अनुक्रम
आर्थिक विकास का मापन
आर्थिक विकास’ आज के इस प्रगतिशील युग का एक बहुचर्चित विषय है और प्रत्येक राष्ट्र विकास की इस दौड़ में दूसरों से आगे निकलने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील है। पर सवाल यह उठता है कि आर्थिक विकास की कसौटी अथवा मानदण्ड क्या हो? अर्थात किसी देश में आर्थिक विकास हो रहा है अथवा नहीं, इस बात का किस प्रकार पता लगाया जाए ? आर्थिक विकास की माप हेतु विकासवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा निम्नलिखित मापदण्ड प्रस्तुत किए गए हैं।
3. प्रति व्यक्ति आय एवं आर्थिक विकास – दूसरी परिभाषा का सम्बन्ध लम्बी अवधि में प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि से है। ‘‘ प्रति व्यक्ति वास्तविक आय या उत्पादन में वृद्धि’’ के रूप में आर्थिक विकास की परिभाषा देने में अर्थशास्त्री एकमत हैं। बुकैनन तथा एलिस के अनुसार ‘‘ विकास का अर्थ पूंजी निवेश के उपयोग द्वारा अल्पविकसित क्षेत्रों की वास्तविक आय सम्भाव्यताओं का विकास करने के लिए ऐसे परिवर्तन लाना और ऐसे उत्पादक स्रोतों का बढ़ाना है, जो प्रति व्यक्ति वास्तविक आय बढ़ाने की संभावना प्रकट करते है।’’ इन परिभाषाओं का उद्देश्य इस बात पर बल देना है कि आर्थिक विकास के लिए वास्तविक आय में वृद्धि की दर जनसंख्या में वृद्धि की दर से अधिक होनी चाहिए। परन्तु फिर भी कठिनाईयों रह जाती हैं।
यहॉ यह भी संभव है कि प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि के परिणामस्वरूप जन साधारण के वास्तविक जीवन स्तर में सुधार न हो। यह संभव है कि जब प्रति व्यक्ति वास्तविक आय बढ़ जाती है, तो प्रति व्यक्ति उपभोग की मात्रा कम होती जा रही हो। हो सकता है कि लोग बचत की दर बढ़ा रहे हों, या फिर सरकार स्वयं इस बढ़ी हुई आय को सैनिक अथवा अन्य उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर रही हों। वास्तविक राष्ट्रीय आय में वृद्धि के बावजूद जनसाधारण की गरीबी का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि बढ़ी हुई आय बहुसंख्यक गरीबों के पास जाने के बजाए मुट्ठी भर अमीरों के हाथ में जा रही हो। इसके अतिरिक्त, इस प्रकार की परिभाषा उन प्रश्नों को गौण बना देती है जो समाज के ढांचे, उनकी जनसंख्या के आकार एवं बनावट, उसकी संस्थाओं तथा संस्कृति साधन-स्वरूप और समाज के सदस्यों में उत्पादन के समान वितरण से सम्बन्ध रखते हैं।
आर्थिक कल्याण एवं आर्थिक विकास
विभिन्न देशों में यह प्रवृत्ति भी होती है कि आर्थिक कल्याण के दृष्टिकोण से आर्थिक विकास की परिभाषा दी जाये। ऐसी प्रक्रिया को आर्थिक विकास माना जाये जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय में वृद्धि होती है और उसके साथ साथ असमानताओं का अंतर कम होता है तथा समस्त जनसाधारण के अधिमान संतुष्ट होते हैं। इसके अनुसार आर्थिक विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्तियों के वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग में वृद्धि होती है। ओकन और रिचर्डसन के शब्दों में ‘‘आर्थिक विकास’’ भौतिक समृद्धि में ऐसा अनवरत दीर्घकालीन सुधार है। जो कि वस्तुओं और सेवाओं के बढ़ते हुए प्रवाह में प्रतिबिम्बित समझा जा सकता है।
इसकी सीमाए :- यह परिभाषा भी सीमाओं से मुक्त नहीं है।
