अनुक्रम
समुद्री बीमा सबसे प्राचीनतम बीमा का स्वरूप है व्यापारिक जगत में लोग सामुद्रिक हानि आपस में बाँट लेते हैं। सामुद्रिक बीमा का प्रारम्भ कब, कहां शुरू हुआ इसका निर्णय अभी तक नहीं हो पाया। प्राचीन काल में समुद्री मार्गों से व्यापार करने वाले देशों में समुद्री हानियों से क्षतिपूर्ति प्रदान करने की रीतियां प्रचलित थी। 13वीं शताब्दी के अन्त तक समुद्री बीमा अपने व्यावसायिक आधार का स्थापित कर लिया। आधुनिक समुद्री बीमा प्राचीन बीमा कार्यकलाप एवं छाप को ग्रहण कर लिया है।
समुद्री बीमा की आवश्यक शर्तें
1. समुद्री बीमा की सामान्य शर्तें –
1. प्रस्ताव – सामुद्रिक बीमा का प्रस्ताव लिखित एवं मौखिक हो सकता है। इसके लिये कोई विशेष प्रपत्र की आवश्यकता होती है। लेकिन कभी कभी सूचना तैयार करने के लिये एक निर्धारित प्रपत्र तैयार किया जाता है। इस प्रपत्र में बीमा वस्तु की जोखिम सम्बन्धित सभी सूचनायें प्राप्त की जाती है। ये सूचनायें सादे कागज में लिखी जा सकती है इन सूचनाओं में जहाज, माल पर किराया के मूल्य, माल की प्रकृति, बचन, परिणाम स्थायीत्व आदि आते हैं।
2. सामुद्रिक बीमा संविदा की विशिष्ट शर्तें
सामुद्रिक बीमा अधिनियम, 1963 की धारा 13 में समुद्री बीमा विशिष्ट शर्तो को प्रावधानित किया गया है जो इस प्रकार ‘‘समुद्री बीमा की संविदा एक करार है जिसमें बीमादाता द्वारा किये ढंग पर विस्तार से बीमादार की सामुद्रिक हानियों की या समुद्री व्यापार से अनुषंगिक हानियों की क्षतिपूर्ति करने का वचन देता है।’’
उपरोक्त अधिनियमों के अनुसार समुद्री बीमा संविदा के विधिपूर्ण (lawful) होने के लिए शर्तो की पूर्ति होना आवश्यक होता है- समुद्री बीमा अधिनियम में उपबन्ध आदेश बीमा की शर्तें इस प्रकार है-
- बीमा योग्य हित,
- परम सद्भाव,
- समाश्वासन (वारण्टियां)
1. बीमा योग्य हित – बीमा योग्य हित मौजूद न रहने पर समुद्री बीमा की संविदा शून्य ( void ) हो जाती है। बीमायोग्य हित तब मौजूद रहता है जब बीमा कराने वाले का बीमित विषय से ऐसा लगाव हो कि उसकी सुरक्षा से वह लाभान्वित हो और उसकी हानि या क्षति होने पर उसे हानि पहुंचे या उस पर कोई दायित्व आए। बीमा योग्य हित कब मौजूद रहे? समुद्री बीमा अधिनियम, 1963 की धारा 8 में यह उपबन्धित किया गया है कि समुद्री बीमा में बीमा कराते समय बीमायोग्य हित मौजूद रहना आवश्यक नहीं है। किन्तु हानि होते समय यह अवश्य मौजूद रहना चाहिए। इसका अपवाद केवल वह समुद्री बीमा है जो ‘हानि हुई या नहीं हुई’ ( Lost or not lost ) की शर्त के साथ कराया गया हो। इस अपवाद को यहां समझ लेना चाहिए। माल या जहाज के बन्दरगाह से चल चुकने के बाद उसका बीमा कराया जाता है। ऐसी स्थिति में सम्भव है कि बीमादार को उसकी सुरक्षितता के सम्बन्ध में कोई सूचना न हो।
