अनुक्रम
प्रकृति पाश्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो प्रकृति को मूल तत्व मानती है, इसी को इस ब्रह्माण्ड का कर्ता और उपादान कारण मानती है। यथार्थवाद की भाँति प्रकृतिवाद भी दार्शनिक चिंतन का प्रारंभिक रूप है। इस संदर्भ में हम उन दार्शनिकों का उल्लेख कर सकते हैं जिनकी चर्चा हमने यथार्थवाद के संदर्भ में की है।
इनके बाद एनेक्सिमेनीज 590-525 ई. पू. ने इस सृष्टि की उत्पत्ति वायु से सिद्ध करने का प्रयास किया, और चूंकि वायु भी प्रकृति की ही एक वस्तु है इसलिए उनकी विचारधारा को भी यथार्थवाद और प्रकृतिवाद का प्रारंभिक रूप माना जा सकता है।
काॅमटे बेकन हाॅब्स, डारविन और लेमार्वफ इसके पूर्व विचारक माने जाते हैं। इन्होंने 17वीं शताब्दी तक प्रकृतिवाद का पौधा रोप दिया था। रूसो ईश्वरवादी थे परंतु वे प्रकृति को शु( और कल्याणकारी मानते थे। उन्होंने स्पष्ट किया कि मनुष्य की अपनी प्रकृति शुद्ध एवं कल्याणकारी है परंतु दूषित समाज में रहकर वह चालाक बन जाता है। उनके दूसरे विचार ने प्रकृतिवादी दर्शन के विकास को बड़ा बढ़ावा दिया। शिक्षा के क्षेत्र में तो रूसो के विचार पूर्णरूपेण प्रकृतिवादी हैं।
किसी भी दार्शनिक चिंतनधारा के स्वरूप को जानने के लिए उसकी तत्व मीमांसा ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को जानना आवश्यक होता है। तत्व मीमांसा तो ऐसा तत्व है जिसके आधार पर एक दार्शनिक चिंतनधारा को दूसरी से अलग किया जाता है। यूँ पाश्चात्य प्रकृतिवादियों की प्रवृत्ति तत्व मीमांसा की ओर कम ही रही है परंतु इन्होंने सृष्टि की रचना और आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, स्वर्ग-नर्वफ आदि के विषय में जो भी विचार व्यक्त किए हैं उनसे प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा विकसित की जा सकती है।
प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा
इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डार्विन ने विकास सिद्धत का प्रतिपादन किया। उन्होंने बताया कि प्रारंभ में साधारण जातियों का निर्माण हुआ, उसके बाद साधारण जातियों से पौधे, पौधें से निम्न वर्ग के जीव-जन्तु, निम्न वर्ग के जीव-जन्तुओं से पशु और पशुओं से मानव का निर्माण हुआ। इनकी यह विचारधारा जीव विज्ञानवादी प्रकृतिवाद कही जाती है। आत्मा-परमात्मा के विषय में सभी प्रकृतिवादी एकमत है। आत्मा को ये एक क्रियाशील तत्व के रूप में स्वीकार करते हैं और परमात्मा का इनकी दृष्टि से कोई अस्तित्व नहीं है। इनकी दृष्टि से तो प्रकृति ही अंतिम सत्य है।
प्रकृतिवाद की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा
