अनुक्रम
हम आपसे कुछ प्रश्न पूछते हैं।
- क्या आपके घर-परिवार में कोई चिंतातुर व्यक्ति है?
- क्या आपके परिवार में कोई परफेक्शनिष्ट अर्थात कोई ऐसा व्यक्ति है?जिसे किसी कार्य को त्रुटिरहित सम्पूर्णता के स्तर तक पूर्ण करने से पूर्व चैन न मिलता हो एवं सामान्य तौर पर उसे यह त्रुटिरहित पूर्णता प्राय: प्राप्त ही न होती हो।
उपरोक्त प्रश्नों का जवाब आप स्वयं भी हो सकते हैं क्योंकि शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति इस दुनिया में होगा जिसे कभी चिंता ने न सताया हो अथवा चिंता न सताती हो। हम सभी भली भॉंति जानते हैं कि किसी कार्य विशेष के निष्पादन को लेकर चिंता करना लाभदायक होता है। यह चिंता हमें उसे कार्य को बेहतर तरीके से, दोष रहित रूप में निष्पादित करने हेतु योजना बनाने या योजनाबद्ध ढंग से कार्य करने के लिए प्रेरित एवं प्रोत्साहित करती है तथा इससे हमें सफलता प्राप्त करने में सहायता मिलती है।
डी.एस.एम.-4टी.आर में सामान्यीकृत चिंता विकार को इस प्रकार परिभाषित किया गया है – ‘घटनाओं एवं गतिविधियों जैसे कि कार्य अथवा स्कूल में निष्पादन के बारे में कम से कम छ: महीने तक होने वाली अत्यधिक दुश्चिंता एवं आशंका’ ही सामान्यीकृति चिंता कहलाती है। उपरोक्त परिभाषाओं के विश्लेषण से सामान्यीकृत चिंता विकार से संबंधित कई महत्वपूर्ण बिन्दु स्पष्ट होते हैं –
- सामान्यीकृत चिंता विकार चिंता विकृति का एक प्रकार है।
- सामान्यीकृत चिंता विकार में तीव्र चिंता एवं आशंका सतत् व्याप्त रहती है।
- सामान्यीकृत चिंता जीवन में सामान्य तौर पर घटने वाली घटनाओं एवं रोजमर्रा के कार्यों एवं गतिविधियों से संबंधित होती है।
- सामान्यीकृत चिंता विकार में व्यक्ति में भविष्य के प्रति नकारात्मक दृष्टि उत्पन्न हो जाती है एवं व्यक्ति स्वयं रोजमर्रा के कार्यों को ठीक प्रकार से नहीं कर पायेगा इसकी अत्यधिक चिंतातुर आशंका मन में घर कर जाती है।
साररूप में जीवन की कोई भी साधारण, असाधारण घटना, किसी भी गतिविधि चाहे वह ऑफिस के कार्यों को निपटाने से संबंधित हो अथवा स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय की पढ़ाई के कार्यों को करने से संबंधित हो या फिर मित्रों, परिवारजनों के संबंधों को निभाने की कुशलता से जुड़ी हो को नहीं निष्पादित कर पाने की आशंका तथा स्वयं को न नियंत्रित कर पाने एवं सम्भाल पाने का अतार्किक डर ही सामान्यीकृत चिंता विकार है।
सामान्यीकृत चिंता विकार के लक्षण
अमेरिकन साइकियेट्रिक एसोशियेसन (American psychiatric association) ने सामान्यीकृत चिंता विकार के लक्षणों को बिन्दुवार स्पष्ट किया है।
- इसमें व्यक्ति सतत् प्रवाही चिंता (free floating anxiety) से ग्रस्त रहता है।
- जीवन की दैनिक घटनाओं एवं रोजमर्रा के कार्यों के ठीक से न कर पाने की आशंका सतत बनी रहती है।
- व्यक्ति को यह लगता है कि उसका स्वयं पर से आत्मनियंत्रण खो रहा है।
- व्यक्ति में सतत प्रवाही चिंता तीन महीने से ज्यादा समय तक बनी रहती है।
- व्यक्ति को बेचैनी की समस्या लगातार बनी रहती है तथा साथ ही मॉंसपेशीय तनाव भी बना रहता है।
- व्यक्ति के व्यवहार में भी बार बार बदलाव आता रहता है।
- व्यक्ति में डिस्ट्रेस एवं बिक्षुब्धता सार्थक मात्रा में बढ़ जाती है।
सामान्यीकृत चिंता विकार के लक्षणों को डायग्नोस्टिक एण्ड स्टेटिस्टिकल मैनुअल -4 टेक्स्ट रिवीजन के अध्ययन से भली भॉंति समझा जा सकता है। आइये सामान्यीकृत चिंता विकार के नैदानिक कसौटी को उसके मौलिक स्वरूप में समझें।
