अनुक्रम
इस प्रकार है विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) द्वारा स्वास्थ्य की व्याख्या शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक पक्ष के आधार पर की गयी है जिसमें शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक पक्ष को स्वास्थ्य का प्रमुख घटक माना गया है। स्वास्थ्य के उपरोक्त चारों पक्षों को उन्नत बनाने वाले नियमों का वृत्त ही स्वस्थवृत्त कहलाता है। दूसरे शब्दों में स्वस्थवृत्त स्वास्थ्य का वह विज्ञान है जिसमें मनुष्य के स्वास्थ्य के उपरोक्त चारों महत्वपूर्ण पक्षों को उन्नत बनाने हेतु करणीय एवं अकरणीय कर्मों की सविस्तार व्याख्या की जाती है। मनुष्य के स्वास्थ्य को उन्नत बनाए रखने में स्वस्थवृत्त का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है।
स्वस्थवृत्त के अर्थ को समझने के उपरान्त अब आपके मन में इस विषय को गहराई से जानने की जिज्ञासा भी बढ गयी होगी, इसीलिए अब स्वस्थवृत्त की अवधारणा पर विभिन्न पक्षों के आधार पर विचार करते हैं।
सद्वृत्त की अवधारणा
सद्वृत्त आयुर्वेद शास्त्र का एक महत्वपूर्ण विषय है। इस विषय पर आयुर्वेंद के विभिन्न आचार्यों ने विचार मंथन किया है। आचार्यों द्वारा शरीर में त्रिदोषों को सम बनाने (आरोग्य प्राप्ति) के साथ साथ ज्ञानेन्द्रियों-कर्मेन्द्रियों एवं मन को स्वस्थ एवं ऊर्जावान बनाए रखने (इन्द्रियजय) के उद्देश्य से सद्वृत्त का उपदेश किया गया है। इस संदर्भ में वैयक्तिक एवं सामाजिक सद्वृत्त का उपदेश किया गया है।
1. वैयक्तिक सद्वृत्त
इसे पर्सनल हाइजीन के नाम से जाना जाता है जिसमें स्वंय अपने द्वारा पालन किए जाने वाले नियमों का उल्लेख आता है। यद्यपि सामान्य रुप से पर्सनल हाइजीन से तात्पर्य केवल व्यक्तिगत स्वच्छता से ही लिया जाता है किन्तु वास्तव में व्यक्तिगत स्वच्छता जैसे बाल, नाखून, कपडे आदि की स्वच्छता के साथ साथ इसमें आहार, अध्ययन एवं व्यायाम आदि महत्वपूर्ण बिंदु भी इसके प्रमुख भाग होते हैं जिन पर यहाँ विचार किया जाएगा। विषय का प्रारम्भ स्वच्छता सम्बन्धी सद्वृत्त से करते हैं –
1. स्वच्छता सम्बन्धी सद्वृत्त – वैयक्तिक सद्वृत्त का सबसे प्रथम एवं महत्वपूर्ण बिंदु स्वच्छता है। स्वच्छता मनुष्य द्वारा अपने शरीर, मन, मस्तिष्क, घर एवं आस-पास के वातावरण को शुद्ध, सुव्यवस्थित एवं अनुशासित करने की क्रिया है। भारतीय समाज में मान्यता है कि स्वच्छता में सकारात्मक ऊर्जा (ईश्वर) का वास एवं गंदगी में नकारात्मक ऊर्जा (भूतों) का वास होता है, इसीलिए स्वच्छता को मनुष्य का धर्म कहा जाता है। स्वच्छता रखने से मनुष्य का शरीर एवं मन स्वस्थ बनता है जबकि अस्वच्छता के परिणाम स्वरुप मनुष्य की शारीरिक एवं मानसिक ऊर्जा क्षीण पड जाती है और नाना प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। प्रात:काल उठते ही सबसे पहले स्वच्छतारुपी नित्य कमोर्ं का उपदेश शास्त्रों में किया गया है।
कुचैलिनं दन्तमलोपधारिणं बSवशिनं निष्ठुरभाषिणं च।
सूर्योदये चास्तमिते शयानं विमु´चति श्रीर्यदि चक्रपाणि:।।