अंतिम, सबसे बड़ी कठिनाई व्यक्तियों के उपभोग को भार देने की है। वस्तुओं और सेवाओं का उपभोग व्यक्तियों की रूचियों और अधिमानों पर निर्भर करता है। जो भिन्न-भिन्न होते हैं। इसीलिये व्यक्तियों का कल्याण सूचक बनाने में समान भार लेना सही नहीं है।
आर्थिक विकास के माप के मूलभूत आवश्यकता एवं आर्थिक वृद्धि
आर्थिक विकास के माप के रूप में राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय की कीमत से असंतुष्ट होकर, कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक विकास को सामाजिक अथवा मूलभूत (आधारभूत) आवश्यकता सूचक के रूप में मापना प्रारम्भ किया है। जिसके अनेक कारण हैं :-
1950 तथा 1960 के दशकों में GNP में वृद्धि एवं प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को आर्थिक विकास का सूचक माना जाता रहा। 1960 के विकास दशक के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक प्रस्ताव द्वारा अल्पविकसित देशों के लिए GNP में 5 प्रतिशत की वृद्धि दर का लक्ष्य निश्चित किया। इस लक्ष्य दर को प्राप्त करने के लिए अर्थशास्त्रियों ने शहरीकरण के साथ तीव्र औद्योगिकरण का सुझाव दिया। उनका यह मत था कि GNP की वृद्धि से प्राप्त लाभ अपने आप रोजगार और आय के सुअवसरों में वृद्धि के रूप में गरीबों तक धीरे धीरे पहुंच जायेंगे। इस प्रकार, विकास के इस माप के अनुसार गरीबी, बेरोजगारी और आय असमानताओं की समस्याओं को गौण महत्व दिया गया।
रोस्टोव द्वारा प्रतिपादित विकास के इस एक रेखीय वृद्धि की अवस्थाओं के पथ को नक्र्से के कम बचतों, छोटी मार्केटों तथा जन संख्या दबावों के कुचक्रों ने और शक्ति प्रदान की। यह समझा गया कि इन कुचक्रों को दूर करने के लिए प्राकृतिक शक्तियां मुक्त हो जायेंगी। जो अर्थ व्यवस्था में ऊंची वृद्धि लायेंगी। इसके लिए रोडान ने ‘‘बड़ा धक्का’’, नक्र्से ने संतुलित विकास, हर्षमैन ने असंतुलित विकास, तथा लीबन्स्टीन ने क्रान्तिक न्यूनतम प्रयत्न सिद्धान्त का सुझाव दिया। परन्तु अल्पविकसित देशों में विकास के लिए पूंजी, तकनीकी ज्ञान विदेशी विनिमय आदि के रूप में ‘‘लुप्त अंशों’’ को प्रदान करने के लिए अंर्तराष्ट्रीय सहायता पर अधिक बल दिया गया। विदेशी सहायता के तर्क के पीछे ‘‘दोहरा अंतराल मॉडल’’ तथा आयत स्थानापन्नता द्वारा औद्योगिकीकरण था ताकि अल्पविकसित देश धीरे-धीरे विदेशी सहायता का परित्याग कर दें।
डेविड मोरवैट्ज के अनुमान यह बताते हैं कि इस विकास कूटनीति के अपनाने से विकासशील देशों में 1950-75 के बीच GNP एवं प्रति व्यक्ति आय में 3.4 प्रतिशत प्रति वर्ष औसत दर से वृद्धि हुई। परन्तु यह वृद्धि दर ऐसे देशों की गरीबी, बेरोजगारी तथा असमनताओं को दूर करनें में असफल रहीं।
आर्थिक विकास के सूचक के रूप में GNP के विरूद्ध अर्थशास्त्रियों के बीच आलोचनायें 1960 की दशाब्दी से बढ़ती जा रही थी। परन्तु सार्वजनिक तौर से प्रथम प्रहार प्रो0 सिराज ने 1969 में नई दिल्ली में आयोजित Eleventh World Conference of the society for International Development के अध्यक्षीय भाषण में किया। उसने समस्या को इस प्रकार प्रस्तुत किया, ‘‘एक देश के विकास के बारे में पूछे जाने वाले प्रश्न हैं – गरीबी का क्या हो रहा है ? बेरोजगारी का क्या हो रहा है ? असमानता को क्या हो रहा है ? यदि यह तीनों ऊंचे स्तरों से कम हुए हैं तो बिना संशय के उस देश के लिए विकास की अवधि रही है। यदि इन मुख्य समस्याओं में से एक या दो अधिक बुरी अवस्था में हो जा रही हो, या तीनों ही निम्नता में हों तो परिणाम को विकास कहना आश्चर्यजनक होगा चाहे प्रति व्यक्ति आय दुगनी हुई हो।’’