i. व्यपदेशन ( Representation ) के नियम – संविदा तय करने के सिलसिले में बीमादार या उसके एजेन्ट द्वारा जो व्यपदेशन किए जाते हैं उनसे सम्बन्धित नियम समुद्री बीमा अधिनियम की धारा 22 में प्रावधानित है। जो इस प्रकार है :-
- बीमादार या उसके एजेंट को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि संविदा पूरी होने के पूर्व जो भी महत्वपूर्ण व्यपदेशन ( Representation ) किया जाता है वह सत्य होना चाहिए, अन्यथा बीमादाता संविदा शून्य कर सकता है।
- ऐसा प्रत्येक व्यपदेशन महत्वपूर्ण है जो बीमादाता द्वारा प्रीमियम नियत करने या जोखिम संवृत करने के निर्णय पर असर डालता हो।
- व्यपदेशन तथ्य के बारे में प्रत्याशा या विश्वास (expectation or belief ) के बारे में हो सकता है। ऐसा व्यपदेशन सारत: सही और सद्भावपूर्वक होना चाहिए।
ii. प्रकटन सम्बन्धी नियम- समुद्री बीमा अधिनियम की धारा 20 और 21 में बीमादार या उसके एजेंट के लिए प्रकटन के विषय में वैधानिक नियम दिए गए हैं जो इस प्रकार है :
- संविदा पूर्ण होने से पूर्व बीमादार बीमादाता को प्रत्येक ऐसी महत्वपूर्ण परिस्थिति (material circumstance) प्रकट करेगा जो उसकी जानकारी में हो।
- यदि बीमा संविदा बीमादार का एजेंट कर रहा हो तो उपर्युक्त कर्तव्य उस एजेंट का भी होगा। जो बातें एजेंट की जानकारी में हो उनको बीमादाता के समक्ष प्रकट करना आवश्यक है।
- यह मान लिया जाता है कि बीमादाता को ऐसी प्रत्येक परिस्थिति की जानकारी है जो कारबार के सामान्य दौरान में उसे जाननी चाहिए।
- ऐसी प्रत्येक परिस्थिति महत्वपूर्ण होती है जो किसी जानकारी बीमादाता के इस निर्णय पर प्रभाव डालती है कि कितना प्रीमियम नियत किया जाए अथवा जोखिम संवृत किया जाए या नहीं। अत: ऐसी समस्त परिस्थितियों का पूर्ण प्रकटन करना बीमादार या उसके एजेन्ट का कर्तव्य हो जाता है। यदि ऐसा प्रकटन न किया गया तब बीमादाता संविदा शून्य (void) कर सकता है।
iii. प्रकटन सम्बन्धी नियम का अपवाद –कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिनके बारे में यदि बीमादाता ने पूछताछ न की हो तब उनको प्रकट करने की जिम्मेदारी बीमादार या उसके एजेंट के ऊपर नहीं होती (धारा 20)। अत: यदि उन मामलों में बीमादाता पूछताछ करे तब तो उन्हें प्रकट करना होगा, किन्तु अन्यथा नहीं। वे परिस्थितियां है:
- ऐसी कोई परिस्थिति, जो जोखिम को कम करती हो।
- ऐसी कोई परिस्थिति, जिसकी जानकारी बीमादाता को है या होनी चाहिए। यह मान लिया जाता है कि सामान्य ज्ञान या सर्वविदित बातों की जानकारी बीमादाता को है। इसी प्रकार यह मान लिया जाता है कि बीमादाता को उन बातों की जानकारी है जिन्हें अपने कारबार के सामान्य सिलसिले में उसे जानना चाहिए।