अर्थात जिनके शरीर और वस्त्र मैले रहते हैं, जिनके दाँतों पर मैल जमा रहता है, बहुत अधिक भोजन करते हैं, सदा कठोर बचन बोलते हैं तथा सूर्योदय व सूर्यास्त के समय सोते हैं, वे महादरिद्र होते हैं। यहाँ तक कि चाहे चक्रपाणि विष्णु भगवान ही क्यों ना हो, परन्तु उनको भी लक्ष्मी छोड देती है।
सद्वृत्त के अन्र्तगत शारीरिक की स्वच्छता का वर्णन किया जाता है। शारीरिक स्वच्छता में साफ स्वच्छ जल से प्रतिदिन स्नान करना, हाथों को अच्छी प्रकार धोने के उपरान्त स्वच्छ हाथों से भोजन करना, हाथों एवं पैरों के नाखून तथा शरीर के बालों आदि को स्वच्छ-सवांर कर रखना एवं साफ स्वच्छ वस्त्रों को धारण करने का वर्णन आता है। इसके साथ साथ आहार बनाने एवं ग्रहण करने में स्वच्छता को भी वैयक्तिक सद्वृत्त के अन्र्तगत रख गया है। मनुष्य को अपने आस पास के वातावरण में औषधियुक्त धूएँ का प्रयोग करना चाहिए तथा मनुष्य को अपने स्वास्थ्य को उन्नत बनाने हेतु औषध द्रव्यों का धूआँ करने के उपरान्त उसका सेवन भी करना चाहिए, इससे एक ओर जहाँ वातावरण साफ स्वच्छ एवं रोगाणुरहित बनता है वहीं दूसरी ओर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढती है।
2. आहार सम्बन्धी सद्वृत्त – मनुष्य के जीवन में आहार का विशिष्ट महत्व है। मनुष्य को स्वस्थ एवं रोगी बनाने में आहार की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण होती है। आहार सम्बंधी ऐसे नियम जिनका पालन करने से मनुष्य स्वस्थ रहता है एवं जिनका अपालन करने से मनुष्य रोगी बन जाता है, आहार सम्बन्धी सद्वृत्त कहलाते हैं। यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि मनुष्य को अपनी प्रकृति के अनुरुप गुरु अथवा लघु का विचार करने के उपरान्त ही आहार ग्रहण करना चाहिए अर्थात ऐसे आहार का सेवन करना चाहिए जो शरीर की प्रकृति के अनुकूल हो तथा शरीर की प्रकृति के प्रतिकूल आहार का सेवन नही करना चाहिए।
इसके साथ साथ भोजन की मात्रा, देश एवं काल का विचार करने के उपरान्त ही आहार का सेवन करना चाहिए। ताजे भोज्य पदार्थों को ग्रहण करना चाहिए एवं भोजन करते समय बीच-बीच में थोडा थोडा जल भी पीना चाहिए, ऐसा करने से भोजन की अच्छी लुगदी बनती है एवं ग्रहण किए हुए भोजन के पाचन एवं अवशोषण की क्रिया अच्छी प्रकार होती है। भोजन में मोटे अनाज जैसे सत्तू के सेवन का उपदेश भी वैयक्तिक सद्वृत्त के अन्र्तगत किया जाता है। इसके अतिरिक्त मैदे से बने पदार्थों का सेवन नही करना चाहिए। जीभ के स्वाद के वशीभूत होकर त्याज्य एवं स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से हानिकारक पदार्थों का सेवन कदापि नही करना चाहिए।
वैयक्तिक सद्वृत्त मनुष्य के व्यक्तिक जीवन से सम्बन्धित ऐसे नियमों का वृत्त है जिनके पालन से वह उन्नत स्वास्थ्य के साथ अपने जीवन को व्यतीत करता है। इस संदर्भ में स्वच्छता एवं आहार सम्बन्धित नियमों का अध्ययन करने के उपरान्त आपके मन में अन्य नियमों को जानने की जिज्ञासा भी अवश्य ही बढ गयी होगी। प्रिय विधार्थियों, मनुष्य का अध्ययन के साथ गहरा सम्बन्ध है और अध्ययन के संदर्भ में भी सद्वृत्त पर विचार किया गया है अत: अब अध्ययन सम्बन्धी सद्वृत्त पर विचार करते हैं –