1. सामान्यीकृत चिंता विकार –
- कार्य अथवा स्कूल निष्पादन जैसे गतिविधियों या घटनाओं के प्रति कम से कम छ महीने से ज्यादा दिनों तक होने वाली अपरिमित चिंता और संबंधित समस्याओं के बारे में सोचनीय आशंका
- व्यक्ति चिंता को नियत्रित करना कठिन पाता है।
- चिंता अथवा सोचनीय आशंका कम से कम निम्नांकित छ: लक्षणों में से किन्ही तीन से संबंधित हों जिनमें से कम से कम कुछ लक्षण छ: महीने से ज्यादा दिनों तक रहे हों (नोट – बच्चों के लिए केवल एक लक्षण का होना ही पर्याप्त है)।
- बेचैनी अथवा भावनाओं का उफान पर होना
- शीघ्र थक जाना (Being easily fatigued)
- एकाग्रचित्त होने में कठिनाई अथवा मन में शून्यता होना (Difficulty concentrating or mind going blank)
- चिड़चिड़ापन(Irritability)
- मांसपेशीय तनाव (Muscle tension)
- विक्षुब्ध निद्रा, निद्रा न आना या निद्रा बरकरार न रहना, निद्रा में बेचैनी, असंतोषजनक निद्रा (Sleep disturbance (difficulty falling or staying asleep or restless, unsatisfying sleep)
- एक्सिस फस्र्ट डिस्आर्डर के दायरे तक ही चिंता एवं सोचनीय आशंका सीमित नहीं रहे अर्थात् चिंता एवं आशंका पैनिक डिस्आर्डर, सामाजिक दुभ्र्ाीति, मनोग्रस्तता बाध्यता, विलगाव चिंता विकृति, एनोरेक्सिया नर्वोसा या हाइपोकोन्ड्रियासिस की वजह से नहीं हो तथा न ही पोस्ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिस्आर्डर का हिस्सा हो।
- सामाजिक, व्यावसायिक और कार्य के दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में इस चिंता एवं सोचनीय आशंका एवं दैहिक लक्षणों ने नैदानिक रूप से सार्थक दुश्चिंता एवं विघटन उत्पन्न किया हो।
- यह विक्षुब्धता किसी द्रव्य के प्रत्यक्ष फिजियोलॉजिकल प्रभाव की वजह से न हो उदाहरण के लिए किसी अन्य बीमारी में उपयोग होने वाली दवा के सेवन से अथवा औषध व्यसन अथवा सामान्य रूग्णता (जैसे कि हाइपरथाइरोडिज्म) की वजह से न हो, एवं मात्र मनोदशा विकृति, साइकोटिक विकृति अथवा साइकोटिक विकृति या फिर पर्वेसिव डेवलपमेंटल डिस्आर्डर के दौरान न हो। उपयुक्त नैदानिक कसौटी के प्रकाश में यह स्पष्ट हो गया है कि सामान्यीकृति चिंता विकृति से जो व्यक्ति पीड़ित होता है उसे सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त घोषित करने हेतु न्यूनतम् जरूरी लक्षण क्या होने चाहिए एवं कितने समय तक रहे होने चाहिए। आइये अब सामान्यीकृति चिंता विकृति के संबंध में अपनी जानकारी की परीक्षा करें।
सामान्यीकृत चिंता विकार के कारण
सामान्यीकृत चिंता विकार पश्चिमी देशों के लोगों में सर्वाधिक पायी जाती है। मनोवैज्ञानिक केसलर एवं उनके सहयोगियों द्वारा 2010 एवं 2005 में किये गये सर्वेक्षणों, रिटर, ब्लैकमोर एवं हीम्बर्ग द्वारा 2010 में किये गये सर्वेक्षण के मुताबिक किसी भी साल अमेरिका की कुल जनसंख्या के 4 प्रतिषत व्यक्तियों में इस विकृति के लक्षण पाये जाते हैं एवं इसी दर से यह विकृति कनाडा, ब्रिटेन एवं अन्य पश्चिमी देशों में भी पायी जाती है। कुलमिलाकर सम्पूर्ण जनसंख्या के 6 प्रतिषत व्यक्तियों को उनके जीवन काल में सामान्यीकृत चिंता विकार से जूझना पड़ता है जो कि एक चिंतनीय मुद्दा है। वैसे तो यह विकृति किसी भी उम्र में हो सकती है परन्तु बाल्यावस्था एवं किषोरावस्था में इसकी शुरूआत सर्वाधिक पायी गयी है। पुरुषों के मुकाबले यह विकृति महिलाओं में दो गुना पायी जाती है। इस दौड़ में महिलाओं ने पुरुषों को काफी पीछे छोड़ दिया है।
