अनुक्रम
लेनिन के सिद्धांत
- व्लादिमीर लेनिन के पूंजीवादी साम्राज्यवाद का सिद्धांत
- व्लादिमीर लेनिन के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की पुर्नव्याख्या
- व्लादिमीर लेनिन के क्रान्ति का सिद्धान्त और समरनीति
- व्लादिमीर लेनिन के का दल सिद्धान्त
- सर्वहारा-वर्ग की तानाशाही
1. व्लादिमीर लेनिन के पूंजीवादी साम्राज्यवाद का सिद्धांत
लेनिन ने कहा कि 1914 के प्रथम विश्वयुद्ध में भाग लेने वाले सभी देशों के विभिन्न वर्गों ने आपसी मतभेद और संघर्ष भूलकर राष्ट्रीय एकता के लिए कार्य किया। सभी देशों के श्रमिक यह भूल गए कि उनका कोई देश नहीं होता। इसलिए मार्क्स की वर्ग संघर्ष की धारणा लागू नहीं हो सकी और मार्क्स की अन्य भविष्यवाणियां भी असत्य प्रतीत होने लगी। लेनिन ने कहा है कि ब्रिटेन जैसे पूंजीपति वर्ग की दशा खराब न होने का कारण इनको उपनिदेशवाद व साम्राज्यवाद से प्राप्त होने वाला धन है। ब्रिटेन के पूंजीपति वर्ग का सर्वहारा वर्ग ब्रिटेन में नहीं है, भारत में है। ब्रिटेन के श्रमिक वर्ग को भी भारत से काफी फायदा हुआ है, इसलिए वहां के श्रमिक भी अच्छा जीवन जी रहे हैं। उनकी स्थिति मध्यम वर्ग जैसी बनी हुई है। साम्राज्यवाद न सर्वहारा वर्ग तथा शोषण का स्वरुप बदल दिया है। लेनिन का कहना है कि मार्क्स के सिद्धान्तों का साम्राज्यवाद से कोई विरोध नहीं है, अपितु यह उनको पुष्ट करने वाला ही है। यद्यपि यह सत्य है कि मार्क्स ने इस स्थिति के बारे में कभी नहीं सोचा कि पूंजीवाद साम्राज्यवाद की अन्तिम स्थिति में पहुंचकर नष्ट होगा। इसी कारण मार्क्स का आपेक्षों का सामना करना पड़ा।
लेनिन ने साम्राज्यवाद का सिद्धांत पेश करते हुए कहा कि साम्राज्यवाद पूंजीवाद की अन्तिम अवस्था है। पूंजीवाद का अधिकाधिक विकास होने से उसमें केन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति भी बढ़ती है और विभिन्न उद्योगों के बड़े-बड़े संगठन, ट्रस्ट आदि बनने लगते हैं। सारे उद्योगों पर मुट्ठीभर पूंजीपतियों का एकाधिकार होने लगता है। यही स्थिति वित्तीय क्षेत्र में भी आती है। बैंकों पर उद्योगपतियों का नियन्त्रण स्थापित होकर केन्द्रीयकरण को बढ़ावा मिलता है। इस प्रकार के उद्योगों और वित्तीय पूंजी की स्वाभाविक प्रवृत्ति विस्तारवादी होती है। पूंजीपति अपनी पूंजी अपने देश के साथ-साथ दूसरे देशों में भी लगाकर उद्योग स्थापित करते हैं। इस तरह के भारी मुनाफा कमाने की इच्छा रखते हैं। इससे पूंजी व माल का निर्यात होने लगता है। इसके तीन सम्भावित परिणाम निकलते हैं-
- इसका पहला परिणाम यह है कि पूंजीपति जिन देशों में अपनी पूंजी निवेश करते हैं, वहां अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए वहां के कच्चे माल को प्राप्त करके, तैयार माल के रूप में बेचकर अपना ध्येय प्राप्त करना चाहते हैं। इसके लिए वे वहां पर अपने उपनिवेश स्थापित करने के विभिन्न प्रयासों द्वारा वहां की जनता का औपनिवेशिक शोषण करने का प्रयास करने लगते हैं। भारत का ब्रिटेन द्वारा किया गया शोषण इसका प्रमुख उदाहरण है।
- इसका दूसरा परिणाम युद्धों का होना है। इस प्रकार के पूंजीवादी साम्राज्यवाद में अनेक देश, मंडियां व उपनिवेश प्राप्त करने के लिए आपसी संघर्ष करने लगते हैं ताकि वे अपने-अपने हितों को सुरक्षित बना सकें। इससे युद्धों की भरमार होने लग जाती है। इस तरह पूंजीवादी साम्राज्यवाद के कारण युद्धों का जन्म होता है।
- इसका तीसरा परिणाम साम्राज्यवाद के अन्तर्विरोधों को जन्म के रूप में होता है। अपने स्वार्थों के लिए लड़े जाने वाले साम्राज्यावादी युद्ध में पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग को अपनी बलि का बकरा बनाने का प्रयास करता है। वह उन्हें आवश्यक शास्त्र शिक्षा देकर राष्ट्र के नाम पर दूसरे देशों में लड़ने के लिए भेजता है। लेकिन यह वर्ग जल्दी ही समझ जाता है कि उनका असली शत्रु कौन है और वे संगठित होकर पूंजीवाद के विरूद्ध विद्रोह कर देते हैं। इसमें वर्ग-संगठन के कारण श्रमिकों को ही विजय होना अवश्यम्भावी हो जाता है। इस तरह राष्ट्रीयता के नाम पर लड़ा जाने वाला युद्ध ही वर्ग-युद्ध का रूप लेकर पूंजीवाद को नष्ट कर देता है।
