अनुक्रम
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| परामर्श प्रक्रिया के आवश्यक तत्व |
मिस ब्रेगडन ने इन परिस्थितियों के उत्पन्न होने पर परामर्श की आवश्यकता को इंगित किया है-
- वह परिस्थिति जब कि व्यक्ति न केवल सही सूचनायें चाहता है वरन् अपने व्यक्तिगत समस्याओं का भी समाधान चाहता है।
- जब विद्यार्थी अपने से अधिक बुद्धिमान श्रोता चाहता है जिससे वह अपनी समस्याओं का समाधान और भविष्य के लिये परामर्श व सुझाव चाहता हो।
- जब परामर्शदाता ऐसी सुविधाओं का आकलन करता है जो विद्यार्थियों की समस्याओं को सुलझाने में सहायक होती है पर विद्यार्थी उनका आकलन नहीं कर पाते है।
- जब विद्यार्थी को समस्या हो पर उसे इस समस्या का आभास न हो रहा हो तो उसे इस अवस्था का आभास दिलाने के लिये परामर्श प्रक्रिया संचालित की जाती है।
- जब बच्चों को समस्या की जानकारी हो परन्तु उसे समझने, परिभाषित करने और समाधान करने में वह अपने को असमर्थ पाते हों या वह आकस्मिक तनाव के कारण इसे सुलझा नहीं पाते हैं।
- जब बच्चे कुसमायोजन के प्रभाव में हो और इसके लिये निदान व उपचार की आवश्यकता हो।
- जब जीवन के किसी पक्ष में हो रहे बदलाव को समझने में बच्चे/व्यक्ति अपने को असमर्थ पाते है।
- समाज के ढाँचे में बदलाव के साथ मनुष्य की भूमिका में जबरदस्त बदलाव तथा परिवर्तन ने उसके सामने समायोजन की समस्या खड़ी कर दी है।
परामर्श की प्रक्रिया के अंग
- दो व्यक्तियों में परस्पर सम्बन्ध आवश्यक है।
- परामर्शदाता व परामर्श प्रार्थी के मध्य विचार-विमर्श के अनेक साधन हो सकते हैं।
- प्रत्येक परामर्शदाता अपना कार्य पूरे लगन से करें ।
- परामर्श प्रार्थी की भावनाओं के अनुसार प्रक्रिया के स्वरूप में परिवर्तन हो।
- प्रत्येक परामर्शदाता अपना ज्ञान पूरे ज्ञान से करता है।
- परामर्शदाता की भावनाओं के अनुसार परामर्श के स्वरूप में परिवर्तन हो।
- प्रत्येक परामर्श साक्षात्कार निर्मित होता है।
परामर्श प्रक्रिया में शिक्षार्थी एक प्रशिक्षित व्यक्ति के साथ कुछ विशिष्ट उद्देश्यों को स्थापित करने के लिये कार्य करता है तथा ऐसे व्यवहारों को सीखता है जिसका अर्जन उद्देश्यों तक पहुँचने के लिये आवश्यक है। इसके लिए आवश्यक है।
- परामर्शदाता प्रशिक्षित व अनुभवी होना चाहिये।
- परामर्श के लिये उचित वातावरण होना चाहिए।
- परामर्श द्वारा व्यक्ति की वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति होनी चाहिये।
- संघर्षमय अवस्था का आभास-यह वह अवस्था है जिसमें व्यक्ति अपने को उपस्थित समस्या के प्रति जागरूक हो जाता है और वह उस परिस्थिति से निकलने के लिये संघर्ष करता है और फिर उसके समक्ष वह परिस्थिति भी आती है कि वह अपनी समस्या किसके समक्ष रखे।
- अचेतन की स्वीकृति-इस अवस्था में वह परिस्थिति जब अचेतन मन की स्वीकृति परामर्श के लिये हो जाती है और व्यक्ति अन्दर से अपनी समस्या के समाधान हेतु दूसरे से परामर्श लेने को तैयार हो जाता है।
- दमन की भूमिका-अपने आपके परामर्श के लिये तैयार करने के साथ भी अपनी भावनाओं के दमन की स्थिति बनी रहती है। व्यक्ति अपनी भावनाओं को प्रदर्शित करने में हिचकिचाहट का अनुभव करता है।
- परनिर्र्भरता एवं हस्तान्तरण-इस समय तक प्रार्थी अपनी समस्याओं के साथ उसके समाधान हेतु परामर्शदाता पर आश्रित हो जाता है और फिर वह सूचनाओं का हस्तान्तरण करने के लिये तैयार हो जाता है।
