अनुक्रम
यजुर्वेद की शाखाएं
- काण्यसंहिता
- कृष्ण यजुर्वेद
- तैत्तिरीय संहिता
- मैत्रात्रणी संहिता
1. काण्यसंहिता-
शुक्ल यजुर्वेद की प्रधान शाखायें माध्यन्दिन तथा काण्व है। काण्व शाखा का प्रचार आज कल महाराष्ट्र प्रान् तमें ही है और माध्यन्दिन शाखा का उतर भारत में, परन्तु प्राचीन काल में काण्य शाखा का अपना प्रदेश उत्तर भारत ही था, क्योंकि एक मन्त्र में (11/11) कुरु तथा पच्चालदेशीय राजा का निर्देश संहिता में मिलता है (एष य: कुरवो राजा, एष पच्चालों राजा)।
काण्वसंहिता का एक सुन्दर संस्करण मद्रास के अन्तर्गत किसी ‘आनन्दवन’ नगर तथा औध से प्रकाशित हुआ है जिसमें अध्यायों की संख्या 40, अनुवाकों की 328 तथा मन्त्रों को 2086 है, अर्थात् माध्यन्दिन-संहिता के मन्त्रां (1975) से यहाँ 11 मन्त्र अधिक है। काण्व शाखा अधिक है। काण्व शाखा का सम्बन्ध पाच्चरात्र आगम के साथ विशेष रूप से पाच्चरात्र संहिताओं में सर्वत्र माना गया है।
2. कृष्ण यजुर्वेद-
उपरि निर्दिष्ट विषय-विवेचन से कृष्ण-यजुर्वेद की संहिताओं के भी विषय का पर्याप्त परिचय मिल सकता है, क्योंकि दोनों में वर्णित अनुष्ठान-विधियाँ प्राय: एक समाान ही है। शुल्कयजु: में जहाँ केवल मन्त्रों का ही निर्देश किया गया है, वहाँ कृष्णयजु: में मन्त्रों के साथ तद्विधायक ब्राह्मण भी संमिश्रित हैं।
चरणब्यूह के अनुसार कृष्णयजुर्वेद की 85 शाखायें हैं जिनमें आज केवल 4 शाखायें तथा सत्यसबद्ध पुस्तके उपलब्ध होती है- (1) तैत्तिरीय, (2) मैत्रायिणी, (3) कठ, (4) कपिष्ठिक-कठ शाखा।
3. तैत्तिरीय संहिता –
तैत्तिरीय संहिता का प्रसारदेश दक्षिण भारत है। कुछ महाराष्ट्र प्रान्त समग्र आन्ध्र-द्रविण देश इसी शाखा का अनुयायी है। समग्र ग्रन्थों-संहिता, ब्राह्मण, सूत्र आदि की उपलब्धि से इसका वैशिष्टय स्वीकार किया जा सकता है, अर्थात् इस शाक्षा ने अपनी संहिता, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद्, श्रौतसूत्र तथा गुहृसूत्र को बड़ी तत्रता से अक्षुण्ण बनाये रक्खा हैं तैत्तिरीय संहिता का परिमाण कम नहीं हैं यह काण्ड, प्रापाठक तथा अनुवाकों में विभक्त है।
4. मैत्रात्रणी संहिता
कृष्ण यजुर्वेद की अन्तम शाक्षा मैत्रायणी की यह संहिता गद्यपद्यात्मक है, मूल ग्रन्थ काठकसंहिता के समान होने पर भी उसकी स्वरांकन पद्धति ऋग्वेद से मिलती है। ऋग्वेद के समान ही यह अष्टक तथा अध्यायों में विभक्त है। इस प्रकार कापिष्ठल कठसंहिता पर ऋग्वेद का ही सातिशपथ प्रभाव लक्षित होता है। ग्रन्थ अधूरा ही है। इसमें निम्नलिखित अष्टक तथा तदन्तर्गत अध्याय उपलब्ध है-
- प्रथम अष्टक-पूर्ण, आठों अध्याय के साथ।
- द्वितीय अष्टक- त्रुटित 9 से लेकर 24 अध्याय तक बिल्कुल त्रुटित।
- तृतीय ‘‘ – त्रुटित
- चतुर्थ ‘‘ -32वें अध्याय को छोड़कर समस्त (25-31 तक) अध्याय उपलब्ध है जिसमें 27 वाँ अध्याय रुद्राध्याय है।
- पच्चम ‘‘ – आदिम अध्याय (33अ0) को छोड़कर अन्य सातों अध्याय उपलब्ध।
- शष्ठ ‘‘ – 43वें अध्याय को छोड़कर अन्य अध्याय उपलब्ध। 48 अध्याय पर समाप्ति।
उपलब्ध अध्याय भी समग्र रूप से नहीं मिलते, प्रत्युत वे भी बीच में खण्डित तथा त्रुटित है। अन्य संहिताओं के साथ तुलना के निमित्त यह अधूरा भी। ग्रन्थ बड़ा ही उपादेय तथा उपयोगी है। विषय शैली कठसंहिता के समान ही है।
यजुर्वेद के भेद
वेद के दो सम्प्रदाय है-
- ब्रह्म सम्प्रदाय तथा
- आदित्य सम्प्रदाय।
पुराणों तथा वैदिक साहित्य के अध्ययन से ‘याज्ञवल्क्य’ वाजसनेय’ एक अत्यन्त प्रौढ़ तत्त्वज्ञ प्रतीत होते हैं, जिनकी अनुकूल सम्मति का उल्लेख शतपथ-ब्राह्मण तथा बृहदारण्यक उपनिषद् में किया गया है (अ0 3 और 4)। ये मिथिला के निवासी थे, तथा उस देश के अधीश्वर महाराज जनक की सभा में इनका विशेष आदर और सम्मान था। इनके पिता का नमा देवराज था, जो दीनों को अन्न दान देने के कारण ‘वाजसनि’ के अपरनाम से विख्यात थे।
