अनुक्रम
1. व्यक्ति भिन्नताओं का होना-व्यक्ति अपनी जन्मजात योग्यता, क्षमता, अभिवृतियों एवं रूचियों के साथ अन्य व्यक्तियों से अलग होता है। यह भिन्नता उसकी समस्याओं की भिन्नता को जन्म देती है। यह उसके व्यवहार एवं व्यक्तित्व के स्वरूप को निर्मित करती है इसलिये उसके भिन्नता की उपेक्षा नहीं की जा सकती है और निर्देशन प्रक्रिया में इसको ध्यान में रखा जाता है।
निर्देशन के सिद्धांत
निर्देशन में व्यक्ति के विकास और समाज हित दोनों पर ही ध्यान दिया जाता है। वास्तव में निर्देशन की प्रक्रिया उन सभी कार्यों एवं प्रयासों का संगठन है जिसमें व्यक्ति को सामन्जस्य समाहित विशिष्ट तकनीकों के प्रयोग द्वारा परिस्थितियों को संभालने, एक व्यक्ति को उसके अधिकतम विकास तक पहुँचाने जिसमें उसका शारीरिक, व्यक्तित्व, सामाजिक, व्यावसायिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक विकास हो, सम्मिलित है।
- व्यक्ति का सम्पूर्ण प्रदर्शित व्यक्तित्व एवं व्यवहार एक महत्वपूर्ण घटक होता है। निर्देशन सेवाओं में इन तत्वों के महत्व को दिया जाना चाहिये।
- मानव की सभी विभिन्नताओं को स्तरानुसार एवं आवश्यकतानुसार महत्व देना चाहिए।
- व्यक्ति को प्रेरक, उपयोगी तथा प्राप्त होने योग्य उद्देष्यों के निरूपण में मदद करना।
- वर्तमान उपस्थित समस्याओं के उचित समाधान हेतु प्रशिक्षित एवं अनुभवी निर्देशनदाता द्वारा यह दायित्व निभाना जाना चाहिए।
- निर्देशन को बाल्यावस्था से प्रौढ़ावस्था तक अनवरत रूप से चलने वाली प्रक्रिया के रूप में प्रस्थापित करना।
- निर्देशन की प्रक्रिया को सर्वसुलभ बनाया जाना चाहिये जिससे कि वह आवश्यकता को न बताने वाले व्यक्ति को भी मिल सके।
- विविध पाठ्यक्रमों के लिये गठित अध्ययन सामग्रियों तथा शिक्षण पद्धतियों में निर्देशन का दृष्टिकोण झलकना चाहिये।
- शिक्षकों एवं अभिभावकों को निर्देशनपरक उत्तरदायित्व सौपा जाना चाहिये।
- निर्देशन को आयु स्तर पर निर्देशन की विशिष्ट समस्याओं को उन्हीं व्यक्तियों को सुपुर्द करना चाहिये जो इसके लिये प्रशिक्षित हो।
- निर्देशन के विविध पक्षों को प्रशासन बुद्धिमतापूर्वक एवं व्यक्ति के सम्यक अवबोध के आधार पर करने की दृश्टि से व्यक्तिगत मूल्यांकन एवं अनुसंधान कार्यक्रमों को संचालित करना चाहिये।
- वैयक्तिक एवं सामुदायिक आवश्यकताओं के अनुकूल निर्देशन का कार्यक्रम लचीला होना चाहिये।
- निर्देशन कार्यक्रम का दायित्व सुयोग्य एवं सुप्रशिक्षित नेतृत्व पर केन्द्रित होना चाहिये।
- निर्देशन के कार्यक्रमों का सतत् मूल्यांकन करना चाहिये। और इस कार्यक्रम में लगे लोगों का इसके प्रति अभिवृित्त्ायों का भी मापन होना चाहिये क्योंकि इनका लगाव ही इस कार्यक्रम की सफलता का राज होता है।
- निर्देशन कार्यक्रमों का सम्यक संचालन हेतु अत्यन्त कुषल एवं दूरदर्षिता नेतृत्व अपेक्षित है।
निर्देशन के मूलभूत सिद्धांत
निर्देशन के अधिकांश सिद्धान्तों के विषय में ऊपर पढ़ चुके है। यह स्पष्ट हो गया कि यह निर्देशन कार्मिकों, प्रशासकों, शिक्षकों, विशेषज्ञों एवं निर्देशन का लाभ उठाने वाले सेवार्थियों का आपसी सहयोग उनकी निष्ठ तथा प्रेरणा पर निर्भर करता है। निर्देशन के मूलभूत सिद्धांत हैं जिनपर यह कार्य करता है।
- निर्देशन जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है जो कि जीवन के प्रत्येक चरण में उपयोगी होती है।