आपने संध्याचर्या के अन्र्तगत भी आपने ज्ञान प्राप्त किया है कि संध्याकाल में जब प्रकाश कम अथवा अधिक हो रहा होता है तब उस काल में पठन-पाठन अर्थात अध्ययन कार्य नही करना चाहिए, यह अध्ययन सम्बन्धी सद्वृत्त है। इसके अतिरिक्त अग्नि के उपद्रव के समय, महोत्सव के समय, उल्कापात के समय, महाग्रहों के संयोग के समय एवं चन्द्रमाहीन तिथियों में अध्ययन नही करना चाहिए। यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि बिना शिक्षक पढाए अध्ययन नही करना चाहिए। हीन अक्षर वाले एवं लम्बे वाक्यों का अध्ययन नही करना चाहिए। अति शीघ्रता अथवा अधिक धीमी गति से अध्ययन नही करना चाहिए तथा अधिक जोर से अथवा अधिक धीमे स्वर में अध्ययन नही करना चाहिए। इस प्रकार अध्ययन में भी सद्वृत्त के नियमों का पालन करने से मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, अध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य में उन्नति होती है।
अभी तक आपने वैयक्तिक सद्वृत्त का अध्ययन किया। इन वैयक्तिक सद्वृत्त का पालन करने मनुष्य का स्वास्थ्य उन्नत अवस्था को प्राप्त होता है एवं मनुष्य रोगरहित व ऊर्जावान रहता है। वैयक्तिक सद्वृत्त का सम्बन्ध प्रमुख रुप से शरीर के साथ होता है अर्थात वैयक्तिक सद्वृत्त का प्रभाव प्रमुख रुप से मनुष्य के शारीरिक स्तर पर पडता है किन्तु जैसा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य की परिभाषा में स्पष्ट किया है कि केवल शारीरिक स्वास्थ्य को ही पूर्ण स्वास्थ्य नही कहा जा सकता अपितु शरीर के साथ साथ मनुष्य का मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्तर पर भी स्वस्थ होना पूर्ण स्वास्थ्य कहलाता है अत: अब मानसिक एवं सामाजिक सद्वृत्त पर विचार करते हैं –
2. मानसिक सद्वृत्त
मन मनुष्य के लिए शरीर से भी अधिक महत्वपूर्ण तत्व है। वास्तव में शरीर मन की कार्यस्थली होती है अर्थात मन में जो भाव एवं विचार उत्पन्न होते हैं, उन विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति अथवा मूर्तरुप शरीर के माध्यम से दिया जाता है। सरल शब्दों में शरीर एवं मन का अटूट सम्बन्ध होता है। इस सम्बन्ध में लोकोक्ति भी है कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। अर्थात मन में नकारात्मक भाव आने पर शरीर में भी नकारात्मक परिवर्तन आने लगते हैं जबकि मन के सकारात्मक रहने से शरीर सकारात्मक ऊर्जा से परिपूर्ण रहता है। शरीर के साथ साथ मन का स्वस्थ रहना अत्यन्त आवश्यक होता है। मन में सकारात्मक ऊर्जा की प्रबलता रहने पर ही मनुष्य अच्छे कार्यों में लीन रहता है। किन्तु मन में सकारात्मक ऊर्जा की प्रबलता किस प्रकार हो ? यह एक विचारणीय प्रश्न है। जिसका उत्तर मानसिक सद्वृत्त के अन्र्तगत दिया जाता है।
मानसिक सद्वृत्त का सीधा सम्बन्ध मानसिक स्वास्थ्य के साथ है। मानसिक स्वास्थ्य वह धनात्मक अवस्था है जिसमें किसी व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का ज्ञान रहता है तथा वह जीवन के सामान्य तनावों का सामना करने में सक्ष्म रहता है। इसके साथ साथ वह लाभकारी एवं उपयोगी रुप में कार्य करते हुए समाज के प्रति अपना योगदान देता है। इस वर्ग का मनुष्य मानसिक स्वस्थ पुरुष कहलाता है।
