अनुक्रम
चेतना का अर्थ
चेतना मन की एक स्थिति ही है – जिसके अन्तर्गत बाह्य जगत के प्रति संवेदनशीलता तीव्र अनुभूति का आवेग, चयन या निर्माण की शक्ति इन सबके प्रति चिन्तन विद्यमान रहता है ये सब बातें मिलकर किसी भी व्यक्ति की पूर्ण चैतन्य अवस्था का निर्माण करती है।
चेतना की परिभाषा
इस प्रकार से कह सकते हैं कि चेतना व्यक्ति की वह केन्द्रीय शक्ति है जो अनुभूित, विचार, चिन्तन, संकल्प, कल्पना आदि क्रियाएँ करती है।
चेतना का स्वरूप
चेतना और मनुष्य का मौलिक संबंध है। चेतना वह विशेष गुण है जो मनुष्य को सजीव बनाती है आरै चरित्र उसका वह संपूर्ण संगठन है। किसी मनुष्य की चेतना और चरित्र केवल उसी की व्यक्तिगत संपति नहीं होते। ये बहुत दिनों के सामाजिक प्रक्रम के परिणाम होते हैं। प्रत्येक मनुष्य स्वयं के वंषानुक्रम प्रस्तुत करता है। वह विशेष प्रकार के संस्कार पैतृक सम्पत्ति के रूप में पाता है। वह इतिहास को भी स्वयं में निरूपित करता है क्योंकि उसने विभिन्न प्रकार की शिक्षा तथा प्रशिक्षण को जीवन में पाया है।
एक बार मनुष्य की चेतना विकसित हो जाती है, तब उसकी प्राकृतिक स्वतन्त्रत चली जाती है। वह ऐसी अवस्था में विभिन्न प्रेरणाओं और भीतरी प्रवृतियो से प्रेरित होता, परन्तु वह उन्हें स्वतन्त्रत से प्रकाशित नहीं कर सकता। इस प्रकार मनुष्य की चेतना अथवा विवेकी मन उसके अवचेतन अथवा प्राकृतिक मन पर अपना नियंत्रण रखता है। मनुष्य और पशु में यही विशेष भेद है। मनुष्य की चेतना जागतृ होती है परन्तु पशु की नहीं।
चेतना का महत्व
चेतना का हमारी जीवन-शैली में बहुत महत्व है। मनोविज्ञान की दृष्टि में चेतना मानव में उपस्थित वह तत्त्व है जिसके कारण उस ेसभी प्रकार की अनुभूतियाँ होती हैं। चेतना के कारण ही हम देखते, सुनते, समझते और अनेक विशयों पर चिंतन करते हैं। इसी के कारण हमें सुख-दु:ख की अनुभूति हातेी है। मानव चेतना की तीन विशेषताएँ हैं। वह ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक हातेी है। चेतना ही सभी पदार्थों की जड़-चतेन, शरीर-मन, निर्जीव-सजीव, मस्तिष्क-स्नायु आदि को बनाती है। उनका रूप निरूपित करती है।