अब प्रश्न उठता है कि इस सामान्यीकृत चिंता विकार के विकसित होने के पीछे कौन से कारण अथवा कारक जिम्मेदार हैं। वैसे तो कारण एवं कारक कई हो सकते हैं परन्तु जो प्रमुख हैं एवं जिन की आपको जानकारी होनी चाहिए वे पॉंच महत्वपूर्ण कारक हैं। –
- सामाजिक-सांस्कृतिक कारक (Sociocultural factor)
- मनोगत्यात्मक कारक (Psychodyamic factor)
- मानवतावादी कारक (Humanistic factor )
- संज्ञानात्मक कारक (Cognitive factor)
- जैविक कारक (Biological factor)
- व्यवहारात्मक कारक (Behavioural factor)
1. सामाजिक-सांस्कृतिक कारक – समाज-सांस्कृतिक सिद्धान्त निर्माताओं के अनुसार सामान्यीकृत चिंता विकार से सबसे ज्यादा उन लोगों मे विकसित होती है जो कि ऐसी सामाजिक दशाओं से गुजर रहे हों जो कि उनके लिए वाकई खतरनाक हों। जैकब, प्रिंस एवं गोल्डबर्ग (2010) एवं स्टीन और विलियम (2010) ने अपने शोध में पाया है कि वे लोग जो समाज में काफी गंभीर दशाओं में जीवन यापन कर रहें हों एवं जिन्हें अपने अस्तित्व के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ता हों उन लोगों में इस विकृति से संबंधित प्रधान लक्षणों जैसे कि तनाव का सामान्य अहसास, चिंता, थकान, एवं विक्षुब्ध निद्रा का विकसित होना स्वाभाविक एवं सामान्य बात है।
सोषियो कल्चरल थ्योरिस्ट के अनुसार सामान्यीकृत चिंता विकार की दर आर्थिक दृष्टि से विपन्न लोगों में ज्यादा पायी जाती है। क्योंकि गरीबी स्वयं में ही एक अभिषाप है एवं यह गरीब लोगों को ऐसे क्षेत्रों में निवास करने के लिए मजबूर कर देती है जहॉं स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव हो अथवा स्वास्थ्य की दृष्टि से उपयुक्त न हों, इसके अलावा इन इलाकों में षिक्षा की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध न होने के कारण आपराधिक घटनाओं की दर भी बढ़ी चढ़ी रहती है, तथा रोजगार के अवसर भी न्यून होते हैं, इन परिस्थितियों के कारण इस प्रकार के सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में वास करने वाले लोगों में सदैव ही अपने स्वास्थ्य एवं जान-माल की चिंता बनी रहती है जो कि कालान्तर में चिंता एवं मनोदशा विकृति का रूप ग्रहण कर लेती है।
यद्यपि यह सत्य है कि तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक कारकों पर किये गये अध्ययन यह दर्शाते हैं कि इन कारकों का सार्थक असर सामान्यीकृत चिंता विकार के विकसित होने की दर पर पड़ता है, किन्तु फिर भी दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि केवल यही कारण इस चिंता विकृति की उत्पत्ति एवं विकास के लिए सम्पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। क्योंकि इन्हीं सामाजिक-सांस्कृतिक दशाओं में जीवनयापन करने वाले ही बहुत से गरीब पिछडे़ एवं अशिक्षित लोगों में इस विकृति के लक्षण विकसित होते हुए नहीं पाये गये हैं। जो इस ओर इशारा करते हैं कि शोध द्वारा उपलब्ध जानकारी अभी पर्याप्त नहीं है एवं सच्चाई का प्रकटीकरण जरूरी है। इसे और स्पष्ट करने के लिए हम अन्य विचारधाराओं का सहारा भी ले सकते हैं इनका वर्णन आगे की पंक्तियों में किया जा रहा है।
मनोगत्यात्मक कारण आधारित व्याख्या : जब बाल्यावस्था ंिचंता हल हुए बिना ही रह जाती है।
