अनुक्रम
- सूक्ष्म (Micro) पर्यावरण
- बृहद (Macro) पर्यावरण।
व्यवसाय या फर्म के आस-पास दिखने वाले घटकों को हम सूक्ष्म (Macro) पर्यावरण कहते हैं जैसे आपूर्तिकर्ता, ग्राहक, श्रमिक, विपणन मध्यस्थ, प्रतियोगी आदि। व्यवसाय के वृहद (Micro) पर्यावरण में हम उन घटकों का अध्ययन करते हैं जो नियन्त्रण योग्य नहीं है। इन्हें हम 1. आर्थिक पर्यावरण 2. अनार्थिक पर्यावरण के रूप में जानते हैं।
व्यावसायिक पर्यावरण के प्रकार
व्यावसायिक पर्यावरण के प्रकार है:-
1. व्यवसाय का आन्तरिक पर्यावरण
- व्यवसाय के उद्देश्य एवं लक्ष्य
- व्यवसाय से सम्बन्धित विचारधारा एवं दृष्टिकोण,
- व्यावसायिक एवं प्रबंधकीय नीतियाँ,
- व्यावसायिक संसाधनों की उपलब्धि तथा उपदेयता,
- उत्पादन व्यवस्था, मशीन एवं यन्त्र तथा तकनीकें,
- कार्यस्थल का समग्र पर्यावरण,
- व्यावसायिक क्षमता एवं वृद्धि की सम्भावनायें,
- पूँजी का उपयुक्त नियोजन,
- श्रम एवं प्रबंध की कुशलता,
- व्यावसायिक संगठन की संरचना,
- व्यावसायिक योजनाएं एवं व्यूहरचनाएं,
- केन्द्रीयकरण, आन्तरिक बाह्य सूक्ष्म व्यापक आर्थिक अनार्थिक विकेन्द्रीयकरण तथा विभागीकरण,
- श्रम संघ व समूह तथा दबाव,
- सामाजिक दायित्वों के प्रति दृष्टिकोण,
- प्रबन्ध सूचना प्रणाली तथा संदेशवाहक व्यवस्था,
- व्यावसायिक दृष्टि।
व्यवसाय के आन्तरिक पर्यावरण पर व्यवसायी आसानी से नियंत्रण रख सकता है। लेकिन इसमें निरंतर बाधायें सामने आती रहती हैं।
व्यावसायिक पर्यावरण के आन्तरिक पर्यावरण की पहचान करना तथा उसे पूर्णरूप से समझना व्यवसायी का अहम दायित्व हो जाता है। सामान्यतया व्यवसाय का उद्देश्य अपने लाभ को अधिकतम करना होता है। इसके बावजूद विभिन्न उद्योगों के उच्च पदस्थ अधिकारी ‘कुछ मूल्यों’ (Some Values) को मान्यता देते हैं जिससे उनकी नीतियाँ, व्यवहार तथा सम्पूर्ण आन्तरिक पर्यावरण प्रभावित होता है। इसी के फलस्वरूप व्यवसाय में श्रम कल्याण कार्यों की ओर ध्यान दिया जाता है।
1. व्यवसाय का बाह्य पर्यावरण
व्यवसाय के बाह्य पर्यावरण को दो वर्गों में रखा जा सकता है:
- व्यवसाय का सूक्ष्म या विशिष्ट पर्यावरण तथा
- व्यवसाय का व्यापक या समष्टि पर्यावरण
- आर्थिक पर्यावरण
- अनार्थिक पर्यावरण
1. व्यवसाय का आर्थिक पर्यावरण – व्यावसायिक पर्यावरण में आर्थिक पक्ष का महत्वपूर्ण स्थान है। आर्थिक पर्यावरण को निर्मित करने में तीन महत्वपूर्ण घटकों की भूमिका होती है:
- आर्थिक प्रणाली,
- आर्थिक नीति, तथा
- उस देश में विद्यमान आर्थिक दशाएँ
(i) आर्थिक प्रणाली- किसी देश की आर्थिक प्रणालीँ उस देश की आर्थिक विचारधारा, आर्थिक संरचना तथा आर्थिक स्वतंत्रता को व्यक्त करती है। आर्थिक प्रणालियाँ मुख्य रूप से तीन प्रकार की है:-
- पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली – इस आर्थिक प्रणाली में सभी साधनों पर निजी क्षेत्र का स्वामित्व होता है। क्या, कैसे, कब तथा किस प्रकार उत्पादन किया जाय, ये सभी निर्णय पूँजीपतियों द्वारा स्वयं लिये जाते है।
- समाजवादी आर्थिक प्रणाली – समाजवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर सम्पूर्ण समाज का स्वामित्व पाया जाता है।सामान्यत्या आर्थिक निर्णय एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा लिये जाते हैं। इस व्यवस्था में संसाधनों का आंवटन, विनियोजन स्वरूप, उत्पादन, उपभोग, वितरण आदि सरकार द्वारा निर्देशित होते हैं।
