शिक्षा के प्रमुख निरौपचारिक साधनों एवं खुला विश्वविध्यालय की आवश्यकता व कार्य विधि पर टिप्पणी कीजिये

शिक्षा के निरौपचारिक साधन

औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा की अपनी-अपनी सीमाएँ तथा कमियाँ हैं। इन सीमाओं को देखते हुए यह प्रयास किया जाने लगा है कि शिक्षा का कोई एक ऐसा रूप विकसित किया जाए जिसमें औपचारिक तथा अनौपचारिक शिक्षा की सीमाएँ तथा कमियां तो न हों, किन्तु इनकी अच्छाइयाँ उनमें अवश्य हों। परिणामस्वरूप शिक्षा का एक ऐसा स्वरूप उभरकर आया जो न तो पूरी तरह औपचारिक शिक्षा के समान बन्धनयुक्त, यान्त्रिक, कृत्रिम तथा अव्यावहारिक ही था और न अनौपचारिक शिक्षा के समान पूर्ण स्वभाविक, मुक्त तथा प्राकृतिक ही था। यह नया स्वरूप दोनों का एक मिला-जुला रूप था, जिसे ‘निरौपचारिक शिक्षा’ के नाम से जाना जाता है। ‘निरौपचारिक शिक्षा’ में न तो विद्यालय जितना कठोर नियन्त्रण तथा अस्वाभाविकता ही रहती है और न पारिवारिक या मित्र- मण्डलीय स्वच्छन्दता, मुक्तता और स्वाभाविकता रहती है। निरौपचारिक शिक्षा में बन्धनों के साथ-साथ स्वतन्त्रता भी होती है। इसमें शिक्षा का एक निश्चित कार्यक्रम होता है किन्तु वह स्थान, वातावरण, काल, वर्ग, उस आदि के बन्धनों से पूर्णतया मुक्त होता है।

खुला विद्यालय

शिक्षा जगत में ईवान इलिच की ‘डीस्कूलिंग सोसायटी और एडवर्ड रेमर की ‘स्कूल इज डेड’ पुस्तकों ने इस नयी विचारधारा को जन्म दिया है। रेमर के अनुसार पारम्परिक विद्यालय पद्धति निर्जीव हो गई है और हमें शिक्षा के नये साधनों की खोज करनी चाहिए। इलिच का विचार है कि हम विद्यालयों को विस्थापित कर सकते हैं अथवा हम अपनी संस्कृति को विद्यालय रहित बना सकते हैं। क्योंकि विद्यालय अर्थहीन हो गये हैं। इलिच ने विद्यालयों को कारागार माना है इसलिये वह खेल या स्वतंत्र विद्यालयों की स्थापना करना चाहता है। उसके मत से इन स्वतंत्र विद्यालयों की दो प्रमुख आवश्यकतायें है-

1. उन्हें ग्रेड एवं प्रमाणपत्रों से मुक्त होना चाहिए।
2. उन्हें विद्यालयी समाज के छुपे हुए मूल्यों से स्वतंत्र होना चाहिए।

उसके अनुसार इस स्वतंत्र विद्यालय के लिए स्वतंत्र अध्यापकों की आवश्यकता है। अभी अध्यापक का क्षेत्र पाठ्यक्रम और विद्यालय के क्षेत्र तक ही सीमित है। इसे बढ़ाकर संपूर्ण मानव जीवन से सम्बन्धित करना है। उसके अनुसार इस तकनीकी। युग में कुछ चुने हुए शक्तिशाली लोगों द्वारा वैज्ञानिक ज्ञान और संचार साधनो पर प्रभुत्व पा लेने के कारण जन- साधारण उन सुविधाओं से वंचित रहता है। अत: इस समाज व्यवस्था में परिवर्तन की आवश्यकता है।

