कार्यशील पूंजी के स्रोत
कार्यशील पूंजी दो प्रकार के स्रोत (अ) दीर्घकालीन स्रोत, तथा (ब) अल्पकालीन स्रोत से प्राप्त की जा सकती है।
1. कार्यशील पूँजी के दीर्घकालीन स्रोत –
स्थायी कार्यशील पूंजी का वित्त पोषण करने के लिए उपक्रम को दीर्घकालीन साधनों को ही अपनाना चाहिए। दीर्घकालीन साधनों से ही लम्बे समय तक के लिए, वित्त प्राप्त हो सकता है। कार्यशील पूंजी के दीर्घकालीन साधन निम्नलिखित हो सकते हैं –
1. अंश – नये अंशों का निर्गमन कार्यशील पूँजी का मुख्य साधन है। एक कम्पनी समता और पूर्णाधिकार अंशों का निर्गमन कर सकती है। पहले स्थगित अंशों के निर्गमन का अधिकार कम्पनियों को प्राप्त था जिसे भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के द्वारा रोक दिया गया है। पूर्वाधिकार अंशों को एक निश्चित दर से लाभांश प्राप्ति के सम्बन्ध में और कम्पनी समापन के समय पूंजी के पुनर्भुगतान के लिए प्राथमिकता प्राप्त होती है। समता अंशों को लाभ की उपलब्धता के आधार पर लाभांश प्रदान किया जाता है। कम्पनी को अंशों के निर्गमन से स्थायी कार्यशील पूंजी की अधिकतम राशि की व्यवस्था करनी चाहिए।
2. ऋणपत्र- ऋण पत्र निर्गमन भी अंशों की ही भांति कार्यशील पूंजी का महत्वपूर्ण साधन है। ऋणपत्र किसी भी धारक को ऋण की स्वीकृति का कम्पनी द्वारा निर्गमित प्रपत्र होता है। ऋणपत्र धारक कम्पनी के लेनदार होते हैं और निश्चित दर से ब्याज प्राप्त करने के हकदार होते हैं।
3. प्रतिपादित लाभ – यह वित्त का एक आन्तरिक साधन है जो सर्वाधिक सस्ता और वस्तुत: लागतविहीन स्रोत होता है। यह साधन पूर्व स्थापित संस्थाओं द्वारा अपने विस्तार, आधुनिकीकरण और प्रतिस्थापन आदि के लिये प्रयोग किया जाता है।
4. प्राचीन सम्पत्तियों का विक्रय – बेकार के अप्रयुक्त स्थायी सम्पत्तियों को बेचकर भी कार्यशील पूंजी की व्यवस्था की जा सकती है।प्रबन्धन इस साधन पर कम ही निर्भर रह सकता है। क्योंकि यह सामयिक, अनियमित और अविश्वसनीय होता है।
5. दीर्घकालीन ऋण- बैंकों, विनियोग कम्पनियों व विशिष्ट वित्तीय संस्थाओं से दीर्घकालीन ऋण प्राप्त करके भी कार्यशील पूंजी का वित्तीयन किया जा सकता है। भारतीय औद्योगिक वित्त निगम (IFCI), राज्य वित्त निगमों (SFCs), भारतीय औद्योगिक विकास बैंक (IDBI), नाबार्ड (NABARD) आदि इसके उदाहरण है।
2. कार्यशील पूँजी के अल्पकालीन स्रोत –
अल्पकालीन साधनों से अस्थायी कार्यशील पूंजी की व्यवस्था की जाती है। जिसकी लागत भी अपेक्षाकृत कम होती है। प्रमुख अल्पकालीन साधन है
1. वाणिज्यिक बैंकं – अल्पकालीन कार्यशील पूंजी के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत वाणिज्यिक बैक होते हैं। बैंक सामान्यतया अग्र चार रूपों में ऋण प्रदान करते हैं।
2. नकद साख – इस व्यवस्था के अन्तर्गत बैंक तथा ग्राहक के मध्य एक औपचारिक समझौता होता है जिसमें साख की अधिकतम सीमा निर्धारित कर दी जाती है। ग्राहक निर्दिष्ट सीमा के भीतर आवश्यकतानुसार राशि का आहरण कर सकता है। ब्याज आहरित किए गये ऋण पर ही लगता है न कि सम्पूर्ण अधिकतम सीमा पर ।