लेनिन ने कहा है कि इस तरह के अनेक अन्तर्विरोध पूंजीवादी साम्राज्यवाद में पाए जाते हैं। जब सम्पूर्ण विश्व का विभाजन पूंजीवादी साम्राज्यवादियों के बीच हो जाता है तो इन अन्तर्विरोधों के कारण पूंजीवाद का नष्ट होना स्वाभाविक है। इस व्यवस्था में अन्तर्विरोध पाए जाते हैं-
पूंजीवादी साम्राज्यवाद के सिद्धांत की आलोचना – यद्यपि लेनिन ने मार्क्स को कई आपेक्षों से बचाने का प्रयास तो किया, लेकिन वे स्वयं इस सिद्धांत के कारण कई आलोचनाओं का शिकार हो गए। इस सिद्धांत की प्रमुख आलोचनाएं हैं-
2. व्लादिमीर लेनिन के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की पुर्नव्याख्या
लेनिन ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की पुर्नव्याख्या अपनी पुस्तक ‘Materialism and Empiric Criticism’ में की है। लेनिन के इस सिद्धान्त को अत्यन्त रूढ़िवादी ढंग से प्रस्तुत किया है। लेनिन ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को एक नया रूप दिया है। सेबाइन का मानना है कि लेनिन ने मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को एक उच्च ज्ञान बना दिया है जिसमें समस्त विज्ञानों के गहनतम प्रश्नों को समझने की क्षमता है। लेनिन ने स्वयं स्वीकार किया है कि मार्क्सवाद का दर्शन फौलाद के एक ठोस पिण्ड की तरह है जिसमें से उसका एक भी अंश अलग नहीं किया जा सकता। लेनिन ने एंजिल्स के विचार से सहमति प्रकट करते हुए कहा है कि दर्शन या तो आदर्शवादी होगा या भौतिकवादी। उसने आदर्शवादी दर्शन को एक ढोंग बताया है और भौतिकवादी दर्शन की प्रशंसा की है।
लेनिन ने द्वन्द्वात्मक पद्धति की व्याख्या करते हुए कहा है कि सत्य सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी अर्थात् जो आंशिक रूप में सत्य है वह पूर्ण सत्य नहीं है, बल्कि सत्य के समीप है, वे विज्ञान जिनका सम्बन्ध निर्जीव पदार्थों से है उन्हें भी भौतिकवादी तरीके से समझा जा सकता है। भौतिकी इसलिए जटिल लगती है कि भौतिकशास्त्रियों ने इसे भौतिकवादी तरीके से समझने का प्रयास नहीं किया। द्वन्द्वात्मक पद्धति का प्रयोग एक ऐसा सार्वभौमिक साधन है जिसका प्रयोग प्रत्येक विज्ञान के क्षेत्र में किया जा सकता है। इसका प्रयोग सामाजिक विज्ञानों में ही हो, यह आवश्यक नहीं है।
लेनिन का मानना है कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का सामाजिक विज्ञानो ंकी अपेक्षा प्राकृतिक विज्ञानों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। दर्शन और समाजशास्त्र एकपक्षीय होते हैं। अर्थशास्त्र का अध् यापक केवल पूंजीवादी वर्ग के वैज्ञानिक विक्रेता के रूप में होता है और दर्शन का अध्यापक धर्मशास्त्र के। अधिक से अधिक तो समाज का कोई वैज्ञानिक सिद्धान्त निरुपित कर सकता है वह है-आर्थिक एवं ऐतिहासिक विकास की खोज। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद में ही यह सब कुछ करने की क्षमता होती है। दर्शन, अर्थशास्त्र एवं राजनीति में वैज्ञानिक यथार्थता तथा निष्पक्षता एकमात्र बहाना है जिसके द्वारा सुरक्षित हितों की पूर्ति होती है। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अन्तर्गत सामाजिक विज्ञान की दो प्रणालियां हैं-एक तो मध्यम वर्ग के हित के लिए है और दूसरी श्रमजीवियों के हित के लिए है। श्रमजीवियों की श्रेष्ठता इसी बात में है कि द्वन्द्ववाद यह सिद्ध करता है कि श्रमजीवी वर्ग एक जाग्रत वर्ग है और सामाजिक प्रगति का वाहक है। इसके विपरीत मध्यम वर्ग ऐसे कार्यों का प्रतिपादक है जो पूंजीवाद को समाजवाद में परिणित होने से रोकते हैं।
द्वन्द्वात्मक पद्धति में विकास निम्न स्तर से उच्च स्तर तक एक समरसतापूर्ण तरीके से नहीं होता है। यह तो वस्तुओं तथा संगठनों में निहित पारस्परिक अन्तर्विरोधों का परिणाम है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को श्रमिक वर्ग तथा पूंजीपति वर्ग के हितों की वृद्धि के लिए समन्वयकारी व समझौतावादी नीति का अनुसरण न करके सदैव समझौता न करने की नीति का ही पालन करना चाहिए ताकि समाजवाद का विकास हो सके।
