अनुक्रम
- मौखिक भाषा
- लिखित भाषा
शुद्ध उच्चारण के अभाव में मौखिक भाषा अस्वाभाविक एवं प्रभावहीन हो जाती है। प्राय: हम जैसा उच्चारण करते हैं या बोलते हैं वैसा ही लिखते हैं। अत: लिखित भाषा में भी वे दोष आ जाते हैं। शब्दों की वर्तनी की अशुद्धता के कारण हमारा उच्चारण अशुद्ध हो जाता है। इस प्रकार शुद्ध उच्चारण का बड़ा महत्व है। वही भाषा का स्वरूप निखारता है।
उच्चारण शिक्षण का अर्थ
भावों एवं विचारों की अभिव्यक्ति व आदान-प्रदान के लिए हम भाषा के दो रूपों का प्रयोग करते हैं मौखिक और लिखित रूप। मौखिक भाषा के प्रयोग का आधार ध्वनियां है, तथा प्रत्येक ध्वनि के लिए एक निश्चित अक्षर है, और उसका उच्चारण स्थान भी निश्चित है। यदि हम विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति के समय ध्वनि का उच्चारण उसके निश्चित स्थान से नहीं करेंगे तो हमारी अभिव्यक्ति दोषपूर्ण और मौखिक भाषा निरर्थक एवं प्रभावहीन हो जायेगी।
उच्चारण शिक्षण का महत्व
प्राचीन भारत में शिक्षा मौखिक रूप से प्रदान की जाती थी। अत: उस समय उच्चारण पर विशेष बल दिया जाता था। शुद्ध उच्चारण के संदर्भ में प्राचीन ग्रन्थों में विशेष रूप से लिखा गया है – यथा-
“प्रकृतिर्यस्य कल्याणी दन्ताष्ठौ यस्य शोभनौ।
प्रगल्भश्च विनीतश्च स वर्णनं वक्तुमहंति।।”
अभिप्राय यह है कि “जिसकी प्रकृति अच्छी है, जिसके दांत और ओष्ठ अच्छे हैं, जो वार्तालाप में प्रगल्भ और विनीत है, वही वर्णों का ठीक-ठीक उच्चारण कर सकता है।”
‘याज्ञवल्कय शिक्षा’ में उच्चारण के संदर्भ में विस्तारपूर्वक विवरण दिया गया है। न्यायसूत्र उच्चारण पर विशेष बल देता है- “जब बोलने वाले के मन में बोलने की इच्छा पैदा होती है, तो आत्मा से हृदयस्थ वायु को प्रेरणा मिलती है, जिससे कण्ठ, तालु आदि स्थानों पर एक प्रकार का आघात होता है।”
महर्षि पाणिनि के मतानुसार- “शब्दोच्चारण से पूर्व बुद्धि के साथ मिलकर आत्मा पहले अर्थ का ज्ञान कराती है, तब मन में बोलने की प्रेरणा प्राप्त होती है।”
आचार्य प्रवर पंडित सीताराम चतुर्वेदी उच्चारण के बारे में कहते हैं- “जैसे मतवाला हाथी एक पैर रखने के पश्चात् दूसरा पैर रखता है, उसी प्रकार एक-एक पद और पदान्त को अलग-अलग स्पष्ट करके बोलना चाहिए।”
उच्चारण शिक्षण के सोपान
- उच्चारण करने से पूर्व मन में विचारों का जन्म होता है। विचारों की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से होती है। शब्द किसी अर्थ के परिचायक होते हैं। “शब्द और अर्थ एक ही सिक्के के दो पाश्र्व हैं।” वाक्यप्रदीप में भी कहा गया है- “एकस्यैवात्मनौ भेदौ शब्दार्थो पृथक स्थितौ।”
- स्वर यंत्र में श्वास के आघात से पूर्ण ध्वनियों का जन्म होता है।
- उच्चारण बोलकर करते हैं। बोलने के पूर्व मनमें बोलने की इच्छा बलवती होती है, तब कहीं जाकर उच्चारण किया जाता है।
