पर्यावरण शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है परि+आवरण इसमें परि का अर्थ होता है चारों तरफ से’ एवं आवरण का अर्थ है ‘ढके हुए’। अंग्रेजी में पर्यावरण को Environment कहते हैं इस शब्द की उत्पकि ‘Envirnerl’ से हुई और इसका अर्थ है-Neighbonrhood अर्थात आस-पड़ोस। पर्यावरण का शाब्दिक अर्थ है हमारे आस-पास जो कुछ भी उपस्थित है जैसे जल-थल, वायु तथा समस्त प्राकृतिक दशाएं, पर्वत, मैदान व अन्य जीवजन्तु, घर, मोहल्ला, गाँव, शहर, विद्यालय महाविद्यालय, पुस्तकालय आदि जो हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं।
पर्यावरण की परिभाषा
विद्वानों द्वारा पर्यावरण की परिभाषा इस प्रकार है –
डगलस व रोमन हॉलेण्ड के अनुसार ‘‘पर्यावरण उन सभी बाहरी शक्तियों व प्रभावों का वर्णन करता है जो प्राणी जगत के जीवन स्वभाव व्यवहार विकास एवं परिपक्वता को प्रभावित करता है।’’
जे.एस. रॉस के अनुसार- “ पर्यावरण या वातावरण वह वाह्य शक्ति है जो हमें प्रभावित करती हैं।”
हर्स, कोकवट्स के अनुसार- “ पर्यावरण इन सभी बाहरी दशाओं और प्रभावों का योग है तो प्राणी के जीवन तथा विकास पर प्रभाव डालता है।”
डॉ डेविज के अनुसार- “ मनुष्य के सम्बन्ध में पर्यावरण से अभिप्राय भूतल पर मानव के चारों ओर फैले उन सभी भौतिक स्वरूपों से है। जिसके वह निरन्तर प्रभावित होते रहते हैं। डडले स्टेम्प के अनुसार- “ पर्यावरण प्रभावों का ऐसा योग है जो किसी जीव के विकास एंव प्रकृति को परिस्थितियों के सम्पूर्ण तथ्य आपसी सामंजस्य से वातावरण बनाते हैं।”
एनसाइक्लोपीडिया आफ एक्जूकेशन रिसर्च ( मिट्जेल 1682) पर्यावरण के लिए शिक्षा वास्तव में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा पर्यावरण संबंधित असली और मूल मुद्दों की जानकारी प्राप्त होती है । जिसके द्वारा पर्यावरण संबंधी असली और मूल मुद्दो की जानकारी प्राप्त होती हैं।
इस प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत इस बात की है कि बच्चे इन समस्याओं के प्रति जागरूक बने और उनके संबंध में गहराई से सोच विचार करें और उन्हे हल करने में जुट जाये।”
उपर्युक्त परिभाषाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है कि जो कुछ भी हमारे ओर विद्यमान है तथा हमारी रहन-सहन की दशादों एंव मानसिक क्षमताओं को प्रभावित करता है पर्यावरण कहलाता है।
पर्यावरण के घटक
सौरमंडल का पृथ्वी ही एक ऐसा ग्रह है जिस पर कि मानव जीवन वनस्पति जीवन और पशु जीवन विकसित हो सका। पृथ्वी पर मानव सभ्यता और संस्कृति की प्रगति हुई। पृथ्वी को भूमण्डल भी कहते है इसके चार मण्डल है:-
1. स्थल मण्डल – पृथ्वी के सबसे ऊपर की ओर ठोस परत पाई जाती है यह अनेक प्रकार की चट्टानों मिट्टी तथा ठोस पदार्थों से मिलकर बनी होती है। इसे ही स्थल मंडल कहते है। स्थलमंडल में भूमि भाग व समुद्री तल दोनों की आते हैं। स्थल मंडल सम्पूर्ण पृथ्वी का केवल 3/10 भाग है शेष 7/10 भाग समुद्र ने ले लिया है।
2. जल मण्डल – पृथ्वी के स्थल मण्डल के नीचे के भागों में स्थित जल से भरे हुए भाग को जल मण्डल कहते हैं जैसे झील, सागर व महासागर आदि। 97.3% महासागरों और सागरों में है। शेष 2.7% हिमनदो और बर्फ के पहाड़ों, मीठे जल की झीलों नदियों और भूमिगत जल के रूप में पाया जाता है।
3. वायुमण्डल – भूमण्डल का तीसरा मण्डल वायुमण्डल है। स्थल मण्डल व जल मण्डल के चारों और गैस जैसे पदार्थों का एक आवरण है। इसमें नाइट्रोजन, आक्सीजन, कार्बनडाइआक्साइड व अन्य गैसें, मिट्टी के कण, पानी की भाप एवं अन्य अनेक पदार्थ, मिले हुए हैं। इन सभी पदार्थों के मिश्रण से बने आवरण को वायु मण्डल कहते है।