- ऐसी परिस्थिति जिसका प्रकटन बीमादाता ने न चाहा हो अर्थात् जिसके बारे में उसने जानकारी को अधित्यक्त ( waive ) कर दिया हो।
- ऐसी कोई परिस्थिति जिसका प्रकटन किसी वारण्टी के कारण अनावश्यक हो।
3. समाश्वासन (वारण्टियां) – समुद्री बीमा अधिनियम के अनुसार बीमा संविदा में वारंण्टी का आशय उन वचनों से है जो बीमादार द्वारा दिए जाते हैं। धारा 35 (1) के अनुसार ‘‘वारण्टी द्वारा बीमादार यह वचन देता है कि कुछ विशिष्ट बात की जाएगी या नहीं की जाएगी या कोई शर्त पूरी की जाएगी अथवा जिस वचन द्वारा बीमादार किसी विशिष्ट तथ्य के विद्यमान होने को स्वीकार या इन्कार करता है।’’ वारण्टी का पूर्णतया पालन करना बीमादार के लिए अनिवार्य है। धारा 35 के अनुसार वारण्टी का अक्षरश: पालन होना चाहिए, चाहे वह जोखिम के सन्दर्भ में महत्वपूर्ण (material) हो या सारहीन (immaterial) हो। वारण्टी भंग होने पर बीमादाता वारण्टी के भंग होने की तिथि से अपने दायित्व से मुक्त हो जाएगा, वह केवल उसके पूर्व की ही हानियों के प्रति दायी होगा, किन्तु दशाओं में वारण्टी का भंग होना क्षम्य मान लिया जाता है।
- यदि परिस्थितियां बदल जाने के कारण कोई वारण्टी लागू न हो सके,
- यदि कोई कानून बनाए जाने के कारण उनके अन्तर्गत कोई वारण्टी विधिविरूद्ध (unlawful) हो जाए, या
- यदि बीमादाता ने वारण्टी भंग को अधित्यक्त (waive) कर दिया हो।
सामुद्रिक बीमा की प्रकृति
समुद्री बीमा संविदा की प्रकृति क्षतिपूर्ति के सिद्धान्त से सम्बन्धित है। समुद्री बीमा की संविदा क्षतिपूर्ति संविदा है। अत: इसमें क्षतिपूर्ति सिद्धान्त लागू होता है। क्षतिपूर्ति सिद्धान्त यह है कि बीमा संविदा के अन्तर्गत बीमादार केवल वास्तविक हानि की ही पूर्ति कराने का हकदार है, किन्तु वास्तविक हानि से अधिक वह कुछ भी प्राप्त नहीं कर सकता। समुद्री बीमा की संविदा प्रकृति में क्षतिपूर्ति सिद्धान्त उतनी कठोरता से नहीं लागू होता जितना अग्नि बीमा में होता है। सामान्त: में हम यह पाते है कि जहाज या माल के बीमे में अधिकतर मूल्यांकित पॉलिसी (Valued policy) ही ली जाती है। ऐसी पॉलिसी में बीमित जहाज अथवा बीमित माल का मूल्यांकन बीमा करते समय ही कर लिया जाता है- यह बीमदार और बीमादाता दोनों की परस्पर स्वीकृति से तय होता है और वह मूल्य पॉलिसी में लिख दिया जाता है। इस मूल्य को ‘बीमित मूल्य’ (insured value) कहते हैं।