इस तरह लेनिन ने मार्क्स को आपेक्षों से बचाने के लिए इस सिद्धान्त के माध्यम से भी एक प्रयास किया है। लेकिन लेनिन ने न तो मार्क्स की बात ही सही ढंग से पेश की है और न स्वयं की। लेनिन इस सिद्धान्त की पुर्नव्याख्या के जाल में इस तरह फंस गया कि आलोचकों ने इस सिद्धान्त को भ्रान्तिपूर्ण व मिथ्या सिद्धान्त कहना शुरू कर दिया। वेवर ने इसे फयूसरवादी भौतिकवाद कहा है। अत: लेनिन का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद लेनिन की एक महत्वपूर्ण देन होते हुए भी अनेक दोषों से परिपूर्ण है। इस सिद्धान्त के अनुसार सामाजिक सम्बन्धों में समझौतावादी नीति का कोई महत्व नहीं है। यह सिद्धान्त सर्वहारा वर्ग का पक्षधर होने के कारण न्यासंगत नहीं कहला सकता।
3. व्लादिमीर लेनिन के क्रान्ति का सिद्धान्त और समरनीति
लेनिन ने अपने क्रान्ति सम्बन्धी विचार अपनी प्रसिद्ध पुस्तक State and Revolution में दिए हैं, लेनिन ने मार्क्स का सच्चा अनुयायी होते हुए भी समाजवाद के विकासवादी सिद्धान्त का प्रबल वि रोध किया है। उसने मार्क्सवाद के विपरीत कार्य करते हुए भी अपने इस विचार में मार्क्स की आत्मा को बनाए रखा है। उसका क्रान्ति का सिद्धान्त एक व्यावहारिक पक्ष है, लेनिन ने बर्नस्टाइन तथा ब्रिटेन के फेबियन दल की इस बात का खण्डन किया है कि समाजवाद धीरे-धीरे विकासवादी प्रक्रिया द्वारा भी स्थापित हो सकता है। लेनिन ने क्रान्ति शास्त्र का आचार्य होने के नाते क्रान्ति के सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा है कि क्रान्ति द्वारा ही समाजवाद की स्थापना हो सकती है।
लेनिन अपनी पुस्तक ‘State and Revolution’ में लिखा है कि ‘‘आजकल श्रमिक आन्दोलन के अन्तर्गत मार्क्स के सिद्धान्तों के क्रान्तिकारी पक्ष को भूला दिया गया है। इससे मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी आत्मा को धूमिल कर दिया है। ऐसी परिस्थितियों में मार्क्सवाद की वास्तविक शिक्षाओं जिनमें उनका क्रान्तिकारी पक्ष भी शामिल है, को पुन: प्रतिष्ठित करना हमारा प्रथम कर्त्तव्य है।’’ लेनिन ने कहा है कि कुछ लोगों ने मार्क्स के राज्य के शनै:शनै: समाप्त होने के विचार का गलत अर्थ निकाला है।
यद्यपि मार्क्स ने सभी देशों में क्रान्ति को अनिवार्य नहीं माना था, उसका मानना था कि लोकतन्त्रीय देशों में इसकी आवश्यकता नहीं है। लेकिन लेनिन ने कहा कि एकाधिकारवादी पूंजी, साम्राज्यवाद एवं महायुद्ध ने परिस्थितियों को बदल दिया है। आज ब्रिटेन और अमेरिका जैसे लोकतन्त्रीय देश भी साम्राज्यवादी एवं सैनिकवादी बन गए हैं। अत: इन देशों में श्रमिकों के सामने यही एकमात्र उपाय है कि वे क्रान्ति की ओर अग्रसर हों।
- क्रान्ति को खेल–तमाशा न समझकर, सोच-विचार करके ही शुरू करना चाहिए और इसे उद्देश्य पूर्ति तक जारी रखना चाहिए। क्रान्ति कीे बीच में ही छोड़ने से क्रान्ति के समस्त ध्येय स्वत: ही समाप्त हो जाते हैं।
- क्रान्ति करने से पहले अपनी स्थिति तथासमय का सही अनुमान लगा लेना चाहिए। यदि एक निश्चित स्थल व निश्चित समय पर समची शक्ति का प्रयोग न होगा तो विरोधी पक्ष क्रान्ति को कुचल सकता है।
- क्रान्तिकारियों को शत्रु पक्ष पर उस समय एकाएक हमला करना चाहिए जब उसकी सेनाएं इधर-उधर बिखरी हों अर्थात् क्रान्तिकारियों को घात लगाकर ही आक्रमण करना चाहिए ताकि शत्रु पक्ष को सम्भलने का अवसर न मिले।
4. पेशेवर क्रान्तिकारियों के संगठित दल का महत्व – लेनिन ने 1917 की रुसी क्रान्ति को व्यावहारिक व सफल बनाने के लिए स्वयं एक पेशेवर क्रान्तिकारियों के दल का निर्माण किया था। उसका कहना है कि पेशेवर क्रान्तिकारी ही क्रान्ति को सफल बनाने में अग्रणी भूमिक निभा सकते हैं। इसलिए उसने पेशेवर क्रान्तिकारियों के संगठित दल का विचार प्रस्तुत किया है, लेनिन ने पेशेवर क्रान्तिकारी का अर्थ उस व्यक्ति से लिया है जिसने क्रान्ति करने और इसे सफल बनाने को ही अपना व्यवसाय मान लिया हो। जिस प्रकार पुलिस तथा सेना को प्रशिक्षण दिया जाता है, उसी तरह पेशेवर क्रान्तिकारियों के लिए भी समुचित शिक्षा व प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। लेनिन का कहना है ‘‘मुट्ठी भर प्रशिक्षित क्रान्तिकारी हजारों मजदूरों से अधिक अच्छा काम कर सकते हैं।’’ लेनिन ने इस बात का खुलासा अपनी पुस्तक ‘What is to be done’ में किया है। उसने कहा है कि प्रशिक्षित व संगठित क्रान्तिकारियों का दल कठोर अनुशासन में बंधा होना चाहिए और उसकी समस्त गतिविधियां गुप्त होनी चाहिए। इस दल को साम्यवादी सिद्धांतों का गहरा ज्ञान होना चाहिए। लेनिन ने लिखा है-’’लड़ाकू हरावल दस्ते की भूमिक वही पार्टी अदा कर सकती है जो सबसे अधिक उन्नत सिद्धान्तों के आधार पर चलती हो।’’