वायु मण्डल पृथ्वी की रक्षा करने वाला रोधी आवरण है। यह सूर्य के गहन प्रकाश व ताप को नरम करता है। इसकी ओजोन (O3) परत सूर्य से आने वाली अत्यधिक हानिकारक पराबैंगनी किरणों केा सोख लेती है। इस प्रकार यह जीवों की विनाश होने से रक्षा करती है।
4. जैव मण्डल – जैव मण्डल का विशिष्ट लक्षण यह है कि वह जीवन को आधार प्रदान करती है। यह एक विकासात्मक प्रणाली है। इसमें अनेक प्रकार के जैविक व अजैविक घटकों का संतुलन बहुत पहले से क्रियाशील रहा है। जीवन की इस निरन्तरता के मूल में अन्योन्याश्रित सम्बन्धों का एक सुघटित तंत्र काम करता है। वायु जल मनुष्य, जीव जन्तु, वनस्पति, लवक मिट्टी एवं जीवाणु ये सभी जीवन चरण प्रणाली में अदृश्य रूप से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और यह व्यवस्था पर्यावरण कहलाती है। सौर ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है।
ये जैवमण्डल को सजीव बनाए रखती है। जैव मण्डल को मिलने वाली कुल ऊर्जा का 99.98% भाग इसी से प्राप्त होता है।
पर्यावरण के प्रकार
पर्यावरण के विभिन्न-विभिन्न प्रकार दिए। वैसे मुख्य रूप से पर्यावरण तीन प्रकार के होते है ।
1. भौतिक पर्यावरण या प्राकृतिक पर्यावरण – इसके अंतर्गत वायु, जल व खाद्य पदार्थ भूमि, ध्वनि, उष्मा प्रकाश, नदी, पर्वत, खनिज पदार्थ, विकिरण आदि पदार्थ शामिल हैं। मनुष्य इनसे लगातार सम्पर्क में रहता है इसलिए ये मनुष्य के स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव डालते हैं।
2. जैविक पर्यावरण – जैविक पर्यावरण बहुत बड़ा अवयव है जो कि मनुष्य के इर्द-गिर्द रहता है। यहाँ तक कि एक मनुष्य के लिए दूसरा मनुष्य भी पर्यावरण का एक भाग है। जीवजन्तु व वनस्पति इस घटक के प्रमुख सहयोगी है।
3. मनो-सामाजिक पर्यावरण – मनो-सामाजिक मनुष्य के सामाजिक संबंधों से प्रगट होता है। इसके अंतर्गत सामाजिक आर्थिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों में मनुष्य के व्यक्तिगत के विकास का अध्ययन करते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसे परिवार में माता-पिता, भाई-बहन, पत्नि तथा समाज में पड़ौसियों के साथ संबंध बना कर रहना पड़ता है। उसे समुदाय प्रदेश एवं राष्ट्र से भी सम्बन्ध बना कर रहना पड़ता है।
मनुष्य सामाजिक व सांस्कृतिक पर्यावरण का उत्पाद है जिसके द्वारा मनुष्य का आकार तैयार होता है। रहन-सहन, खान-पान, पहनावा-औढ़ावा, बोल-चाल या भाषा शैली व सामाजिक मान्यताएँ मानव व्यक्तिगत का ढ़ाँचा बनाती है।
पर्यावरण के हानिकारक तत्व
1. हानिकारक गैसें – जैसे-जैसे जनसंख्या बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वन काटकर औद्योगिक धंधों का विस्तार करता जा रहा है। कल-कारखानों से जहरीली गैसों का उत्सर्जन होता है जिससे हमारे सम्पूर्ण विश्व का पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है। प्रदूषण से विभिन्न प्रकार की बीमारियाँ फैलती जा रही हैं। नाक, साँस लेने में परेशानी, पीलिया होना, सिरदर्द, दृष्टि दोष, क्षयरोग व कैंसर आदि रोग जहरीली गैसों के कारण होते है।
2. जल प्रदूषण – जल प्रदूषण का प्रभाव विश्व के समस्त देशों को प्रभावित करता है। समुद्री प्रदूषण को खनिज तेलों को ले जाने वाले जहाजों के दुर्घटनाग्रस्त होने व नदियों के प्रदूषित जल का समुद्र में मिलना आदि बढ़ावा देते हैं। समुद्री जल के प्रदूषण से जीव-जन्तु व मनुष्य के जीवन पर दुष्प्रभाव पड़ते हैं और संक्रामक रोग हो जाते हैं।
3. विकरणीय प्रदूषण – विकरणीय प्रदूषण मानवीय स्वास्थ्य एवं उसके विकास के लिए हानिकारक होता है। इसका प्रभाव मानव शरीर के आंतरिक व बाहरी भागों पर पड़ता है। इसलिए रेडियोधर्मी विकिरण से बचना चाहिए।
पर्यावरणीय समस्याएं
