शिक्षा को प्रभावित करने वाले आर्थिक कारक (Economic Factors Affecting Education)

शिक्षा को प्रभावित करने वाले आर्थिक कारक (Economic Factors Affecting Education)

देश के अधिकांश लोग निर्धनता की सीमा रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे है। जबकि कुछ लोग वैभव, समृद्धि व भोग विलास का जीवनयापन कर रहे है। इस प्रकार की विलासिता लोगों में वैमनस्य, कटुता एवं असन्तोष उत्पन्न कर देश के लिए घातक सिद्ध हो रही है। यह एक ओर शोषण एवं दमन को प्रोत्साहित करती है तो दूसरी और वर्ग संघर्ष, विद्रोह, अपराध आदि असामाजिक तत्वों से देश का विघटन हो रहा है। भोजन जीवन का आधार है।

भोजन प्राप्ति हेतु कोई न कोई कार्य करना आवश्यक है। विश्व में मानव तथा समस्त प्राणी जीविका के कारण क्रियाशील है। रोटी, कपड़ा और मकान मानव जीवन की प्राथमिक आवश्यकता हे। अन्तः आर्थिक परिस्थितियाँ शिक्षा के उद्देश्य निर्माण में अहम् भूमिका अदा करती है। प्राचीन काल में भारत धनधान्य में सम्पन्न था। माता वसुन्धरा की कोख से प्रत्येक की आवश्यकताओं की पूर्ति सरलता से हो जाती थी। फलतः भारतीय ऋषि, महर्षि, सन्त, साध्वी, मनीषी एवं विचारक “दाल-रोटी” की चिन्ता से मुक्त प्रकृति की सुरम्य गोद में आध्यात्मिक चिन्तन करते थे और जंगली कन्दमूल, पत्रपुष्प फल आदि खाकर उदर पूर्ति किया करते थे।

शिक्षा को प्रभावित करने वाले कारक (Factors Affecting Education)

उस काल में शिक्षा का उद्देश्य “ईश्वर प्राप्ति” परोपकाराय पुण्याय था। समय बदला, भारत दासता की बेडियों में जकड़ा गया। विदेशी आक्रमणकारियों ने भारत की जी भरकर कूटीर उद्योग-धन्धे नष्ट कर दिये। विश्व में ओद्योगिक विकास प्रारम्भ हुआ स्वतन्त्र भारत की सरकार विश्व के विकासशील देशों की श्रेणी में भारत का स्थान बनाने हेतु प्रयत्नशील है। परिणामतः शिक्षा का उद्देश्य वर्तमान युग में “वैज्ञानिक एवं तकनीकी” उन्नति है ताकि इस आर्थिक दौड़ में हम भी भागीदारी कर सके। हार्टशोर्न का कथन है “जीविकोपार्जन की शिक्षा सबसे अधिक प्रभावशाली शिक्षा है। इसके बिना वे लोग आजीवन कष्ट उठाते है जो केवल विद्यालयी शिक्षा पर ही निर्भर रहते हैं –

“Vocational Education is an Education of most effective and for lack of which those who merely go to school suffer all their lives.” -Hartshorrne

अत: शिक्षा के उद्देश्य निर्माण में आर्थिक परिस्थितियाँ विशेष योग देती है। भारत एक विकासोन्मुख राष्ट्र है। आर्थिक उन्नति एवं प्रत्येक नागरिक को रोजगार उपलब्ध कराने हेतु हमारी सरकार प्रयत्नशील है और इसकी पूर्ति हेतु व्यवसायिक विद्यालयों का समस्त देश में जाल बिछा दिया गया है ताकि प्रत्येक भारतीय नागरिक स्वतन्त्र व्यवसाय कर सके। कहावत है “भूखे भजन न होहि गोपाला। अत: आर्थिक परिस्थितियाँ शिक्षा के उद्देश्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। कोई भी समाज, देश, राष्ट्र तब तक आत्मनिर्भर नही हो सकता जब तक कि उसके प्रत्येक नागरिक को जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध नहीं हो जाते। अत: शिक्षा के उद्देश्य निर्धारण में आर्थिक कारक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते है।

सामाजिक कारक

वर्तमान युग अर्थतन्त्र का युग है। जिस देश की अर्थव्यवस्था सुदृढ़ होगी, वही उन्नति पथ पर अग्रसर हो सकेगा। आज विश्व में आर्थिक विकास एवं भौतिक समृद्धि के पीछे पागलपन सा छाया हुआ है। भारत की अधिकांश जनता गरीबी रेखा से नीचे स्तर की है। निर्धन अभिभावक माता-पिता अपने बच्चों को विद्यालय नहीं भेज पाते। आज शिक्षा पर होने वाला व्यय यथा-पोशाक, पाठ्य-पुस्तके एवं अधिगम ( सहायक ) सामग्री का भार वहन करना उसकी सीमा से बाहर की बात होती है। इसके स्थान पर निर्धन माता-पिता बालकों को अर्थोपार्जन का एक माध्यम बनाते है।