जहाज का बाजार भाव बहुत घटता-बढ़ता रहता है। जहाज मालिक की दृष्टि से जहाज के विक्रय मूल्य का उतना महत्व नहीं है जितना कि उसकी भाड़ा उपार्जित करने की क्षमता का होता है। अत: जहाज का जो बीमित मूल्य दोनों पक्षों की पारस्परिक सहमति से तय होता है वह प्राय: ही उसके बाजार भाव से ऊँचा होता है। इसी प्रकार, माल का समुद्री बीमा करते समय उसके मूल्यांकन में उसकी लागत, भाड़े, बीमे एवं अन्य व्ययों के अतिरिक्त उस पर एक उचित प्रतिशत लाभ की रकम भी जोड़ी जाती है और तब उसका बीमित मूल्य निर्धारित होता है और इसी बीमित मूल्य के आधार पर क्षतिपूर्ति की रकम निर्धारित की जाती है।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होता है कि मूल्यांकित पॉलिसी के अन्तर्गत प्राप्त होने वाली क्षतिपूर्ति केवल वास्तविक हानि के लिए नहीं होती। माल बीमा में लाभ का अंश भी शामिल रहता है और जहाज बीमा में भी बाजार भाव का आधार न लेकर पूर्व निश्चित मूल्यांकन का आधार लेने के कारण वास्तविक हानि से अधिक रकम क्षतिपूर्ति के रूप में मिल जाती है। इसलिए अक्सर कहा जाता है कि समुद्री विशुद्ध रूप से क्षतिपूर्ति सिद्धान्त पर आधारित नहीं है। परन्तु यह कथन ठीक नहीं है। तथ्य यह है कि समुद्री बीमा व्यापारिक कारबार से सम्बन्धित होता है। अत: क्षतिपूर्ति करने में भी व्यावसायिक आधार पर अपनाया जाता है। मूल्यांकित पॉलिसी के प्रसंग में हम कह सकते हैं कि समुद्री बीमा में ‘शुद्ध क्षतिपूर्ति’ नहीं दी जाती अत: ‘व्यावसायिक क्षतिपूर्ति’ प्रदान की जाती है।
सामुद्रिक बीमा का क्षेत्र
समुद्री बीमा संविदा में बीमाकर्ता बीमित विषय की समुद्री जोखिमों द्वारा हानियॉ क्षति होने पर बीमादार की क्षतिपूर्ति के लिये दायी होगा। सामुद्रिक बीमा के क्षेत्र दो क्षेत्रों में जोखिमों को बाँटा गया है-
- माल बीमा
- जहाज बीमा
- भाड़े बीमा का दायित्व
- दायित्व बीमा
(2) समुद्री बीमा में जोखिम से जुड़ा दायित्व-
- समुद्री आपदावे
- अग्नि से सम्बन्धित समुद्री आपदा
- माल प्रक्षेपण से सम्बन्धित आपदा
- चोरी, युद्ध अन्य आपदायें से सम्बन्धित आपदा।
सामुद्रिक बीमा की विषयवस्तु
समुद्री बीमा इन चार विषयों की जोखिमों पर कराया जाता है
- माल पर,
- जहाज पर
- भाड़े पर तथा
- दायित्व पर।
इनको ही समुद्री बीमा की विषय-वस्तु (subject matter) कहा जाता है। विषय-वस्तु के आधार पर समुद्री बीमा को चार खण्डों में विभाजित किया जा सकता है।
- माल बीमा
- जहाज बीमा
- भाड़ा बीमा और
- दायित्व बीमा।
1. माल बीमा – समुद्री बीमा कारबार में माल बीमा का सबसे अधिक महत्व है। माल बीमा के अन्तर्गत वर्गो के माल का समुद्री बीमा कराया जाता है :
- आयात-निर्यात सम्बन्धी माल
- तटीय बन्दरगाहों के बीच जल परिवहन द्वारा जाने वाला माल
- रेल, सड़क तथा अन्य परिवहन साधनों द्वारा भेजा जाने वाला माल तथा
- आन्तरिक जलमार्गो में बजड़ों, नावों, स्टीमरों आदि द्वारा जाने वाला माल।
