अपने आप ही समाप्त हो जायेगी। एकाधिकार की स्थिति और हस्तक्षेप के कारण उत्पादन पर एक प्रकार का प्रतिरोध हो जाता है और विनियोग के लिये उपलब्ध साधनों में कमी आ जाती है। यदि उत्पादन के क्षेत्र में स्वतंत्रता रहे और पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति रहे तो बेकारी बहुत अंषो मे दूर हो सकती है। पर वास्तविक जीवन में एकाधिकार की स्थिति भी पाई जाती है। तथा सरकार द्वारा हस्तक्षेप भी होता है। इस कारण उत्पादन उचित नहीं हो पाता है। और बेरोजगारी में वृद्धि होती जाती है। यदि इन बातों को दूर किया जा सके और प्रतियोगिता की स्थिति लायी जा सके, तो बेरोजगारी बहुज हद तक दूर की जा सकती है।
अनेक व्यवसायी, उद्योगपति तथा अर्थशास्त्री इस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। जब पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति आ जायेगी तब श्रमिकों का पारिश्रमिक भी ऐसे बिन्दु या स्तर पर निश्चित होता है, जहां पर उत्पादक के लिये उतना पारिश्रमिक देना सम्भव हो सकेगा तथा उत्पादन प्रणाली में वृद्धि हो सकेगी।
कई विद्वानों की मान्यता है कि बेरोजगारी के लिये केवल आर्थिक कारकों को ही उत्तरदायी नहीं माना जा सकता है। सामाजिक और व्यक्तिगत कारक भी बेरोजगारी में सहायक होते है। बेरोजगारी को अनेक सामाजिक कारकों जैसे अपमानजनक सामाजिक परिस्थिति, भौगोलिक गतिहीनता, जनसंख्या का तीव्र विकास, तथा दोषपूर्ण “ौक्षणिक प्रणाली और व्यक्तिगत कारक भी जिम्मेदार होते है।
अपमानजनक सामाजिक और कार्य प्रस्थिति भी बेरोजगारी को उत्पन्न करते हैं। कुछ व्यक्ति कुछ विषेश कार्यों को करना अपनी मान-मर्यादा के प्रतिकूल मानते हैं। जैसे युवा डाक्टर, इन्जिनियर, आई0 ए0 एस0 तथा विद्यालय मे शोध व अध्यापन को गौरवपूर्ण कार्य मानते है। वही जबकि कुछ मनुष्य कलर्क, विक्रेता, ड्राइवर जैसे कार्यों को निम्न दर्जे का मानते है। ऐसे व्यक्ति इन कार्यों को करने की बजाय बेकार रहना अधिक उपयुक्त मानते हैं।
किसी एक ही क्षेत्र में श्रमिकों की अत्यधिक संख्या हो जाने पर भी बेरोजगारी बढ़ती है। क्योंकि एक ही स्थान पर अधिक श्रमिक हो जाते है और दूसरे स्थानों पर श्रमिकों की संख्या अपर्याप्त रहती है। अत: भौगोलिक गतिहीनता भी बेरोजगारी की समस्या राष्ट्र में उत्पन्न करती है।
कुछ अर्थशास्त्री मानते है कि समाजवादी व्यवस्था में बेरोजगारी की समस्या कम होती है। समाजवाद के समर्थकों के अनुसार अस्थायी बेरोजगारी जो एक उद्योग से दूसरे उद्योग में आने-जाने में पाई जाती है, इसके अतिरिक्तता सोवियत रूस में अन्य सभी प्रकार की बेरोजगारी समाप्त हो गयी है। इस प्रकार बेरोजगारी की समस्या के निवारण में समाजवाद की स्थिति पूंजीवादी व्यवस्था की अपेक्षा अच्छी होती है। समाजवाद में आर्थिक नियोजन और उसके संचालन के लिये एक केन्द्रीय नियोजन समिति का महत्वपूर्ण स्थान होता है। समाजवाद में सभी उद्योग सरकारी नियंत्रण के अधीन रहते है अत: उनकी एक नीति के अनुसार चलना पड़ता है। साथ ही, इसमें इनके कार्यो मे समान्जस्य स्थापित करना पूंजीवादी से अपेक्षाकृत अधिक सुगम होता है।