इन विचारकों के अनुसार जब छात्रों की संख्या अत्यधिक है और शिक्षा के साधन न्यून है तब किसी प्रकार की शिक्षा नहीं दी जा सकती। उसके मतानुसार अनिवार्य निःशुल्क शिक्षा। का विचार दोषपूर्ण है। इस विचार के कारण असमानता का विकास होता है। साधनों की न्यूनता के कारण कुछ साधन सम्पन्न व्यक्ति ही विद्यालयों का लाभ उठा सकते है। और बचे हुए अन्य लोग समाज में निम्न स्तर बनाए रखने को ‘बाध्य किए जाते हैं। भारत जैसे विकासशील देश में अनेक वर्षों तक इस पद्धति के कारण केवल कुछ साधन सम्पन्न व्यक्ति ही शिक्षा प्राप्त करने की विलासिता का उपभोग करते रहे है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि संपूर्ण विश्व में प्रचलित शिक्षा व्यवस्था के प्रति असन्तोष है और उसमें परिवर्तन की मांग बराबर की जा रही है। इसी परिवर्तन को मूर्त रूप देने के विचार से माध्यमिक स्तर पर केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड दिल्ली द्वारा खुला विद्यालय की स्थापना की गई। इस योजना के अन्तर्गत 14 वर्ष की आयु से ऊपर के सभी किशोरों के लिए माध्यमिक स्तर तथा उच्चतर माध्यमिक स्तर की शिक्षा प्रदान करना तथा प्रमाण पत्र प्राप्त करने की व्यवस्था है। माध्यमिक शिक्षा के लिए कोई पूर्व प्रवेश योग्यता आवश्यक नहीं है। प्रवेशार्थी में केवल पढ़ने-लिखने की क्षमता होनी चाहिए। उच्चतर माध्यमिक पाठ्यक्रम के लिए माध्यमिक परीक्षा का प्रमाण पत्र आवश्यक है। माध्यमिक शिक्षा के लिए एक भाषा तथा अन्य कोई 4 विषयों में परीक्षा उत्तीर्ण करना आवश्यक है। कोई परीक्षार्थी चाहे तो एक साल में अथवा धीरे धीरे एक-एक या दो-दो विषयों की परीक्षा देते हुए पाँच साल में भी पाठ्यक्रम पूरा कर सकता है। शिक्षा का माध्यम हिन्दी अथवा अंग्रेजी हो सकता है।
विश्वविद्यालय की शिक्षा ग्रहण करने के इच्छुक सभी छात्र-छात्राओं को विश्वविद्यालय में प्रवेश नहीं मिल पाता और कई बार ऐसा भी होता है कि उच्चतर शिक्षा की कामना करने वाले बहुत से किशोर अपनी विशेष स्थितियों के कारण जीविकोपार्जन करने के लिए किसी न किसी काम धन्धे को अपना लेते है। परन्तु उनकी यह अभिलाषा बराबर बनी रहती है कि वे विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा किसी न किसी रूप में अवश्य प्राप्त करें। इस प्रकार के विद्यार्थियों के लिए खुले विश्वविद्यालय की व्यवस्था की गई।

प्रो. नूरूल हसन ने कहा था कि देश में सामान्य शिक्षण का एक विशाल कार्यक्रम खुले विश्वविद्यालय के द्वारा सम्पन्न किया जाना चाहिए। इस खुले विश्वविद्यालय के द्वारा देश के दूरस्थ क्षेत्रों के विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्राप्त होंगे। खुला विश्वविद्यालय से तात्पर्य ऐसे विश्वविद्यालय से है जो उन सभी के लिए हो जो उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। इन विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त करने के लिए

  • किसी भी प्रकार की उपाधि या प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं, इसमें आयु की कोई सीमा नहीं, कोई सीमित परिसर नहीं होता, छात्र किसी भी क्षेत्र का निवासी हो सकता है।
  • खुला विश्वविद्यालय अन्य सामान्य विश्वविद्यालयों से अलग हो सकता है।
  • इसमें आयु व समय सीमा का कोई बन्धन नहीं होता है।
  • अध्यापकों के स्थान पर इस विश्वविद्यालय में दृश्य-श्रव्य उपकरण यथा-दूरदर्शन, भव्य साधन यथा-ध्वनिलेख संयंत्र (टेपरिकार्डर), रेडियो, ग्रामोफोन आदि द्वारा कार्य सम्पन्न होता है। साथ ही उनके द्वारा छात्रों के पास सुझाव भेजे जाते हैं और उनसे कुछ विषयों पर लिखित उत्तर मांगे जाते है।
  • स्थानीय शिक्षण समूहों की सहायता के लिए शिक्षण की व्यवस्था भी की जाती है।

