शिक्षा को प्रभावित करने वाले सामाजिक कारक (Social Factors Affecting Education)

सामाजिक कारक

किसी भी देश की सामाजिक परिस्थितियों वही की शिक्षा के उद्देश्यों के निर्माण में महत्वपूर्ण होती है। उदाहरणार्थ – प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य “ईश्वर प्राप्ति” था। भारत वर्ष परायण देश था। फलत: “नर से नारायण” बनने पर बल दिया जाता था। अपरा विद्या को श्रेष्ठ बतलाया गया था। युग बदला, समाज परिवर्तन आया। स्मृतिकाल में “वर्ण व्यवस्था” गुण, कर्म, स्वभाव पर आधारित न रहकर जन्म पर आधारित हो गई। फलत: शिक्षा का उद्देश्य “बालक को उसके वर्णानुसार कर्म करने के लिए तैयार करना था।

शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Education)

वर्तमान भारतीय समाज जाति, विहीन समाज की स्थापना करना चाहता है। परिणामतः शिक्षा का उद्देश्य “सामाजिक समानता” है। जिसमें जाति, रंग, वर्ण समुदाय के स्थान पर व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव पर अधिक बल दिया गया और इन्ही के माध्यम से व्यक्ति उच्च से उच्च पद पर आसीन हो सकता है। भारतीय संविधान के अनुसार समस्त भारतीय समान है। धर्म, सम्प्रदाय, जाति, वर्ण के आधार पर न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। “अस्पृश्यता” अपराध है। अत: स्मिथ के अनुसार “विद्यालय को व्यापक कार्य संभालना चाहिए एवं उसे निश्चित रूप से ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे कि सामाजिक कृतज्ञता एवं समुदाय भक्ति को उत्पन्न तथा पोषित किए जाने का कार्य हो सके।”

“School should assume wider function and definitely set itself set to the task of creating and fostering the sense of obligation loyalty to the community” -W.P. Lister Smith

भारतीय संविधान की धारा 29 व 30 में अल्पसंख्यको को अपनी भाषा, संस्कृति सुरक्षित रखने तथा शिक्षा संस्थाओं की स्थापना करने व संचालित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। संविधान की धारा 350 (क) में कहा गया है – प्रत्येक राज्य और राज्य के अन्तर्गत स्थानीय अधिकारी का यह प्रयास होगा कि भाषायी अल्पसंख्यक वर्ग के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा उनकी मातृभाषा में देने की पर्याप्त सुविधा प्रदान करे।

शिक्षा के सामाजिक उद्देश्य से तात्पर्य सामाजिक निपुणता से है। शिक्षा व्यक्ति को समाजोपयोगी बनाने में सहायक होती है और यह तभी सम्भव है जब शिक्षा के उद्देश्य समाज की परिस्थितियों के अनुकूल हों।

राजनैतिक कारक

रॉस के अनुसार- “सामाजिक वातावरण की दृष्टि से निम्न वैयक्तिकता का कोई मूल्य ? नहीं है और व्यक्तित्व अर्थहीन शब्द है। ”

Individuality is of no value and personality is a meaningless term a part from the social environment” -J. Ross

समाज में रहकर व्यक्ति एक-दूसरे के सम्पर्क में आता है। उसके साथ विचारों का आदान-प्रदान करता है। यह तभी सम्भव है जब कि शिक्षा के उद्देश्य सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल हो। ठीक इसके विपरीत यदि वे व्यक्तित्व के अनुसार भिन्न-भिन्न हुए तो व्यक्ति में टकराहट होगी और ऐसा समाज कभी प्रगति पथ पर अग्रसित नहीं हो सकता।

अधिकांश बालकों के अभिभावक स्वयं अशिक्षित है। फलतः वे शिक्षा के महत्व से अपरिचित है। वे अपने बालकों को शिक्षा दिलाने में रूचि नही रखते और साथ में भाग्यवादिता का सहारा लेते है। अशिक्षित अभिभावक बालको की शिक्षा के लिए अभिशाप सिद्ध होते हैं। और वह सम्पन्न होते हुए भी बालकों की शिक्षा की और ध्यान नही देते।

आर्थिक कारक

छोट-छोटे बालकों को विवाह बंधन में बाँध दिया जाता है। राजस्थान में तो बाल विवाह का अत्यधिक प्रचलन है। परिणामत: बाल विवाह के कारण उन बालकों की शिक्षा का कोई प्रश्न ही नही उठता। जाति प्रथा के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार ब्राह्मण वर्ण का है। शूद्र अथवा वर्तमान हरिजनों को शिक्षा प्राप्त करने का कोई अधिकार नही है। दूर- दराज के गाँवों में यह विचार आज भी कार्य करता है।

भारत पुरूष प्रधान देश है। यही पुत्र को अत्यधिक महत्व दिया जाता है तथा पुत्री को पराया धन समझ कर उसका तिरस्कार किया जाता है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह भेद स्पष्टतया दृष्टिगोचर होता है। फलतः लोग बालिकाओं को पढ़ाने को अनावश्यक समझते है। विद्यालय भवनों की दूरी, शिक्षको का अभाव, विद्यालय में सुविधाओं का न होना बालिका विद्यालयों में पुरुषों की नियुक्ति, निर्धनता रूढ़िवादिता आदि अनेक ऐसे सामाजिक कारण है जिनकी वजह से प्राथमिक शिक्षा का सार्वभौमीकरण नहीं हो पा रहा है।

शैक्षिक कारक

भौगोलिक कारक

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