यहाँ पर यदि हम वर्तमान काल पर दृष्टिपात करें तो आधुनिक समाज में नकारात्मक दृष्टिकोण का स्तर बढने के कारण झूट, चोरी, झगडे एवं हिसांत्मक घटनाओं की संख्या बढती जा रही है। आपसी सामंजस्य के अभाव में परिवार एवं समाज बिखरते जा रहें हैं। व्यक्ति की सोच विचार एवं भाव संवेददनाओं में नकारात्मक ऊर्जा की प्रबलता अधिक होती जा रही है जिसके परिणाम स्वरुप मानसिक स्वास्थ्य का स्तर दिन प्रतिदिन हीन अवस्था को प्राप्त होता जा रहा है। ऐसी अवस्था में मानसिक सद्वृत्त का जानना, समझना एवं व्यवहार में लाना अति आवश्य है क्योंकि मानसिक सद्वृत्त के पालन से हम उपरोक्त सभी समस्याओं से बडी आसानी एवं सहजतापूर्वक छूटकारा पा सकते हैं।
मानसिक सद्वृत्त मन का वह ज्ञान-विज्ञान है जिसके द्वारा मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करता हुआ उसे उन्नत अवस्था में बनाए रखता है। इसके साथ साथ मानसिक सद्वृत्त के द्वारा मनुष्य मानसिक क्षमताओं का विकास करता हुआ सांवेगिक स्थिरता को प्राप्त करता है। मानसिक सद्वृत्त के पालन करने से मनुष्य मानसिक रोगों व विकारों से मुक्त स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है। मानसिक सद्वृत्त से तात्पर्य मानसिक स्तर पर अनुशासन एवं नियम पालन करने से होता है जिनका मनुष्य के मानसिक स्वास्थ्य पर अनुकूल प्रभाव पडता है एवं जिसके फलस्वरुप मानसिक ऊर्जा सकारात्मक एवं धनात्मक अवस्था में बनी रहती है।
मानसिक सद्वृत्त के विषय में जानने के उपरान्त अब आपके मन में इस विषय को ओर अधिक गहराई से जानने की जिज्ञासा भी बढ गयी होगी। जैसा कि आपको ज्ञान है कि मन के विचारों से कर्म बनते है। कर्मों से आदत बनती है और आदतों से मनुष्य के चरित्र का निमार्ण होता है। इसीलिए अच्छे विचारों के परिणाम स्वरुप अच्छे चरित्र का निमार्ण एवं बुरे विचारों के परिणाम स्वरुप बुरे चरित्र का निमार्ण होता है। मन में अच्छे विचारों को धारण करने के संदर्भ में आपने मानसिक सद्वृत्त के अन्तर्गत अध्ययन किया अब चरित्र सम्बन्धी सद्वृत्त का अध्ययन करते हैं –
3. चारित्रिक सद्वृत्त
भारतीय समाज में मनुष्य के चरित्र को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। भारतीय समाज में किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन उसके चरित्र के आधार पर किया जाता है। चरित्र का सामान्य अर्थ उसकी सोच विचार, बुद्धि एवं व्यवहार कुशलता से लिया जाता है। मनुष्य का चरित्र एक ओर जहां सामाजिक उन्नति का प्रतीक है तो वहीं दूसरी और स्वास्थ्य को उन्नत एवं हीन बनाने में भी चरित्र महत्वपूर्ण भूमिका का वहन करता है।
4. सामाजिक सद्वृत्त
