अनुक्रम
द्वितीय विश्वयुद्ध का आरंभ

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख कारण
लगभग बीस वर्षों की ‘शांति’ के बाद 1 सितम्बर, 1939 के दिन द्वितीय विश्व युद्ध की अग्नि ने फिर सारे यूरोप को अपनी लपटों में समेट लिया और कुछ ही दिनों में यह संघर्ष विश्वव्यापी हो गया। विगत दो शताब्दियों के इतिहास के अध्ययन के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि शांति स्थापित रखने के अथक प्रयासों के बाद भी द्वितीय विश्व युद्ध क्यों छिड़ गया? क्या संसार के लागे और विविध देशों के शासक यह चाहते थे? नहीं; यह गलत है।
1. वर्साय-संधि
2. जर्मनी में उग्रराष्ट्रीयता
3. ब्रिटेन की नीति
इसमें कोई शक नहीं कि जर्मनी से शक्ति-संतुलन का सिद्धांत ब्रिटिश विदेश-नीति का एक महत्वपूर्ण तत्व रहता आया है। पर युद्धोत्तर-काल की ब्रिटिश नीति में इस तत्व पर अधिक जोर देना इतिहास के साथ अन्याय करना होगा। वास्तव में इस काल की ब्रिटिश विदेश-नीति में शक्ति संतुलन का सिद्धांत उतना प्रबल नहीं था जितना रूसी साम्यवाद के प्रसार को रोकने का प्रश्न था। जिस ब्रिटिश-नीति को तुष्टिकरण की नीति कहा जाता है, वह वास्तव में ‘प्रोत्साहित करो की नीति’ थी। साम्राज्यवादी ब्रिटेन की सबसे बड़ी समस्या जर्मनी नहीं, वरन साम्यवादी प्रसार को रोकना था। इस काल में ब्रिटेन में नीति-निर्धारिकों का यह अनुमान था कि एशिया में जापान और सोवियत-संघ तथा यूरोप में जर्मनी और सोवियत-संघ भविष्य के वास्तविक प्रतिद्वन्द्वी हैं। अगर इन शक्तियों को आपस में लड़ाता रहा जाय और इस तरह एक दूसरे पर रूकावट डालते रहे तो ब्रिटेन निर्विरोध अपने विश्वव्यापी साम्राज्य को कायम रखे रह सकता है।
ब्रिटिश शासकों की यह नीति गलत तर्क पर आधारित थी। उसका कारण यह था कि उस समय ब्रिटेन की नीति का निधार्रण कुछ अनुभवहीन तथा कट्टर साम्यवाद विरोधी व्यक्तियों के हाथ में था। कर्नलब्लिम्प, चैम्बरलेन, बैंक ऑफ इंगलैंड के गवर्नर मांग्टेग्यू नारमन, लार्ड वेभरबु्रक, जेकोव अस्टर (लन्दन टाइम्स) तथा गारविन (ऑवजर्बर) जैसे पत्रकार, डीन इक जैसे लेखक, कैन्टरबरी के आर्चविशप तथा अनेक पूंजीपति, सामन्त, जमींदार और प्रतिक्रियावादी इस गुट के प्रमुख सदस्य थे और इन्हीं लोगो के हाथों में ब्रिटेन के भाग्य-निर्धारण का काम था। जिसे देश के नीति-निर्धारण में ऐसे लोगों का हाथ हो वहां की नीति साम्यवादी विरोध नहीं तो और क्या हो सकती थी? चैम्बरलेन इस दल का नेता था, इन लोगों के हाथ की कठपुतली।

4. इटली एवं जापान में उग्रराष्ट्रवाद एवं सैन्यवाद का विकास
5. यूरोपीय गुटबन्दियां
आधुनिक युग में दुनिया के अधिकतर लोगों के मन में यह एक अंधविश्वास जम गया है कि सैन्य-संधि तथा गुटबंदी के द्वारा विश्व-शांति कायम रखी जा सकती है। शांति बनाये रखने के नाम पर यूरोपीय राज्यों के बीच विविध संधियां हुई जिसके फलस्वरूप यूरोप फिर से दो विरोधी गुटों में बट गया। एक गुट का नेता जर्मनी था और दूसरे का फ्रांस। यहां पर यह स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं कि इन गुटों के मलू में दो बातें थी : एक सैद्धांतिक समानता और दूसरी हितों की एकता। इटली, जापान और जर्मनी एक सिद्धांत (तानाशाही) में विश्वास करते थे। वर्साय-संधि से उनकी समान रूप से शिकायत थी और उसका उल्लंघन करके अपनी शक्ति को बढ़ाने में उनका एक समान हित था इसके विपरीत फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड इत्यादि देशों का एक हित था। वर्साय-व्यवस्था से उन्हें काफी लाभ पहुँचा था और इसलिए यथास्थिति बनाये रखने में ही उनका हित था। बहुत दिनों तक ब्रिटेन इस गुट में शामिल नहीं हुआ; पर अधिक दिनों तक ब्रिटेन गुट से अलग नहीं रह सका।