लेनिन ने साम्यवादी क्रान्ति को फल बनाने के लिए एक विशेष प्रकार के साम्यवादी दल का निर्माण करने की बात कही और स्वयं साम्यवादी दल को कठोर अनुशासन में बांधकर 1917 की साम्यवादी क्रान्ति को सफल बनाकर पेशेवर क्रान्तिकारियों के संगठित दल के महत्व को सिद्ध किया। लेनिन ने प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान रुस की उपयुक्त परिस्थितियों का लाभ उठाकर पूंजीवाद के विकास के बिना ही साम्यवादी क्रान्ति को सफल बनाया। लेनिकन का विश्वास था कि प्रथम विश्वयुद्ध में रुस की हार अवश्य होगी। इसलिए उसने सुदृढ़ साम्यवादी दल की स्थापना करके क्रान्ति का पथ प्रशस्त किया। इस तरह औद्योगिक रूप से पिछड़े देश रुस में भी लेनिन ने समाजवादी क्रान्ति कामार्ग प्रशस्त करके महान कार्य किया। अत: नि:सन्देह कहा जा सकता है कि लेनिन क्रान्ति शास्त्र के आचार्य थे। उनके क्रान्ति के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पक्षों में जो समन्वय देखने को मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। उसका पेशेवर क्रान्तिकारियों के दल का विचार राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में उसका अमूल्य योगदान है।
4. व्लादिमीर लेनिन के का दल सिद्धान्त
लेनिन का दल-सिद्धान्त उसके साम्यवादी क्रान्ति के सिद्धान्त का आधार है। लेनिन ने साम्यवादी क्रान्ति की सफलता के लिए संगठित दल की आवश्यकता पर जोर दिया है। लेनिन ने मार्क्सवाद को संशोधन करते हुए वर्ग चेतना के स्थान पर दलीय संगठन को ज्यादा महत्वपूर्ण बताया है। उसका विचार था कि कोई भी क्रान्ति को सुदृढ़ और सुसंगठित दल के बिना असफल होगी। उसका विश्वास था कि पूंजीवाद श्रमिक वर्ग की क्रान्तिकारी चेतना को बलपूर्वक दबा सकता है, क्योंकि उसके पास शस्त्र बल होता है। इसलिए सर्वहारा क्रान्ति को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि सर्वहारा वर्ग का मार्ग-दर्शन करने, उसे क्रान्ति तथा संघर्ष के लिए तैयार करने और उसे समाजवाद की दिशा में शिक्षित तथा प्रशिक्षित करने के लिए थोड़े से ऐसे व्यक्तियों का संगठन आवश्यक है जो पेशेवर क्रान्तिकारी हो।
लेनिन के दल को विशिष्ट रूप में परिभाषित करते हुए सेबाइन ने कहा है कि दल कुछ विशिष्ट बुद्धिजीवियों और नीतिज्ञ पुरुषों का एक सुसंगठित गुट होता है। यह चुने हुए बुद्धिजीवियों का गुट इस अर्थ में है कि उसका मार्क्सवाद विषयक ज्ञान मार्क्स के सिद्धान्तों की शुद्धता को कायम रखता है तथा इसके द्वारा दल की नीति का पथ-प्रदर्शन होता है। जब दल शक्ति प्राप्त कर लेता है तब राज्य की नीति का पथ-प्रदर्शन करता है। वह चुने हुए नीति-निपुण पुरुषों का संगठन इस अर्थ में है कि चुनाव और कठोर दलीय अनुशासन तथा प्रशिक्षण के कारण ये लोग दल तथा साम्यवादी क्रान्ति के प्रति पूरी तरह निष्ठावान बन जाते हैं। लेनिन का विश्वास था कि अनुशासन, संगठन, नेतृत्व और शक्ति के बिना दल का विकास नहीं हो सकता। पार्टी उन्हीं लोगों को लेकर बनाई जा सकती है जो क्रान्तिकारी लक्ष्य के प्रति सबसे अधिक निष्ठावान होते हैं। जब तक इच्छा की एकता, कार्यवाही की एकता और अनुशासन की एकता द्वार पार्टी का संगठन नहीं होगा तब तक वह मजदूर वर्ग के अग्रणी लड़ाकू दल की भूमिका अदा नहीं कर सकती। इस तरह लेनिन ने अपने दल के सिद्धान्त को लोकतन्त्रीय केन्द्रवाद पर आधारित किया है।
लेनिकन का मत था कि दल का कार्य समाजवादी आन्दोलनों का नेतृत्व करना, सर्वहारा वर्ग को समाजवादी सिद्धान्तों से अवगत कराना, क्रान्ति के विचारों का प्रसारण करना, क्रान्ति की तकनीक का प्रशिक्षण देना तथा क्रान्ति काल में सर्वहारा वर्ग का नेतृत्व करना है। शक्तिशाली दलीय संगठन एक अजेय शक्ति होता है। इसकी आवश्यकता न केवल क्रान्ति से पूर्व होती है बल्कि यह पूंजीवादी राज्य का विनाश करने एवं श्रमजीवी वर्ग की तानाशाही स्थापित करने के लिए भी आवश्यक है। यदि दल को मजदूर वर्ग के अग्रणी दल की भूमिका निभानी है तो यह अपेक्षित है कि उसे क्रान्तिकारी सिद्धान्त और क्रान्ति के नियमों का भी ज्ञान हो। दल का प्रयोजन सर्वहारा वर्ग और सम्पूर्ण जनता की भलाई करना है, इसलिए इसे कठोर अनुशासन को बंधा हुआ होना चाहिए था। इसका संगठन सर्वोत्तम, नि:स्वार्थ, लगनशील, पूर्ण चेतना से युक्त तथा दूरदश्र्ाी व्यक्तियों से किया जाना चाहिए।