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य का समाज के साथ गहरा सम्बन्ध है। वह समाज में दूसरों में रहकर दूसरों का सहयोग करता है एवं साथ ही साथ दूसरों का सहयोग लंता भी है। इसी कारण मनुष्य के सामाजिक स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। सामाजिक स्वास्थ्य का उन्नत होना एक स्वस्थ मनुष्य का प्रमुख लक्षण है जबकि किसी मनुष्य का सामाजिक स्वास्थ्य सही नही होना रोगावस्था का परिचायक है। मनुष्य के सामाजिक स्वास्थ को उन्नत बनाने हेतु सामाजिक सद्वृत्त का उपदेश आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है जिसके माध्यम से मनुष्य समाज के दूसरे मनुष्यों तथा दूसरे जीवों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए अपने जीवन को सुख एवं शान्तिपूर्वक ढंग से व्यतीत कर सके।
सामाजिक सद्वृत्त के अन्तर्गत मनुष्य अपने माता-पिता, घर के वृद्धजन, आचार्य, अतिथि एवं श्रेष्ठजनों को सम्मान देने का विषय आता है। अपने आस पास के समाज में सकारात्मक वातावरण का निमार्ण करना एवं सामाजिक कार्यों में उत्साह से भाग लेना सामाजिक सद्वृत्त का भाग है जिसका पालन करने से मनुष्य का सामाजिक स्वास्थ्य उन्नत होता है एवं समाज में अच्छे संस्कारों की उत्पत्ति होती है।
आपको ज्ञान होगा कि इस भूमण्डल पर मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति है। मनुष्य का दायित्व केवल अपना जीवन यापन करने तक ही सीमित नही होता अपितु संसार के अन्य जीवों पर भी पर भी मनुष्य का नियंत्रण होता है अत: मनुष्य को अपने साथ साथ अन्य जीवों के विषय में भी चिन्तन करना चाहिए। विशेष रुप से मूकहीन अपने आश्रित जीवों के प्रति हृदय में सदैव दया एवं करुणा के भाव रखने चाहिए। इसके साथ अपने से कमजोर दीन-हीन, विपत्ति से ग्रस्त रोगी एवं दुखी मनुष्यों के साथ सकारात्मक व्यवहार करना चाहिए। विपत्ति से पिडित मनुष्य की रक्षा करनी चाहिए। इन्ही नियमों का पालन करने एवं इस प्रकार के भाव अपनाने को सामाजिक सद्वृत्त की संज्ञा दी जाती है। इनका पालन करने से मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होती है एवं मनुष्य को मानसिक शान्ति मिलती है।
5. धार्मिक सद्वृत्ति
मनुष्य का धर्म के साथ अटूट सम्बन्ध है। मनुष्य को धार्मिक सद्वृत्ति रखनी चाहिए अर्थात धर्म में अपनी रुचि रखनी चाहिए। प्रश्न उपस्थित होता है कि धर्म क्या है ? धर्म के स्वरुप को स्पष्ट करते हुए महर्षि मनु कहते हैं –
धृति: क्षमादमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम्।।( मनु स्मृति)
अर्थात धैर्य, क्षमा, दम (अपनी वासनाओं पर नियंत्रण रखना), अस्तेय (चोरी नही करना), शौच (बाºय एवं आन्तरिक स्वच्छता), इन्द्रिय निग्रह (अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण), विद्या (ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन, वचन एवं कर्म से एक व्यवहार करना), अक्रोध (क्रोध नही करना) ये दस धर्म के लक्षण है। इसके साथ साथ मनुष्य को जो व्यवहार अपने अनुकूल नही लगता हो, ऐसा व्यवहार दूसरों के साथ नही करना चाहिए। यह भी मनुष्य का धर्म है। धार्मिक सद्वृत्त का मनुष्य के शरीर, मन एवं आत्मा के साथ सीधा सम्बन्ध होता है। धर्म का पालन करने से शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक बल की प्राप्ति होती है जबकि धर्म को धारण नही करने से मनुष्य की आन्तरिक शक्ति असन्तुलित हो जाती है जिसके परिणाम स्वरुप मनुष्य नाना प्रकार की व्याधियों से मनुष्य ग्रस्त हो जाता है। उपरोक्त नियमों के साथ साथ मनुष्य को पूर्ण रुप से स्वस्थ बने रहने के लिए अनुपयुक्त एवं अयोग्य क्रियाओं का त्याग करना चाहिए। इस प्रकार कुछ सामान्य त्याज्य नियमों के वृत्त को भी वर्णित किया जाता है जो इस प्रकार है –