फ्रायड के अनुसार जब एक बालक न्यूरोटिक अथवा नैतिक चिंता की सामान्य से अधिक मात्रा से ग्रसित होता है तब उसे सामान्यीकृत चिंता होने की सारी परिस्थितियॉं विनिर्मित हो जाती हैं। विकास की शुरूआती अवस्थाओं के अनुभव बाालक में अप्रासंगिक रूप से उच्च चिंता उत्पन्न कर सकते हैं। उदारहरण के लिए जब एक बालक को शैशवावस्था में भूख लगने पर दूध के लिए मचलने एवं हर बार रोने पर दण्ड स्वरूप नितंबों पर आघात किया जाता है तो ऐसा बालक दो वर्ष की विकासात्मक अवस्था में दण्ड मिलने पर अपनी पैंट गीली कर देता है तथा घुटने पर चलने की अवस्था में अपने जननांगों को प्रदर्षित करता है। इसके परिणामस्वरूप अन्तत: बालक इस निष्कर्ष पर पहुॅंच सकता है कि उसके इड की इच्छायें एवं आवेग काफी हानिकारक हैं और उसकी वजह से उसमें इन इच्छाओं अथवा आवेगों के उत्पन्न होने पर अकुलाहक चिंता उत्पन्न होने की प्रवृत्ति जन्म ले सकती है।
विपरीत नजरिये से यदि देखें तो ऐसे बच्चे का इगो सुरक्षा प्रक्रम (ईगो डिफेंस मेकेनिज्म) इतना कमजोर होता है कि वह सामान्य चिंता का भी सक्षमता के साथ सामना नहीं कर पाता है। फ्रायड के अनुसार वे बच्चे जिन्हें कि उनके माता पिता के द्वारा अत्यधिक सुरक्षा प्रदान की जाती है। जिनकी छोटी से छोटी एवं बड़ी से बड़ी कइिनाइयों को माता-पिता स्वयं हल करते हैं एवं उनका बचाव करते हैं, विपरीत परिस्थितिओं का सामना करने का अवसर ही नहीं मिल पाता जिसके फलस्वरूप उनमें एक मजबूत एवं प्रभावी सुरक्षा प्रक्रम विकसित ही नहीं हो पाता है। जब वयस्क जीवन में उन्हें कठिन परिस्थितियों से उनका सामना होता है तब वे उससे निपट ही नहीं पाते हैं, उनका ईगो सुरक्षा प्रक्रम काफी कमजोर होता है एवं वे अपनी चिंता को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं।
हालांकि प्राय: मनोगत्यात्मक थ्योरिस्ट सामान्यीकृत चिंता की व्याख्या करने के फ्रायड के कुछ विशिष्ट तरीकों से असहमति जताते हैं परन्तु उनमें से बहुत से इस बात से भी काफी सहमत हैं कि इस विकृति के चिन्हों को बच्चों एवं उनके माता-पिता के बीच प्रारंभिक संबधों में पनपी असहजता में ढूॅंढ़ा जा सकता है (षार्फ, 2012)। इन मनोगत्यात्मक व्याख्याओं को अनुसंधानकर्ताओं ने बहुत से तरीकों से जॉंचने परखने का प्रयास किया है। ऐसे ही एक प्रयास में अनुसंधानकर्ताओं ने यह परिकल्पना कि सामान्यीकृत चिंता विकार के रोगी चिंता से बचने के लिए सुरक्षा प्रक्रम अपनाते हैं, कि जॉंच की। इसके तहत उन्होंने पहले से ही इस रोग से ग्रसित व्यक्तियों से योजना के तहत उन घटनाओं पर बात करने के लिए कहा जिनसे उनमें पहले काफी व्याकुलतादायक चिंता उत्पन्न हो जाती थी। परिणाम में ज्यादातर रोगियों द्वारा उन घटनाओं को भूल जाने की बात, तुरंत की गयी बात को भी भूल जाने की बात अनुक्रिया के रूप में कही गयी। इसके अलावा कुछ रोगीे तो बातचीत की दिशा को ही बदल दिया।
दूसरे तरह के प्रयासों में अनुसंधानकर्तो ने ऐसे बच्चों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है जिन्हें उनके इड की इच्छाओं एवं आवेगों की अभिव्यक्ति की वजह से बचपन में अतिरंजित दण्ड दिया गया। बुष, मिलॉर्ड एवं शियर (2010) के अनुसार ऐसे बच्चों जीवन की अन्य अवस्थाओं में व्याकुलतापरक चिंता की काफी मात्रा से ग्रस्त रहते हैं। इसके अलावा मेनफ्रेडी एवं उनके सहयोगियों (2011) अपने शोध से यह प्रमाणित किया है कि जिन बच्चों को बचपन में उनके माता-पिता द्वारा काफी सुरक्षित जीवन जीने की सुविधा मिलती है उनमें आगे चलकर सामान्यीकृत चिंता विकसित होने की संभावना काफी बढ़ जाती है।