- उच्चारण करने के प्रयास में हृदयस्थल पर वायु में प्रकम्पन्न पैदा होता हे। इसका मतलब यह है कि वायु फेफड़े से निकलकर गले में तरंगित होकर उच्चारण को जन्म देती हैं।
- वायु जब गले में तरंगित होती है, तो उस तरंगण से ध्वनियाँ उत्पन्न होती है।
- ध्वनि मुख के विभिन्न भागों से टकरा कर अपना विभिन्न स्वरूप धारण करती है। यही स्वरूप उच्चारण की ध्वनियाँ है।
- ध्वनि स्वर यंत्र से बाहर निकलती है। स्वर यंत्र से ध्वनियाँ तीन प्रकार से बाहर निकलती है।
- स्वरों के उच्चारित करने के प्रयास में मुख का रूप बदल-बदलकर
- व्य×जनों को उच्चारित करते समय जीभ, ओष्ठ, दांत तथा तालु का प्रयोग होता है।
- स्वर की प्रभावपूर्णता के लिए कम्पन यंत्रों का प्रयोग।
उच्चारण की शिक्षा की आवश्यकता
हिन्दी भाषा में उच्चारण सम्बन्धी अनेक दोष प्रचलित है। उच्चारण में ध्वनियों का विशेष महत्व है। ध्वनियों के अभाव में शब्दों का अस्तित्व नहीं है और न ही भाषा का। इसलिए ध्वनियों के उच्चारण पर विशेष बल देने की आवश्यकता है। उच्चारण की शिक्षा की आवश्यकता के कारण हैं-
- अशुद्ध उच्चारण भाषा का स्वरूप बिगड़ता है। अशुद्ध उच्चारण उसका सुसंस्कृत स्वरूप विकृत करता है।
- बिना उच्चारण ज्ञान के भाषा का ज्ञान नहीं हो सकता है। उच्चारण ध्वनियों के आधार पर किया जाता है। ध्वनियों के अभाव में न भाषा ठीक ढंग से समझी जा सकती है, न ही उसका सम्यक ज्ञान ही हो पाता है।
- उच्चारण बाल्यावस्था से ही बनता-बिगड़ता है। इस कारण बालकों के उच्चारण पर विशेष बल देना चाहिए। बचपन से ही भ्रष्ट उच्चारण से बचाया जाना चाहिए।
- हिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों में अनेक बोलियाँ-उपबोलियाँ प्रचलित हैं, यथा ब्रज, अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, बांगरी, मालवी, बुन्देली आदि। इन बोलियों का प्रभाव खड़ी बोली पर पड़ा है। इस कारण उसमें ग्रामीण भाषा का पुट मिल गया है। अध्यापक को सावधानीपूर्वक ग्रामीण बोलियों के उच्चारण के प्रभाव से बच्चों को मुक्त करना चाहिए। दुर्भाग्यवश अध्यापक भी इस दुष्प्रभाव से वंचित नहीं हैं। इसलिए अशुद्ध उच्चारण प्रचलित है।
- अहिन्दी-भाषी क्षेत्रों के बालकों पर प्रांतीय भाषाओं का प्रभाव पड़ता है। वहाँ के बालकों को हिन्दी के उच्चारण में इन प्रांतीय भाषाओं के प्रभाव से बचाना चाहिए।
इस प्रकार हिन्दी में उच्चारण सम्बन्धी अनेक दोष एवं कठिनाइयाँ हैं। सावधानीपूर्वक इनका निराकरण करना चाहिए। इसके लिए छात्रों को उच्चारण दोष से मुक्त करना आवश्यक है।
उच्चारण दोष के कारण
उच्चारण सम्बन्धी दोष अनेक कारणों से होते हैं। क्षेत्र विशेष एवं व्यक्ति विशेष के कारण ये दोष उच्चारण के विकृत स्वरूप को जन्म देते हैं। उच्चारण दोष के कारण हैं-