लेनिन दल को एक गिर्जा तथा धर्माज्ञा के समान समझता था। वह नहीं चाहता था कि सदस्यों को दल की आलोचना करने का अधिकार प्राप्त हो। उसने कहा है कि दल के सदस्य स्वेच्छा से ही एक-दूसरे के साथी बनते हैं और उनका विशेष लक्ष्य शत्रु को पराजित करना है, इसलिए उन्हें बहस व विवादों से दूर रहना चाहिए। लेनिन ने कहा है कि दल की सफलता के लिए दल में लौह-अनुशासन का होना अनिवार्य है। दल की आलोचना करने का अधिकार किसी को भी नहीं दिया जा सकता। इसलिए स्वयं लेनिन ने भी जीवन भर दल के कठोर अनुशासन में बंधकर ही शुद्ध व शीर्ष स्तर के व्यक्ति ही ले सकते हैं जो मार्क्सवाद में पूर्ण निष्ठा रखते हों और दल के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने के लिए तैयार रहते हैं। उनके निर्णयों को लागू करना दल के सभी सदस्यों का परम धरम है।
लेनिन ने दल की सदस्यता के बारे में कहा है कि इसकी सदस्यता उन्हीं लोगों को दी जानी चाहिए जो स्वयं को साम्यवादी सिद्ध कर सकें और दल के लिए अपना सब कुछ त्याग करने के लिए तैयार रहें। लेनिन ने ऐसे दल के निर्णय पर जोर दिया जो सैनिक अनुशासन पर आधारित हो और क्रान्ति के समय शत्रु का पूर्ण सफाया कर दे।
5. सर्वहारा-वर्ग की तानाशाही
लेनिन ने अपने क्रान्ति सम्बन्धी सिद्धान्त में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का कई बार उल्लेख किया है। उसका माननाा है कि क्रान्ति के स्थायी परिणाम तभी प्राप्त हो सकते हैं, जब क्रान्ति के बाद शासन व्यवस्था में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित होगी, सर्वहारा वर्ग के अधिनायतन्त्र द्वारा ही समाजवाद की स्थापना हो सकती है। क्रान्ति के बाद जब साम्यवादी दल सत्ता संभाल लेगा, तब वह सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित करेगा, उत्पादन के साधनों को सार्वजनिक स्वामित्व में रखेगा और अपनी सारी शक्ति तथा राज्य के सारे संसाधनों का प्रयोग इस तरह करेगा कि पूंजीवाद के अवशेषों को मिटाया जा सके। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के अन्तर्गत किसी प्रतिस्पध्र्ाी दल का कोई अस्तित्व नहीं होगा। यदि ऐसा न किया गया तो पराजित पूंजीपति वर्ग संगठित होकर दोबारा क्रान्ति करके या सरकार गिराकर सत्तारुढ़ होने का प्रयास कर सकता है। विरोधी दल के अभाव में वर्गभेद मिटेगा और समाज वर्ग-विहीन होगा तथा राज्य भी लुप्त हो जाएगा।
लेनिन ने मार्क्स द्वारा प्रतिपादित सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की अवधारणा को नया रूप देने का प्रयास किया है। लेनिन ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के स्थान पर साम्यवादी दल की तानाशाही की व्यवस्था की है। लेनिन का विश्वास था कि मजदूरों में न तो क्रान्तिकारी भावना होती है और न ही क्रान्ति के आने पर वे उसका नियन्त्रण करने तथा उसे ठीक तरह से संचालित करने की योग्यता रखते हैं। यह कार्य तो पेशेवर क्रान्तिकारियों का सुव्यवस्थित, अनुशासनप्रिय और क्रान्तिशास्त्र का ज्ञाता अल्पसंख्यक दल ही कर सकता है। इसके लिए दल को अपनी अधिनायकता स्थापित करने की आवश्यकता पड़ती है। लेनिन इसे सर्वहारा वर्ग की अधिनायकता कहता है, किन्तु वास्तव में यह साम्यवादी दल की सर्वहारा वर्ग पर स्थापित की जाने वाली अधिनायकता है। ट्रॉटस्की ने भी इस बात की पुष्टि की है।
