अनुक्रम
धर्म का अर्थ
धर्म की परिभाषा
धार्मिक व्यवहार
धार्मिक व्यवहारों के द्वारा समाज व धर्म के संबंध को रेखांकित होते हैं प्रत्येक धर्म में कुछ तत्व समान होने के साथ ही कुछ विशिष्ट तत्व पाए जाते हैं जिनसे व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित होता है। ये तीन प्रकार के होते हैं।
वालेस के अनुसार अलौकिक शक्ति को सक्रिय बनाने के लिए धर्म के मूलभूत घटक के रूप में अनुष्ठान को प्रयोग में लाया जाता है। यह परम्पराओं को स्थायित्व प्रदान करने का कार्य करता है।
हर अनुष्ठान में समूह के सदस्यों के बीच भावनात्मक एकता भी कायम करते है और इस तरह ऐसे अवसरों पर व्यक्ति और समूह दोनों के लिए एक नैतिक निर्देश/ नियम में विश्वास मजबूत होते हैं। इस प्रकार के नैतिक नियम अप्रत्यक्ष रूप में सामाजिक व्यवस्था के संगठन में सहायता करते है। लोगों या व्यिक्त्यों का विश्वास है कि त्याग करने में दैवीय शक्ति प्रसन्न होगी। इन दैवीय शक्ति की कृपा जीवन पर्यन्त बनी रहेगी। इसीलिए लोग दान करते हैं। उदाहरण सिक्ख धर्म में आय का कुछ प्रतिशत भाग दान या लंगर के रूप में लगाया जाता है। अनुष्ठान द्वारा किसी भी सामाजिक रीति से पवित्र बनाया जा सकता है और जो कुछ भी पवित्र होता है उसे अनुष्ठान का रूप दिया जा सकता है।
- धार्मिक मूल्य- ये वे धारणाएं है जो क्या अच्छा है , क्या वांछनीय है तथा क्या उचित है आदि से संबंधित होती हैं ये उस धर्म के मानने वाले समस्त लोग मान्य करते हैं ये मूल्य व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करते हैं तथा सामाजिक संस्थाओं में अमिट छाप छोड़ते हैं।
- ब्रह्मण्डिकी- इसके अंतर्गत उन धारणाओं का समावेश होता है जिसमें स्वर्ग, नरक, जीवन मृन्यु आदि का वर्णन होता है। प्रत्येक धर्म इनका वर्णन भिन्न प्रकार से करता है तथा व्यक्ति के व्यवहार को प्रभावित करता है। उइाहरण व्यक्ति समाज में बुरे कार्य इसलिए नहीं करता कि उसे मरने के बाद नरक प्राप्त होगा।
अनुभव- धार्मिक अनुभव से तात्पर्य उस अनुभव से है जब व्यक्ति दैवी शक्ति से एक रूप में हो जाता है तथा इन अनुभवों द्वारा व्यक्ति शांति प्राप्त करता है। किसी विशिष्ट धर्म की आस्थाएं व अनुष्ठान धार्मिक अनुभवों के लिये सौहार्दपूर्ण अथवा प्रतिकूल वातावरण का निर्माण कर सकते हैं।
धर्म तथा सामाजिक नियंत्रण
धर्म मनुष्य के जीवन का एक अनिवार्य तत्व है यह मानव जीवन के अनेक पक्षों एवं आयामों को प्रभावित करती है साथ ही मानव के व्यवहारों को नियंत्रित करता है। इसलिए धर्म सामाजिक नियंत्रण का महत्वपूर्ण साधन है।
- धर्म समाज द्वारा मान्य व्यवहार न करने पर समाज के साथ-साथ भगवान भी नाराज हो जायेगा। इस विचार से नियंत्रण में सहायता देते है।
- धर्म की संस्थाएं और उनके संगठन मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा और उनसे संलग्न धार्मिक व्यक्ति विभिन्न स्तर पर अपने सदस्यों के व्यवहार को नियंत्रण करते रहते हैं।
- संस्कारों, समारोह, प्रार्थना, पुजारियों की सत्ता, धार्मिक प्रवचनों, उपदेशों के माध्यम से भी सदस्यों के व्यवहारों पर संस्थागत नियंत्रण रखते हैं।
- प्रत्येक धर्म में किसी न किसी रूप में पाप और पुण्य की धारणा का समावेश होता है। पाप और पुण्य उचित और अनुचित, अच्छाई और बुराई तथा सद्कर्म और दुश्कर्म की धारणाएं शैशवकाल से ही व्यवहार के अंग बन जाती है जो जीवनपर्यन्त व्यक्ति का निर्देशन करती रहती है। धर्म व्यक्ति में पाप और पुण्य की भावना को विकसित कर व्यक्तियों में यह प्रेरणा भरता है कि धर्म के अनुसार आचरण करने से उसे पुण्य होगा और धर्म के विरूद्ध आचरण करने से उसे पाप होगा। इसलिए व्यक्ति धार्मिक आचरणों का उल्लघंन नही करते। अत: यह कहा जा सकता है कि धर्म के द्वारा भी समाजीकरण होता है।
- धर्म व्यक्तियों में नैतिकता की भावना तथा आत्म नियंत्रण पैदा करता है क्योंकि धार्मिक नियमों का पालन करने से यह होता है। इसका फल उनको अच्छा मिलेगा।
- धर्म एक ऐसा तरीका है जिसमें व्यक्तिगत स्वार्थ के स्थान पर सामूहिक स्वार्थ का महत्व हो जिस कारण सामाजिक एकीकरण को बढावा मिलता है। वे परस्पर सहयोग करते हैं, उनमें समान भावनाए, विश्वास एवं व्यवहार पाए जाते है। धर्म व्यक्ति को कर्तव्यों के पालन की प्ररेणा देता है। सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों कापालन करके सामाजिक संगठन एवं एकता को बनाये रखने में योग देते हैं।