माल के परिवहन के सिलसिले में कुछ जोखिमों से हानि होने पर उसकी पूर्ति करने की जिम्मेदारी माल वाहन (carrier) के ऊपर होती है। ऐसी हानियों और जोखिमों का उल्लेख माल परिवहन सम्बन्धी दस्तावेज (document) (जैसे बिल ऑफ लेडिंग, रेलवे रसीद आदि) में होता है। किन्तु अधिकांश जोखिमों के प्रति मालवाहक दायी नहीं होता। उदाहरण के लिए बहुत सी जोखिमें ऐसी है जो बिल ऑफ लेडिंग (वहन पत्र) में अपवादित (excepted) है, जैसे
- नौचालन (navigation) में जहाज के कप्तान या कर्मचारियों की गलती या असावधानी
- अग्निकांण्ड
- समुद्री मार्गो का संकट
- दैवी घटना तथा
- युद्ध जोखिम।
इन अपवादित आपदाओं द्वारा माल की हानि होने पर जहाज कम्पनी उसके प्रति जिम्मेदारी नहीं लेती। अत: ऐसी हानियों तथा अनेक अन्य परिवहन सम्बन्धी जोखिमों से सुरक्षा प्राप्त करने के लिए माल बीमा होता है।
- समुद्री आपदायें
- अग्नि, युद्ध की आपदायें
- जल डाकुओं की आपदायें
- नाविक के कर्तव्य, चोरी, युद्ध का जोखिम अन्य आपदायें आती है जो इस प्रकार है-
6. समुद्री आपदाए – इन आपदाओं के उदाहरण है भयानक मौसम और तूफान, किसी जहाज से भिड़न्त (Collision), किसी चट्टान से टकराकर डूब जाना (Foundering), उत्कूलित होना ( Stranding) अर्थात छिछले जल-तल में फंस जाना, समुद्री जल का विक्षोभ, आदि। लेकिन नौचालन (navigation) के सिलसिले में वायु-वेग द्वारा या साधारण तरंगों से उत्पन्न साधारण संकट को ‘समुद्री आपदा’ नहीं माना जा सकता। समुद्री आपदा का आशय आकस्मिक और असाधारण दुर्घटना से है। साधारण आपदाएं तो ‘समुद्र पर की आपदाएं (perils on the sea) है जिसके लिए बीमादाता दायी नहीं होता; बीमादाता ‘समुद्र की आपदाओं’ (perils of the sea) के प्रति ही दायित्व ग्रहण करता है।
- यह कप्तान या कर्मीदल की भूल या असावधानी से नहीं हुई बल्कि जान-बूझकर कपटपूर्ण तरीके से हुई, तथा
- इसके लिए माल या जहाज के स्वामियों की न तो सहमति थी न उनकी कोई सांठ-गांठ थी। बैरेट्री द्वारा हुए विचलन (deviation) को क्षम्य माना जाता है।
समुद्री यात्रा में चोरी की जोखिम रहती है। यह आवश्यक है कि चोर कोई बाहरी व्यक्ति हो और चोरी खुलेआम बल प्रयोग द्वारा हुई हो। यदि जहाज का कोई व्यक्ति चोरी करता हो-चाहे वह व्यक्ति कर्मीदल (cre) का सदस्य हो या जहाज का यात्री हो-तब बीमा की दृष्टि से उसे ‘चोरी’ नहीं कहेंगें।
युद्धकाल में समुद्री व्यापार और पविहन में असाधारण संकट उपस्थित होता है। शत्रु देश की आक्रामक कार्यवाहियों से तथा अपनी सरकार की प्रतिरक्षात्मक कार्यवाहियों से जहाज, माल और भाड़े के प्रति जोखिम बढ़ जाती है। जहाज और माल पूर्णतया नष्ट हो सकता है, शत्रु के कब्जे में आ सकता है, नौचालन में बड़ी बाधाएं हो सकती है, सामान्य यात्रा क्रम बदलना पड़ सकता है। समुद्री बीमा में युद्ध की जोखिमों को भी संवृत किया जा सकता है। आपदाओं के अतिरिक्त समुद्री बीमा पॉलिसी में अन्य आपदाओं को भी संवृत किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, समुद्री बीमा में स्थलीय जोखिम का भी बीमा होता है। यदि व्यापारी चाहे तो समुद्री व्यापार के सिलसिले में उन सभी जोखिमों को बीमा करा सकता है जो आन्तरिक परिवहन की क्रिया में उपस्थित होते हैं।