विकास कीे GNP प्रति व्यक्ति मापों से असंतुष्ट होकर, 1970 की दशाब्दी से आर्थिक विचारकों ने विकास प्रक्रिया की गुणवत्ता की ओर ध्यान देना प्रारम्भ किया है। जिसके अनुसार वे तीन महत्वपूर्ण विन्दुओं रोजगार को बढ़ाने, गरीबी को दूर करने तथा आय और धन की असमानताओं को कम करने के लिए मूलभूत मानवीय आवश्यकताओं की कूटनीति पर बल देते हैं। इसके अनुसार, जनसाधारण को स्वास्थ्य, शिक्षा, जल, खुराक, कपड़े, आवास, काम आदि के रूप में मूलभूत भौतिक आवश्यकताएं और साथ ही सांस्कृतिक पहचान तथा जीवन और कार्य में उद्देश्य एवं सक्रिय भाग की भावना जैसी अभौतिक आवश्यकताएं प्रदान करना है। मुख्य उद्देश्य गरीबों को मूलभूत मानवीय आवश्यकताऐं प्रदान करके उनकी उत्पादकता बढ़ाना और गरीबी दूर करना है। यह तर्क दिया जाता है कि मूल भूत मानवीय आवश्यकताओं का प्रत्यक्ष प्रबन्ध करने से गरीबी पर थोड़े संसाधनों द्वारा और थोड़े समय में प्रभाव पड़ता है। शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य मूल भूत आवश्यकताओं के रूप में मानव संसाधन विकास के उत्पादकता के उच्च स्तर प्राप्त होते हैं। ऐसा विशेषतौर से वहां होता है जहां ग्रामीण भूमिहीन अथवा शहरी गरीब पाये जाते हैं तथा जिनके पास दो हाथ और काम करने की इच्छा के सिवाय कोई भौतिक परिसम्पत्तियां नहीं होती हैं। इस कूटनीति के अंतर्गत मूलभूत न्यूनतम आवश्यकताओं के अलावा, रोजगार के सुअवसरों, पिछड़े वर्गों के उत्थान तथा पिछड़े क्षेत्रों के विकास पर बल देना और उचित कीमतों एवं दक्ष वितरण प्रणाली द्वारा आवश्यक वस्तुओं को गरीब वर्गों के लिए जुटाना है।
सामाजिक सूचक:- अब हम सामाजिक आर्थिक विकास के सूचकों का विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि हैं :-
अर्थशास्त्री सामाजिक सूचकों में तरह-तरह की मदों को शामिल कर लेते हैं। इसमें से कुछ आगतें हैं जैसे पौष्टिकता मापदण्ड या अस्पताल के बिस्तरों की संख्या या जनसंख्या के प्रतिव्यक्ति डॉक्टर, जबकि दूसरी कुछ मदें इन्हीं के अनुरूप निर्गतें हो सकती हैं, जैसे नवजात शिशुओं की मृत्यु दर के अनुसार स्वास्थ्य में सुधार, रोग दर, आदि। सामाजिक सूचकों को प्राय: विकास के लिए मूल आवश्यकताओं के संदर्भ में लिया जाता है। मूल आवश्यकताएं, गरीबों की मूल मानवीय आवश्यकताओं को उपलब्ध करा कर गरीबी उन्मूलन पर केन्द्रित होती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, खाद्य, जल, स्वच्छता, तथा आवास जैसी प्रत्यक्ष सुविधाएं थोड़े से मौद्रिक संसाधनों तथा अल्पावधि में ही गरीबी पर प्रभाव डालती है। जबकि GNP प्रति व्यक्ति आय की कूटनीति उत्पादकता बढ़ाने तथा गरीबों की आय बढ़ाने के लिए दीर्घावधि में स्वत: ही कार्य करती है। मूल आवश्यकताओं की पूर्ति उच्च स्तर पर उत्पादकता तथा आय बढ़ाती है, जिन्हें शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवाओं जैसे मानव विकास के साथ साधनों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