- निर्देशन व्यक्ति विषेश पर बल देता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को स्वतन्त्रता देते हुये उसे अपनी समस्याओं को सुलझाने हेतु उसकी आवश्यकताओं के अनुसार ही सहयोग देता है।
- निर्देशन स्व निर्देशन पर बल देता है। यह प्रक्रिया सेवाथ्री को स्वयं अपनी दक्षता विकसित करने योग्य बनाती है।
- निर्देशन सहयोग पर आधारित प्रक्रिया है अर्थात् यह सेवा प्रदाता एवं सेवाथ्री के आपसी तालमेल पर निर्भर करता है।
- निर्देशन एक पूर्व नियोजित एवं व्यवस्थित प्रक्रिया है। यह अपने विविध चरणों से आगे बढ़ती हुयी संचालित की जाती है।
- निर्देशन में सेवाथ्री से सम्बन्धित आवश्यक जानकारी को पूरी तरह से व्यवस्थित एवं गोपनीय रखी जाती है।
- यह कम से कम संसाधनों के अनुप्रयोग द्वारा अधिक से अधिक निर्देशन सेवाओं को उपलब्ध कराने के सिद्धांत पर निर्भर करती है।
- निर्देशन के लिये जो भी संसाधन उपलब्ध हैं, के गहन रूप में उपयोग का सिद्धांत अपनाया जाता है।
- निर्देशन के कार्यक्रमों का सेवाथ्री की आवश्यकताओं के अनुकूल संगठन कर आवश्यकताओं की संतुश्टि पर ध्यान केन्द्रित किया जाता है।
- निर्देशन प्रक्रिया सेवाओं के विकेन्द्रीकरण पर बल देती है।
- निर्देशन सेवाओं में समन्वय लाने का कार्य किया जाता है।
निर्देशन की प्रविधियां
निर्देशन प्रक्रिया में सबसे अधिक आवश्यक होता है सेवाथ्री की व्यक्तिगत विशेषताओं, योग्यताओं या इच्छाओं को जानना। इनको जाने बिना परामर्श द्वारा दिया जाने वाला सहयोग अप्रभावी हो जाता है। विद्यार्थियों की पृष्ठभूमि जानने की आवश्यकता को बताते हुये रीविस एवं जुड ने इस प्रकार व्यक्त किया कि-’’छात्रों’’ की पृष्ठभूमि तथा उनके अनुभवों के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त किये बिना उनके विकास में पथ प्रदर्शन करने का प्रयत्न असम्भव के लिये प्रयत्न करने के समान है।’’
- प्रमापीकृत परीक्षाये
- अप्रमापीकृत परीक्षाये ।
1. अप्रमापीकृत परीक्षाये
1. वृतान्त अभिलेख- यह अवलाकेन विधि की एक शाखा है। यह व्यक्तित्व अध्ययन में भी सहायक है। अध्यापक द्वारा छात्रों के प्रतिदिन के कार्यो का निरीक्षण किया जाये और उसको लिख ले। रेटस ल्यूइस के अनुसार-किसी छात्र के जीवन की महत्वपूर्ण घटना का प्रतिवेदन ही वृतान्त अभिलेख है। यह वास्तविक स्थिति में बच्चे के चरित्र तथा व्यक्तित्व सम्बन्धी अभिलेख होता है। इसमें सहयोग प्राप्त करना, प्रारूप तैयार करने, मुख्य अभिलेख प्राप्त करना व संक्षिप्तीकरण आदि चरण होते है।
6. प्रश्नावली- यह एक आत्मनिष्ठ विधि है। गुड एव हैट ने प्रश्नावली की परिभाशा इस प्रकार दी है सामान्यत: प्रश्नावली शब्द प्रश्नो के उत्तर प्राप्त करने की योजना की ओर संकेत करता है। व्यक्ति को स्वयं प्रश्नावली फार्म भरना होता है।’’ इसके दो रूप होते है- अ) प्रमापीकृत प्रश्नावली-यह इन्वेन्ट्री कहलाती है इसको व्यक्तित्व के जॉच के लिये प्रयोग में लाया जाता है। प्रश्नावली-इस प्रश्नावली द्वारा व्यक्ति की साधारण सूचनायें प्राप्त की जाती हैं। प्रश्नावली के दो प्रकार होते हैं-
- बन्द प्रश्नावली-इसमें व्यक्ति हाँ या नही में उत्तर देता है स्वय कुछ नहीं लिखता।
- खुली प्रश्नावली-इस प्रकार की प्रश्नावली में प्रश्नो के आगे उत्तर लिखने के लिये रिक्त स्थान रहता है। इस विधि से प्रश्नावली बनाने व प्राप्त उत्तरों की व्याख्या करने में समय लगता है।