समुद्री बीमा कराने की प्रक्रिया
समुद्री बीमा कराने के इच्छुक व्यक्ति को इसके लिए बीमा कम्पनी के पास प्रस्ताव भेजना पड़ता है। समुद्री बीमा में जहाज का बीमा करने के लिए तो छपे हुए प्रस्ताव पत्रों का प्रयोग किया जाता है। लेकिन माल बीमा के लिए छपे प्रस्ताव-पत्र का रिवाज नहीं है। माल बीमा कराने वाले को अपनी ओर से जोखिम सम्बन्धी समस्त महत्वपूर्ण सूचनाएं एक प्रस्ताव के रूप में देनी पड़ती है। प्राय: इसके लिए बीमा एजेंट की सहायता लेना सुविधाजनक होता है।
प्रस्ताव के आधार पर अभिकर्ता एक फार्म तैयार करता है जिसे ‘प्रश्नावली’ कहते है। प्रश्नावली में माल भेजने वाले का नाम, माल का विवरण, उसके पैकिंग के ब्यौरे, यात्रा का वर्णन, माल का अनुमानित मूल्य आदि लिखा जाता है तथा प्रस्तावक के भूतकालीन बीमों और हानियों का भी ब्यौरा दिया जाता है। प्रश्नावली के अन्त में अभिकर्ता को अपनी राय देनी होती है। इस प्रश्नावली में अंकित विवरणों के आधार पर कम्पनी प्रस्तावित जोखिम का सम्यक आकलन करती है और प्रीमियम दर निश्चित करती है। प्रीमियम दर निश्चित करते समय अनेकानेक बातों पर विचार करना होता है, जैसे माल की प्रकृति, पैकिंग का ढंग, ऋतु, जहाज सम्बन्धी विशेषताएं तथा प्रस्तावक सम्बन्धी आचारिक संकट, आदि। इन बातों के आधार पर कम्पनी निश्चित करती है कि जोखिम स्वीकार करना चाहिए अथवा नहीं और यदि स्वीकार किया जाए तब प्रीमियम दर क्या होनी चाहिए।
यदि जोखिम स्वीकार करने योग्य हो तब कम्पनी जोखिम को संवृत करने के लिए एक अस्थायी बीमा रसीद देती है जिसे ‘कवर नोट’ कहा जाता है। वैधानिक नियमानुसार समुद्री बीमा की संविदा तब पूर्ण मानी जाती है जब बीमादाता बीमा के प्रस्ताव को स्वीकार कर लें, चाहे उस समय पॉलिसी जारी हुई हो अथवा नहीं। बीमा का प्रस्ताव कब स्वीकार हुआ यह ‘कवर नोट’ दर्शित करता है (धारा 23)। कुछ समय के बाद कम्पनी पॉलिसी जारी करती है। यह पॉलिसी ही बीमा संविदा का वैधानिक साक्ष्य है। ‘कवर-नोट’ तो केवल यह इंगित करता है कि संविदा कब तय हुई थी, किन्तु पॉलिसी के अभाव में संविदा पूर्ण हुई नहीं मानी जा सकती।
समुद्री बीमा के प्रकार
समुद्री बीमा के क्षेत्र में अनेक प्रकार की बीमा पॉलिसियों का चलन है। इन पॉलिसियों के वर्गीकरण का आधार और प्रत्येक वर्ग की पॉलिसियों का प्रकार तालिका से इस प्रकार है –
समुद्री बीमा के प्रकार
| वर्गीकरण का आधार | पालिसियों के प्रकार |
|---|---|
| बीमा अवधि के आधार पर | समय पालिसी ( Time Policy ) यात्रा पॉलिसी ( Voyage Policy ) |
