अनुक्रम
ज्योंही कलकत्ता के पतन का समाचार मद्रास पहुंचा, वहां के अधिकारियों ने एक सेना जो उन्होंने फ्रांसीसियों के विरुद्ध युद्ध के लिए गठित की थी, क्लाइव के नेतृत्व में कलकत्ते भेज दी। क्लाइव को अपना कार्य शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण करने को कहा गया क्योंकि यह सेना फ्रांसीसियों के विरुद्ध युद्ध के लिए मद्रास में चाहिए थी। यह सेना 16 अक्टूबर को मद्रास से चली और 14 दिसम्बर को बंगाल पहुंची। नवाब के प्रभारी अधिकारी मानिकचन्द ने घूस लेकर, कलकत्ता अंग्रेजों को सौंप दिया।
अंगे्रजों ने मार्च 1757 में फ्रासीसी बस्ती चन्द्रनगर को जीत लिया। एक ऐसे समय जब नवाब को उत्तर-पश्चिम की ओर से अफगानों तथा पश्चिम की ओर से मराठों का भय था, ठीक उसी समय क्लाइव ने सेना सहित नवाब के विरु( मुर्शिदाबाद की ओर प्रस्थान किया। 23 जून, 1757 को प्रतिद्वन्दी सेनाएँ मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील की दूरी पर स्थित प्लासी गांव में आमों के निकुंज में टकराईं। अंगे्रजी सेना में 950 यूरोपीय पदाति, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय सैनिक थे। नवाब की 50,000 सेना का नेतृत्व विश्वासघाती मीर जाफर कर रहा था। नवाब की एक अग्रगामी टुकड़ी जिसके नेता मीर मदान तथा मोहन लाल थे, अंगे्रजों से बाजी ले ली गई और उसने क्लाइव को वृक्षों के पीछे शरण लेने पर बाध्य कर दिया। सहसा एक गोली से मीर मदान मारा गया। नवाब सिराजुद्दौला ने अपने प्रमुख अध्किारियों से मन्त्रणा की। मीर जाफर ने उसे पीछे हटने को कहा तथा यह भी कहा गया कि सिराज को सेना का नेतृत्व जरनलों के हाथों में छोड़, युद्धक्षेत्र से चला जाना चाहिए। चाल चल गई। सिराज 2000 घुड़सवारों सहित मुर्शिदाबाद लौट गया। फ़्रांसीसी टुकड़ी जो अभी तक जमी हुई थी, शीघ्र हार गई।
प्लासी का युद्ध के कारण
प्लासी युद्ध का क्या कारण था? प्लासी का युद्ध के कारण हैं –
- सिराजुद्दौला की अलोकप्रियता
- अंग्रेजों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा
- फ्रांसीसियों के विषय में अंग्रेजों का भय
- सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र
- सिराजुद्दौला का दोषारोपण
1. सिराजुद्दौला की अलोकप्रियता – सिराजुद्दौला का चारित्रिक बुराईयों से परिपूर्ण था। वह क्रूर, अत्याचारी, चंचल प्रकृति, हठी और अति विलासी व्यक्ति था। उसने अपने स्वभाव से अपने ही संबंधियों और दरबारियों को अपना शत्रु बना लिया था। उसने अपनी धार्मिक कट्टरता और अनुदारता से भी अनेक हिन्दू व्यापारियों को अपना शत्रु बना लिया था। जब उसने निम्न पद वाले मोहनलाल को अपना मंत्री और मीर मदीन को अपने निजी सैनिकों का सेनापति नियुक्त किया और मीरजाफर को ऊँचे पद से हटाया तो उसके वरिष्ठ दीवान राय दुर्लभ और तथा सेनापति मीरजाफर उससे रुष्ट हो गये। नीति और कार्यों को लेकर मीरजाफर और सिराजुद्दौला में तीव्र मतभदे और अत्यधिक तनाव बढ़ गया था।
प्लासी का युद्ध की घटनाएं