- मिश्रित आर्थिक प्रणाली – मिश्रित अर्थव्यवस्था में पूँजीवादी तथा समाजवादी दोनों अर्थव्यवस्थाओं का सह-अस्तित्व रहता है। इसमें दोनों क्षेत्र आपसी प्रतियोगिता समाप्त करके मानव कल्याण में वृद्धि करने का प्रयास करते हैं। इस अर्थव्यवस्था में दोहरे बाजार की स्थिति पायी जाती है अर्थात् कुछ कीमतें माँग तथा आपूर्ति के आधार पर बाजारी ताकतों द्वारा तय की जाती हैं तो कुछ वस्तुओं के ऊपर सरकार का नियंत्रण रहता है।
(ii) आर्थिक नीतियाँ – आर्थिक नीतियों को मुख्यतया चार वर्गों में विभक्त किया जा सकता है: (i) औद्योगिक नीति, (ii) व्यापार नीति, )iii) मौद्रिक नीति, तथा (iv) राजकोषीय नीति।
- औद्योगिक नीति – विभिन्न आर्थिक क्रियाओं में, व्यवसाय से प्रत्यक्ष एवं निकटतम सम्बन्ध रखने वाली क्रिया औद्योगिक क्रिया है। इसलिए व्यवसाय के आर्थिक पर्यावरण का विश्लेषण करते समय सरकार को औद्योगिक नीति का सावधानीपूर्वक परीक्षण करना आवश्यक है। सन् 1956 की औद्योगिक नीति में सार्वजनिक तथा निजी दोनों क्षेत्रों को औद्योगिक विकास की जिम्मेदारी सौंपी गयी। वर्ष 1991 में नयी औद्योगिक नीति लागू होने के पश्चात विभिन्न नियंत्रणों को समाप्त करने का व्यापक कार्यक्रम प्रारम्भ किया गया। सुरक्षा सामरिक महत्व और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील उद्योगों की छोटी-सी सूची में शामिल 6 उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी औद्योगिक परियोजनाओं के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता समाप्त कर दी गयी है।
- व्यापार नीति – भारत की व्यापार नीति का मुख्य उद्देश्य देश के विकास की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए आयात को नियमित करना था तथा आयात-प्रतिस्थापन उपायों के माध्यम से घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करना था। परन्तु उदारीकण का दौर शुरू होने के बाद व्यापार के जरिए विश्वव्यापीकरण तथा अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए निर्यात को मुख्य हथियार बनाने के महत्व को मान्यता दी गयी। सामान्यत: व्यापार नीति दो प्रकार की होती है। प्रथम ‘संरक्षणवादी नीति’ जिसमें सरकार अपने नये एवं छोटे उद्योगों को विदेशी प्रतियोगिता से बचाने हेतु आयात पर रोक लगा देती है, तथा द्वितीय, ‘स्वतंत्र व्यापार नीति’ के अन्तर्गत निर्यात या आयात पर सरकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है।
- मौद्रिक नीति – मौद्रिक नीति से तात्पर्य, कन्े द्रीय बैंक की उस नियंत्रण नीति से है जिसके द्वारा केन्द्रीय बैंक सामान्य आर्थिक नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्यों से मुद्रा की पूर्ति पर नियंत्रण करता है। भारत में यह कार्य रिजर्व बैंक द्वारा सम्पादित किया जाता है। यह बैंक मौद्रिक एवं साख नीति का निर्धारण करता है जिससे साख-नियंत्रण के उपाय किये जाते हैं।
- राजकोषीय नीति – राजकोषीय नीति का संचालन वित्त मंत्रालय द्वारा किया जाता है। इस नीति के अन्तर्गत सरकारी आय-व्यय, सार्वजनिक ऋण (बाजार ऋण, क्षतिपूर्ति एवं अन्य ऋणपत्र, रिजर्व बैंक, राज्य सरकारों व वाणिज्यिक बैंकों आदि को जारी किये गये ट्रेजरी बिल, विदेशेां तथा अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से लिए गये ऋण इत्यादि) तथा घाटे की अर्थव्यवस्था को शामिल किया जाता है। राजकोषीय नीति के प्रमुख उद्देश्यों में पूँजी निर्माण, विनियोग-निर्धारण, राष्ट्रीय लाभांश तथा प्रतिव्यकित आय में वृद्धि, रोजगार के अवसरों में वृद्धि, स्थिरता के साथ विकास तथा आर्थिक समानता लाना, इत्यादि होते हैं।