| मूल्यांकन के आधार पर | मूल्यांकित पॉलिसी (Valued Policy) अमूल्यांकित पॉलिसी (Unvalued Policy) |
| बीमित विषय के आधार पर | माल पॉलिसी (Cargo Policy) (क) नामांकित पॉलिसी (Named Policy) (ख) प्लवमान पॉलिसी (Floting Policy) (ग) सर्व जोखिम पॉलिसी (All Risks Policy) जहाज पॉलिसी (Hull Policy) (क) एक जहाज पॉलिसी (Single Vessel Policy) (ख) जहाजी पॉलिसी (Fleet Policy) (ग) निर्माण पॉलिसी (Construction Policy) भाड़ा पॉलिसी (Freight Policy) |
| 4. बीमायोग्य हित के आधार पर | पद्यम पॉलिसी (Wager Policy) हितयुक्त पॉलिसी (Interest Policy) |
1. बीमा अवधि आधार पॉलिसी –
i. समय पॉलिसी – एक निश्चित अवधि से सम्बन्धित पॉलिसी को ‘समय पॉलिसी’ कहते हैं जैसे 1 अगस्त 2002 से 31 जुलाई, 2003 तक। यह पॉलिसी 12 मास तक के लिए जारी की जा सकती है, इससे अधिक अवधि की समय पॉलिसी विधिमान्य (valid) नहीं होगी। (धारा 27)। जहाज पॉलिसियां (Hull Policies) प्राय: समय पॉलिसियां ही होती हैं- इसमें बीमादार को निश्चितकालीन बीमा की सुविधाएं प्राप्त होती है। इस प्रकार जहाज का मालिक पृथक यात्राओं के लिए अलग-अलग बीमा कराने के झंझट से मुक्त हो जाता है।
2. मूल्यांकन के आधार पर
i. मूल्यांकित पॉलिसी – मूल्यांकित पॉलिसी उसे कहते हैं जिसमें बीमित विषय (माल, जहाज आदि) का मूल्य लिखा रहता है। इस मूल्य की ‘बीमित मूल्य’ कहते हैं। व्यवहार में इसे ‘करारित मूल्य’ भी कहा जाता है। माल के बीमित मूल्य को तय करते समय इसमें माल की लागत, भाड़ा तथा अन्य व्ययों के अलावा लाभ के लिए भी कुछ प्रतिशत (जैसे 10 से 15 प्रतिशत) जोड़ा जा सकता है। जहाज वाला भी जहाज के बाजार मूल्य से कुछ अधिक बीमित मूल्य निश्चित कर सकता है। यह बीमित मूल्य बीमादाता और बीमादार के बीच तय कर लिया जाता है। जब हानि होती है तब इसी बीमित मूल्य के आधार पर क्षतिपूर्ति की रकम निर्धारित की जाती है।
3. बीमित विषय के आधार पर –
i. माल पॉलिसी – माल का समुद्री बीमा करने पर बीमादाता पृथक पॉलिसी जारी करते हैं-इसे कारगो पॉलिसी कहा जाता है। यह पॉलिसी अनेक प्रकार की होती है जिसमें इस प्रकार है।
- नामांकित पॉलिसी (Named Policy) – नामांकित पॉलिसी उस माल पॉलिसी को कहते हैं जिसमें बीमित माल को ढोने वाले जहाज का नाम लिखा रहता है।
- प्लवमान पॉलिसी (Floating Policy) – इस पॉलिसी में यह तय रहता है कि बीमादानर जब-जब माल भेजेगा तब-तब बीमादाता को घोषित करता रहेगा कि किस जहाज से, किस तिथि को, कितना माल भेजा गया। इस पॉलिसी में जहाज का नाम, भेजे गए माल की मात्रा आदि का उल्लेख नहीं रहता (जैसे नामांकित पॉलिसी में रहता है) वरन् ये बातें समय-समय पर घोषित करनी होती है।