यह सत्य है कि उपरोक्त वर्णन में जिन अध्ययनों की चर्चा की गयी है वे सामान्यीकृत चिंता विकार में मनोगत्यात्मक कारकों की वकालत करने में सफल रहे हैं परन्तु बहुत से ऐसे मनोवैज्ञानिक हैं जिन्होंने इन अध्ययनों की प्रामाणिकता पर कुछ अनुत्तरित प्रश्नों एवं संभावनाओं के माध्यम से सवाल उठाये हैं। उनके अनुसार चिंता उत्पन्न करने वाली घटनाओं के संदर्भ में चिकित्सा की शुरूआत में ही चिकित्सक द्वारा सीधे सवाल पूछे जाने पर भूल जाने अथवा बातचीत की दिशा मोड़ने की रोगी द्वारा की गयी प्रतिक्रिया स्वाभाविक भी हो सकती है, क्योंकि इस बात की पूरी संभावना हो सकती है कि वे जानबूझकर जीवन की नकारात्मक घटनाओं पर ध्यान केंद्रित करने की बजाय जीवन के सकारात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाह रहे हों। अथवा चिकित्सक में उनका विश्वास उत्पन्न होने से पूर्व इस पर बात शुरू करना उन्हें व्याकुल करता हो। आइये अब इस चिंता विकृति के विकसित होने के कारण को मानवतावादी नजरियें से समझने का प्रयास करते हैं।
4. संज्ञानात्मक कारक – सामान्यीकृत चिंता विकार की कारणात्मक व्याख्या संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों के द्वारा संज्ञान में होने वाली संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के आधार पर की गयी है। संज्ञानात्मक प्रक्रियाओ में व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त चिंतन प्रक्रिया, समस्या-समाधान प्रक्रिया, उसका प्रत्यक्षण, अवधान, स्मृति आदि आते हैं। इन मानसिक प्रक्रियाओं का प्रयोग जब व्यक्ति अपअनुकूलित तरीके से करता है या दूसरे शब्दों में उसमें अपअनुकूलित स्वभाव विकसित हो जाता है तब उसके मनोरोगी होने की संभावना बढ़ जाती है। संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सामान्यीकृत चिंता विकार के विकसित होने के पीछे व्यक्ति का नकारात्मक चिंतन, विकृत विश्वास, धारणायें एवं मान्यतायें होती हैं।
एक मनुष्य के लिए अत्यंत जरूरी है कि उसके समुदाय के प्रत्येक महत्वपूर्ण व्यक्ति द्वारा उसे स्नेह, अपनापन एवं अनुमोदन प्राप्त हो। जब कोई जैसा चाहता, व पसन्द करता है, वैसा उस तरीके से नहीं होता है तो यह स्थिति बहुत दुखदायक एवं दुर्घटनास्वरूप है। यदि किसी को स्वयं को मूल्यवान समझना है तो उसे पूर्ण रूप से योग्य, उपयुक्त एवं सभी क्षेत्रों उपलब्धि हासिल करने वाला होना चाहिए। एलिस कहते हैं कि वे व्यक्ति जिनकी धारणाये एवं मान्यतायें उपरोक्त प्रकार की होती हैं उनका सामना किसी तनावपूर्ण परिस्थिति से होता है तो वे उसे परिस्थिति के प्रति नकारात्मक अनुक्रिया ही देते हैं दूसरे शब्दों में उनकी इसी प्रकार की धारणाओं की वजह से वे ऐसी परिस्थितियॉं जो कि व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिणाम लाती हैं जैसे कि नई नौकरी लगना, जीवन साथी से पहली भेंट, कोई परीक्षा आदि से सामना होने पर काफी तनाव में आ जाते हैं एवं सामान्य लोगों के समान इनका सामना करने के बावजूद पूर्ण रूप से त्रुटिरहित कार्य निष्पादन करने की स्वयं से अतिरंजित अपेक्षा की वजह से चिंताग्रस्त हो जाते हैं। उनका प्रत्यक्षण भी नकारात्मक हो जाता है एवं वह इन घटनाओं को इतने खतरनाक नजरिये से देखते हैं कि इनके प्रति असहज प्रतिक्रिया देते हैं एवं भय भी महसूस करने लगते हैं। इन्हीं धारणाओं, विश्वासों एवं मान्यताओं से चिपके रहने के कारण यही चिंता लम्बे समय तक बनी रहने पर सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त हो जाते हैं एवं उन्हें इसके उपचार के लिए मनोचिकित्सक का सहारा लेना पड़ता है।