प्रकृतिवादी प्रकृति के ज्ञान को वास्तविक ज्ञान मानते हैं। प्रश्न उठता है कि प्रकृति क्या है। सामान्य प्रयोग में प्रकृति से अर्थ उस रचना से लिया जाता है जो स्वाभाविक रूप से विकसित होती है और जिसके निर्माण में मनुष्य का कोई हाथ नहीं होता जैसे-पृथ्वी, समुद्र, पहाड़, नदियाँ आकाश, सूर्य, चंद्रमा, तारे, बादल, वर्षा, वनस्पति और जीव-जन्तु, परंतु दार्शनिक दृष्टि से प्रकृति संसार का वह मूल तत्व है जो पहले से था, आज भी है और भविष्य में भी रहेगा। इसमें वे क्रियाएँ भी निहित हैं जो निश्चित नियमों के अनुसार होती हैं, जैसे पहले होती थीं वैसे आज भी होती हैं और वैसे ही भविष्य में भी होती रहेंगी। उदाहरण के लिए जल, बर्फ और वाष्प, ये प्राकृतिक पदार्थ हैं, इनकी रचना समान तत्वों (हाइड्रोजन और आक्सीजन) से हुई है। हम जानते हैं कि बर्फ से जल, जल से वाष्प, वाष्प से जल और जल से बर्पफ, ये सब निश्चित नियमों के अनुसार बनते-बिगड़ते हैं।
प्रकृतिवाद की मूल्य एवं आचार मीमांसा
प्रकृतिवाद प्राकृतिक पदार्थों और क्रियाओं को ही सत्य मानता है। प्रकृतिवादियों का स्पष्टीकरण है कि मनुष्य की भी अपनी एक प्रकृति है और उसकी यह प्रकृति अपने में एकदम शुद्ध है, उसके अनुकूल आचरण करने में मनुष्य को सुख मिलता है और प्रतिकूल आचरण करने में दुःख मिलता है। अतः मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुकूल ही आचरण करना चाहिए। ये मनुष्य को किसी प्रकार के सामाजिक नियमों और आध्यात्मिक बंधनों में बाँधकर नहीं रखना चाहते, ये उसे अपनी प्रकृति के अनुवूफल आचरण करने की स्वतंत्रता देते हैं। इनका तर्क है कि जिन कार्यों के करने में मनुष्य को सुख मिलेगा, उन कार्यों को वह करेगा और जिन कार्यों को करने से उसे दुःख का अनुभव होगा, उन्हें वह स्वयं छोड़ देगा। इस प्रकार प्रकृतिवादी केवल प्राकृतिक नैतिकता के हामी हैं।
प्रकृतिवाद की परिभाषा
प्रकृतिवाद के अनेक रूप हैं परंतु मूल रूप में उनमें बड़ी समानता है। उस समानता के आधार पर जेम्सवार्ड ने उसको निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जो प्रकृति को ईश्वर से अलग करती है और आत्मा को पदार्थ के अधीन करती है और अपरिवर्तनशील नियमों को सर्वोच्च मानती है।
परंतु इस परिभाषा से प्रकृतिवाद के वास्तविक स्वरूप का बोध नहीं होता। प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्क मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा की र्दृिष्ट से उसे निम्नलिखित रूप में परिभाषित करना चाहिए- प्रकृतिवाद पाश्चात्य दर्शन की वह विचारधारा है जो इस ब्रह्माण्ड को प्रकृतिजन्य मानती है और यह मानती है कि यह भौतिक संसार ही सत्य है और इसके अतिरिक्त कोई आध्यात्मिक संसार नहीं है। यह ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करती और आत्मा को पदार्थजन्य चेतन तत्व मानती है और यह प्रतिपादन करती है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य सुखपूर्वक जीना है, जिसे प्राकृतिक जीवन जीने अर्थात् प्रकृति के अनुकूल जीने द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
प्रथम अवस्था में प्रकृति से पदार्थ जो प्रकृति में पाये जाते हैं सत्य एवं यथार्थ ठहराये गये, उनका अस्तित्व अपने आप में और अपने ही द्वारा पूर्ण माना गया। ल्यूसीपस एवं डेमोक्राइट्स के अनुसार भौतिक पदार्थ अणु में गति हेाने से प्राप्त हेाते हैं। मन और आत्मा गतिशील सुधर अणुओं से बने हैं। एपीक्यूरस से स्पण्ट किया कि इन अणुओं से इन्द्रियों की सहायता द्वारा मन का ज्ञान होता है। लेकुसियस ने विकास के उपर जोर दिया। अणुओं के गतिशील होने पर पृथ्वी एवं अन्य ग्रहों की उत्पत्ति हुयी। गतिशीलता से मनुष्य को काल का अनुभव हुआ।