वे सभी कार्य, कारण अथवा स्थितियाँ जिनसे कृतिदत्त पर्यावरण क्षतिग्रस्त, नष्ट, विकृत अथवा विलोवित होता हैं। ये पर्यावरणीय समस्यायें कहलाती हैं। इनसे मनुष्य के जीवन को खतरा, आर्थिक हानि, जीवन की गुणवत्ता का हास और अनेक संकट उत्पन्न होते हैं और सामान्यतः जिनका निदान संभव नहीं होता। यद्यपि वैज्ञानिक शोध ने इस दिषा में काफी तरक्की कि है, और विभिन्न पर्यावरणीय संकटों से बचने के लिये विभिन्न उपाय सुझाये हैं। तथापि विभिन्न संकटों से बचना एक अत्यधिक जटिल एवं कठिन कार्य हैं। इन समस्याओं को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया है।
- प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्याएं
- मानवकृत पर्यावरणीय समस्याएं
1. प्राकृतिक पर्यावरणीय समस्याएं – प्राकृतिक पर्यावरण की समस्याये पर्यावरण की वे समस्या हैं। जिनसे मानव जीवन की हानि तथा सम्पति की क्षति होती हैं। इन्हें प्रकृतिदत्त अनहोनी अथवा ईश्वरीय प्रकोप भी कहा जाता हैं इन संकटों में बाढ़, सूखा, भूकम्प चक्रवात, बिजली गिरना, कुहय, बर्फ गिरना वाला पड़ना, ओलावृष्टि, तूफान, गर्म शर्द हवाएँ आदि शामिल है।
2. मानवकृत पर्यावरणीय समस्याएं – इस श्रेणी में इन बाधाओं को रखा जाता है जो स्पष्ट किसी न किसी प्रकार से मनुष्य के क्रियाकलापों के कारण उत्पन्न होती हैं। और पर्यावरण को विकृत करने के लिये उत्तरदायी है। बढ़ती हुई जनसंख्या को खाद्यान्न को पूर्ति के लिये विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाषकों का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। इससे पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है और भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है। इसी प्रकार यद्यपि जल विश्व में असीमित मात्रा में उपलब्ध था किन्तु अधिक उपयोग तथा ठीक ढंग से उपयोग न करने के कारण अनेक देशों में जल की पूर्ति एक जटिल समस्या बन गई हैं।
1. वायु प्रदूषण – वायु की मूल संरचना को ही मानव क्रियाकलापों ने छिन्न-भिन्न कर दिया हैं। वनों की कटाई, जीवाष्म ईंधन का अधिक उपयोग, औद्योगीकरण, क्लोरोफ्लोरों, कार्बन की मात्रा की वायुमंडल में निरंतर वृद्धि आदि वायु प्रदूषण से संबंधित निम्न समस्याओं को जन्म दिया हैं। (अ) ग्रीन-हाउस प्रभाव (ब) तेजाबी वर्षा (स) ओजोन पर्त का क्षय (द) स्मोग घटनाएँ
2. जल प्रदूषण :- अनेक शहरों एवं गाँवों में पीने का शुद्ध जल उपलब्ध नहीं हैं। औद्योगिक जल-स्त्राव, घरेलू मज-जल वर्षा के जल के साथ आने वाली गन्दगी भू-जल का अति उपयोग आदि अनेक ऐसे कारण है जिनमें पीने के पानी के स्रोत तथा भू-गर्भ जल भण्डार प्रदूषित हुए है। दूषित जल से मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
3. भूमि या मिट्टी प्रदूषण :- कृषि में उर्वरकों कीटनाषकों एवं अन्य रासायनिक तत्वों ने भूमि को प्रदूषित किया है। भूमि प्रदूषण से जल-प्रदूषण हुआ है। भू-जल का सिंचाई में उपयोग से जल-स्तर क्रमषः गिर रहा हैं। वृक्षों की कटाई ने भू-क्षरण को जन्म दिया है और मरूस्थलों का विस्तार किया है।
4. ध्वनि प्रदूषण :– यातायात के साधनों औद्योगिकरण, भारी भीड़ मनोरंजन के साधनों आदि ने ध्वनि प्रदूषण को बढ़ाया है। इसका भी मानव जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।
5. प्राकृतिक संसाधनों का दोहन:- मनुष्य ने अपने उपयोग हेतु पुर्नउत्पादनीय एवं गैरे पुर्नउत्पादनीय संसाधनों का बहुत अधिक दोहन किया है। औद्योगिकरण के कारण अनेक संसाधनों का अत्यधिक उपयोग हुआ है। कोयला, खनिज, तेल, गैस एवं अनेक खनिजों की उपलब्धता कहाँ से होगी। यह एक जटिल समस्या बन गई हैं।
स्पष्ट है कि अनेक मानवीय क्रियाओं ने प्राकृतिक संतुलन को बाधित किया है। और ऐसी समस्याएँ पैदा कर दी है, जिनसे पर्यावरण दिन-प्रतिदिन प्रदूषित होता जा रहा है।