अनुक्रम
हठयोग का अर्थ
ह का अर्थ है- हकार अर्थात सूर्य नाडी।(पिंगला)
ठ का अर्थ है- ठकार अर्थात चन्द्र नाडी।(इडा)
हठयोग के इसी हकार तथा ठकार शब्द को संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ ने भी स्वीकार किया है। भलई हठयोग के परिपेक्ष्य में यह अवश्य प्रतीत होता है कि हठपूर्वक (जिदपूर्वक) की जाने वाली क्रिया हठयोग है। परन्तु स्पष्ट है कि हठयोग की क्रिया एक उचित तथा श्रेष्ठ मार्गदर्शन में की जाये तो साधक सहजतापूर्वक इसे कर सकता है। इसके विपरीत अगर व्यक्ति मार्गदर्शन पुस्तकों में पढकर करता है तो इस साधना के के विपरित तथा नकारात्मक परिणाम होते है।
हठयोग की परिभाषा
हकारेण तु सूर्य स्याकत् सकारेणेन्दुदरूच्यकते।
सूर्याचन्द्र मसोरैक्यंस हढ इव्यकमिधीयते ।।
योगशिखोपनिषद में योग की परिभाषा देते हुए कहा है कि अपान व प्राण, रज व रेतस सूर्य व चन्द्र तथा जीवात्मा व परमात्मा का मिलन योग है। यह परिभाषा भी हठयोग की सूर्य व चन्द्र के मिलन की स्थिति को प्रकट करती है –
योSपानप्राणयोरैक्यं स्वरजो रेतसोस्तथा।।
सूर्याचन्द्रमसोर्योगो जीवात्मपरमात्मनो:।
एवं तु द्वन्द्वजालस्य संयोगो योग उच्यते।।
ह (सूर्य) का अर्थ सूर्य स्वर, दायाँ स्वर, पिंगला स्वर अथवा यमुना तथा ठ (चन्द्र) का अर्थ चन्द्र स्वर, बाँया स्वर, इडा स्वर अथवा गंगा लिया जाता है। दोनों के संयोग से अग्नि स्वर, मध्य स्वर, सुषुम्ना स्वर अथवा सरस्वती स्वर चलता है, जिसके कारण ब्रह्मनाड़ी में प्राण का संचरण होने लगता है। इसी ब्रह्मनाड़ी के निचले सिरे के पास कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में स्थित है। जब साधक प्राणायाम करता है तो प्राण के आघात से सुप्त कुण्डलिनी जाग्रत होती है तथा ब्रह्मनाड़ी में गमन कर जाती है जिससे साधक में अनेकानेक विशिष्टताएँ आ जाती हैं।
उद्घाटयेत् कपाटं तु तथा कुचिंकया हठात।
कुण्डटलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत ह0प्र0 3/101
अर्थात जिस प्रकार चाभी से हठात किवाड़ को खोलते है उसी प्रकार योगी कुण्डलिनी के द्वार (हठात) मोक्ष द्वार का भेदन करते है।
विविध परिभाषाओं के अवलोकन के बाद अब एक प्रश्न आपका अवश्य होगा कि हठयोग के क्या उद्देश्य है। स्वात्माराम योगी द्वारा यह घोषणा कर दी गई है कि ‘केवल राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते’ अर्थात् केवल राजयोग की साधना के लिए ही हठविद्या का उपदेश करता हूँ। हठप्रदीपिका में अन्यत्र भी कहा है कि आसन, प्राणायाम, मुद्राएँ आदि राजयोग की साधना तक पहुँचाने के लिए हैं-
पीठानि कुम्भकाश्चित्रा दिव्यानि करणानि च।
सर्वाण्यपि हठाभ्यासे राजयोग फलावधि:।। ह0प्र0 1/67
यह हठयोग भवताप से तप्त लोगों के लिए आश्रय स्थल के रूप में है तथा सभी योगाभ्यासियों के लिए आधार है-
अशेषतापतप्तानां समाश्रयमठो हठरू
अशेषयोगयुक्तानामाधारकमठो हठ:।। ह0प्र0 1/10
इसका अभ्यास करने के पश्चात अन्य योगप्रविधियों में सहज रूप से सफलता प्राप्त की जा सकती है। कहा गया है कि यह हठविद्या गोपनीय है और प्रकट करने पर इसकी शक्ति क्षीण हो जाती है-
