अनुक्रम
पंडित मदन मोहन मालवीय को पाँच वर्ष की आयु में विद्यारंभ कराया गया। उन्हें प्राच्य और पाश्चात्य दोनों ही तरह की शिक्षाओं का गहराई से अनुशीलन करने का अवसर मिला। पहाड़ा एवं सामान्य गणित पढ़ने वे एक महाजनी पाठशाला में जाते थे। उसके उपरांत उन्होंने धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला में संस्कृत, धर्म और शारीरिक शिक्षा पाई। फिर वे धर्म प्रविर्द्धनी पाठशाला के विद्याथ्री बने। इस प्रकार उन्हें परम्परागत भारतीय ज्ञान, धर्म, दर्शन का अच्छा अभ्यास हो गया।
पंडित मदन मोहन मालवीय के शैक्षिक विचार
महामना सही अर्थों में शिक्षा को सर्वाधिक प्रभावशाली शक्ति मानते थे। वे भारत के सांस्कृतिक-सामाजिक और राजनीतिक-आर्थिक पराभव का कारण भारतीयों की निरक्षरता एवं अशिक्षा को मानते थे। उनका कहना था कि ‘‘यदि देश का अभ्युदय चाहते हो तो सब प्रकार से यत्न करो कि देश में कोई बालक या बालिका निरक्षर न रहे।’’ उनके अनुसार देश की दुर्दशा को समाप्त करने का एकमात्र साधन साक्षरता एवं शिक्षा है। अत: उन्होंने अपने जीवन के अधिक महत्वपूर्ण भाग को शिक्षा में लगाया।
महामना शिक्षा को मानव-जीवन के सर्वागींण विकास का साधन मानते थे। उनकी दृष्टि में शिक्षा वह है जो विद्याथ्री की शारीरिक, बौद्धिक तथा भावात्मक शक्तियों को परिपुष्ट और विकसित कर सके तथा भविष्य में किसी व्यवसाय द्वारा ईमानदारी से जीवन-निर्वाह करने के योग्य बना सके। महामना शिक्षा के द्वारा युवा वर्ग को कलात्मक और सौन्दर्यपूर्ण जीवन के लिए तैयार करना चाहते थे। वे शिक्षा को राष्ट्रप्रेम जागृत करने वाली शक्ति बनाना चाहते थे ताकि नई पीढ़ी निस्वार्थ भाव से समाज एवं राष्ट्र की सेवा कर सके।
पंडित मदन मोहन मालवीय शिक्षा को मानव मात्र का अधिकार मानते थे तथा इसका समुचित प्रबन्ध करना राज्य का कर्त्तव्य मानते थे। वे शिक्षा की एक ऐसी राष्ट्रीय प्रणाली विकसित होते देखना चाहते थे जिसमें प्रारम्भिक और माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा नि:शुल्क हो। वे कहते थे ‘‘सब स्तर पर शिक्षा का ऐसा प्रबन्ध हो कि कोई बच्चा निर्धन होने के कारण उससे वंचित न रह पाये।’’ उनका मानना था कि शिक्षा के व्यापक विस्तार से सामाजिक कुरीतियों और आर्थिक विषमताओं को दूर किया जा सकता है।
महामना पुरूषों की शिक्षा से अधिक महत्वपूर्ण स्त्रियों की शिक्षा को मानते थे। इसका कारण यह है कि वे ही देश की भावी संतान की मातांए हैं। उनकी इच्छा थी कि राष्ट्रीय कार्यक्रम के आधार पर स्त्रियों को इस तरह शिक्षित किया जाये कि उनमें प्राचीन तथा आधुनिक संस्कृतियों के बेहतर पक्षों का समन्वय हो। वे नारियों को इतना सबल बनाना चाहते थे कि वे भारत के पुनर्निमाण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकें।
शिक्षा का उद्देश्य
महामना को शिक्षा में वह शक्ति दिखती थी जो व्यक्ति, समाज और राष्ट्र तीनों के विकास के लिए आवश्यक है। इसके लिए उन्होंने शिक्षा के व्यापक उद्देश्य निर्धारित किए।
पाठ्यक्रम
पाठ्यक्रम का निर्माण शैक्षिक आदर्शों और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है। पाठ्यक्रम से ही इस तथ्य का निर्धारण होता है कि किस स्तर पर किस चीज की शिक्षा देनी है। पाठ्यक्रम कोई निर्धारित वस्तु नही है जो हर समय हर स्थान पर एक जैसी रहे। हर समाज और देश अपनी आवश्यकतानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित करता है। अर्थात् देश, काल और परिस्थिति के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्माण होता है और नई परिस्थितियों में पाठ्यक्रम में संशोधन और परिमार्जन होता रहता है।