(iii) आर्थिक दशाये –आर्थिक दशाओं को नियोजन एवं विकास का आधार मानकर उस देश की सरकार अनेक आर्थिक कार्यक्रमों को संचालित करती है। आर्थिक दशाओं में अग्रलिखित घटकों को शामिल किया जा सकता है।
- देश में प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता,
- मानवीय संसाधनों की उपलब्धता, किस्म तथा उपयोग,
- बचतों की स्थिति तथा पूँजी निर्माण की मात्रा,
- राष्ट्रीय उत्पादन, राष्ट्रीय आय तथा वितरण व्यवस्था,
- विदेशी पूँजी का आकार,
- देश में उद्योगों की स्थिति, प्रकार तथा उत्पादन की मात्रा,
- देशवासियों के उपभोग का स्तर, (viii) देश में लोक कल्याणकारी कार्य,
- विदेशी व्यापार की स्थिति तथा विदेशी मुद्रा अर्जन,
- देश की मौद्रिक नीति, बैंकिग व्यवस्था तथा ब्याज की दरें,
- उद्यमशीलता तथा साहस का स्तर,
- शोध एवं अनुसंधान,
- देश में प्रचलित सामान्य मूल्य स्तर,
- आर्थिक विकास तथा प्रगति की दर।
2. व्यवसाय का अनार्थिक पर्यावरण – व्यवसाय एक आर्थिक क्रिया है। इसके बावजूद यह अनार्थिक पर्यावरण से प्रभावित होती है। अनार्थिक पर्यावरण को सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक, कानूनी, तकनीकी, जनसांख्यिक पर्यावरण में वर्गीकृत कर सकते हैं।
(ii) राजनीतिक पर्यावरण – एक व्यवसाय की सफलता के लिए कुशल तथा स्वच्छ राजनैतिक पर्यावरण होना आवश्यक है। व्यवसाय की विभिन्न संरचनाओं के मूल में राजनीतिक निर्णय होते हैं। कुछ राजनीतिक निर्णय व्यवसाय विशेष के लिए लाभप्रद हो सकते हैं, जबकि कुछ के लिए हानिप्रद। राजनीतिक निर्णय को प्रभावित करने में कई घटकों का हाथ होता है, जैसे-विचारधारा, जनसेवा, चिन्तन, राजनैतिक दबाव, अन्तर्राष्ट्रीय दबाव व प्रभाव, राष्ट्रीय एकता व सुरक्षा इत्यादि। व्यवसाय के साथ ही प्रशासकीय वर्ग आता है। राजनैतिक निर्णयों की अनुपालना प्रशासनिक स्तर पर की जाती है। निर्णयों का जितनी शीघ्रता से पालन किया जायेगा उतना ही जनहित में रहेगा।
(iv) तकनीकी पर्यावरण – औद्याेिगक परिवर्तन तथा क्रान्ति मुख्यतया तकनीकी पर्यावरण पर निर्भर करती है। वैज्ञानिक शोधों से नयी-नयी प्रणालियों का आविष्कार होता है तथा प्रौद्योगिकी उन प्रणालियों का उपयोग करके व्यवसाय जगत में आमूल-चूल परिवर्तन ला देती है। राष्ट्र का तकनीकी एवं प्रौद्योगिकी विकास उत्पादन की प्रणालियों, नयी वस्तुओं, नये कच्चे माल के स्रोत, नये बाजार, नये यन्त्र व उपकरण, नयी सेवाओं इत्यादि को प्रभावित करता है। विकसित देशों में तकनीकी परिवर्तन तेजी से होते हैं क्योंकि वहाँ नयी तकनीक शीघ्रता से उपलब्ध हो जाती है। ये देश नयी तकनीक के उपलब्ध होते ही पुरानी तकनीक को शीघ्रता से त्याग देते हैं। किसी भी व्यवसायिक इकाई को अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए नवीनतम तकनीक को अपनाना अनिवार्य है संरक्षण प्राप्त बाजार तकनीकी परिवर्तन धीमी गति से होते हैं और बहुत सी फर्में बिना कोई परिवर्तन के वर्षों अपना उत्पादन करती रहती हैं। इसका एक प्रमुख कारण प्रतियोगिता का अभाव होना भी है।
(v) जनसांख्यिकी पर्यावरण – मनुष्य उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों होता है। इसलिए जनसांख्यिकी कारक जैसे जनसंख्या का आकार तथा विकास दर, जीवन प्रत्याशा, आयु एवं लिंग संरचना, जनसंख्या का वितरण, रोजगार स्तर, जनसंख्या का ग्रामीण एवं शहरी वितरण, शैक्षणिक स्तर, धर्म, जाति तथा भाषा इत्यादि सभी व्यवसाय के लिए संगत हैं। जनसंख्या में वृद्धि विकासशील देशों की एक प्रमुख विशेषता है। इसीलिए इन देशों में बच्चों हेतु वस्तुओं की माँग तथा उत्पादन में वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है।