6. मोर्चाबन्दी
7. राष्ट्रसंघ की कमजोरियां
प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रसंघ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी कि वह संसार में शक्ति कामय रखेगा। लेकिन, जब समय बीतने लगा और परीक्षा का अवसर आया तो राष्ट्रसंघ एक बिल्कुलन शक्तिहीन संस्था साबित हइुर् । जहां तक छोटे-छोटे राष्ट्रों के पारस्परिक झगड़ों का प्रश्न था राष्ट्रसंघ को उनमें कुछ सफलता मिली, लेकिन जब बड़े राष्ट्रों का मामला आया तो राष्ट्रसंघ कुछ भी नहीं कर सका। जापान ने चीन पर चढ़ाई कर दी और इटली ने असीसीनिया पर हमला किया, पर राष्ट्रसंघ उनको रोकने में बिल्कुल असमर्थ रहा।
8. हिटलर की विदेश नीति
9. द्वितीय विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण
द्वितीय विश्व युद्ध का घटनाक्रम
1. द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रथम चरण
2. द्वितीय विश्वयुद्ध का द्वितीय चरण
3. द्वितीय विश्वयुद्ध का तृतीय चरण
4. द्वितीय विश्वयुद्ध का चतुर्थ चरण
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम
1. जन-धन का अत्याधिक विनाश
द्वितीय विश्व युद्ध पूर्ववर्ती युद्धों की तुलना में सर्वाधिक विनाशकारी युद्ध माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध में संपत्ति और मानव-जीवन का विशाल पैमाने पर विनाश हुआ, उसका सही आँकलन विश्व के गणितज्ञ भी नहीं कर सके। द्वितीय विश्व युद्ध का क्षेत्र विश्वव्यापी था तथा इसे विनाशकारी परिणामों का क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक था।
द्वितीय विश्व युद्ध में अनुमानत: एक करोड़ पचास लाख सैनिकों तथा एक करोड़ नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा तथा लगभग एक करोड़ सैनिक बुरी तरह घायल हुए। मानव जीवन की क्षति के साथ-साथ यह युद्ध अपार आर्थिक क्षति, बरबादी तथा विनाश की दृष्टि से भी अविस्मरणीय है। ऐसा अनुमान है कि द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लेने वाले देशों का लगभग एक लाख कराडे रुपये व्यय हुआ था। अकेले इंग्लैण्ड ने लगभग दो हजार करोड़ रूपये व्यय किया था। जबकि जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड आदि देशों के आर्थिक नुकसान का अनुमान लगाना कठिन है। इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध में विश्व के विभिé देश्ज्ञों की राष्ट्रीय संपत्ति का व्यापक पैमाने पर विनाश हुआ था।
2. औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत
द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप में स्थित यूरोपीय शक्तियों के औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत हो गया। जिस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् बहुत से राज्यों को स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी थी, ठीक उसी प्रकार भारत, लंका, बर्मा, मलाया, मिस्र तथा कुछ अन्य देशों को द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् ब्रिटिश दासता से मुक्त कर दिया गया। इसी प्रकार हॉलैण्ड, फ्रांस तथा पुर्तगाल के एशियाई साम्राज्य कमजोर हो गये तथा इन देशों के अधीनस्थ एशियाई राज्यों को स्वतंत्र कर दिया गया। इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप का राजनीतिक मानचित्र पूरी तरह परिवर्तित हो गया, तथा वहाँ पर यूरोपीय साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया।