- जोखिम पॉलिसी (All Risks Policy) – जिस माल पॉलिसी में माल के परिवहन की क्रिया में समस्त संभावित जोखिमों को सम्मिलित कर लिया जाता है उसे ही सर्व जोखिम पॉलिसी कहते हैं।
ii. जहाज पॉलिसी – यह जहाज से सम्बन्धित पॉलिसी होती है। जहाज पॉलिसी प्राय: समय पॉलिसी होती है। जहाज पॉलिसी के मुख्य भेद है :
- एक जहाज पॉलिसी – जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट होता है, इस पॉलिसी में केवल एक जहाज का ही बीमा होता है।
- जहाजी बेड़ा पॉलिसी – इस पॉलिसी के अन्तर्गत अनेक जहाजों का एक साथ बीमा होता है। आज कल की जहाज कम्पनियों के पास एक मार्ग पर चलने वाले बहुतेरे जहाज होते हैं और उनके लिए जहाजी बेडा पॉलिसी विशेष सुविधाजनक होती है।
- निर्माण पॉलिसी – यह पॉलिसी जहाज निर्माण की समस्त जोखिमों को संवृत करती है। इसके अन्तर्गत जहाज का निर्माण प्रारम्भ होने के समय से पॉलिसी चालू हो जाती है और जहाज के पूर्णतया निर्मित हो जाने तक तथा तत्पश्चात समुद्र में एक दो बार ट्रायल हो जाने तक जोखिमें संवृत रहती है। इसे (Builder’s Risk Policy) भी कहा जाता है।
iii. भाड़ा पॉलिसी – यदि व्यापारी ने भाड़ा अग्रिम चुका दिया हो तब भाड़े की रकम माल के मूल्य के साथ ‘माल पॉलिसी’ में ही संवृत हो जाती है, अत: ऐसे भाड़े के लिए पृथक पॉलिसी नहीं जारी होती। किन्तु, जिस जहाज वाले को माल के गन्तव्य बन्दरगाह पर पहुॅचने पर ही भाड़ा मिल सके और माल न पहुॅचने पर भाड़ा न मिल सके, तब उसे भी समुद्री जोखिमों से बहुत बड़ी हानि सम्भावित है। ऐसे भाड़े के लिए ही भाड़ा पॉलिसी जारी की जाती है। भाड़ा पॉलिसी मे भी बहुधा विशेष प्रकार की शर्ते लगाई जाती है जिन्हें (Freight Clauses) कहा जाता है।
4. बीमा योग्य हित के आधार पर-
पद्यम पॉलिसी और हितयुक्त पॉलिसी- बीमा योग्य हित के दृष्टिकोण से हम समस्त पॉलिसियों को दो वर्गो में बांट सकते हैं –
- हितयुक्त पॉलिसी उसे कहते हैं जिसमे बीमादार का बीमायोग्य हित मौजूद रहता है।
- जिस पॉलिसी में बीमादार का बीमायोग्य हित नहीं रहता, अथवा जिस पॉलिसी में कोई ऐसी शर्त दी रहती है, जिसके अनुसार बीमायोग्य हित का मौजूद रहना आवश्यक नहीं माना जाता उसको पद्यम पॉलिसी (Wager Policies) कहा जाता है। उदाहरण के लिए, यदि पॉलिसी में यह शर्त हो कि बीमायोग्य हित रहे या न रहे (interest or no interest) या पॉलिसी के अलावा बीमायोग्य हित के किसी सबूत की आवश्यकता नहीं (without further proof of interest than the policy itself) तब ऐसी शर्तयुक्त पॉलिसी को पद्यम पॉलिसी (wager policy) कहा जाएगा। ऐसी पॉलिसी विधान की दृष्टि में शून्य (void) मानी जाती है। समुद्री बीमा अधिनियम की धारा 6 में यह स्पष्ट किया गया है कि बाजी के रूप में समुद्री बीमा की प्रत्येक संविदा शून्य (void) है।