6. सामान्य त्याज्य वृत्त –
मनुष्य एक मननशील एवं चिंतनशील प्राणी है जिसे अपनी प्रत्येक क्रिया उचित एवं अनुचित का निर्णय करने के उपरान्त ही करनी चाहिए। मनुष्य को अपने जीवन में कभी अनुचित आहार विहार एवं सोच विचार नही करनी चाहिए। सदैव उपयुक्त आहार विहार का सेवन करते हुए सकारात्मक सोच विचार में लीन रहना चाहिए। इस संदर्भ में स्वस्थ मनुष्य के विषय में कहा जाता है कि मनुष्य को शरीर गर्म, दिमाक ठंडा एवं हृदय नरम रखना चाहिए। यहाँ इस लोकोक्ति का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को शरीर से कठिन परिश्रम करते हुए शरीर को गर्म रखना चाहिए, जबकि मस्तिष्क में कभी क्रोध नही लाना चाहिए अपितु क्रोध के स्थान पर मस्तिष्क को शान्त (ठंडा) रखना चाहिए, इसके साथ साथ मनुष्य को अपने हृदय में सदैव दया एवं उदारता के भाव रखने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य का शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्वास्थ्य उन्नत अवस्था में बना रहता है, जबकि इसके विपरित आचरण करने से नाना प्रकार की व्याधियों से मनुष्य ग्रस्त हो जाता है।
सामान्य त्याज्य वृत्त के अन्तर्गत ऐसे कार्यों, क्रियाओं एवं नियमों का वर्णन आता है जिन्हे करने से स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पडता है एवं मनुष्य की शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक ऊर्जा क्षीण हो जाती है। ऐसे सामान्य त्याज्य वृत्त के अन्तर्गत बहुत अधिक बोलना, समय का सदुपयोग नही करते हुए समय नष्ट करना, अपनी ऊर्जा को निर्रथक कार्यों में नष्ट करना एवं अधारणीय वेगों को धारण करने संबधी कार्यों का उल्लेख किया जाता है।
इस प्रकार उपरोक्त अध्ययन से आपको सद्वृत्त की अवधारण अवश्य ही स्पष्ट हो गयी होगी। इसके साथ साथ सद्वृत्त के सामान्य कार्यों एवं नियमों का ज्ञान भी आपको अवश्य ही हो गया होगा किन्तु इतना सब कुछ जानने के उपरान्त अब आपके मन में यह प्रश्न उपस्थित होना स्वाभाविक ही है कि सद्वृत्त पालन से मनुष्य को क्या लाभ प्राप्त होता है अथवा सद्वृत्त का मानव जीवन में क्या महत्व है ? यह प्रश्न अवश्य ही आपके सम्मुख उपस्थित हुआ होगा अत: अब सद्वृत्त पालन के महत्व पर विचार करते हैं –
सद्वृत्त का महत्व
वर्तमान समय में जहाँ चारों रोग और व्याधियों का बोलबाला है, समाज में चारों ओर भिन्न भिन्न प्रकार के शारीरिक और मानसिक रोगों से ग्रस्त रोगियों की संख्या में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है और इन रोगों से छूटकारा पाने के लिए अलग अलग प्रकार की अगं्रेजी दवाईयों एवं अन्य हानिकारक पदार्थों का सेवन बढता जा रहा है, ऐसे समय में सद्वृत्त पालन का महत्व ओर भी अधिक बढ जाता है क्योंकि सद्वृत्त पालन से मनुष्य बिना किसी दुष्प्रभाव एवं रासायनिक पदार्थों का सेवन किए बिना उन्नत स्वास्थ्य को