अनुक्रम
जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक विचार
1. समाजवाद की अवधारणा
अपने अमेरिकी प्रवास के दौरान जयप्रकाश नारायण ने लेनिन तथा मार्क्स के साम्यवादी साहित्य का अध्ययन किया और भारत आने पर उनकी सोच मार्क्सवादी बन गई। उन्होंने 1936 में ‘Why Sociaism’ पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने समाजवाद की भारतीय सन्दर्भ में व्याख्या की तथा भारत में इसकी उपयोगिता पर बल दिया। उन्होंने समाजवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। उनका मानना था कि आर्थिक असमानता और उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व ही सब समस्याओं की जड़ है। यदि ये साधन प्रत्येक व्यक्ति को उपलब्ध करा दिए जाएं तो वर्तमान आर्थिक विषमताएं स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी।
इस तरह उन्होंने कृषि तथा उद्योग दोनों में ही उत्पादन के साधनों के विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया। उन्होंने कृषि उद्योगों के समाजीकरण के लिए नैतिक व लोकतांत्रिक साधनों का सुझाव दिया। उनका मानना था कि समाजवाद जैसे उच्च आदर्श की स्थापना उचित साधनों के द्वारा ही होनी चाहिए। लेकिन सच्चे समाजवाद की स्थापना भारत को तब तक नहीं हो सकती, जब तक भारत विदेशी दासता का शिकार रहेगा। विदेशी दासता को समाप्त करने के लिए श्रमिकों, किसानों और गरीब मध्यम वर्गों में राजनीतिक चेतना का विकास किया जाए।
2. जयप्रकाश नारायण के सर्वोदय संबंधी विचार
जयप्रकाश नारायण भी महात्मा गांधी और बिनोबा भावे की तरह सर्वोदय चरम लक्ष्य में विश्वास करते थे। सर्वोदय से उनका अभिप्राय सभी लोगों के जीवन के सभी क्षेत्रों में कल्याण से था। सर्वोदय शब्द जॉन रस्किन की पुस्तक ‘Unto The Last’ से महात्मा गांधी ने किया। इस पुस्तक का सार है-’’सबकी भलाई में ही अपनी भलाई है।’’ महात्मा गांधी और बिनोबा भावे के सर्वोदय से सम्बन्धित विचारों को स्वीकारते हुए जयप्रकाश नारायण ने भी सबके कल्याण पर बल दिया। वे समाज के हर वर्ग का जीवन स्तर अच्छा बनाना चाहते हैं वे भारतीय समाज में समग्र क्रान्ति लाना चाहते थे ताकि भारतीय समाज का आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विकास हो सके।
3. जयप्रकाश नारायण के राष्ट्रवादी सम्बन्धी विचार
लोकनायक जयप्रकाश नारायण सच्चे देश भक्त थे। उन्हें भारत की पराधीनता को दूर करने की बहुत अधिक चिन्ता थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवाद के महत्व को प्रतिपादित किया है। उन्होंने लिखा है कि रजनीतिक स्वतन्त्रता के बिना सामाजिक व आर्थिक कल्याण की योजनाओं का कोई महत्व नहीं है। वे एक राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी थे और कई बार जेल भी गए। उन्होंने राष्ट्रवाद के महत्व के बारे में कहा है कि ‘‘जब तक प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में राष्ट्रवाद की भावना का विकास नहीं होगा तब तक देश का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता। भारत में सांस्कृतिक एकता होते हुए भी राजनीतिक एकता का अभाव है।
उन्होंने राष्ट्रीय एकता के लिए धर्म-निरपेक्ष दृष्टिकोण अपनाने का सुझाव दिया है। यह दृष्टिकोण राजनीतिक क्षेत्र के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में भी लागू किया जाना चाहिए। उनका मानना था कि प्रत्येक व्यक्ति को एक-दूसरे की धार्मिक भावना का आदर करना चाहिए। धार्मिक अन्धविश्वासों व कुरीतियों से दूर रहना चाहिए तथा धर्म के प्रति विवेकपूर्ण, मानवीय तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।