लेनिन ने श्रमिक वर्ग की तानाशाही को दो भागों में बांटकर इसका दोनों ही अवस्थाओं में प्रयोग किया है, लेनिन ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को-I. श्रमजीवी क्रान्ति के साधन, II. संक्रमणकालीन राज्य के रूप में प्रस्तुत किया है। श्रमजीवी या सर्वहारा क्रान्ति के साधन या यन्त्र के रूप में श्रमजीवी तानाशाही क्रान्ति की प्रगति व सफलता का आधार है। लेनिन ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को एक यन्त्र के रूप में स्वीकार करते हुए कहा है कि इसका उद्देश्य सर्वप्रथम शोषणकर्त्ताओं (पूंजीपतियों) को उखाड़ फेंकना तथा श्रमिक क्रान्ति को प्राप्त करना तथा उसे पूर्ण करना है। लेनिन ने कहा है-’’श्रमिक वर्ग का अधिनायकवाद वह शक्ति है जो सर्वहारा वर्ग में बुर्जुआजी शक्ति के विरुद्ध अंकुश लगाती है और अपनी जीत सुरक्षित रखती है।’’ लेनिन ने आगे कहा है-’’सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वहारा क्रान्ति का एक ऐसा यन्त्र है जिसका उद्देश्य शोषणकर्ताओं के प्रतिरोध का दमन करना और श्रमिक क्रान्ति को सफल बनाना तथा उसे पूर्ण बनाना है।’’ लेनिन का मानना है कि श्रमिक वर्ग की तानाशाही के बिना पूंजीपति वर्ग को परास्त करना क्रान्ति के स्थाई परिणाम नहीं दे सकता। ऐसी अवस्था में पूंजीपति वर्ग अवसर मिलते ही सर्वहारा शासन का तख्ता पलट सकते हैं। इसलिए क्रान्ति के परिणामों को स्थाई बनाने के लिए सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व आवश्यक होता है।
लेनिन का कहना है कि श्रमजीवी तानाशाही न केवल क्रान्ति का साधन है बल्कि उसका कार्य यह भी है कि वह श्रमिक वर्ग की शक्तिशाली पूंजीपति वर्ग के खिलाफ संगठित भी करती है। लेनिन ने लिखा है-’’सर्वहारा तानाशाही पुराने समाज की शक्तियों और परम्पराओं के विरुद्ध एक अविरल संघर्ष है जो रक्तपूर्ण भी है और रक्तहीन भी, हिंसापूर्ण भी है और अहिंसक भी, आर्थिक भी है और सैनिक भी तथा शिक्षात्मक भी है और प्रशासकीय भी।’’ सर्वहारा वर्ग की तानाशाही एक ऐतिहासिक युग है जिसमें पूंजीवाद का सम्पूर्ण विनाश और साम्यवाद की स्थापना होगी।
लेनिन ने सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को 1917 की क्रान्ति का आधार बनाकर एक साधन के रूप में प्रयुक्त किया था। यदि करेन्सकी सरकार के पतन के बाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित नहीं की जाती तो विदेशी पूंजीपतियों से सहायता पाने वाली रुस की प्रतिगामी शक्तियां पुरानी बुर्जुआ सरकार को पुन: सत्तारुढ़ कर सकती थी। 1917 की सर्वहारा क्रान्ति के लम्बे समय के बाद भी रुस में सर्वहारा वर्ग की ही अधिनायकता रही और पूंजीवादी ताकतें अपना सिर नहीं उठा सकी।
संक्रमणकालीन राज्य या पूंजीपति वर्ग पर शासन करने वाले राज्य के रूप में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के बारे में लेनिन ने कहा है कि श्रमिक वर्ग की तानाशाही एक ऐसे संगठन के रूप में होती है, जिसमें एक वर्ग (श्रमिक वर्ग) दूसरे वर्ग पर (पूंजीपति वर्ग) अपना नियन्त्रण स्थापित करके उसका शोषण करता है। इस प्रकार यह पूंजीवादी व्यवस्था के समान ही है। लेकिन दोनों में अन्तर यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में अल्पसंख्यक वर्ग (पूंजीपति वर्ग) बहुसंख्यक वर्ग (श्रमिक वर्ग) का शोषण करता था, लेकिन सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के अन्तर्गत बहुसंख्यक वर्ग (श्रमिक वर्ग), अल्पसंख्यक वर्ग (पूंजीपति वर्ग) का शोषण करता है। ऐसे व्यवस्था में राज्य विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग का शोषण करके दलित वर्ग को लाभ पहुंचाता है। इस संक्रमणकालीन राज्य के रूप में श्रमिक तानाशाही अपनी प्रतिरोधी शक्तियों को बलपूर्व कुचलने के लिए विवश होती है। पराजित पूंजीपति की मनोदशा घायल सांप जैसी होती है। वह अवसर मिलते ही अपनी खोई हुई शक्ति व प्रतिष्ठा पाने के लिए लालायित रहता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग को इस संक्रमणकालीन अवस्था में अपनी शक्ति का प्रयोग पूंजीपतियों की शक्ति का दमन तथा नवीन समाज की रचना करने के लिए करना पड़ता है, लेनिन ने कहा है कि यह अवस्था एक लम्बी अवस्था है। इसमें श्रमिक वर्ग को अपने विरोधियों का दमन करने के लिए एक लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा। उसे अपनी निरंकुश शक्ति का प्रयोग करके सच्चे साम्यवाद की ओर अग्रसर होना होगा। यही व्यवस्था सर्वहारा वर्ग की तानाशाही है। अत: श्रमिक अधिनायकवाद एक ऐसी सत्ता है जो प्रत्यक्ष रूप से शक्ति पर आधारित है और कानून की सीमा से बाहर है। इसे हिंसा द्वारा प्राप्त किया जाता है और पूंजीवाद के विनाश हेतु इसका प्रयोग किया जाता है।