प्राप्त करने में सक्ष्म बनता है। सद्वृत्त पालन से मनुष्य के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक चारों पक्षों सकारात्मक एवं अनुकूल प्रभाव पडता है। सद्वृत्त पालन के अन्र्तगत उपयुक्त आहार विहार का सेवन करने से मनुष्य का शरीर बलवान, ऊर्जावान एवं रोगमुक्त बनता है जो वहीं दूसरी ओर मानसिक सद्वृत्त का पालन से मन की नकारात्मक ऊर्जा दूर होती है एवं मनुष्य को उन्नत मानसिक स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार चरित्र संबंधी सद्वृत्त एवं धार्मिक सद्वृत्त का पालन करने से आत्मबल की प्राप्ति होती है एवं इसके फलस्वरुप आध्यात्मिक विकास होता है एवं सामाजिक सद्वृत्त का पालन करने से मनुष्य का सामाजिक स्तर उच्च श्रेणी का होता है अर्थात मनुष्य का सामाजिक स्वास्थ्य अच्छा बनता है। इस प्रकार आधुनिक परिपेक्ष्य में यह कहना उचित सा प्रतीक होता है कि सद्वृत्त पालन से मनुष्य का सर्वागींण विकास होता है।
सद्वृत्त पालन का महत्व को आयुर्वेद शास्त्र में निम्न लिखित बिंदुओं के द्वारा समझाया गया है –
- सद्वृत्त पालन से आरोग्य एवं स्वस्थ जीवन की प्राप्ति होती है। सद्वृत्त पालन से मनुष्य सभी प्रकार के रोगों से मुक्त शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वास्थ्य के साथ स्वस्थ जीवन व्यतीत करता है।
- सद्वृत्त पालन से मनुष्य को सौ वर्षों की स्वस्थ आयु प्राप्त होती है जिसके विषय में वर्णन करते हुए वेद में ईश्वर से प्रार्थना की गयी है – ओ…म तस्यचक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमु´चरत्। पश्चेम शरद: शतं जीवेम शरद: शतं श्रृणुयाम शरद: शतं प्र ब्रवाम शरद: शतमदीना: स्याम शरद: शतं भूयच्श्र शरद: शतात् ।। (यजुर्वेद) अर्थात हे प्रभो, हम आपको सौ वर्ष देखें, आपकी आज्ञा में सौ वर्ष जीवें, आपके नाम का सौ वर्ष व्याख्यान करें, सौ वर्ष की आयु भर पराधीन न हों और योगाभ्यास से सौ वर्ष से भी अधिक आयु हो तो इसी प्रकार विचरें अर्थात इसी प्रकार आचरण और व्यवहार करें।
- सद्वृत्त पालन से मनुष्य को साधु पुरुषों में पूजनीय स्थान की प्राप्ति होती है अर्थात मनुष्य में अच्छे गुण एवं उत्तम संस्कारों का उदय होता है जिसके फलस्वरुप मनुष्य का सामाजिक उत्थान होता है एवं समाज के सत्पुरुषों में सम्मान की प्राप्ति होती है।
- सद्वृत्त पालन से मनुष्य को इस लोक में यश एवं ख्याति की प्राप्ति होती है अर्थात मनुष्य की यश एवं किर्ति की सुगन्धी चारों दिशाओं में फैलती है।
- सद्वृत्त पालन से मनुष्य में मानवीय गुणों जैसे प्रेम, करुणा, दया, सहानुभूति एवं परोपकार का विकास होता है। मनुष्य स्वार्थ एवं सर्कीणता के तुच्छ भावों से ऊपर उठकर उच्च मानसिक क्षमता एवं श्रेष्ठ आत्मबल का धनी बनता है।
- सद्वृत्त पालन से मनुष्य इस लोक में सौ वर्षों की स्वस्थ आयु के का भोग करने के उपरान्त सद्गति को प्राप्त होता हुआ परलोक भी अच्छे फलों को प्राप्त करता है अर्थात सद्वृत्त पालन से मनुष्य का यह लोक एवं परलोक दोनों ही सुधरते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि सद्वृत्त पालन से मनुष्य का समग्र विकास होता है।