3. शक्ति-संतुलन का हस्तांतरण
विश्व के महान राष्ट्रों की तुलनात्मक स्थिति को द्वितीय विश्व युद्ध ने अत्यधिक प्रभावित किया था। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व विश्व का नेतृत्व इंग्लैण्ड के हाथों में था, किंतु इसके पश्चात् नेतृत्व की बागडोर इंग्लैण्ड के हाथों से निकलकर अमेरिका व रूस के अधिकार में पहुँच गयी। विश्व युद्ध में जर्मनी, जापान तथा इटली के पतन के फलस्वरूप रूस, पूर्वी यूरोप का सर्वाधिक प्रभावशाली व शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। एस्टोनिया, लेटेविया, लिथूएनिया तथा पोलैण्ड व फिनलैण्ड पर रूस का पुन: अधिकार हो गया। पूर्वी यूरोप में केवल टर्की व यूनान दो राज्य ऐसे थे जो साेि वयत संघ की सीमा से बाहर थे। दूसरी और , पश्चिमी यूरोप के देशों का ध्यान अमेरिका की तरफ आकर्षित हुआ। फ्रांस , इटली तथा स्पेन ने अमेरिका के साथ अपने राजनीतिक संबंध स्थापित कर लिये। इस प्रकार संपूर्ण यूरोप महाद्वीप दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं में विभाजित हो गया। एक विचारधारा का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, जबकि दूसरी विचारधारा की बागडोर रूस के हाथों में थी। पूर्वी यूरोप के देशों पर रूस का प्रभाव स्थापित हो गया, पाकिस्तान, मिस्र, अरब, अफ्रीका आदि रूस की नीतियों से प्रभावित न हुए। इस प्रकार शक्ति का संतुलन रूस एवं अमेरिका के नियंत्रण में स्थित हो गया।
4. अंतर्राष्ट्रीय की भावना का विकास
द्वितीय विश्व युद्ध के विनाशकारी परिणामों ने विभिन्न देशों की आँखें खोल दी थी। वे इस बात का अनुभव करने लगे कि परस्पर सहयोग, विश्वास तथा मित्रता के बिना शांति व व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि समस्याओं का समाधान युद्ध के माध्यम से नहीं हो सकता। इसी प्रकार की भावनाओं का उदय प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात भी हुआ था तथा पारस्परिक सहयागे की भावना को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राष्ट्र-संघ की स्थापना की गयी थी। किंतु विभिन्न देशों के स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण यह संस्था असफल हो गयी और द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। किंतु द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद देशों ने पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता एवं महत्व का पुन: अनुभव किया, तथा उन्होनें अपनी समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने का निश्चय किया ताकि युद्ध का खतरा सदैव के लिए समाप्त हो सके तथा विश्व-स्तर पर शांति की स्थापना की जा सके।
5. सामाजिक आर्थिक प्रभाव
6. राजनीतिक परिणाम
- यूरोप का पतन
- यूरोप के राजनीतिक मानचित्र में परिवर्तन
- दो महाशक्तियों का उदय
- शीतयुद्ध का आरंभ
- उपनिवेशवाद का पतन व तृतीय विश्व का उद्भव
- गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उद्भव
- संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना
- प्रादेशिक संगठनों का विकास
- शक्ति संतुलन के स्थान पर आतंक संतुलन की स्थापना