महामना ने यह महसूस किया कि संकुचित पाठ्यक्रम द्वारा राष्ट्रीय उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अत: उन्होंने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अत्यन्त ही लचीले पाठ्यक्रम को अपनाया। महामना ने अपने विश्वविद्यालय में प्राचीन से लेकर अर्वाचीन- सभी उपयोगी विषयों को स्थान देने का प्रयास किया। महामना देश के विकास हेतु विज्ञान की शिक्षा आवश्यक मानते थे, अत: उन्होंने आधुनिक विज्ञान की शिक्षा पर जोर दिया।
व्यक्ति आत्मनिर्भर बने अत: बुनाई, रंगाई, धुलाई, धातुकर्म, काष्ठ-कला, मीनाकारी आदि की शिक्षा पर मालवीय ने बल दिया। भारत एक कृषि प्रधान देश है अत: महामना ने इस ओर विशेष ध्यान देते हुए कृषि के आधुनिकतम उपकरणों के प्रयोग की शिक्षा की उच्चतम व्यवस्था की। वे चाहते थे कि माध् यमिक स्तर पर कृषि सम्बन्धी शिक्षा दी जाये तथा उच्च स्तर पर भी इस विषय में अनुसन्धान किये जाये।
इसके साथ-साथ महामना ने चिकित्सा विज्ञान, आयुर्वेद, नक्षत्र विज्ञान, भाषा आदि सभी की शिक्षा पर जोर दिया जिससे विद्याथ्री अपनी रूचि के अनुसार शिक्षा प्राप्त कर सके। महामना ने वस्तुत: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय को प्राचीन एवं नवीन ज्ञान का संगम स्थल बना दिया। प्राचीन भारतीय आयुर्वेद के साथ आधुनिक शल्यशास्त्र का मेल, आयुर्वेदिक औषधियों का वैज्ञानिक परीक्षण तथा उन पर अनुसन्धान, विभिन्न विषयों पर प्राच्य और पाश्चात्य ज्ञान का तुलनात्मक और समन्वयात्मक अध्ययन, प्राचीन भारतीय संस्कृति, दर्शनशास्त्र, साहित्य और इतिहास के गम्भीर अध्ययन-अध्यापन, वेद-वेदांग तथा संस्कृत साहित्य की शिक्षा के अतिरिक्त आधुनिक ज्ञान-विज्ञान, धातु विज्ञान, खनन कार्य, इंजीनियरिंग तथा कृषि विज्ञान का अध्ययन इसकी विशेषता थी।
पंडित मदन मोहन मालवीय चाहते थे कि विद्यालय में संगीत, काव्य, नाट्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि ललितकलाओं की शिक्षा का प्रबन्ध हो। उनके विचार में कला विहीन जीवन शुष्क और नीरस होता है, जबकि ललितकलाओं का ज्ञान उनको परखने की क्षमता तथा शुद्ध भावनाओं के साथ उनके प्रति अभिरूचि और उनका सम्यक अभ्यास जीवन को सरस और आनन्दमय बनाता है।
महामना के अनुसार धार्मिक शिक्षा ही चरित्र निर्माण का आधार है। अत: वे शिक्षा में धर्म को उचित स्थान देना चाहते थे। पर धर्म का उनका संप्रत्यय अत्यन्त ही उदार था। वे धार्मिक असहिष्णुता के विरूद्ध थे। जिस धर्म की शिक्षा वे देना चाहते थे उसके संदर्भ में वे कहते हैं ‘‘धर्म यह है कि प्राणी को प्राणी के साथ सहानुभूति हो, एक-दूसरे को अच्छी अवस्था में रखकर प्रसन्न हों और गिरी हुई अवस्था में सहायता दें।’’
अध्यापकों एवं छात्रों के कर्तव्य
वे विश्वविद्यालय के माध्यम से काशी को सरस्वती की अमरावती बना देने का पावन उद्देश्य रखते थे। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने अध्यापकों के कर्तव्य बताये-
- धर्म और शास्त्र का पालन करेंगे।
- सदाचारी रहेंगे
- देश सेवा के कार्यों में रत रहेंगे।
- विद्याथ्री के सर्वांगिण विकास हेतु हर संभव प्रयास करेंगे।
छात्रों को कार्यों हेतु निर्देश दिये गये-
- व्यायाम करके शरीर को बलशाली बनायें।
- पहले स्वास्थ्य सुधारें फिर विद्या पढ़ें।
- शाम को खेलें, मैदान में विचरें।
- जल्दी भोजन करें और नियम से नित्य अध्ययन करें।
- धार्मिक उत्सवों, एकादशी कथा तथा गीता प्रवचनों आदि में उपस्थित रहें।
- अपनी रक्षा आप करें।
- समय के पाबन्द बनें और इसे नष्ट न करें।
महामना अध्यापकों में उच्च चरित्र देखना चाहते थे ताकि छात्र उनसे प्रेरणा ग्रहण कर स्वंय चरित्रवान, सदाचारी और समाजसेवी बन सके। इसी उद्देश्य से विश्वविद्यालय को आवासीय बनाया गया।
इस प्रकार महामना अध्यापक एवं विद्याथ्री दोनों से ही उत्तम चरित्र और श्रेष्ठ व्यवहार की आशा रखते थे।