क्वाइव के प्लासी पहुँचने के पूर्व ही सिराजुद्दौला अपने पचास सहस्र सैनिकों के साथ वहाँ विद्यमान था। जब युद्ध प्रारंभ हुआ तब सिराजुद्दौला की ओर से केवल मोहनलाल, मीरमर्दान और एक फ्रांसीसी अधिकारी थोड़ी सी सेना से अंग्रेजों से युद्ध कर रहे थे। नवाब की मुख्य सेना ने जो राय दुर्लभ और मीरजाफर के अधिकार में थी, युद्ध में भाग नहीं लिया। इन दोनों ने नवाब के साथ रण-क्षेत्र में भी धोखा किया। मीरमर्दान रण-क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ।
प्लासी का युद्ध का परिणाम
अंग्रेज इतिहासकारों ने प्लासी के युद्ध को निर्णायक युद्ध कहा है और इस युद्ध में विजयी होने के कारण उन्होंने क्लाइव की गणना विश्व के महान सेनापतियों में की है और क्वाइव को जन्मजात सेना नायक माना है। किन्तु यह कथन अतिरंजित और एकपक्षीय है।
प्लासी के युद्ध का कोई सैनिक महत्व नहीं है। वास्तव में युद्ध हुआ ही नहीं। युद्ध में किसी प्रकार का रण-कौशल, वीरता या साहस नहीं दिखाया गया था। इसमें थोड़े से सैनिकों की मृत्यु हुई। कुछ गोले-बारूद की बौछार अवश्य हुई। ‘‘प्लासी की घटना एक हुल्लड़ और भगदड़ थी, युद्ध नहीं।’’ वास्तव में प्लासी के युद्ध में विशाल गहरे शड़यंत्र औार कुचक्र का प्रदश्रन था जिसमें एक ओर कुटिल नीति निपुण बाघ था और दूसरी ओर एक भोला शिकार।
इस युद्ध का राजनैतिक महत्व सर्वाधिक है। इस युद्ध से अलीवर्दीखां के राजवंश का अन्त हो गया और मीरजाफर बंगाल का नवाब बना। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत की राज्यश्री अंग्रेजों के हाथों में चली गयी। भारत में अंगे्रजी साम्राज्य की नींव पड़ी। इस युद्ध ने अंग्रेजों को व्यापारियों के स्तर से उठाकर भारत का शासक बना दिया। ब्रिटिश कम्पनी ने कलकत्ता में अपनी टकसाल स्थापित की और अपने सिक्के भी ढाले और प्रसारित किये। अंग्रेजों की शक्ति और प्रभुत्व इतना अधिक बढ़ गया कि वे बंगाल में नवाब निर्माता बन गये।
बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व और आधिपत्य स्थापित हो जाने से अंग्रेजों के लिये उत्तर भारत की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। बंगाल भारत की अन्य उदीयमान शक्तियों से बहुत दूर था। इसीलिए इन शक्तियों के आक्रमणों और प्रहारों से बंगाल मुक्त था। बंगाल मुगल साम्राज्य के अत्यन्त समीप था। इससे अंग्रेज उस पर सफलता से आक्रमण और प्रहार कर सकते थे। बंगाल का अपना समुद्र तट था इसलिए अंग्रेज समुद्री मागर् से सरलता से अपनी सेनाए बंगाल ला सके और बंगाल से नदियों के मार्ग के द्वारा वे उत्तर भारत में आगरा और दिल्ली तक सरलता से पहुँच सके। बंगाल में उनकी सामुद्रिक शक्ति का बहुत प्रसार हुआ। बंगाल से ही अंग्रेज आगामी सौ वर्षों में आगे बढ़े और सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार जमा लिया।
प्लासी के युद्ध में विजय के परिणामस्वरूप अंग्रेजों की प्रतिष्ठा और यश-गौरव में भी अत्यधिक वृद्धि हो गयी और उनके प्रतिद्वन्द्वी फ्रांसीसियों की शक्ति और प्रभुत्व को गहरा आघात लगा। अंग्रेजों के अधिकार में बंगाल जैसा धन सम्पन्न और उर्वर प्रांत आ जाने से उनकी आय में खूब वृद्धि हुई और वे फ्रांसीसियों को कर्नाटक के तृतीय युद्ध में सरलता से परास्त कर सके।