7. साक्षात्कार- साक्षात्कार एक उद्देश्यपूर्ण संवाद है। विंघम और मूर के अनुसार यह एक गंभीर संवाद है जो साक्षात्कारजन्य संतोश की अपेक्षा एक निश्चित उद्देष्य की ओर उन्मुख होता है। साक्षात्कार आयोजित करने के उद्देश्य-परिचयात्मक, तथ्याश्रित, मूल्यांकनपरक, ज्ञानवर्धक तथा चिकित्सकीय प्रकृति वाली सूचनाए एकत्र करना। इसकी दूसरी विषेशता है-साक्षात्कारकर्ता तथा जिससे साक्षात्कारदाता के मध्य परस्पर संबंध स्थापित होना है। इस अवसर का उपयोग साक्षातकर्ता से मित्रवत् अनौपचारिक बातचीत के लिए किया जाना चाहिए। उसे आत्मविष्वासपूर्ण मुक्त तथा वातावरण में बातचीत करने की अनुमति दी जानी चाहिए।
निर्देशन में सूचना सकंलन की प्रमापीकृत विधियॉ
निर्देशन कार्यक्रमों में प्रमापीकृत परीक्षाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। क्योंकि-
- बुद्धि परीक्षायें
- साफल्य परीक्षण
- अभियोग्यता परीक्षायें
- रूचि परीक्षायें
- व्यक्तित्व परीक्षायें
1. बुद्धि परीक्षण- सर्वप्रथम 1875 में व्यक्तिगत भदे पर ध्यान केिन्द्रत किया गया और फिर अनेक प्रयोग व्यक्तिगत विभेद पर किये गये। इनमें कैटिल एवं गाल्टन के नाम प्रमुख हैं। और बुद्धिमापन का कार्य मुख्य रूप में बिने ने प्रारम्भ किया। 1905 में प्रथम बुद्धि परीक्षण निकाला गया और 1908 एवं 1911 में इस परीक्षण का संषोधन किया गया और फिर बिने ने सहयोगियों से साथ मिलकर ‘‘स्टेनफोर्ड-बिने टेस्ट’’ निकाला।
2. निष्पादन परीक्षण- इसके अतिरिक्त कुछ एसे भी परीक्षण बने जाे कि निश्पादन पर आधारित थे इनमें प्रमुख गोडार्ड फार्म बोर्ड, गुडएनफ का ड्राइंग ए मैन टैस्ट, कोहलर ब्लॉक डिजाइन टेस्ट इत्यादि हैं। इन सभी परीक्षणों को भारतीय आवश्यकताओं के अनुसार रूपान्तरित कर लिया गया।
3. रूचि परीक्षण – रूचि को हम शाब्दिक रूप में सम्बन्ध की भावना कह सकते हैं। बिंघम ने रूचि को परिभाशित करते हुए लिखा कि-’’रूचि किसी अनुभव में लिप्त हो जाने व चालू रखने की प्रवृत्ति है।’’ रूचि वास्तव में कोई पृथक इकाई न होकर मानव व्यवहार का एक अहम पहलू है। रूमेल रेमर्ज व गेज ने लिखा कि-रूचियॉँ सुखद व दुखद भावनाओं तथा पसन्द न पसन्द व्यवहार के आकर्षण व विकर्षण की प्रतिच्छाया के रूप में दर्शित होती है।’’
4. निष्पति एवं व्यक्तित्व परीक्षण – निष्पति विद्यालय में विषय सम्बन्धी अर्जित ज्ञान की परीक्षा है। वास्तव में निष्पति या दक्षता परीक्षा किसी व्यक्ति द्वारा सीखे गये कार्य या दक्षता के स्तर को जानने हेतु संचालित की जाती है। निष्पति परीक्षण को साफल्य परीक्षण भी कहते हैं।
5. व्यक्तित्व परीक्षण – व्यक्तित्व वास्तव में वह समग्रता है जिसमें व्यक्ति के सम्पूर्ण वाह्य एवं आन्तरिक गुण व अवगुणों का समावेशित दिग्दर्षन होता है। व्यक्तित्व में वे सभी मानसिक प्रक्रियायें सम्मिलित हैं जो क्रियाषील व्यक्ति के व्यक्तित्व पर प्रभाव डालती है। निर्देशन एवं परामर्ष में व्यक्तित्व के अध्ययन में बड़ा महत्व है। व्यक्तित्व शब्द की उत्पित्त लेटिन शब्द ‘‘परसोना’’ से हुयी है। इसका अभिप्राय मुखौटा होता था।
7. अभियोग्यता परीक्षण- आप पूर्व में व्यक्तित्व मापन के विषय में पढ़ चुके हैं निर्देशन के क्षेत्र में अभियोग्यता का ज्ञान परामर्शदाता को परामर्श देने में सहायक होता है। वारेन ने अभियोग्यता को परिभाषित करते हुए लिखा है कि अभियोग्यता वह दशा या गुणों का रूप है जो व्यक्ति की उस योग्यता की ओर संकेत करती है जो प्रशिक्षण के बाद ज्ञान, दक्षता या प्रतिक्रियाओं को सीखता है।