प्रख्यात संज्ञानात्मक सिद्धान्तवादी मनोवैज्ञानिक एरोन बेक कहते हैं कि सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त व्यक्ति अपने मन में ऐसी मूक धारणायें रखते हैं जो कि इंगित करती हैं कि वे भयानक खतरे में हैं। उदाहरण के लिएक्लार्क एवं बेक (2012) कुछ धारणाओं को सामने रखते हैं जैसे – ‘एक परिस्थिति अथवा एक व्यक्ति तब तक असुरक्षित है जब तक कि वह सुरक्षित साबित न हो जाये (A situation or a person is unsafe until proven to be safe)।’ या – ‘सर्वाधिक बुरा क्या हो सकता है इसकी कल्पना कर लेना हमेशा ही सबसे अच्छा है (It is always best to assume the worst)।’फेरारी एवं उनके सहयोगियों (2011) के अनुसार एलिस एवं बेक दोनों के ही प्रस्तावों के समय से ही अन्य मनोवैज्ञानिक एवं शोधाथ्र्ाी अपने अध्ययनों के आधार पर यह कहते रहे हैं कि सामान्यीकृत चिंता विकार के रोगी भी विशेष रूप से खतरे के सबंध में कुसमायोजी या अपअनुकूलित धारणाओं को अपने मन में धारण कर के रखते हैं। एलिस एवं बेक की व्याख्याओं केा आधार मानने के उपरान्त से ही सामान्यीकृत चिंता विकार के विकास के कारकों की व्याख्या नये तरीके से की जाने लगी है आइये उन नये नजरिये के बारे में जानें।
सामान्यीकृत चिंता विकार की नवीन संज्ञानात्मक व्याख्यायें- एलिस एवं बेक के विवेचनों के आधार पर कई सामान्यीकृत चिंता विकार की कई नवीन व्याख्यायें हाल ही के वर्षों में नये तरीकों से की गयी है। इन नये तरीकों में तीन तरीके सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं-
- मेटाकॉग्निटिव थ्योरी (Metacognitive theory),
- अनिश्चितता सिद्धान्त की असहनशीलता (The intolerance of uncertainty theory)
- परिहार सिद्धान्त (Avoidance theory)। इनका विस्तृत वर्णन है –
मेटाकॉग्निटिव थ्योरी (Metacognitive theory)-एड्रियन वेल्स (2011) के द्वारा विकसित की गयी इस थ्योरी के अनुसार सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त लोग अपरोक्ष अथवा अव्यक्त रूप में चिंता के संदर्भ में अपनी सकारात्मक एवं नकारात्मक विचार रखते हैं। सकारात्मक दृष्टि से वे इस विचार में विश्वास करते हैं कि जीवन में आने वाली चुनौतियों को सावधानी पूर्वक बेहतर मूल्यॉंकन में चिंता करना एक बेहतर तरीका है। एवं इस विचार पर विश्वास कर वे सतत् रूप से चिंता ही करते रहते हैं। वहीं दूसरी ओर वे चिंता के संबंध में नकारात्मक विचारों को भी अपनी धारणाओं का हिस्सा बनाकर रखते हैं और चिंता के प्रति उनका यही नकारात्मक नजरिया मानसिक विकृति के विकास के द्वार खोल देता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारा समाज ही उन्हें यह सिखाता है कि चिंता करना एक बुरी आदत है एवं यह हमारे मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। फलत: बार बार चिंता करने पर व्यक्ति अपनी चिंता करने की आदत के नकारात्मक परिणामों के प्रति अपने चिंतन में अतिसंवेदनशील हो जाता है एवं वह बहुत चिंता कर रहा है इस बात की भी वह चिंता करने लगता है, और उसे यह अपने नियंत्रण से बाहर प्रतीत होती है। इसका परिणाम उस व्यक्ति के जीवन में सामान्यीकृत चिंता विकार के रूप में सामने आता है।