इस युद्ध के कारणों ने भारत के राजनीतिक खोखलेपन तथा सैनिक दोषों और व्यक्तिगत दुर्बलताओं को स्पष्ट कर दिया। यह भी स्पष्ट हो गया कि राजनीतिक शड़यंत्र, कुचक्र, कूटनीति और युद्ध में अंग्रेज भारतीयों की अपेक्षा अधिक प्रवीण थे। अब वे अपनी कूटनीति का प्रयागे भारत के अन्य प्रदशो में कर सकते थे।
प्लासी के युद्ध का आर्थिक परिणाम अंग्रेजों के लिये अत्यधिक महत्व का रहा। मीरजाफर ने नवाब बनने के बाद कम्पनी को 10 लाख रुपये वार्शिक आय की चौबीस परगने की भूमि जागीर के रूप में प्रदान की। क्लाइव और अन्य अंग्रेज अधिकारियों को पुरस्कार में अपार धन, भंटे और जागीर दी गयी। क्लाइव को 234 लाख पौंड और कलकत्ता की कौंसिल के सदस्यों में से प्रत्येक को सत्तर-अस्सी हजार पांडै की सम्पत्ति प्राप्त हुई। सिराजुद्दौला की कलकत्ता विजय के समय जिनकी क्षति हुई थी उन्हें क्षतिपूर्ति के 18 लाख रुपये बाटें गये। इस प्रकार कुछ ही समय में नवाब मीरजाफर के राजकोश से लगभग पौने दो करोड़ रुपया निकल गया और राजकोश रिक्त हो गया। 1757 ई. – 1760 ई. की अवधि में मीरजाफर ने लगभग तीन करोड़ रुपये घूस में कम्पनी को और उसके अधिकारियों में वितरित किये।
मीरकासिम का नवाब बनना
उपरोक्त समझौते के बाद मीरकासिम और अंग्रेज मु’िरदाबाद गये और वहाँ मीरजाफर का राजमहल घेर कर उस पर यह दबाव डाला कि वह मीरकासिम को अपना नायब नियुक्त कर दे। मीरजाफर को यह भय था कि उसका दामाद मीरकासिम नायब बनने के बाद उसकी हत्या कर देगा। इसलिये मीरजाफर ने राजसिंहासन छोड़ना श्रेयस्कर समझा। फलत: मीरजाफर को गद्दी से उतारकर 15,000 रुपये मासिक पेशन देकर कलकत्ता भेज दिया और 20 अक्टूबर 1760 को ब्रिटिश कंपनी द्वारा मीरकासिम को नवाब बना दिया गया।
मीरकासिम बंगाल के नवाबों में योग्य, बुद्धिमान, प्रतिभासम्पन्न और सच्चरित्र शासक था। नवाब बनने पर उसने अंग्रेजों को अपने वचन और समझौते के अनुसार बर्दवान, मिदनापुर और चटगाँव के जिले दिये। कलकत्ता कौंसिल के विभिन्न अंग्रेज सदस्यों तथा अन्य अंग्रेज अधिकारियों को उसने बहुत-सा धन भी भेटं तथा उपहार में दिया। दक्षिण भारत के युद्धों के संचालन के लिये उसने अंग्रेजों को पांच लाख रुपया देकर उसने अपना वचन पूरा किया।
मीरकासिम के नवाब बनने पर उसके समक्ष अनेक समस्याएं थीं। अंग्रेजों को निरन्तर धन देते रहने से, अंग्रेजों को अनेक व्यापारिक सुविधाएँ देने से, कर्मचारियों के गबन से और अत्यधिक अपव्यय से राजकोष रिक्त हो गया था। प्रशासन अस्त-व्यस्त था। राजनीति व प्रशासन से अंग्रेजों का प्रभुत्व था। कंपनी के कर्मचारी और अधिकारी भ्रष्ट और बेईमान थे। उन्होंने शासकीय धन का गबन किया था। रााज्य में भूमि-कर वसूल नहीं हो रहा था। जमींदारों में विद्रोही भावना बलवती हो रही थी। सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन थी। मीरकासिम ने इन समस्याओं का दृढ़ता से सामना किया तथा अनके सुधार भी किये।