अति शीघ्रता, असावधानी से भी उच्चारण अशुद्ध हो जाता है
उच्चारण दोष के विभिन्न प्रकार
उच्चारण दोष के विभिन्न प्रकार नीचे दिये जा रहे हैं:
- स्वर-लोप: यथा ‘क्षत्रिय’ का ‘छत्री’, ‘परमात्मा’ का ‘प्रमात्मा’, ‘ईश्वर’ का ‘इस्सर’।
- स्वर-भक्ति: यथा ‘बृजेन्द्र’ को बढ़ाकर ‘बरजेन्दर’, ‘श्री’ को ‘सिरी’, ‘शक्ति’ को ‘सकती’।
- स्वरागम: यथा ‘स्नान’ में ‘अ’ का आगम होकर होकर ‘अस्नान्’, ‘स्कूल’ में ‘इ’ का आगम होकर ‘इस्कूल’।
- ऋ का अशुद्ध उच्चारण: यथा ‘अमृत’ का ‘अम्रित’, पंजाब में ‘अम्रत’, मराठी में ‘अम्रत’।
- इ, उ का ई, ऊ के साथ भ्रम: यथा ‘कवि’ का ‘कवी’, ‘हिन्दू’ का ‘हिन्दु’, ‘ईश्वर का ईसवर’, ‘किन्तु’ का ‘किन्तू’।
- न और ण का भ्रम: यथा ‘रणभूमि’ का ‘रनभूमि’, ‘प्रणय’ का ‘प्रनय’, ‘कर्ण’ का ‘करन’ आदि।
- क्ष और छ का झमेला: यथा लक्ष्मण को लछमन, अक्षर का अछर, क्षत्री का छत्री।
- श और ष का भ्रम: यथा प्रकाश का प्रकाश, निष्काम का निश्काम।
- व और व का भ्रम: यथा ‘वन’ (जंगल) का ‘बन’, वचन का ‘बचन’ वसंत का ‘बसंत’।
- ड और ड़ का भ्रम: जैसे गुड़ का गुड।
- ढ और ढ़ का भ्रम: यथा पढ़ाई का पढाई, कढ़ाई का कढाई।
- चन्द्रबिन्दु और अनुस्वार का भ्रम: यथा गंगा का गँगा और चाँद का चांद कहना।
- य और ज का भ्रम: यथा यमराज को ‘जमराज’ लिखना, यज्ञ का ‘जज्ञ’ उच्चारित करना।
- अनुनासिकता का भ्रम: यथा सोचने को सोंचना लिखना, बच्चा को बंच्चा लिखना।
- अल्पप्राण और महाप्राण सम्बन्धी भ्रम: यथा बुढ़ापा को बुडापा, घूमना को गूमना, घर को गर।
- शब्द विपर्यय: यथा लिफ़ाफा को लिलाफा कहना, आदमी को आमदी कहना।
- शब्दांश विपर्यय: यथा ‘बाल की खाल निकालने’ को ‘खाल की बाल निकालना’।
- हड़बड़ाहट या तुतलाहट: यथा ‘ततत तुम्मामारा घघरर कहाँ है’?
- न्यूनाधिक गति: शब्द या वाक्य या वाक्य खंड को शीघ्रता में बोलना या देर तक खींचकर बोलने से भी उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं।
- शारीरिक दोष: जिव्हा, ओष्ठ, तालु आदि में दोष आने से उच्चारण सम्बन्धी दोषों का आना स्वाभाविक है।
- मनोवैज्ञानिक कारण: भय, दुव्र्यवहार, शंका आदि से जिव्हा, तालु, ओष्ठ आदि लड़खड़ाने लगते हैं और उच्चारण सम्बन्धी दोष आ जाते हैं।
- ध्वन्यात्मक दोष: यथा उलटा-पलटा को उल्टा-पल्टा लिखना।
इसी प्रकार हिन्दी भाषा में उच्चारण सम्बन्धी अन्य कई दोष विद्यमान हैं।
उच्चारण सम्बन्धी दोषों का निराकरण
शैशवावस्था एवं बाल्यावस्था से ही उच्चारण पर ध्यान देना चाहिए, ताकि बालक अशुद्ध उच्चारण न करें। बाल्यावस्था से से ही इस पहलू पर ध्यान देने से बालक भविष्य में कभी भी उच्चारण के दोषी नहीं होंगे। अशुद्ध उच्चारण के निराकरण के लिए निम्न उपाय किये जायें-