नवीन व्यवस्था की स्थापना – श्रमिक वर्ग की तानाशाही का उद्देश्य शासन परिवर्तन करना ही नहीं है, बल्कि पुराने पूंजीवादी राज्य के सम्पूर्ण भ्रष्ट तन्त्र को समाप्त करके नई व्यवस्था का निर्माण करना है। इस व्यवस्था में समूचे शासन यन्त्र में परितर्वन किया जाता है। नौकरशाही, पुलिस, सेना और कानून सब कुछ बदल जाते हैं।
सर्वहारा तानाशाही का व्यावहारिक रूप
लेनिन ने सिद्धान्त में तो इसे श्रमजीवी लोकतन्त्र का नाम दिया हे, लेकिन व्यवहार में यह तानाशाही मजदूर वर्ग ही नहीं, बल्कि मजदूर वर्ग पर है। व्यवहार में मजदूर वर्ग साम्यवादी दल के अधीन है और सारी शक्ति साम्यवादी दल में ही केन्द्रित है। मजदूर वर्ग की तानाशाही का व्यावहारिक अर्थ है-विचार स्वतन्त्रता का अपहरण, मतभेद रखने वालों का दमन और सामाजिक जीवन पर पूर्ण नियन्त्रण। सर्वहारा तानाशाही गिने-चुने प्रभावशाली साम्यवादियों का निरंकुश तन्त्र मात्र है। इस प्रकार का अधिनायकतत्व नेताओं का अधिनायकतत्व है। दल के साधारण सदस्यों को न तो कोई अधिकार प्राप्त है और न कोई स्वतन्त्रता। इसमें तानाशाही शक्ति को मर्यादित करने वाले सभी तत्वों का अभाव है। लोकतन्त्र शब्द का प्रयोग एक दिखावा है। दल के सदस्यों को बोलने का भी अधिकार प्राप्त नहीं है। 1917 की सर्वहारा क्रान्ति के बाद रुस में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही के स्थान पर साम्यवादी दल तथा उस पर नियन्त्रण रखने वाले गिने-चुने व्यक्तियों का ही शासन रहा है। लेनिन के बाद स्टालिन ने कठोर दलीय सिद्धान्तों के अनुसार अपनी तानाशाही स्थापित करके रुस में शासन किया। लम्बे समय तक स्टालिन ने अपनी मृत्यु तक रुस के सर्वेसर्वा तथा निरंकुश शासक के रूप में शासन किया। लेकिन सर्वहारा वर्ग की तानाशाही रुस में लम्बे समय तक नहीं चल सकी। पहले तो यह साम्यवादी दल की तानाशाही के नाम पर व्यक्ति विशेष की तानाशाही बनी और बाद में उदारवाद की एक ऐसी आंधी आई कि सोवितय संघ में साम्यवादी शासन की जड़ें हिल गई। आज रुस में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का नामोनिशान भी नहीं है।
संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना
लेनिन ने संसदीय प्रजातन्त्र की आलोचना करते हुए कहा है कि संसद बुर्जुआ वर्ग के हितों में वृद्धि करने वाली सस्थाएं हैं। संसद जनता को मूर्ख बनाती है। लेनिन ने अपनी पुस्तक ‘Left Wing Communism’ में संसदीय व्यवस्था को निकृष्ट बताया है। उसने श्रमिक वर्ग की तानाशाही को ही वास्तविक लोकतन्त्र कहा है। उसका कहना है कि साम्यवाद का लक्ष्य संसदीय व्यवस्था को समाप्त करना है, क्योंकि यह पूंजीपति वर्ग की प्रतिनिधि होती है। अपनी धन शक्ति के बल पर पूंजीपति चुनाव में स्वयं खड़े होकर या अपने प्रतिनिधि खड़े करके संसदीय शासन की बागडोर अपने हाथों में ले लेते हैं। संसदीय व्यवस्था श्रमिकों के हित में नहीं होती है। इसका साम्यवाद से केवल इतना सम्बन्ध हो सकता है कि साम्यवाद इसे खत्म करना चाहता है। संसदीय व्यवस्था श्रमिक वर्ग के शुभचिन्तकों के लिए कए घृणित वस्तु है और इससे अधिक घातक और क्रान्ति विरोधी कोई अन्य वस्तु नहीं हो सकती, इसएि इसे अन्दर और बाहर दोनों ही स्थानों से नष्ट करना चाहिए।
लेनिन का विश्वास था कि संसद में सम्पूर्ण विधि निर्माण कार्य तथा व्यवस्थापन सम्बन्धी कार्य केवल मात्र पूंजीपति वर्ग के हित के लिए ही किए जाते हैं और जनसाधारण को मूर्ख बनाया जाता है। लेनिन ने लिखा है-’’राज्य व्यवस्था चाहे वैधानिक राजतन्त्रों की हो या गणतन्त्रों की, सब जगह संसदों का रूप तथा कार्य प्रणाली पूंजीपतियों के हित साधन तथा जनसाधारण एवं सर्वहारा वर्ग के शोषण की ओर निर्देशित रहती है।’’ इसलिए जब क्रान्ति द्वारा सर्वहारा वर्ग की सत्ता स्थापित होगी तो वही वर्ग संसदीय प्रणाली का अन्त करके राष्ट्र का निर्माण करेगा।