इस तरह जयप्रकाश नारायण की राष्ट्रवाद की अवधारणा संकीर्ण न होकर एक व्यापक धारणा है। उनका राष्ट्ररवाद समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए है। उनका राष्ट्रवाद भारतीय सभ्यता व संस्कृति के सर्वथा अनुरूप ही है। उनका राष्ट्रवाद महात्मा गांधी व रविन्द्र नाथ ठाकुर के मानवतावादी दृष्टिकोण पर आधारित है जो समस्त मानव जाति को अपने में अंगीकार कर लेता है।
4. आधुनिक लोकतंत्र की अवधारणा
जयप्रकाश नारायण का मानना था कि आधुनिक युग संसदीय लोकतन्त्र का युग है। इस लोकतन्त्र में संविधान, दलों और चुनावों का बहुत महत्व है। लेकिन ये बातें तब तक अर्थहीन है, जब तक जनता में नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक गुणों का विकास न हो जाए। इसलिए उन्होंने लोकतन्त्र को दलीय-विहीन लोकतन्त्र बनाने पर जोर दिया, उन्होंने लोकतन्त्र की चुनाव-प्रणाली को अस्वीकार किया है। उनका मानना है कि हर चुनाव क्षेत्र में उम्मीदवारों की संख्या अधिक होने पर मतों का बंटवारा हो जता है। साधारण बहुमत वाला उम्मीदार भी िवेजेता घोषित कर दिया जाता है। इसलिए अल्पमतों से विजयी उम्मीदवार बहुमत का प्रतिनिधि नहीं हो सकता। अल्पमत के आधार पर बनी सरकार कभी भी लोकतन्त्रीय सरकार नहीं बन सकती।
इस तरह जयप्रकाश नारायण के राजनीतिक दलों की प्रजातन्त्र में नकारात्मक भूमिका पर व्यापक प्रकाश डाला है। उन्होंने संसदीय लोकतन्त्र की चुनाव-पद्धति की भी आलोचना की है। उन्होंने इस पद्धति को खचरीली पद्धति मानकर लोकतन्त्र को दल-विहीन बनाने पर जोर दिया है।
5. दल-विहीन लोकतंत्र की अवधारणा
लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने संसदीय लोकतन्त्र की आलोचना को अपनी दल-विहीन प्रजातन्त्र की अवधारणा का आधार बनाया। उनका विचार था कि आधुनिक लोकतन्त्र में दलीय व्यवस्था इतनी प्रभावी हो गई है कि लोकतन्त्र दलतन्त्र बन गया है। यह दलतन्त्र राजनीतिक भ्रष्टाचार को फैलाता है और लोगों में फूट डालता है। इसकी औचित्यता शक्तिपूर्ण साधनों में है। यह अनैतिक साधनों का प्रयोग करके जनतन्त्र के वास्तविक अर्थ को दूषित कर रहा है। इसलिए जय प्रकाश नारायण के दल-विहीन लोकतन्त्र की अपधारणा का प्रतिपादन किया ताकि दलों की गैर जिम्मेदाराना भूमिका पर अंकुश लग सके। दल विहीन प्रजातन्त्र को लागू करने के बारे में जयप्रकाश नारायण ने चार प्रमुख सुझाव दिए हैं-
- सबसे पहले लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों को समाप्त किया जाए। चुनाव प्रणाली समाप्त करके जनता द्वारा ग्राम स्तर से केन्द्रीय स्तर तक के उम्मीदवारों का प्रत्यक्ष चुनाव किया जाए। प्रत्येक गांव में से ग्राम सभा दो सदस्य निर्वाचित करके उस निर्वाचन क्षेत्र की मतदाता परिषद के पास भेजे इसके बाद मतदाता परिषद की खुली बैठक में राज्य विधानपालिका या केन्द्रीय संसद के लिए उम्मीदवारों के नाम प्रस्तावित तथा समर्थित किए जाएं। इसके बारे में सबकी राय एक बनाने का प्रयास किया जाए। यदि आम राज्य न बन पाए तो 30% से अधिक मत प्राप्त व्यक्ति को संसद या विधानपरिषद का प्रतिनिधि घोषित कर दिया जाए।
- दलगत राजनीति से मुक्त सर्वोदय समाज की स्थापना की जाए।