- ध्वनियंत्रों का चित्र।
- सिर एवं ग्रीवा का माडल, जिसमें उच्चारण स्थल दर्शाये गये हों।
- दर्पण (जिसमें उच्चारण करते समय बालक अपने उच्चारण-स्थल देख सके)।
- ग्रामोफोन (शुद्ध उच्चारण के लिए)।
- लिंग्वाफोन (शुद्ध उच्चारण की शिक्षा के लिये)।
- टेपरिकार्डर (कठिन उच्चारणों के आदर्श उच्चारण के अभ्यास के लिए)। इसके अतिरिक्त कुछ मूल्यवान वैज्ञानिक यंत्र इस संदर्भ में बड़े उपयोगी हैं। पर निर्धनता के कारण इनकी उपयोगिता से हम वंचित हैं। ये उपकरण हैं-
- कायमोग्राफ: अल्पप्राण महाप्राण, घोष-अघोष, स्पर्श-संघर्षों की मात्रा आदि की शिक्षा के लिये यह उपकरण बड़ा ही उपादेय है।
- कृत्रिम तालु: ध्वनियों के शुद्ध एवं स्टीक उच्चारण के लिए यह उपकरण जीभ के ऊपरी तालु पर रखा जाता है।
- एक्सरे: स्वरों एवं व्यंजनों के उच्चारण में जीभ की सही स्थिति का पता एक्सरे के माध्यम से लगाया जा सकता है।
- लैरिंगोस्कोप: स्वरतंत्रियों की गतिविधियों के अध्ययन में इस यंत्र की उपयोगिता जगत विख्यात है।
- अन्य उपयोगी यंत्र: इन्द्रीस्कोप, आटोफोनोस्कोप, नेमोग्राफ, फ्लास्क स्टेथोग्राफ आदि उपकरण विदेशों में उच्चारण सम्बन्धी सुधार के लिए प्रयुकत किये जा रहे हैं।
5. हिन्दी ध्वनियों का वर्गीकरण सिखाना: हिन्दी ध्वनियों के वर्गीकरण की सच्ची शिक्षा दिये बिना छात्रों का उच्चारण दोष कदापि दूर नहीं किया जा सकता है। ध्वनियों का वर्गीकरण चार प्रकार से किया गया है-
- बाह्य प्रयत्न के आधार पर: इस आधार पर सभी वर्ण, श्वास तथा नाद तथा अल्पप्राण एवं महाप्राण में विभक्त है।
- आन्तरिक प्रयत्न के आधार पर: इस आधार पर संवृत, अर्द्ध-संवृत, विवृत एंव अर्द्ध-विवृत के रूप में ध्वनियाँ विभक्त हैं।
- उच्चारण की प्रकृति के आधार पर: उच्चारण की प्रकृति के आधार पर स्वर, ह्र्स्व, दीर्घ में तथा अन्य वर्ण, स्पर्श, पािर्श्वक, अनुनासिक, ऊष्म, अन्त:स्थ, लुंठित एवं उित्क्षप्त स्वरूप में विभक्त हैं।
- उच्चारण स्थल के आधार पर: इस आधार पर वर्ण- कंठ्य, तालव्य, मूर्द्धन्य, दन्त्य, ओष्ठ्य, दन्तोष्ठ्य एवं वत्स्र्य के रूप में विभक्त हैं। बालकों को वही अध्यापक इनका स्पष्ट विवरण दे सकता है, जिसे स्वयं इनके बारे में शतप्रतिशत जानकारी हो। इनकी शिक्षा बालकों 12-13 वर्ष की उम्र से 18 वर्ष की उम्र तक देनी चहिए। इसके उपरान्त उनमें उच्चारण सम्बन्धी दोष नहीं आ पायेगा।
6. हिन्दी की कतिपय विशेष ध्वनियों का अभ्यास: प्राय: हिन्दी भाषा में स, श एवं ष, न एवं ण, व तथा ब, ड तथा ड़, क्ष तथा छ आदि का उच्चारण दोष बालकों में पाया जाता है जैसे विकास का उच्चारण ‘विकाश’, महान का उच्चारण ‘महाण’, वन का उच्चारण ‘बन’ आदि। अध्यापक को इस संदर्भ में विशेष जागरूक रहना चाहिए और इस संदर्भ में भूल होते ही निराकरण कर देना चहिए।