गाँवों में पशु चराना, खेतो में कार्य करना, माता-पिता के खेतीहर कार्य में लगे होने के समय छोटे भाई-बहनों की देखभाल करना उनका मुख्य कार्य होता है। शहरी क्षेत्र में निर्धनता की समस्या और भी अधिक उजागर होती है। गन्दी बस्तियों के बालक कचरे के ढेर अथवा कचरा पात्रों से कागज, पॉलीथीन के टुकड़े, फटे-चिथडे एकत्रित करते, चाय की दुकानों पर कार्य करते अथवा भिक्षावृत्ति करते हुए साधारणतया दिखलाई पड़ते है। निर्धनता के इस ताण्डय नृत्य के कारण अभिभावक उन मासूम बच्चों को अर्थोपार्जन सम्बन्धी कार्य में लगाना अच्छा समझते है न कि विद्यालय भेजना।

भारत सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को राज्य का विषय बना रखा है। फलत: राज्यों में होने वाला शिक्षा व्यय को केन्द्रीय सरकार कुछ हिस्सा ही राज्य सरकारों हो देती है। वास्तव में देखा जाए तो शिक्षा विषय केन्द्रीय सरकार का होना चाहिए। शिक्षा को केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करे। किन्तु अब समस्या के कारण केन्द्रीय सरकार शिक्षा पर होने वाले व्यय का कुछ अंश देकर अपने उत्तरदायित्व से मुक्ति प्राप्त कर लेती है।

शैक्षिक कारक

एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में वर्तमान विद्यालय भवनों में 33 प्रतिशत भवन ही ऐसे है जिन्हें किसी प्रकार उपयुक्त कहा जा सकता है। अर्थात् 67 प्रतिशत भवन अनुपयुक्त है। ये अनुपयुक्त भवन अंधकार से पूर्ण, घुटन से युक्त तथा वर्ष भर सीलनयुक्त रहते हैं। इनमें दुर्गन्ध युक्त वातावरण रहता है, न ही प्रकाश की व्यवस्था है और न ही स्वच्छ तथा ताजा वायु की। बालको को भेड़-बकरियों के समान कक्षा-कक्ष रूपी बाड़े में बंद कर दिया जाता है जिसमें न तो आसन व्यवस्था ही है और न ही शैक्षिक सुविधाएँ। खेल सम्बन्धी सुविधाएँ तो दिवास्वप्न मात्र हैं।

आर्थिक कठिनाइयों के कारण उपयुक्त भवनों का निर्माण नही करवा पाते। फलत: मन्दिरों, मस्जिदों धर्मशालाओं, अनाथालयों, टूटे-फूटे, पुराने, वृक्षो के नीचे विद्यालय चलते है जिनमें आए दिन किसी न किसी कारण अवकाश करना पड़ता है और वर्षा ऋतु में भवनों के दुर्घटनाग्रस्त होने की समस्याएँ बराबर बनी रहती है।

भारत में अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों की स्थिति अति सोचनीय है। आर्थिक कठिनाइयों के कारण विद्यालय छात्रों के लिए उपयुक्त शैक्षिक सुविधाएँ नही जुटा पाते जो निम्नलिखित है :-

(अ) विद्यालय में पर्याप्त संख्या में शिक्षको की नियुक्ति नही की जाती। प्राथमिक शिक्षा में अध्यापक छात्र अनुपात 1:40 का है जो कि शैक्षिक दृष्टि से अनुपयुक्त है। एक शिक्षक 40 बालकों को शिक्षण कार्य नही करा सकता।

(ब) प्राथमिक विद्यालयों में शैक्षिक सहायक अधिगम सामग्री का नितान्त अभाव होता है। पाठ्य- पुस्तक ही एक मात्र शिक्षा का आधार होती है।

(स) अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों की व्यवस्था नहीं है फलतः भवन की सफाई से लेकर समस्त कार्य छोटे-छोटे बालको को ही करने पड़ते हैं। अत: उनका ध्यान शिक्षा से हट जाता है।

(द) प्राथमिक विद्यालय में पुस्तकालय एवं वाचनालय तो हैं ही नहीं। परिणामतः। विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षक की भी कपूमण्डूक जैसी स्थिति हो जाती है।

भौगोलिक कारक

अधिकांश प्राथमिक विद्यालयों में स्थानीय व्यक्तियों को शिक्षक पद पर नियुक्ति की जाती है। परिणामत: शिक्षक विद्यालय की और ध्यान नहीं देता। बस अपना निजी कार्य खेती-बाड़ी, दुकानदारियों आदि कार्य करता है। न तो समय पर विद्यालय आता है न पूर्ण समय विद्यालय में सकता है। यही तक की छात्रों से निजी घरेलू कार्य भी करवाता है। फलत: अभिभावक बच्चों को स्कूल से निकाल लेते है।

सरकार की वर्तमान नीति के अनुसार प्रत्येक 500 जनसंख्या की आबादी के पीछे एक प्राथमिक विद्यालय होना चाहिए। किन्तु अभी देश में लगभग 350 लाख ग्रामीण ऐसे है जिनकी आबादी 500 से कम है। अत: इनके बच्चों को अन्य स्थानों पर पढ़ने जाना पडता है। वन, नाले, नदी, दूरी आदि कारणों से अन्य गाँव में जाकर बालक के लिए पढ़ना सम्भव नही है। परिणामतः अभिभावक छोटे बालको को विशेषतः बालिकाओं को इतनी दूर भेजना उचित नहीं समझते और ये बालक शिक्षा से वंचित रह जाते है।

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