3. बैंक अधिविकर्ष – अधिविकर्ष बैंक के साथ की गई ऐसी व्यवस्था है जिसमें चालू खाता के ग्राहक अपने खाते में जमा शेष के अतिरिक्त एक निर्धारित सीमा तक धन के आहरण की स्वीकृति बैंक से लेता है। इससे ग्राहक चेक अनादृत होने पर उत्पन्न विषम स्थिति से बच जाता है और कुछ समय के लिए ऋण सुविधा भी मिल जाती है। व्यवहार में नकद साख और बैंक अधिविकर्ष में कोई खास अन्तर नहीं होता है लेकिन इतना अवश्य है कि अधिविकर्ष अति अल्पकाल के लिए स्वीकृत किया जाता है और यह एक अस्थायी व्यवस्था (Short-gap arrangement) होती है जबकि नकद साख अपेक्षाकृत अधिक अवधि के लिए स्वीकृत होता है।
4. सुरक्षित ऋण – बैंक जब सम्पत्तियों की जमानत के आधार पर एकमुश्त अग्रिम देता है तो उसे सुरक्षित ऋण कहते हैं। प्राय: बैंक बॉण्डस, रहतिया व व्यक्तिगत जमानत के आधार पर इस प्रकार का अल्पकालीन ऋण देती है। ऋण की वापसी एकमुश्त या किस्तों में की जा सकती है।
5. बिलो की कटौती – इसमें ग्राहक बैंक को अपने प्राप्य बिलों की अपेक्षाकृत कम मूल्य पर बेच देते हैं अथवा वर्तमान ब्याज की दर पर कटौती करा लेता है। परिपक्वता की तिथि पर बैंक सम्बद्ध पक्ष से बिल का पूर्ण अंकित मूल्य प्राप्य कर लेता है। इस प्रकार ग्राहक कटौती की धनराशि की हानि उठाकर आवश्यकतानुसार वित्त प्राप्त कर लेता है।
6. व्यापार साख – प्राय: सभी व्यावसायिक इकाइयों को माल विक्रेता से अल्पकाल के लिए अपनी ख्याति के अनुसार उधार मिल जाता है जिसका भुगतान बाद में एकमुश्त या किश्तों में किया जाता है। कभी-कभी इस उधार माल के लिए विपत्र, प्रतिज्ञा-पत्र, हुण्डी, आदि लिख दिए जाते हैं। इस विधि में उधार पर ब्याज नहीं दिया जाता है परन्तु बहुधा विक्रेता माल की कीमत बढ़ा करके ही बेचता है। इस प्रकार अधिक कीमत लेकर ब्याज की पूर्ति कर ली जाती है। व्यापार साख की अवधि प्राय: 15 दिन से 3 माह तक की होती है।
7. देशी साहूकार छोटे तथा मध्यम आकार के उपक्रम अपनी कार्यशील पूँजी का महत्वपूर्ण हिस्सा देशी साहूकारों से प्राप्त करते हैं। ये लोग ब्याज की दर अधिक वसूल करते हैं अत: इनकी शरण में व्यावसायिक गृह अन्त में ही जाते हैं। आजकल वाणिज्यिक बैकों का प्रचलन बढ़ने से देशी साहूकारों की महत्ता दिन प्रतिदिन घट रही है।
8. जन निक्षेप – मुम्बई एवं अहमदाबाद की सूती वस्त्र मिलों में जन निक्षेप कार्यशील पूंजी का प्रचलित स्रोत रहे हैं। वर्तमान में निजी व सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां इस साधन का प्रयोग निरन्तर कर रही हैं। इसमें जनता अपना धन तब तक कम्पनियों के पास जमा रखती है जब कि उन्हें ब्याज मिलता है। यह साधन कम्पनियों के लिए सुखद समय का साथी (Fair Weather Friend) सिद्ध होता है और संकट की स्थिति में जमाकर्ता वापसी की मांग कर सकते हैं।