हठविद्यां परं गोप्या योगिनां सिद्धिमिच्छताम।
भवेद् वीर्यवती गुप्ता निवÊर्या तु प्रकाशिता।। ह0प्र0 1/11
इसलिए इस विद्या का अभ्यास एकान्त में करना चाहिए जिससे अधिकारी- जिज्ञासु तथा साधकों के अतिरिक्त सामान्य जन इसकी क्रियाविधि को देखकर स्वयं अभ्यास करके हानिग्रस्त न हों। साथ ही अनधिकारी जन इसका उपहास न कर सकें।
स्मारण रहे कि – जिस काल में हठप्रदीपिका की रचना हुई थी, वह काल योग के प्रचार-प्रसार का नहीं था। तब साधक ही योगाभ्यास करते थे। सामान्यजन योगाभ्यास को केवल ईÜवरप्राप्ति के उद्देश्य से की जाने वाली साधना के रूप में जानते थे। आज स्थिति बदल गई है। योगाभ्यास जन-जन तक पहुँच गया है तथा प्रचार-प्रसार दिनों-दिन प्रगति पर है। लोग इसकी महत्ता को समझ गए हैं तथा जीवन में ढालने के लिए प्रयत्नशील हो रहे हैं।
हठयोग का उद्देश्य
हठयोग के मुख्य उद्देश्य के साथ अन्य अवान्तर उद्देश्य भी कहे जा सकते हैं जैसे- स्वास्थ्य का संरक्षण, रोग से मुक्ति, सुप्त चेतना की जागृति, व्यक्तित्व विकास, जीविकोपार्जन तथा आध्यात्मिक उन्नति। इनकी विस्तृत विवेचना इस प्रकार है।
- स्वास्थ्य का संरक्षण-
- रोग से मुक्ति-
- सुप्त चेतना की जागृति –
- व्यक्तित्व विकास-
- जीविकोपार्जन –
- आध्यात्मिक उन्नति-
1. स्वास्थ्य का संरक्षण – शरीर स्वस्थ रहे। रोगग्रस्त न हो। इसके लिए भी हम हठयौगिक अभ्यासों का आश्रय ले सकते हैं। ‘आसनेन भवेद् –ढम, ‘षट्कर्मणा शोधनम’ आदि कहकर आसनों के द्वारा मजबूत शरीर तथा षट्कर्मों के द्वारा शुद्धि करने पर दोषों के सम हो जाने से व्यक्ति सदा स्वस्थ बना रहता है। विभिन्न आसनों के अभ्यास से शरीर की मांसपेशियों को मजबूत बनाया जा सकता है तथा प्राणिक ऊर्जा के संरक्षण से जीवनी शक्ति को बढ़ाया जा सकता है। शरीर में गति देने से सभी अंग-प्रत्यंग चुस्त बने रहते हैं तथा शारीरिक कार्यक्षमता में वृद्धि होती है जिससे शरीर स्वस्थ रहता है। अत: हम कह सकते है कि स्वास्थ्य संरक्षण में हठयोग का महत्वपूर्ण स्थान है।
विभिन्न आसनों का शरीर के विभिन्न अंगों पर जो प्रभाव पड़ता है, उससे तत्सम्बन्धी रोग दूर होते हैं। जैसे मत्स्येन्द्रासन का प्रभाव पेट पर अत्यधिक पड़ता है तो उदरविकारों में लाभदायक है। जठराग्नि प्रदीप्त होने के कारण कब्ज, अपच, मन्दाग्नि आदि रोग दूर होते हैं।
सी प्रकार षट्कर्मों का प्रयोग करके रोगनिवारण किया जा सकता है। जैसे धौति के द्वारा कास, श्वास, प्लीहा सम्बन्धी रोग, कुष्ठ रोग, कफदोष आदि नष्ट होते हैं।
नेति के द्वारा दृष्टि तेज होती है, दिव्य दृष्टि प्रदान करती है और स्कन्ध प्रदेश से ऊपर होने वाले रोगसमूहों को शीघ्र नष्ट करती है।
आधुनिक वैज्ञानिक युग में यद्यपि आयुर्विज्ञान की नई वैज्ञानिक खोज हो रही है। फिर भी अनेक रोग जैसे- मानसिक तनाव, मधुमेह, प्रमेह, उच्च रक्तचाप, निम्न रक्तचाप, साइटिका, कमरदर्द, सर्वाइकल स्पोंडोलाइटिस, आमवात, मोटापा, अर्श आदि अनेक रोगों को योगाभ्यास द्वारा दूर किया जा रहा है।