लेनिन ने संसदीय प्रजातन्त्र के साथ उसकी दलीय व्यवस्था की भी आलोचना की है। लेनिन का कहना है कि संसदीय प्रजातन्त्र के व्याप्त बहुमत दल का बहुमत न होकर पूंजीपतियों द्वारा रचा गया “ाड्यन्त्र होता है। ये दल बुर्जुआ समाज के ही प्रतिनधि होते हैं। पूंजीपति वर्ग चुनावों के दौरान उन्हें विशेष सहायता देकर सत्ता के पास पहुंचा देता है। ये अल्पमत के प्रतिनिधि होते हुए भी बहुमत पर शासन करते हैं। इसलिए साम्यवादी क्रान्ति द्वारा संसदीय प्रजातन्त्र के साथ-साथ इस बुराई को भी समाप्त किया जाएगा। समाज को विभिन्न वर्गों में बांटने वाले इन संगठनों के स्थान पर साम्यवादी दल का ही अस्तित्व रहेगा और वही दल श्रमिकों के कल्याण के लिए कार्य करेगा, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित करेगा तथा पूंजीपतियों का दमन करेगा।
मार्क्सवाद में संशोधन
लेनिन ने मार्क्सवाद को समसामयिक व प्रासांगिक बनाने के लिए कई प्रयास किए। उसने मार्क्सवाद को रुसी परिस्थितियों के अनुसार परिमार्जित किया, स्टालिन ने स्वीकार किया है कि लेनिन का दर्शन मार्क्सवाद का रुसी संस्करण है। लेकिन मार्क्स का सच्चा अनुयायी होने के नाते लेनिन के सामने मार्क्सवाद को आपेक्षों से बचाने के लिए कोई अन्य विकल्प नहीं था, लेनिन ने मार्क्सवाद को व्यावहारिक बनाने के लिए उसे संशोधनवाद रूपी पोशाक से सुसज्जित किया है। उसके द्वारा मार्क्सवाद में किए गए संशोधन या परिवर्तन हैं-
लेनिन का मूल्यांकन
लेनिन कोई मौलिक विचारक न होने के बावजूद भी साम्यवादी जगत में वही स्थान रखता है जो मार्क्स को प्राप्त है। लेनिन ने मार्क्सवाद को व्यावहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है। लेनिन ने मार्क्सवाद को रुसी परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिए उसमें कई परिवर्तन भी किए, लेकिन उसने मार्क्सवाद की आत्मा को नष्ट नहीं होने दिया। लेनिन ने मार्क्स के क्रान्ति के सिद्धान्त को व्यापक व नया रूप दिया। उसने पेशेवर क्रान्तिकारियों का विचार देकर क्रान्ति के सिद्धान्त को और अधिक प्रासांगिक व मूल्यवान बनाया। उसने एक क्रमबद्ध तथा तार्किक चिन्तक होने के नाते पूंजीवाद का साम्राज्यवादी सिद्धान्त प्रस्तुत यिका। 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति को सफल बनाने में लेनिन का बहुत बड़ा हाथ रहा। उसने क्रान्ति के बाद कृषक वर्ग को महत्व देकर एक महत्वपूर्ण कार्य किया।
लेकिन लेनिन ने सर्वहारा वर्ग और पूंजीपति वर्ग में निरन्तर संघर्ष रहने की जो बात कही, वह आज सत्य नहीं है। आज अनेक देशों में इन दोनों वर्गों में शांतिपूर्ण सम्बन्ध हैं। अनेक देशों में पूंजीपति वर्ग श्रमिकों के कल्याण का पूरा ध्यान रख रहे हैं। आज साम्यवादी देश स्वयं भी आपसी फूट का शिकार है। रुस और चीन साम्यवाद पर अलग-अलग विचार रखते हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद कई देशों में साम्यवादी सरकारें बनने के बाद शीघ्र ही उनका पतन हुआ है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद को समाप्त करने में सर्वहारा वर्ग की बजाय राष्ट्रवादी चेतना ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस दृष्टि से लेनिन की भविष्यवाणियां और सिद्धान्त निरर्थक साबित हुए हैं। 1990 में स्वयं रुस का साम्यवादी दल भी अपना प्रभुत्व स्थापित रखने में असफल रहा और सोवियत संघ का विभाजन हो गया। लेनिन की राज्यविहीन या पूर्ण साम्यवाद की धारणा कल्पना लोक की वस्तु साबित हुई है। आज तक किसी भी देश में पूर्ण साम्यवाद नहीं आया है। लेनिन मार्क्सवाद में संशोधन करने के चक्कर में स्वयं मार्क्सवाद से इतना दूर चला गया कि उसने मार्क्सवाद का ही रूप विकृत कर दिया।
इतना होने के बावजूद भी यह बात तो निर्विवाद रूप से स्वीकार करनी पड़ेगी कि लेनिन ने शोषित जनता को जार की तानाशाही से मुक्ति दिलाकर एक महत्वपूर्ण कार्य किया। उसने साम्यवादी क्रान्ति को व्यावहारिक जामा पहनाया। उसने पेशेवर क्रान्तिकारियों का विचार देकर मार्क्स की आत्मा को चार-चांद लगाए। उसने मार्क्सवाद के सिद्धान्तों को आपेक्षों से बचाया और उन्हें रुसी परिस्थितियों में प्रासांगिक बनाया। अत: आधुनिक साम्यवाद उनका बहुत ऋणी है। उसने मार्क्सवाद को जो योगदान दिया है, वह काफी महत्वपूर्ण है और लेनिन साम्यवादी चिन्तकों के बीच में एक महान हस्ती है। उनका राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में वही स्थान है जो मार्क्स का है।