प्रो0 हिक्स और स्ट्रीटन मूलभूत आवश्यकताओं के लिए छ: सामाजिक सूचकों पर विचार करते हैं :-
मूल आवश्यकता | सूचक | |
---|---|---|
1. | स्वास्थ्य | जन्म के समय जीवन की प्रत्याशा। |
2. | शिक्षा | प्राथमिक शिक्षा विद्यालयों में जनसंख्या के प्रतिशत के अनुसार दाखिले द्वारा साक्षरता की दर। |
3. | खाद्य | प्रति व्यक्ति कैलोरी आपूर्ति। |
4. | जल आपूर्ति | शिशु मृत्यु दर तथा पीने योग्य पानी तक कितने प्रतिशत जनसंख्या की पहुंच। |
5. | स्वच्छता | शिशु मृत्यु दर तथा स्वच्छता प्राप्त जनसंख्या का प्रतिशत। |
6. | आवास | कोई नहीं। |
सामाजिक सूचकों की विशेषता यह है कि वे लक्ष्यों से जुड़े और वे लक्ष्य हैं मानव विकास। आर्थिक विकास इन लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन है। सामाजिक सूचकों से पता चलता है कि कैसे विभिन्न देश वैकल्पिक उपयोगों के बीच अपने GNP का आवंटन करते हैं। कुछ शिक्षा पर अधिक तथा अस्पतालों पर कम खर्च करना पसंद करते हैं। इसके साथ साथ इनसे बहुत सी मूल आवश्यकताओं की उपस्थिति, अनुपस्थिति अथवा कमी के बारे में जानकारी मिलती है।
उर्पयुक्त सूचकों में प्रतिव्यक्ति कैलोरी आपूर्ति को छोड़कर शेष सूचक निर्गत सूचक हैं। नि:सन्देह नवजात शिशुओं की मृत्युदर, स्वच्छता तथा साफ पेय जल सुविधाओं दोनों की सूचक है क्योंकि नवजात शिशु पानी से होने वाले रोगों का शीघ्र शिकार हो सकते हैं। नवजात शिशु मृत्युदर भोजन की पौष्टिकता से भी संबंधित है। इस प्रकार शिशुओं की मृत्युदर 6 में से 4 मूल आवश्यकताओं को मापती है।
कुछ सामाजिक सूचकों से संबंधित विकास का एक सामान्य सूचक बनाने में कुछ समस्यायें उत्पन्न होती हैं जो कि है-
प्रथम, ऐसे सूचक में शामिल किए जाने वाली मदों की संख्या और किस्मों के बारे में अर्थशास्त्रियों में एक मत नहीं है। उदाहरणार्थ, हेगन और संयुक्त राष्ट्र की सामाजिक विकास के लिए अन्वेषण संस्था 11 से 18 मदों का प्रयोग करते हैं। जिनमें से बहुत कम समान हैं। दूसरी ओर डी0 मौरिस तुलनात्मक अध्ययन के लिए विश्व के 23 विकसित और विकासशील देशों से संबंधित ‘‘जीवन का भौतिक गुणवत्ता सूचक’’ बनाने के लिए केवल तीन मदों अर्थात जीवन प्रत्याशा, शिशु मृत्युदर और साक्षरता दर को लेता है।
दूसरे, विभिन्न मदों को भार देने की समस्या उत्पन्न होती है जो देश के सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक ढांचे पर निर्भर करती है। यह व्यक्तिपरक बन जाती है। मौरिस तीनों सूचकों को समान भार प्रदान करता है जो विभिन्न देशों के तुलनात्मक विश्लेषण के लिए सूचक का महत्व कम कर देता है। यदि प्रत्येक देश अपने सामाजिक सूचकों की सूची का चुनाव करता है और उनको भार प्रदान करता है तो उनकी अन्तर्राष्ट्रीय तुलनाएं उतनी ही गलत होंगी जितने की GNP के आंकड़े होते है।
तीसरे, सामाजिक सूचक वर्तमान कल्याण से सम्बन्धित होते हैं न कि भविश्य के कल्याण से।
चौथे, अधिकतर सूचक आगत हैं न कि निर्गत जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य आदि। अन्तिम, उनमें मूल्य-निर्णय पाए जाते हैं। अत: मूल निर्णयों से बचने और सुगमता के लिए अर्थशास्त्री तथा यू0 एन0 के संगठन GNP एवं प्रति व्यक्ति आय को आर्थिक विकास के माप के रूप में प्रयोग करते हैं।
मूलभूत आवश्यकताएं बनाम आर्थिक वृद्धि