सामान्यीकृत चिंता विकार की इस व्याख्या को वेल्स (2011) एवं फेरारी (2010) द्वारा किये गये अध्ययनों के परिणामों से सकारात्मक बल एवं समर्थन मिलता है। अनिश्चितता सिद्धान्त की असहनशीलता (The intolerance of uncertainty theory)-सामान्यीकृत चिंता विकार की एक अन्य नवीन प्रकार की व्याख्या जिसे कि अनिश्चितता सिद्धान्त की असहनशीलता के रूप में समझाया गया है के अनुसार कुछ व्यक्तियों में सहनशीलता की इतनी कमी होती है कि वे इस जानकारी को कि उनके साथ भी जीवन में नकारात्मक घटनायें घट सकती हैं, यह जानते हुए कि ऐसा होने की संभावना काफी कम अथवा न के बराबर है इसको सहन नहीं कर पाते हैं। चॅूंकि जीवन में कौन सी घटना कब घटेगी यह पूर्णतया निश्चित नहीं होता है एवं घटनायें अनिश्चित तरीके से घटती हैं अतएव इन अनिश्चित घटनाओं के जितने भी उदाहरण ऐसे व्यक्तियों को मिलते जाते हैं वे उन्हें और भी चिंतिंत कर देते हैं और वे इस बात की चिंता करने लगते हैं कि आने वाली घटना निश्चित ही उनके लिए परेशानी का सबब बन जायेगी।
परिहार सिद्धान्त (Avoidance theory)- अंत में सामान्यीकृत चिंता विकार की एक अन्य नये तरह की व्याख्या परिहार सिद्धान्त के द्वारा भी की जाती है। इस व्याख्या का श्रेय शोधाथ्र्ाी थॉमस बोरकोवेक को जाता है उनके अनुसार इस विकृति से ग्रस्त व्यक्ति के शरीर का उत्तेजन स्तर जिसे कि अंग्रेजी में एराउजल कहा जाता है सामान्य व्यक्तियों की अपेक्षा कहीं ज्यादा होता है। इस प्रकार के व्यक्तियों की हृदय गति, श्वसन दर, नाड़ी गति आदि तीव्र होती हैं। इसके अलावा ऐसे व्यक्तियों में अपने इस उत्तेजना स्तर को चिंता के द्वारा कम करने की प्रवृत्ति पायी जाती है। मनोवैज्ञानिक न्यूमेन एवं उनके सहयोगियों (2011) ने इस प्रवृत्ति के पीछे छिपे कारणों का विश्लेषण किया है उनके अनुसार बढ़े हुए शारीरिक उत्तेजन के कारण व्यक्ति में बेचैनी एवं तनाव बढ़ जाता है जिससे बचने के लिए ऐसे व्यक्ति ज्यों ही चिंता करना प्रारंभ करता है उसका ध्यान शरीर से हट जाता है एवं चिंता के संज्ञानात्मक पहलू की ओर केंद्रित हो जाता है। परिणाम स्वरूप तात्कालिक रूप से यह चिंता उसकी शारीरिक उत्तेजना को शांत करने में सफल हो जाती है परन्तु दीर्घावधि में ऐसा करने की आदत अपअनुकूलित होने के कारण व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होती है। फलत: व्यक्ति सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त हो जाता है।
हाल ही के वर्षों में मार्टिन एवं नेमरॉफ (2010) जैसे जैवशास्त्रियों ने सामान्यीकृत चिंता विकार के जैविक कारकों से जुड़ाव के संदर्भ में खोजें की हैं एवं प्रमाण जुटाये हैं। इस प्रकार की सर्वप्रथम खोज सन् 1950 में हुई थी, जिसमें शोधार्थियों ने बेन्जोडाइएजेपीन (Benzodiazepines) नामक औषध को चिंता को कम करने में सक्षम पाया था। बेन्ज्ाोडाइएजेपीन स्वयं में औषधियों का एक परिवार है जिसमें एल्प्राजोलम (alprazolam), लोराजेपाम (lorazepam), एवं डाइजेपॉम (diazepam) जिसे क्रमश: अन्य नामों जैनैक्स (xanax), एटीवाम (ativam) एवं वैलियम (valium) कहा जाता है सम्मिलित होती हैं।