भारत में कुछ चिन्तकों की विचारधारा में प्रकृतिवाद दिखायी देता है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के दर्शन में प्रकृतिवाद की विचारधारा स्पष्ट है। दयानन्द सरस्वती जैसे आदर्शवादी विचारकों ने भी गुरुकुल की स्थापना प्रकृति की गोद में की।
थामस और लैगं – ‘‘प्रकृतिवाद आदर्शवाद के विपरीत मन को पदार्थ के अधनी मानता है और यह विश्वास करता है कि अन्तिम वास्तविकता- भौतिक है, अध्यात्मिक नहीं।’’
पैरी-’’प्रकृतिवाद विज्ञान नहीं है वरन् विज्ञान के बारे में दावा है। अत्मिाक स्पष्ट रूप से यह इस बात का दावा है कि वैज्ञानिक ज्ञान अन्तिम है और विज्ञान से बाहर या दार्शनिक ज्ञान का को स्थान नहीं है।’’
जेम्स वार्ड -’’प्रकृतिवाद वह विचारधारा है जो प्रकृति को इर्ण् वर से अलग करती है और आत्मा को पदार्थ अथवा भौतिक तत्व के अधीन मानती है, एवं अपरिवर्तनशील नियमों को सर्वोच्च मानती है।’’
ज्वाइस महोदय-’’वह विचारधारा है जिसकी पध्रान विशेषता है प्रकृति तथा मनुष्य के दार्शनिक चिन्तन जो कुछ आध्यात्मिक है अथवा वास्तव में जो कुछ अनुभवातीत है उसे अलग हटा देना है।’’
प्रकृतिवाद की संकल्पना
प्रकृतिवाद तत्व मीमांसा का वह रूप है, जो प्रकृति को पूर्ण वास्तविकता मानता है। वह अलौकिक और पारलौकिक को नहीं मानता है जो बातें प्राकृतिक नियम से स्वतंत्र जान पड़ती है- जैसे मानव जीवन या कल्पना की उपज वे भी वास्तव में प्रकृति की योजना में आती है। प्रत्येक वस्तु प्रकृति से उत्पन्न होती है और उसी में विलीन हो जाती है।
प्रकृतिवाद दर्शन का वह सम्प्रदाय है, जो चरम सत्ता को प्रकृति में निहित मानता है। दर्शन शास्त्र में प्रकृति का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। एक ओर प्रकृति का अर्थ भौतिक जगत हो सकता है जिसे मनुष्य इन्द्रियों तथा मस्तिष्क की सहायता से अनुभव करता है, दूसरी ओर इसकी जीव जगत के रूप में व्याख्या की जा सकती है, और तीसरे अर्थों में देशकाल का समग्र प्रपंच प्रकृति के अन्तर्गत समाविण्ट हो जाता है।
- परमाणुवादी प्रकृतिवाद
- शक्तिवाद अथवा वैज्ञानिक प्रकृतिवाद
- जैविक प्रकृतिवाद
- यन्त्रवादी प्रकृतिवाद
- ऐतिहासिक तथा द्वनणात्मक भौतिकवादी प्रकृतिवाद
- मानवतावादी प्रकृतिवादी
- रूमानी प्रकृतिवादी
1. परमाणु प्रकृतिवाद
यह सबसे पा्रचीन भाैितकवादी दर्शन हे जिसके मतानसु ार जगत की अंतिम इका परमाणु है, अर्थात् चिरन्तन सत्ता भौतिक परमाणु में निहित है। परमाणुवाद के मतानुसार यह दृश्य जगत परमाणुओं के विविध संयोगों का प्रतिफल है। परमाणुओं का यह संयोग द्कि तथा गति के माध्यमों द्वारा होता है।
2. शक्तिवाद
परमाणुवाद की असफलता ने शक्तिवाद को जन्म दिया परमाणुवाद में केवल दिक् और काल को ही तत्व थे, परन्तु नये शोधों ने एक और तत्व को जन्म दिया और वह था गति। नये शोधो ने स्पष्ट किया कि परमाणु गतिशील होते हैं और उनके इलेक्ट्रान और प्रोटान शक्ति कण होते हैं। अत: जगत का अन्तिम तत्व शक्ति को माना गया है।