- अन्तर्दृष्टि की उपलब्धि-इसके पश्चात परामर्शदाता व प्रार्थी को प्राप्त सूचनाओं के आधार पर अन्तर्दृष्टि का अनुभव होता है।
- उचित संवेगों पर बल-आपसी वार्ता से प्राप्त अनुभव से उचित संवेगों पर बल दिया जाता है।
- स्वीकारात्मक अभिरुचि-इसके पश्चात प्रार्थी स्वीकार करते हुये परामर्श का आवश्यक अंग बन जाता है।
परामर्श प्रक्रिया के चरण
प्राक्कथन-व्यवस्थित आकंडें के आधार पर समस्या को एक समग्रता के रूप में देखा जाता है।
- एक व्यक्ति एक आकस्मिक निर्णय लेते हुये सहायता के लिये आता है।
- परामर्श दाता यह स्थिति उत्पन्न करता है कि प्रार्थी अपनी समस्या को समझे और समाधान करने की दक्षता उत्पन्न कर ले।
- परामर्शदाता स्वतन्त्र प्रतिक्रिया को प्रोत्साहित करता है यह स्वतन्त्र प्रतिक्रिया किसी समस्या के सन्दर्भ में ही होगी। यह उत्तेजना व सजगता उत्पन्न करेगी। प्रार्थी को यह बताने का प्रयास नहीं किया जाता कि वह सही है या गलत। परामर्शदाता प्राथ्री को वैसा ही स्वीकार कर लेता है जैसा वह है।
- परामर्शदाता नकारात्मक प्रतिक्रिया को भी स्वीकृति देता है और उनमें विविधता लाने का प्रयास करता है।
- इसके पश्चात अप्रत्याशित सत्य ऊपर आता है जो कि नकारात्मक प्रतिक्रिया के पश्चात उद्भव होता है।
- परामर्शदाता सकारात्मक अनुभवों का विश्लेषण कर स्वीकृति देता है।
- फिर स्वानुभव व आत्मज्ञान का उद्भव होता है।
परामर्श प्रक्रिया का लक्ष्य
सामान्य नैदानिक परामर्श पर विचार- विमर्श प्रकट करते हुये ब्वाय एवं पाइन ने लिखा कि- यह ‘‘प्रार्थी को अधिक अच्छा करने में सहायता देने अर्थात् प्रार्थी को स्वयं के महत्व को स्वीकार करने, वास्तविक ‘स्व’ एवं आदर्श ‘स्व’ के बीच के अन्तर को मिटाने में सहायता देने तथा स्वयं की व्यक्तिगत समस्याओं में अपेक्षाकृत सफलतापूर्वक विचार करने में सहायता प्रदान करने से सम्बन्धित है।’’ अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संघ ने दूसरी ओर परामर्श के तीन उद्देश्य बताये-
- प्रार्थी को इस योग्य बनाना कि वह स्वयं के अभिप्रेरकों, आत्म दृष्टिकोणों व क्षमताओं को यर्थाथ रूप में स्वीकार कर ले।
- प्रार्थी को सामाजिक, आर्थिक एवं व्यावसायिक वातावरण के साथ तर्कयुक्त सामंजस्य स्थापित करने में सहयोग देना।
- व्यक्तिगत विभिन्नताओं के प्रति समाज को जागरूक करना जिससे कि रोजगार व सामाजिक सम्बन्धों में भी प्रश्रय मिले।
इसके आधार पर परामर्श के तीन उद्देश्य मुख्य रूप से स्पष्ट हुये-
परामर्श प्रक्रिया के सिद्धांत
- स्वीकृति का सिद्धांत-इस सिद्धांत के अनुसार प्रार्थी के पूरे व्यक्तित्व को समझा जाता है और उसके अधिकारों का पूरा सम्मान किया जाता है और प्रार्थी के भावनाओं को स्वीकार कर सही दिशा दी जाती है।
- सम्मान का सिद्धांत-इसमें प्रार्थी के विचारें भावनाओं व समस्याओं को स्वीकृति दी जाती है और उसे पूरा आदर दिया जाता है।
- उपयुक्तता का सिद्धांत-परामर्श में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि प्रार्थी को ऐसा अनुभव हो जाये कि परामर्श प्रक्रिया पूरी तरह से उसके लिये उपयुक्त है।