क्लासिकी अनुबंधन के अलावा मॉडलिंग भी इस चिंता विकृति के विकास में काफी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है जब चिंता के स्वभाव वाला व्यक्ति चिंता से ग्रस्त अन्य व्यक्तियों को सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त देखता है तब उसे इस बात का प्रमाण मिल जाता है कि यह समस्या केवल उसे ही नहीं है बल्कि अन्य लोगों को भी है एवं वे भी उससे निपट नहीं पा रहे हैं फलत: उस व्यक्ति में भी स्वयं अपनी चिंता से पीछा नहीं छुड़ा पाने की मनोदशा विकसित हो जाती है और उसकी सामान्यीकृत चिंता विकार और भी गंभीर हो जाती है। इसके अलावा उद्दीपक सामान्यीकरण (stimulus generalization) की प्रक्रिया सामान्यीकृत चिंता विकार की उत्पत्ति में एवं विकास में अन्य सिद्धान्तों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
सामान्यीकृत चिंता विकार के उपचार
उपरोक्त पंक्तियों में आपने अभी तक सामान्यीकृत चिंता विकार के कारणों के संबंध में ज्ञान प्राप्त किया है अपनी समझ को बढ़ाया है। आइये अब इस बिन्दु के अंतर्गत सामान्यीकृत चिंता विकार के उपचार की कतिपय प्रविधियों के बारे में ज्ञान प्राप्त करें।
मानवतावादी एप्रोच आधारित उपचार (humanistic approach based treatment)-मानवतावादी विचारधारा पर आधारित प्रविधियों में प्रसिद्व मानवतावादी मनोवैज्ञानिक कार्ल रोजर्स के द्वारा प्रतिपादित कलायंट केंद्रित चिकित्सा प्रविधि (client centered therapy) सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रविधि है। हालांकि यह प्रविधि व्यवहारात्मक प्रविधियों की तुलना में बेहतर साबित नहीं होती है परन्तु फिर भी यह चिंता को कम करने में कुछ हद तक सफल अवश्य हुई है। इस प्रविधि के अन्तर्गत मानवतावादी चिकित्सक रोगी को बिना शर्त सकारात्मक सम्मान (अन्कंडीशलन पॉजिटिव रिगार्ड) देने के सिद्धान्त के तहत व्यक्ति को एक ऐसा स्वीकारात्मक एवं आरामदायक वातावरण उपलब्ध कराते हैं जिसमें व्यक्ति स्वयं को शांत एवं रिलैक्स करने में सहज ही सक्षम हो पाता है एवं इस शान्ति एवं रिलेक्सेशन में उसे अपनी चिंता के कारणों को बेहतर ढंग से समझने एवं समाधान ढॅूंढ़ने का समुचित अवसर मिलता है जिससे उसकी चिंता काफी हद तक कम हो पाती है। मनोचिकित्सकों के अनुसार यह चिकित्सा विधि चिंता को कुछ हद तक कम करने में अवश्य सफल रहती है परन्तु इसका प्रभाव प्लेसिबो प्रविधि के समान ही रहता है तथा तात्कालिक ही रहता है अर्थात कुछ समय उपरान्त व्यक्ति पुन: चिंता की समस्या से ग्रस्त हो जाता है।
एलिस द्वारा प्रतिपादित रेशनल इमोटिव थेरेपी (Rational emotive therapy) का उपयोग भी इस विकृति के उपचार हेतु किया जाता है। यह चिकित्सा विधि इस सिद्धान्त पर आधारित है कि यदि रोगी के चिंता के संबंध में विकृत धारणाओं एवं मान्यताओं को उपयुक्त तर्क के माध्यम से चुनौति दी जाये तो उसकी चिंता के संबंध में समझ बढ़ती है एवं चिंता का सामान्यीकरण करने की प्रवृत्ति घटती है।
इन औषधियों के प्रयोग के अलावा रिलेक्सेषन प्रषिक्षण एवं बायोफीडबैक प्रशिक्षण जैसी प्रविधियों को भी जैविक उपचार अथवा मेडिकल उपचार की श्रेणी में रखा जाता है जिसके अन्तर्गत सामान्यीकृत चिंता विकार से ग्रस्त व्यक्ति को चिंता होने पर कैसे रिलेक्स होने का प्रषिक्षण दिया जाता है तथा बायोफीडबैक प्रषिक्षण के माध्यम से अपने अनैच्छिक अनुक्रियाओं जैसे कि पल्स रेट, हृदय गति एवं श्वसन दर आदि पर आत्मशक्ति के माध्यम से नियंत्रण करना सिखलाया जाता है।