क्या आर्थिक वृद्धि और मूलभूत आश्यकताओं की कूटनीति के बीच कोई विवाद है ? जैसा कि पहले कहा गया है, मूलभूत आवश्यकताएं लक्ष्यों से संबंधित हैं और आर्थिक वृद्धि इन लक्ष्यों को पाने का साधन। अत: आर्थिक वृद्धि तथा मूलभूत आवश्यकताओं में कोई विरोध नहीं है। गोल्डस्टीन ने शिशु मृत्युदर के माध्यम से आर्थिक वृद्धि तथा मूलभूत आवश्यकताओं के बीच गहरा संबंध पाया है। वह आर्थिक विकास को कुशलता का नाम देता है। उसके अनुसार, शिशुओं की मृत्यु दर को 5 प्रतिशत से कम रखने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए GDP का स्तर आवश्यक है। जो देश अपने GDP का एक बड़ा हिस्सा अथवा प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करते हैं, वे अधिक कुशल हैं, क्योंकि इस प्रकार वे शिशु मृत्युदर को घटाने में सफल हो जाते हैं। गोल्ड स्टीन ने पाया कि कुछ विकासशील देशों ने अपने थोड़े से संसाधनों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य की मूल आवश्यकताओं को पूर्ण करने में लगाया। अपने विभिन्न वर्गों के अध्ययन में उसने स्कूलों में दाखिले तथा महिलाओं में स्वास्थ्य के साथ-साथ शिक्षा की प्राप्ति को लिया। उसने पाया कि कुछ विकासशील देशों ने बहुत थोड़े संसाधनों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसी मूलभूत आवश्यताओं को पूरा करने के लिए लगाया। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जो विकासशील देश प्राथमिक स्कूली शिक्षा तथा महिला शिक्षा पर अधिक ध्यान देते हैं, वे इन मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कम खर्च करके भी अधिक विकास कर सकते हैं।
फाई, रैनिस तथा स्टूअर्ट के अनुसार विकासशील देशों में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति पर खर्च करने से उत्पादक निवेश में कमी नहीं होती। उन्होंने नौ देशों का सैम्पल लिया। उनके अध्ययन से पता चलता है कि ताईवान, दक्षिण कोरिया, फिलीपीन्स, उरूग्वे तथा थाईलैण्ड ने मूलभूत आवश्यकताओं का अच्छा प्रबन्ध किया तथा उनके निवेश अनुपात भी औसत से अधिक थे। जबकि कोलम्बिया, क्यूबा, जमैका तथा श्रीलंका ने अच्छी मूलभूत आवश्यकताओं के साथ-साथ औसत निवेश अनुपात रखें। उन्होंने नौ विभिन्न देशों के मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति में किए गए कार्य को औसत से अधिक तथा औसत से कम आर्थिक वृद्धि के साथ भी संबद्ध किया। इनमे से ताइवान, दक्षिण कोरिया तथा इंडोनेशिया ऐसे हैं जिन्होंने मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ-साथ औसत से अधिक आर्थिक वृद्धि की। ब्राजील ने मात्र न्यूनतम मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा किया तथा औसत से अधिक आर्थिक वृद्धि भी की। जबकि दूसरी ओर सोमाली, श्रीलंका, क्यूबा तथा मिस्र की आर्थिक वृद्धि दर औसत से कम रही। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मूलभूत आवश्यकताओं के अधिक प्रावधान करने से आर्थिक वृद्धि भी होती है। नॉरमन हिक्स ने भी अपने अध्ययन में यह दर्शाया है कि कई विकासशील देशों की आर्थिक वृद्धि की दर मूलभूत आवश्यकताओं की कूटनीति द्वारा बढ़ी है।
आईए अब, दीर्घकाल में GNP प्रति व्यक्ति GNP मूलभूत आवश्यकताओं तथा कल्याण धारणाओं की आर्थिक विकास पर प्रभावों की तुलना करें।