9. ग्राहको से अग्रिम – कुछ व्यावसायिक गृह अपने ग्राहकों से माल के आदेश के साथ सम्पूर्ण या आंशिक भुगतान अग्रिम में प्राप्त कर लेते हैं जो कार्यशील पूंजी का अल्पकालीन साधन होता है । यह पूँजी प्राप्त करने का लागत विहीन साधन है क्योंकि इस पर कोई ब्याज नहीं देना पड़ता है। परन्तु प्राय: एकाधिकारी संस्थाएँ ही इस साध् ान को प्रयोग करने की स्थिति में होती है जहाँ पर ग्राहक कोई भी शर्त स्वीकार करने का बाध्य होता है। प्रतिस्पध्री वातावरण में और जिस संस्था की साख निर्बल हो, इस साधन का सहारा नहीं ले सकती है।
10. आन्तरिक साधन – कार्यशील पूँजी के लिए ह्रास कोष, करों के लिए प्रावधान व उपार्जित व्यय जैसे आन्तरिक साधनों का भी उपयोग किया जा सकता है। लाभ में से कुछ भाग निकालकर बनाए गये ह्रास कोष उस समय तक कार्यशील पूँजी प्रदान करते हैं जब तक कि कोई स्थायी सम्पत्ति न क्रय की जाए अथवा लाभांश के रूप में वितरित न किया जाये। इसी तरह करों के लिए जो प्रावधान किया जाता है वह एक निश्चित अन्तराल पर भुगतान किया जाता है। इस बीच की अवधि में यह अल्पकालीन कार्यशील पूंजी के रूप में प्रयुक्त होता है। उपार्जित व्ययों की राशि भी भुगतान होने तक अल्पकालीन साधन होते हैं।
11. अन्य साधन – कुछ अन्य साधन हैं – (अ)- सरकारी सहायता, (ब)- प्रबंधकों व संचालकों के ऋण (स)- कर्मचारियों की प्रतिभूतियाँ।
कार्यशील पूंजी को निर्धारित करने वाले तत्व
1. व्यवसाय का स्वरूप – कार्यशील पूंजी की मात्रा को प्रभावित करने वाला सर्वाधिक प्रमुख कारक व्यवसाय का स्वरूप है। रेलवे, सड़क, गैस, आदि जनोपयोगी व सेवा संस्थाओं में निरन्तर मांग और नकद विक्रय होने से कम कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इनकी माँग सदैव रहने से रोकड़ प्रवाह अनवरत होता रहता है। इसके विपरीत, विलासिता व सौन्दर्य प्रसाधन उत्पन्न करने वाली संस्थाओं एवं व्यापारिक संस्थाओं में अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता होती है। इनकी परिवर्तनशील माँग होने के कारण रहतिया में बहुत विनियोजन करना पड़ता है।
2. व्यवसाय का आकार – एक संस्था की कार्यशील पूँजी की मात्रा उसके व्यवसाय के आकार से प्रत्यक्षत: जुड़ी होती है। एक छोटे आकार के व्यवसाय के लिए नकद रोकड़, प्राप्य बिल तथा रहतिया के लिये अपेक्षाकृत कम पूँजी की आवश्यकता होती है। बड़े आकार के व्यवसाय के लिए अधिक कार्यशील पूंजी की आवयकता होती हैं।
3. उत्पादन प्रक्रिया की अवधि – यदि उत्पादन प्रक्रिया अधिक समय लेने वाली होती है तो स्वाभाविक तौर पर कच्चे माल को निर्मित माल का रूप देने में अधिक समय, लागत और श्रम लगता है जिसके परिणामस्वरूप अधिक कार्यशील पूंजी चाहिए। किन्तु यदि उत्पादन प्रक्रिया की अवधि अपेक्षाकृत छोटी होती है तो कम मात्रा में कार्यशील पूँजी चाहिए।
4. कार्यशील पूंजी चक्र – कार्यशील पूंजी चक्र कच्ची सामग्री के क्रय से प्रारम्भ होता है तथा निर्मित माल के रूपान्तरण व निर्मित माल के विक्रय से रोकड़ की वसूली के साथ समान होता है। कार्यशील पूंजी चक्र की अवधि जितनी लम्बी होगी, उसकी आवश्यकता भी उतनी ही अधिक होगी।