- सभी दलों को सर्वोदय के कार्य में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया जाए ताकि दलगत भावना का अन्त हो।
- निर्वाचित होने केबाद सभी उम्मीदवारों को अपने दल से नाता तोड़ लेना चािहए ताकि वह स्वतन्त्र आत्मा की आवाज द्वारा मताधिकार का प्रयोग कर सके और दल के कठोर सिद्धान्तों के पाश से मुक्ति पा सके।
इस प्रकार जयप्रकाश नारायण ने दल-विहीन प्रजातन्त्र की स्थापना के लिए अपना व्यावहारिक कार्यक्रम सुझाया है। इससे उनकी राजनीति के प्रति गहरी व दूरदर्शी सोच का पता चलता है। उनका यह कथन सत्य है कि राजनीतिक दल ही सभी तरह की राजनैतिक समस्याओं की जड़ है।
6. समग्र-क्रांति की अवधारणा
जय प्रकाश नारायण की राजनीतिक विचारधार के विकास का अन्तिम चरण उनकी समग्र या सम्पूर्ण क्रांति की अवधारणा है। 1974 में उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का उद्घोष किया था। उन्होंने पटना के गांधी मैदान में सम्पूर्ण क्रान्ति को अपना चरम लक्ष्य घोषित किया। वे एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहत थे जो शोषण व अत्याचार से मुक्त हो। उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति के उद्घोष द्वारा भारतीय समाज की सुप्त आत्मा को जगाने तथा सामाजिक ढांचे को बदलने का प्रयास किया। वे सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में मानवीय चेतना का महत्व समझते थे। इसलिए उन्होंने भारतीय समाज में मूलभूत आध्यात्मिक मूल्यों की पुन:स्र्थापना पर जोर दिया।
इस प्रकार जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रान्ति की अवधारणा एक व्यापक अवधारणा है जो व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के द्वारा सच्चे समाजवाद व सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना को अपना लक्ष्य स्वीकार करती है। उनकी समग्र क्रान्ति की अवधारणा उस समय भारतीय जनता में इतनी लोकप्रिय हुई कि श्रीमती इन्दिरा गांधी को आपात काल लागू करके समग्र क्रान्ति के रूप में व्यापक जन आन्दोलन को दबाने के लिए शक्ति का सहारा लेना पड़ा।
7. जयप्रकाश नारायण के राज्य सम्बन्धी विचार
जयप्रकाश नारायण भी गांधीवाद तथा माक्र्सवादी विचारधारा की ही तरह राज्य को एक आत्मा रहित मशीन मानते थे, यह एक ऐसा यन्त्र है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में बाधा पहुंचाता है। इसलिए उन्होंने राज्य को कम शक्तियां देने की बात कही है। उन्होंने कल्याणकारी राज्य की धारणा को भी नौकरशाही के हितों का पोषक बताया है। उनका कहना है कि कल्याणकारी राज्य के नाम पर नौकरशही जनता के कल्याण की योजनाओं का अधिकतम हिस्सा डकार जाती है। उन्होंने माक्र्स के राज्य के लुप्त होने के विचार का भी खण्डन किया है। इसलिए इसका अस्तित्व में रहना नितान्त आवश्यक है।
8. जयप्रकाश नारायण के केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीकरण पर विचार
जयप्रकाश नारायण ने केन्द्रीयकरण की खुलकर आलोचना की है। उन्होंने राजनीतिक और आर्थिक दोनों क्षेत्रों में केन्द्रीयकरण को गलत बताया है। राजनीतिक शक्ति के किसी एक भी या गिने-चुने लोगों के पास एकत्रित हो जाने से जनता के हितों की अनदेखी होती है। नौकरशाही का व्यवहार ठाकुरों जैसा हो जाता है। इसी तरह उत्पादन के साधनों का केन्द्रीयकरण होने पर भी पूंजीवाद को बढ़ावा मिलता है। इसलिए उन्होंने राजनीतिक सत्ता व आर्थिक शक्ति के विकेन्द्रीकरण पर जोर दिया। उनका मानना था कि राजनीतिक सत्ता जनता के पास होनी चाहिए। राजनीतिक शक्ति का विभाजन निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर होना चाहिए।