3. यन्त्रवाद
इस सम्पद्राय के अनुसार सृष्टि यन्त्रवत् है भाैितक जगत, प्राणी जगत तथा मानव जगत सभी की व्याख्या भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र तथा अन्य भौतिक विज्ञानों के माध्यम से की जा सकती है। यन्त्रवाद के अनुसार मन तथा उसकी सभी क्रियायें व्यवहार के प्रकार मात्र हैं, जिन्हें स्नायुसंस्थान, ग्रन्थिसंस्थान तथा मांसपेशीसंस्थान की सहायता से समझा जा सकता है। यन्त्रवादी भी शक्तिवादी के समान ही नियतिवाद में विश्वास करता है।
4. जैविक प्रकृतिवाद
इस सम्पद्राय का उदग् म डाविर्न के क्रम विकास सिद्धान्तों से हुआ है तथा वास्तव में किसी सम्प्रदाय को सच्चे अर्थों में प्रकृतिवाद संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है तो वह जैविक प्रकृतिवाद ही हैं इनके अनुसार मानव का विकास जीवों के विषय में सबसे अंतिम अवस्था में है। मस्तिण्क के फलस्वरूप वह विज्ञान को संचित रख सकता है, नये विचार उत्पन्न कर सकता है। पर अन्य प्राणियों की तरह वह भी प्रकृति के हाथों का खिलौना मात्र है। उसकी नियति तथा विकास की सम्भावनायें वंशक्रम तथा परिवेण पर निर्भर करती है। मनुष्य की स्वतंत्रता का अधिकार भी सीमित है।
5. द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के प्रमुख व्याख्याकार माक्र्स तथा ऐंजल्स है। यह सम्प्रदाय भी विज्ञान को सर्वोच्च महत्व प्रदान करता है, परन्तु इसका आग्रह स§ण्टि संरचना से हटकर आर्थिक संरचना पर आ जाता है। इसके अनुसार समाज के आर्थिक संगठन का आधार क्रय है। द्वव्य जो आर्थिक संरचना में प्रयुक्त होता है, नैतिक, धार्मिक तथा दार्शनिक विचारों को जन्म देता है।
6. रूमानी प्रकृतिवाद
इस सम्प्रदाय के व्याख्याकार रूसों, नील एवं टैगोर है। इनकी रूचि स§ण्टि की संरचना में न होकर सृष्टि की आàळादकारी प्रकृति तथा गहन मानव प्रकृति से है। इस सम्प्रदाय को प्रकृतिवादी केवल इन अर्थों में कहा जा सकता है कि वह सामाजिक कृत्रिमता का विरोध करते हैं, तथा मनुष्य के प्रक§त जीवन को आदर्श मानते हैं। रूसों प्रकृति के निर्माता की कल्पना भी करता है। प्रकृति से परे किसी परमात्मा को अस्वीकार नहीं किया जाता अपितु प्रकृति को ण्वर की कृति माना जाता है।
7. वैज्ञानिक मानवतावद
इस सम्पद्राय के अनुसार मनषुय अपनी बुद्धि के प्रयोग द्वारा लोकतांत्रिक शासन की संस्थाओं को संचालित करते हुये बिना, किसी पराशक्ति की मदद से एक ऐसे तर्कशक्ति परक सभ्यता का स§जन कर सकते हैं जिसमें प्रत्येक मनुष्य सुरक्षा की अनुभूति कर सके और स्वयं में निहित सामान्य मानवीय क्षमताओं और स§जनात्मक शक्तियों के अनुसार विकास कर सके।
प्रकृतिवाद के मूल सिद्धांत
प्रकृतिवाद के दार्शनिक दृष्टिकोण के बारे में पूर्व में जानकारी प्राप्त कर चुके है। अब प्रकृतिवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान मीमांसा एवं आचार मीमांसा को हम सिद्धान्तों के रूप इस प्रकार से देख सकते हैं-