5. क्रय की शर्ते एव रीतियाँ – कच्चा माल व अन्य सामान किन महीनों व शर्तों पर क्रय किया जाता है का सीधा प्रभाव कार्यशील पूंजी की मात्रा पर पड़ता है। यदि कच्चे माल की समस्त वार्षिक जरूरत को फसल के ही समय एक साथ खरीद कर रख लिया जाता है तो कार्यशील पूॅंजी की अधिक आवश्यकता होगी, परन्तु वर्ष पर्यन्त स्थानीय बाजार से कच्चा माल क्रय किया जाता है तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। इसी प्रकार यदि कच्चा माल विक्रेता से लम्बी अवधि के उधार पर आपूर्ति किया जाता है तो उसे निर्मित करने के बाद बेचकर कच्चे माल का भुगतान किया जा सकता है। परन्तु यदि कच्चा माल नकद खरीदना पड़ता है तो फिर अधिक कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी पड़ती होगी।
6. विक्रय की शर्ते – माल का विक्रय नकद एवं उधार किया जा सकता है। यदि निर्मित माल नकद बेचा जाता हो तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। यदि माल उधार बेचा जाता है तो उसके भुगतान में अधिक समय लगता है तो निश्चित तौर पर अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी।
7. व्यवसाय चक्र – व्यवसाय चक्र भी कार्यशील पूंजी की मात्रा को प्रभावित करते हैं। तेजी काल में विक्रय में वृद्धि, कीमतों में बढ़ोत्तरी व व्यवसाय के आशावादी विस्तार, आदि के कारण अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। मन्दी के समय मांग कम होने के कारण विक्रय में गिरावट आती है, व्यापार में संकुचन होता है व देनदारों से धन वसूली में दिक्कत आती है। ऐसी स्थिति में कार्यशील पूंजी का एक बड़ा भाग निष्क्रिय पड़ा रह सकता है।
8. बैंकिंग सम्बन्ध – ऐसी संस्थाएं जो बैंकों से अच्छे व मधुर सम्बन्ध विकसित करने में सक्षम होती है तथा बैंक की दृष्टि से जिनकी साख उत्तम होती है वे कम कार्यशील पूंजी से भी व्यवसाय संचालित कर सकती हैं। आवश्यकता होने पर बैंक उन्हें शीघ्रता से वित्त प्रदान कर सकता है।
9. लाभांश नीति – अगर कम्पनी उदार लाभांश नीति अपनाती है तो लाभांश वितरित करने के लिए अधिक कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी। दूसरी ओर, यदि कम्पनी नकद लाभांश न वितरित करके बोनस अंशों का निर्गमन करती है तो यह कार्यशील पूँजी की मात्रा में कमी लाएगा।
10. व्यवसाय के विकास की दर – एक संस्था की कार्यशील पूँजी की आवश्यकताएं इसकी व्यावसायिक क्रियाओं के विस्तार और विकास के साथ-साथ बढ़ती है । यदि व्यापार विस्तार व विकास की दर धीमी है तो कम कार्यशील पूंजी की आवश्यकता होगी जिसकी व्यवस्था लाभों के पुर्नविनियोग (Ploughing Back of Profits) से की जा सकती है। किन्तु यदि व्यापार का विस्तार बड़े पैमाने पर किया जाता है तो तीव्र विकास हेतु अधिक कार्यशील पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।
11. अन्य कारक – कुछ अन्य तत्व जैसे, मूल्य स्तर परिवर्तन, प्रबन्धकीय योग्यता, राजनीतिक स्थायित्व, युद्ध आशंका, आयात नीति, परिवहन व संचार की सुविधा, आदि भी कार्यशील पूँजी की आवश्यकता प्रभावित करती हैं ।