भारतवर्ष में कुछ विश्वविद्यालय पत्राचार पाठ्यक्रमों द्वारा भी विश्वविद्यालय स्तर की शिक्षा प्रदान करते है। पत्राचार पाठ्यक्रम में अधिगम सामग्री डाक के द्वारा ही भेजी जाती है तथा उत्तरों को प्राप्त करने की भी व्यवस्था है कभी-कभी देश के विभिन्न स्थानों पर सम्पर्क कार्यक्रम (Contact Programmes) आयोजित किए जाते हैं। इस प्रकार के कार्यक्रम एक माह में दो बार अथवा वर्ष में दो या तीन बार आयोजित किए जाते हैं।

इस बात को ध्यान में रखना होगा कि खुला विश्वविद्यालय, पत्राचार महाविद्यालय से सर्वथा भिन्न है। इनमें शिक्षा के दृष्य श्रव्य उपकरणों का प्रयोग जिस प्रकार और जिस भाषा में किया जाता है वैसा पत्राचार विश्वविद्यालय में नहीं होता।

खुला विश्वविद्यालय की आवश्यकता

आज जो शिक्षा छात्रों को दी जा रही है, वह मात्र औपचारिक बनकर रह गई है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में समस्या समाधान में उनका योगदान नहीं हो पाता।

वैज्ञानिक उपलब्धियों ने सामाजिक क्रान्ति तो उत्पन्न की है, परन्तु अनेक जटिलताओं को भी बढ़ा दिया है। शिक्षा की औपचारिक व्यवस्था निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति में असमर्थ रही है। उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में भी मूल्यों का ह्रास निरन्तर हो रहा है। शिक्षण संस्थाओं की उपलब्धियां भी न के बराबर हैं। वे केवल बेरोजगारों की सेना ही तैयार कर रही हैं। इन शिक्षण संस्थानों से निकले युवक श्रम से दूर भागते हैं, भाषा की दृष्टि से वे कमजोर हैं तथा उनमें सामाजिक और राष्ट्रीय उत्तरदायित्वों को पूरा करने की कोई भावना नहीं। इन कमियों का निराकरण करने के लिए खुला विश्वविद्यालय की आवश्यकता है।

खुला विश्वविद्यालय की कार्य विधि

खुला विश्वविद्यालय की कार्य-विधि का अध्ययन करने पर इसके सम्बन्ध में निम्न बातें कहीं जा सकती ध्यान देने योग्य है-
1. स्वाध्याय सामग्री विद्वानों द्वारा तैयार किये जाते है। प्रत्येक पाठ में कुछ कार्यभार विद्यार्थियों को सौंप दिया जाता है।
2. विद्यार्थियों का मूल्यांकन निरन्तर किया जाता है।
3. छात्रों के लिए संपर्क व्याख्यानों का आयोजन किया जाता है।
4. विभिन्न कार्यक्रमों के लिए योग्य व्यक्तियों का चयन किया जाता है जिनकी देखरेख में सब काम होते हैं।
5. खुले विश्वविद्यालय आमतौर पर शिक्षण पत्राचार पर आधारित है। इसके लिए अध्यापकों की नियुक्ति की जाती है ताकि – वे छात्रों का मार्गदर्शन करें तथा वे उनके कार्यों का मूल्यांकन भी करें।
6. लगभग सभी पाठ्यक्रमों में खुला विश्वविद्यालय के छात्रों को एक सप्ताह अथवा दो सप्ताह के लिए आवासीय महाविद्यालय में उपस्थित रहना होता है।
7. छात्रों को विभिन्न उपकरणों की सुविधा प्रदान करने के लिए प्रत्येक क्षेत्र में एक अध्ययन केन्द्र स्थापित किया जाता है। इन केन्द्रों में टेप रिकार्डर दूरदर्शन, दृश्य श्रव्य कैसेट आदि की व्यवस्था के साथ ही निर्देशन की सुविधा उपलब्ध कराई जाती है।

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