- सहसम्बन्ध का सिद्धांत-परामर्श प्रक्रिया में परामर्शदाता प्राथ्री के विचारों व भावनाओं के साथ सहसम्बन्ध बनाने का प्रयास करता है और उसके साथ तारतम्यता बनाकर चलता है।
- सोश्यता का सिद्धांत-सम्पूर्ण परामर्श प्रक्रिया सोद्देश्य होती है।
- लोकतन्त्रीय आदर्शे का सिद्धांत-सम्पूर्ण परामर्श प्रक्रिया, लोकतान्त्रिक आदर्शों से संचालित होती है इसमें व्यक्तिगत भिन्नताओं को सम्मान करते हुये सभी के व्यक्तित्व का आदर किया जाता है और प्रार्थी को महत्व देते हुये उसे निर्णय लेने के योग्य बनाया जाता है।
- लचीलेपन का सिद्धांत-परामर्श प्रक्रिया लचीली होती है वह प्रार्थी की आवश्यकता के अनुसार परिवर्तित की जाती है और उसका सम्पूर्ण स्वरूप प्रार्थी के हित पर निर्धारित होता है।
परामर्श प्रक्रिया में ध्यान देने योग्य बातें
परामर्श प्रक्रिया उद्देश्यों पर आधारित होती है। इसका संचालन बहुत ही सावधानीपूर्वक करना पड़ता है। अन्यथा उद्देश्यों की प्राप्ति में कठिनाई आती है। अत: इस बात की आवश्यकता है कि परामर्श की प्रक्रिया निम्न बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए सावधानी पूर्वक संचालित की जाए-
- परामर्श बहुत ही शांत एवं अनुकूल वातावरण में संचालित होनी चाहिए।
- परामर्श के लिए परामर्श प्रार्थी स्वयं उत्साहित हो एवं प्रतिभाग के लिए तैयार हो।
- परामर्श प्रक्रिया के संचालन हेतु यह प्रयास किया जाए कि विश्वसनीय सूचनायें एकत्र हो जिससे कि विश्लेषण कर उचित मार्गदर्शन दिया जा सके।
- प्रक्रिया में प्रार्थी को अपनी बात रखने का पूरा अवसर दिया जाना चाहिए। जिससे कि उचित एवं अवसरानुकूल जानकारियाँ मिल सकें।
- परामर्श प्रक्रिया परामर्श प्रार्थी को मानसिक रूप से पूरी तरह से तैयार करके ही प्रारम्भ की जाए।
- परामर्श प्रक्रिया बहुत ही सहज वातावरण एवं प्रकृति के साथ प्रारम्भ की जानी चाहिए जिससे कि प्रार्थी अपने आप को पूरी तरह से सहज अनुभव कर सकें।
- परामर्श प्रक्रिया परामर्श दाता को प्रार्थी के साथ पूरी तरह से सामंजस्य बिठाकर ही संचालित करना चाहिए जिससे कि प्रार्थी को अपनी गति से तथ्यों को समझने में सहायता मिले।
- परामर्श प्रक्रिया में यह आवश्यक है कि परामर्शदाता का दृष्टिकोण सकारात्मक हो जिससे कि प्रार्थी की सोच एवं समझ सकारात्मक मार्ग की ओर ही जाए।
- परामर्श प्रक्रिया में कुछ आवश्यक तथ्यों की गोपनीयता बनायी रखी जानी चाहिए जिससे कि प्रार्थी उन तथ्यों को भी परामर्श के समय रखने में सरलता का अनुभव करें।
- इस प्रक्रिया में यह आवश्यक होता है कि प्राप्त तथ्यों का पर्याप्त एवं सही विश्लेषण करने के पश्चात ही उनका संश्लेषण करके सही निष्कर्ष की ओर पहुँचा जाए।
- परामर्श प्रक्रिया में यदि आवश्यक हो तो परामर्श प्रार्थी से सम्बन्धित लोगों से अवश्य ही सम्बन्ध स्थापित किया जाए जिससे कि पूर्ण जानकारी मिल सकें।
- समस्या से सम्बन्धित पूर्ण तथ्यों के जानकारी के पश्चात ही परामर्श की प्रक्रिया प्रारम्भ की जाए।
- परामर्शदाता को यह ध्यान में रखना चाहिए कि वह अपने किसी भी विचार एवं प्रतिक्रिया को प्रार्थी को मानने के लिए बाध्य ना करें। वह प्रार्थी को स्वतन्त्रता दे कि वह परामर्शदाता की विचारों एवं प्रतिक्रिया से सहमत या असहमत हो सकता है।
इन बिन्दुओं को ध्यान में रखकर यदि परामर्श प्रक्रिया संचालित की जाती है तो अवश्य ही वह लक्ष्योन्मुखी होगी।