9. जयप्रकाश नारायण के पंचायती राज सम्बन्धी विचार
जयप्रकाश नारायण की विकेन्द्रीकरण की अवधारणा का सीधा लक्ष्य पंचायती राज की स्थापना करना था। उन्होंने राजनीतिक विकेन्द्रीकरण को व्यावहारिक रूप देने के लिए स्थानीय संस्थाओं को अधिक शक्तियां प्रदान करने पर बल दिया। उनका मानना था कि भारत को आर्थिक व राजनीतिक समस्याओं का हल केवल पंचायती राज में ही संभव है। उन्होंने कहा है कि ग्राम पंचायत में सभी व्यस्क नर-नारी मिलकर अपनी कार्यपालिका का निर्माण करेंगे और ग्राम सभा के ऊपर एक ब्लाक समिति होगी जो कई गांवों को मिलाकर बनाई जाएगी। सबसे ऊपर जिला परिषद होगी। लेकिन इस प्रक्रिया में कुछ बाधाएं भी आएंगी। उन्हें शिक्षा के माध्यम से दूर करने के प्रयास किए जाएंगे। ग्राम पंचायतों की नौकरशाही पर नियन्त्रणरखने का अधिकार होगा।
10. जयप्रकाश नारायण के स्वतंत्रता संबंधी विचार
जयप्रकाश नारायण का मानवीय स्वतन्त्रता में गहरा विश्वास था। उनका मत था कि वही शासन प्रणाली सर्वोत्तम है, जिसमें व्यक्ति की स्वतन्त्रता को महत्व दिया जाता हो और उसकी गरिमा का ध्यान रखा जाता हो। जिस शासन प्रणाली में व्यक्ति की स्वतन्त्रता पर रोक लगाई जाती हो, वह शासन प्रणाली कभी भी अच्छी नहीं हो सकती। उन्होंने व्यक्ति की स्वतन्त्रता के साथ-साथ राष्ट्रीय, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व नैतिक स्वतन्त्रता पर भी जोर देकर कहा है किये सभी स्वतन्त्रताएं परस्पर सम्बन्धित है। उनका मानना था कि आर्थिक स्वतन्त्रता के बिना राजनीतिक या सामाजिक स्वतन्त्रता का कोई महत्व नहीं है। स्वतन्त्रता के सभी रूप व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।
11. जयप्रकाश नारायण के अन्य राजनीतिक विचार
जयप्रकाश नारायण ने कुछ अन्य राजनीतिक विचारों का भी प्रतिपादन किया है। उन्होंने राजनीति को नैतिकता के सथ जोड़कर उसका आध्यात्मिकरण करने पर बल दिया है। उसका मानना है कि नैतिकता विहीन राजनीति जनकल्याण का साधन कभी नहीं बन सकती। इसी तरह उन्होंने साध्य व साधन की पवित्रता पर भी बल दिया है। उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा देते हुए कहा था कि भारतीय समाज का नैतिक पतन इसलिए हुआ है कि भारतीय राजनीति नैतिकता पर आधारित नहीं है, जैसे-जैसे राजनीति नैतिकता से दूर होती जाती है, वैसे-वैसे समाज में भी भ्रष्टाचार जैसी बुराईयां बढ़ती जाती हैं और समाज का बहुमुचखी पतन होना शुरू हो जाता है। इसलिए उन्होंने राजनीति के आध्यात्मिकरण पर बल दिया और अच्छे साधनों को अपनाने का सुझाव दिया।
उपरोक्त राजनीतिक विचारों का अध्ययन करने के बाद कहा जा सकता है कि जयप्रकाश नारायण एक राजनीतिक दार्शनिक होने के साथ-साथ एक सामाजिक दार्शनिक भी थे। उनका आदर्श भारतीय समाज का पुनर्निर्माण करना था। उन्होंने जीवनभर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में परिवर्तन लाने का प्रयास किया। उन्होंने सम्पूर्ण क्रान्ति का नारा देकर समाज के सर्वांगीण विकास का रास्ता तैयार किया। लेकिन फिर भी अनेक विद्वानों ने उनके राजनीतिक विचारों को आदर्शवाद की संज्ञा देकर पल्ला झाड़ लिया है। यदि निष्पक्ष तौर पर उनके विचारों का मूल्यांकन किया जाए तो यह बात सत्य है कि उनके विचार एक सच्चे देशभक्त व राष्टवादी विचारक के विचार हैं।